Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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गुरु की सेवा ने दिलाई मुक्ति
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“तू इस मल-मूत्र के पात्र से इतना मोह क्यों करता है?” स्वामी निरन्जनानन्द ने अपनी सुश्रूषा में लगे सेवाराम को प्यार भरी झिड़की दी- ‘शरीर को महत्व देना छोड़। यह तो आजकल में नष्ट होने वाला ही है। साधु तू किसलिए हुआ इस पर विचार कर। ’
‘गुरुदेव ! मैं अपने आप तो साधु हुआ नहीं। आपने ही मुझे ये गेरुए कपड़े दिए हैं। आप जानों कि क्यों दिये ये कपड़े आपने मुझे।’ सेवाराम गुरु से काफी मुहलगा हो गया था। कोई भी बात कहने में उसे संकोच नहीं होता। उसे तब बहुत बुरा लगता, जब गुरुदेव उसे अपनी सेवा से रोकना चाहते। इस समय भी वह झुँझलाए हुए स्वर में कह रहा था-आप के लिए आपका यह शरीर कैसा है। यह आप जानों। मैं आत्मा-परमात्मा तो कुछ समझता नहीं। मुझे मेरे नारकीय जीवन से आपने अपने इसी शरीर से उद्धार किया है। इसलिए मैं इसकी थोड़ी सेवा कर लूँ इतना ही मेरे लिए बहुत है।’
‘सेवाराम’ यह नाम भी उसका स्वामी निरन्जनानन्द ने ही रखा है। माता-पिता का रखा उसका नाम क्या है, पता नहीं। किन्तु लोगों में यह दारुणसिंह के नाम से प्रख्यात रहा है। इस कस्बे का सबसे भयंकर गुंडा था दारुणसिंह। जुए का अड्डा चलाता था वह। थाने के दरोगा सिपाही जैसे उसकी जेब में रहते हों। चोरी, मारपीट, शराब और दूसरे अनेक उपद्रव, क्या-क्या नहीं किया उसने। कस्बा ही नहीं आसपास के अनेक गाँव के लोग उसके नाम से काँपते थे।
प्रचण्ड शरीर, उद्धत स्वभाव दारुणसिंह रोगशय्या पर पड़ा। अनियन्त्रित भोग का परिणाम ही असाध्य रोग है। उसके पीछे लगे रहने वाले, उसकी हुँकार पर प्राण देने का दावा करने वाले, उसके अनुगामी पट्ठे आँख चुरा गये। उसके पास कोई पानी देने को फटकने वाला नहीं था। जब उसके देह में दुर्गन्ध भरे घाव फूट निकले।
स्वामी निरन्जनानन्द उन दिनों उसी कस्बे से थोड़ा दूर पास के ही जंगल में रहते थे। स्थानीय लोगों ने वहीं उनके लिए फूस की कुटिया बना दी थी। इधर कुछ सालों से उनका शरीर काफी वृद्ध हो गया था। जिसकी वजह से अब वह प्रव्रज्या-पर्यटन नहीं कर पाते। घूमते हुए कई साल पहले वह यहाँ आ गये थे। स्थानीय श्रद्धालुओं के आग्रह ने उन्हें रोक लिया। जड़ी-बूटियों का काफी कुछ ज्ञान होने के साथ दूसरों की सेवा उनके स्वभाव का अभिन्न अंग था।
उनके इसी स्वभाव ने उन्हें तब विचलित कर दिया, जब उन्होंने गाँव वालों से सुना कि गुंडा दारुणसिंह अपना कर्मफल भोग रहा है। स्वाभाविक था कि कस्बे के उत्पीड़ितजन दारुणसिंह की इस यन्त्रणा ने प्रसन्नता का अनुभव करते। वे स्थान-स्थान पर इसी प्रकार की चर्चा करते रहते थे।
यह चर्चा जब स्वामी निरंजनानन्द के कानों में पड़ी तो उनका सन्त हृदय द्रवित हो गया। वे उसी समय दारुणसिंह के समीप चल पड़े। स्वामीजी के संकोचवश लोगों ने उस दुर्गन्धित रोगी को किसी प्रकार स्वामीजी की कुटिया पर पहुँचा दिया। इसके बाद रात-दिन एक करके स्वामीजी ने जो सेवा-सुश्रूषा उसकी की, वह सेवा, वह तत्परता किसी स्नेहमयी, अत्यन्त स्नेहवत्सला माता में पुत्र के प्रति ही देखी जाती है।
दारुणसिंह स्वस्थ हो गया। धीरे-धीरे सबल भी हो गया, किन्तु फिर वह दारुणसिंह नहीं हुआ। स्वामी जी ने उसका नाम रख दिया। उसे गेरुए कपड़े दे दिये। वह कुटिया तथा वहाँ आस-पास की भूमि की स्वच्छता, साफ-सफाई में लग गया। अपने बचे हुए समय का उपयोग वह स्वामी जी की सेवा में करता। स्वामीजी के लिए जो भिक्षा आती, उसी में उसका भी निर्वाह हो जाता। रात-दिन में कठिनाई से तीन-चार घण्टे ही चटाई पर पीठ टेकता है। खड़े पैर निरन्तर सेवा-दूसरा कोई काम ना हो तो स्वामी जी के शरीर पर बैठने वाली मक्खियों को ही रुमाल लेकर उड़ाता रहेगा।
अपनी भावभरी गुरु सेवा के प्रभाव से उसके स्वभाव में भी पर्याप्त बदलाव आ गया। हर किसी से झगड़ा-मारपीट करने की जगह उसमें पर्याप्त विनम्रता आ गई थी। उसे पीड़ा तब होती, जब उसे लगता कि गुरुदेव अपने स्वास्थ्य का ध्यान न रखकर श्रद्धालुओं की संतुष्टि के लिए बहुत अधिक देर तक बैठे रहे हैं और बोलते रहे है। ऐसे में वह आगन्तुकों को बड़ी नम्रता से समझाता। यदा-कदा तो उसके आँसू झलक पड़ते।
स्वामी जी बहुत चाहत थे कि सेवाराम कुछ साधन-भजन करे। कम से कम सत्संग के समय शान्त बैठकर श्रवण तो करे, किन्तु सेवाराम का कहना था, यह सब उपदेश, ज्ञान-भक्ति की बातें मेरी समझ में आती नहीं हैं। इनमें माथा कूटने के बदले कुटिया की, आस-पास की घास छीलकर स्वच्छ कर लेना मुझे अधिक आवश्यक प्रतीत होता है।
लेकिन स्वामीजी अत्यन्त वृद्ध थे। उन्हें दिव्यदृष्टि प्राप्त थी। उन्होंने ठीक ही कहा था कि उनका वृद्ध शरीर आज नहीं तो कल जाने ही वाला है। सेवाराम को उनकी सेवा का अवसर केवल सात महीने ही मिल सका कि स्वामी जी का निर्वाण हो गया।
सेवाराम के लिए गुरु सेवा ही सब कुछ थी। स्वामी श्री निरन्जनानन्द के बिना उसे अपना जीवन भार लगने लगा। अपनी तड़प, बेचैनी, अकुलाहट को वह किससे कहता? शौक के अतिशय आवेग से उसके हृदय की धड़कन बन्द हो गई। वह जीवन भर का अपराधी-यमराज के दूत उसे संयमनी पकड़ ले गये। चित्रगुप्त ने उसके विगत सारे कर्मों का लेखा-जोखा करके उसके लिए अनेक नरकों का विधान किया। इतने पर भी उसके जीव को जब यमराज ने आसन से उठकर अभिवादन किया तो चित्रगुप्त चौंके। कहीं उनका विधान त्रुटिपूर्ण तो नहीं हैं?
उन्होंने जिज्ञासा की, भगवन्, इस मनुष्य का ऐसा कौन-सा पुण्यकर्म है, जिसके फलस्वरूप संयमनी के स्वामी अपनी प्रणति से उसे सम्मानित करते हैं।” चित्रगुप्त का प्रश्न उचित था।
“इन महानुभाव का कर्म विवरण दिखायेंगे आप।” धर्मराज ने प्रश्न का उत्तर देने के स्थान पर वह विवरण ले लिया अपने हाथ में। चित्रगुप्त को तब और आश्चर्य हुआ, अब आगत जीव के लिए नारकीय यन्त्रणा का जो विधान किया गया था उसे यमराज ने कुछ और बढ़ा दिया।
“ये पुण्यकर्म अन्य सेवकों तथा प्रशंसकों के विवरण में सम्मिलित होंगे।” धर्मराज ने चित्रगुप्त को चौंकाने वाला आदेश दिया। स्वामी निरन्जनानन्द तत्वज्ञ पुरुष थे। संचित उनका ज्ञान समकाल दग्ध हो चुका था। प्रारब्ध प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने भोगा था, किन्तु ज्ञानोदय काल में उनके शरीर से जो कर्म हुए थे उनमें से शुभकर्म उनके सेवकों-प्रशंसकों तथा अशुभ कर्म निन्दक-उत्पीड़कों को नियमानुसार प्राप्त होते थे। असंगकर्ता का स्पर्श तो ये कर्म कर नहीं सकते थे। स्वामीजी की सच्चे मन से सेवा की थी सेवाराम ने और अब यमराज कह रहे थे कि स्वामीजी के जो शुभकर्म विवरण में सम्मिलित किए गए हैं, उन्हें अन्य लोगों के विवरण में सम्मिलित किए गए हैं, उन्हें अन्य लोगों के विवरण में मिला दिया जाए।
चित्रगुप्त इस आज्ञा से अतिशय चकित हुए थे।
“ये महानुभाव यहाँ से ही निर्वाण प्राप्त करेंगे।” चित्रगुप्त को चकित-स्तब्ध खड़े देखकर धर्मराज ने कहा - “इसीलिए मैंने इन्हें खड़े होकर अभिवादन करके सदस्य किया है।”
‘ऋतं ज्ञानेन मुक्ति” श्रुति कहती है कि ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं होता और इस सेवाराम ने तो कभी श्रवण तक नहीं किया। चित्रगुप्त ने पूछ लिया-इनकी मुक्ति सम्भव है क्या?”
“असम्भव हो तो अपने लोक के यन्त्रणा भोग के पश्चात् आप इन्हें किस देह को देने की स्थिति में हैं?” यमराज ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही कर लिया।
चित्रगुप्त ने कर्म-विवरण सावधानी से देखना प्रारम्भ किया। जब कोई प्राणी नरकगामी हुआ है, तब नरक यातना के पश्चात उसे कौन सा पार्थिव देह प्राप्त होगा, यह निर्णय अभी ही हो जाना चाहिए था। यदि यमराज इस प्राणी को प्रणाम करके चौंका न देते तो अब तक उसके आगामी जन्मों का निश्चय अपने-आप हो चुका होता।
मनुष्य अपने जीवन में एक दिन, एक मुहूर्त्त में ऐसे अशुभ या शुभ कर्म कर सकता है कि उसका फल उसे लाखों-लाखों जन्मों में भोगना पड़े। पृथ्वी के सभी प्राणियों के शरीर अत्यन्त दुर्बल हैं। यहाँ एक छोटी सीमा तक ही सुख या दुःख भोगा जा सकता है। कोई जीभ को तृप्त करने के पीछे ही पड़ जायेगा तो कहाँ तक? ज्यादा से ज्यादा पेट भरने तक। अधिक दिन ऐसा करे तो रोगी हो जायेगा। भोजन ही छूट जायेगा उसका।
जब मनुष्य के अशुभ कर्म इतने अधिक होते हैं कि संसार की किसी देह में उसका फल भोगना सम्भव न हो तो वह नरक जाता है।नरक में उसे मिलती है यातना देह। लाख-लाख बार काटने, जलाने, पीसने पर भी वह देह न तो कटती, जलती है और नहीं पिसती है।केवल उस देह में आबद्ध जीव को कटने, जलने अथवा पिसने की दारुण यंत्रणा का अनुभव होता रहता है। इस प्रकार जब उसके कर्मभोग इस सीमा तक रह जाएँ कि पृथ्वी के पशु-पक्षी कीट-पतंग आदि के देहों में उसका फल भोगना सम्भव हो, तब भी पृथ्वी पर जन्म पाता है।
यही बात अत्यन्त शुभ कर्मों के सम्बन्ध में है। वे इतने अधिक हों कि उनका सुखभोग किसी पार्थिव देह में मिलना सम्भव न हो तो वह स्वर्ग जाता है। स्वर्ग में उसे ‘भोगदेह’ मिलती है। इस देह में न तो तृप्ति है और न ही रोग। यहाँ निरन्तर भोग का आनन्द मिलता रहेगा और जब भोग इतने थोड़े रह जाएँ कि पार्थिव देह में भी उन्हें भोग लेना सम्भव हो, तब पृथ्वी पर जन्म होता है।
यह सब तो है, किन्तु एक विशेष नियम मनुष्य के लिए हैं। मनुष्य मरते समय जो चिन्तन करता है, पृथ्वी पर उसे प्रथम जन्म उस चिन्तन के अनुसार देने के लिए कर्म नियन्ता विवश है। लोकगुरु पूर्णआवतार भगवान श्रीकृष्ण ने भी यही घोषणा की है-
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥
इसीलिए पितृलोक बना है। मान लीजिए कि एक व्यक्ति किसी का चिन्तन करते हुए मरता है। मृत्यु के उपरान्त वह अपने स्वर्ग या नरक के भोग प्राप्त करके उन्हें पूर्ण कर लेता है। तब उसे पृथ्वी पर उसके संसर्ग में जन्म लेना चाहिए, जिसका चिन्तन करते हुए वह मरा है। लेकिन जिसका चिन्तन करते हुए वह मरा है वह जीव अभी स्वर्ग या नरक में है। तब इस दूसरे जीव को पितृलोक में प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। एक प्रकार का प्रतीक्षालय है पितृलोक।
“यह जीव नरक आया है। अतः नरक के दुःख भोगकर इसे किसी अशुभ योनि में ही जाना चाहिए।” चित्रगुप्त ने कर्म विवरण देते हुए सहज भाव से कहा। नर्कभोग समाप्त करने पर भी जीव के पास अशुभ कर्म ही तो शेष रहेंगे। अतः धरती पर कीट-पतंग पशु-पक्षी तथा अन्य यन्त्रणा भोगते हुए प्राणी नरक से आये हुए जीव हैं, यह अनुमान सरल है। यहाँ यश, ऐश्वर्य तथा आनन्द-भोग तो स्वर्ग से आने वालों का भाग है। इसलिए चित्रगुप्त का चिन्तन ठीक दिशा में था।
“आप इन महानुभाव के अन्तिम चिन्तन पर ध्यान नहीं दे रहे हैं।” धर्मराज ने चित्रगुप्त को दिशा-संकेत दिया।
“ऐं।” चित्रगुप्त चौंके-इसने तो अपने गुरुदेव का चिन्तन करते हुए शरीर छोड़ा है और स्वामी निरन्जनानन्द जी तो निर्वाण प्राप्त कर चुके।”
“अब विधानतः हम बाध्य हैं कि हम इनको वह प्रदान करें, जो इनका अन्तिम चिन्तन था।” धर्मराज ने सूत्र सुना दिया।
“जो प्रकृति के क्षेत्र से परे पहुँच गए उन्हें या उनका सान्निध्य हम किसी को कैसे दे सकते हैं?” चित्रगुप्त ने मस्तक झुका लिया।
“जब अन्तिम चिन्तन के अनुसार जन्म हम नहीं दे सकते, विवश होकर हमें इन्हें मुक्त करना पड़ेगा।” धर्मराज ने बात स्पष्ट की जो अपने मुक्तात्मा सद्गुरु का चिन्तन करता, उनमें आसक्त प्राणी प्राण त्याग करता है, तो मोक्ष उसका अधिकार बन जाता है।
“किन्तु इन्हें ज्ञान तो ..।” चित्रगुप्त ने शंका की।
“ज्ञान तो श्रवण सापेक्ष है और मैं यहाँ इसीलिए नियुक्त हूँ कि कोई अधिकारी उपस्थित होने पर उपदेश करूँ । यमराज महाभागवत और ज्ञानी हैं, यह बात चित्रगुप्त से छिपी नहीं थी। अतः ज्ञानोपदेश यदि वे करना चाहेंगे तो सहज समर्थ हैं इसमें।
“यदि ये महानुभाव यहीं न आकर स्वर्ग अर्थात् अमरावती गए होते ?”
चित्रगुप्त के प्रश्न का मतलब था कि यदि सेवाराम अपने जीवन में शुभकर्मा होते और इसी प्रकार स्वामी निरन्जनानन्द का चिन्तन करते देह त्याग करते तो यमलोक तो आते नहीं। शुभकर्म का फल भोगने स्वर्ग जाते। स्वर्ग सुख भोगने के पश्चात् उनका क्या होता?
“जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप नरक, स्वर्ग अथवा ब्रह्मलोक तक जाता है। ऊपर के अन्य लोकों में अथवा नीचे रसातल, पाताल आदि में भी जा सकता है।” धर्मराज का स्वर गम्भीर हो गया-इन लोकों में मैं, देवराज इन्द्र, भगवान ब्रह्मा, ऋषिगण अथवा ऊर्ध्व लोकों में भक्तश्रेष्ठ प्रह्लाद, दानवेन्द्र मय, भगवान शेष प्रभृति कारक, पुरुष इसलिए तो हैं कि यदि कोई किंचित् कर्मशेष अथवा तत्त्ववेत्ता गुरु में आसक्त प्राणी वहाँ आ जाए तो उसे वहाँ तत्वोपदेश प्राप्त हो सके। उसे संसार में भेजना विधान के विपरीत है।”
गुरुदेव और अन्तिम काल में सद्गुरु चिन्तन की इस महिमा पर चित्रगुप्त ने सिर झुका लिया। वह गहन चिन्तन में निमग्न हो गए।