Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रज्ञावतार का कथामृत वय
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भगवत्कथामृत की महिमा एवं महत्व को सभी ने एक स्वर से स्वीकार किया है। पौराणिक आख्यान के अनुसार वेदज्ञानी महर्षि व्यास के चारों वेदों के संकलन-सम्पादन तथा गहन अनुशीलन के बावजूद जब आत्मिक शान्ति एवं आत्मविकास के चरम-बिन्दु की प्राप्ति नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी व्यथा देवर्षि नारद को कह सुनायी। जीवन विद्या के मर्मज्ञ नारद ने उनका समाधान करते हुए कहा-जीवन संवेदना का पर्याय है। संवेदना के अंकुरण, प्रस्फुटन एवं अभिवर्द्धन के अनुरूप ही इसका विकास होता है। संवेदनहीन एवं मृतक में कोई अन्तर नहीं। दोनों ही अपना बाह्य कितना ही क्यों न बढ़ालें, लेकिन ये जहाँ भी रहते हैं, दुष्प्रवृत्तियों की निष्करुण दुर्गन्ध ही फैलाते हैं।
इस दुर्गन्ध को सुगन्ध में बदलने, दुष्प्रवृत्तियों को सत्प्रवृत्तियों का रूप देने तथा मरे हुओं में जीवन का संचार करने वाली निर्मल संवेदना का स्रोत भगवत्कथा ऐसी पारसमणि है, जिसकी छुअन मात्र से वासना, साधना में कुतर्कों के समूह-सजल श्रद्धा में एवं संशयाकुल चित्तवृत्तियाँ अटल-अडिग विश्वास में अपने-आप बदल जाते हैं। भगवत्कथा का अमृत-सिंचन तड़पते-कलपते छटपटाते जीवन को मधुर शान्ति एवं अपरिमित आनन्द से लबालब भर देता है।”
देवर्षि के द्वारा दिए गए इस समाधान को आत्मसात् करके महर्षि व्यास ने श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना की। युगावतार के जीवन-प्रसंगों घटनाक्रमों को अपने भावसूत्रों में पिरोया। परमज्ञान के विवेचन, विश्लेषण में निमग्न रहने वाले, वेदान्त दर्शन के रचनाकार महर्षि व्यास को पहली बार भक्ति का अद्भुत आनन्द मिला। उन्होंने अपनी अनुभूति, अपने निष्कर्ष का रसविभोर होकर गान किया-
तव कथामृत तप्त जीवनं कविमिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणं मंगलम् श्रीमदातम्
भुवि मृणन्ति ये भूरिदाः जनाः॥
हे देवेश्वर ! आपका कथामृत साँसारिक ताप से जल रहे जीवों को शीतलता भरी शान्ति देने वाला, सारे पापों का नाश करने वाला है। इसके सुनने से सब ओर मंगल ही मंगल है। क्योंकि भक्तिपूर्ण हृदय से जो भगवान के लीला प्रसंगों को सुनता है, उसमें न तो पाप रहते हैं और न ही पाप करने की प्रवृत्ति। निश्चित धन्य हैं वे जो प्रेम विभोर हो इसे कहते और सुनते हैं। भगवत् कथामृत की इस महिमा को भक्तजन ही नहीं अब मनीषी एवं मनोवैज्ञानिक भी मानने लगे हैं।
जी विथ सोल’ ग्रन्थ की रचनाकार जीन हार्डी का कहना है, आपराधिक एवं पापकृत्यों के प्रेरक तत्व मनुष्य के विचार एवं संस्कार ही नहीं सत्साहित्य पढ़ने, स्वाध्याय करने से विचारों में परिवर्तन तो हो जाता है। परन्तु संस्कार बड़े ही हठीले होते हैं। उनमें सहज ढंग से परिवर्तन सम्भव नहीं। लेकिन जब हम महापुरुषों के उदात्त जीवन एवं भाव भरे घटना-प्रसंगों को पढ़ते सुनते हैं, तो अपने हठीले संस्कार सहज ही गलने लगते हैं और महापुरुषों के जीवन के अनुरूप ढलने को आतुर हो जाते हैं।
सम्भवतः इसे ही गीताकार ने बुद्धियोग की संज्ञा दी है। प्रभु श्री कृष्ण अपने भक्तों के स्वभाव एवं अपने वरदान की चर्चा करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं-
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च माँ नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
तेषाँ सततयुक्तानाँ भजताँ प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
अर्थात्- निरन्तर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों का अर्पण करने वाले भक्तजन परस्पर मेरी ही लीला कथाओं की चर्चा करते हैं। इस चर्चा से ही वे तुष्ट होते हैं और इसी में ही वे रमण करते हैं। ऐसे अनन्य भक्तों को ही मैं बुद्धियोग देता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझे ही पाते हैं।
भगवत्कथा के रूप अनेक हैं और गति अव्याहत। विश्व के विभिन्न समुदायों में इसके रूप भले ही भिन्न-भिन्न मिलें, पर इसकी उपस्थिति सर्वत्र समान है। अवतारों पैगम्बरों की लीला-कथाएँ कहीं और किसी भी रूप में क्यों न कही सुनी जाएँ मानव को आत्मिक आनन्द में विभोर करती रहती हैं। इनका हर रूप सुहाना है और हर रंग मनोरम है। हाँ, ये इतने अधिक हैं कि इन्हें ठीक से गिना नहीं जा सकता, तभी तो गोस्वामी जी महाराज को कहना पड़ा- ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता'।
प्रभु अपने अनन्त रूपों में किसी एक का युगानुरूप प्राकट्य करते हैं। इन्हीं की चर्चा पुराणों में दस अवतार के रूप में कही गयी है। हाँ, उनके हर अवतार का उद्देश्य एक ही रहता है, युग का परिवर्तन। युग-परिवर्तन का यही उद्देश्य लेकर ‘सम्भवामि युगे-युगे के अपने शाश्वत संकल्प को पूरा करने के लिए ईश्वरीय चेतना ‘श्रीराम शर्मा आचार्य जी’ के रूप में अवतरित हुई।
हम सबके परम पूज्य गुरुदेव-शाश्वत के प्रतिनिधि बनकर हम सबके बीच आये थे। उनकी कथा-उनके लीला-प्रसंगों की चर्चा हममें से हर एक को अतिशय प्रिय है। उनका स्मरण मात्र हमारे भाव एवं विचारों को श्रद्धा एवं विश्वास के निर्मल सरोवर में डुबा देता है। यूँ यह चर्चा स्वयं पूज्यवर की लेखनी से ‘सूनसान के सहचर’ एवं ‘हमारी वसीयत एवं विरासत के पृष्ठों में मुखरित हुई हैं। अखण्ड ज्योति के वर्ष 90 के स्मृति अंक एवं बाद के वर्षों में विशेष लेखमाला के रूप में यही लेख स्मरण किया जाता रहा है। उनकी लीला सहचरी वन्दनीया माताजी की पुण्य कथा भी उनके महाप्रयाण के पश्चात्-अखण्ड ज्योति के ही मातृ-स्मृति अंक के रूप में प्रकाशित हुई थी। इसी बीच गायत्री तपोभूमि मथुरा से ‘प्रज्ञावतार हमारे गुरुदेव’ का प्रकाशन हुआ, जिसमें हमारे आराध्य के जीवन के अनेकों अनगिनत पहलू उजागर हुए।
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