Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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गुरुसत्ता के पाँच सूक्ष्मशरीर - वीरभद्र जो हम सबकी रक्षा में जुटे हुए हैं
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“तुम्हें एक से पाँच बनना है। पाँच पाण्डवों की तरह पाँच तरह से काम करने हैं। इसलिए इसी शरीर को पाँच बनाना है। एक पेड़ पर पाँच पक्षी रह सकते हैं। तुम अपने को पाँच शरीरों में विभाजित कर लो। इसे ‘सूक्ष्मीकरण’ कहते हैं। पाँच शरीर सूक्ष्म रहेंगे, क्योंकि व्यापक क्षेत्र को संभालना सूक्ष्मसत्ता से ही बन पड़ता है। जब तक वे पाँचों परिपक्व होकर अपने स्वतन्त्र काम न सँभाल सकें, तब तक इसी शरीर से उनका परिपोषण करते रहो। इसमें एक वर्ष भी लग सकता है एवं अधिक समय भी। जब वे समर्थ हो जाएँ तो उन्हें अपना कार्य करने हेतु मुक्त कर देना। समय आने पर तुम्हारे दृश्यमान स्थूलशरीर की छुट्टी हो जाएगी।”
(अप्रैल 1985 अखण्ड-ज्योति यह निर्देश चौथी हिमालय यात्रा जो सूक्ष्मशरीर से सम्पन्न हुई थी, में पूज्यवर को अपनी गुरुसत्ता से प्राप्त हुआ। क्या करना है, कैसे करना है, यह सब हिमालयवासी गुरुसत्ता ने उन्हें अपनी परावाणी से समझा दिया। पाँचों शरीर को जो पाँच काम करने थे वे इस प्रकार थे- (1) वायुमण्डल का संशोधन, (2) वातावरण का परिष्कार, (3) नवयुग का नवनिर्माण, (4) महाविनाश का निरस्त्रीकरण-समापन तथा (5) देवमानवों का उत्पादन-अभिवर्द्धन
पिछले लेख जिसमें हमने परमपूज्य गुरुदेव के पाँच शरीरों से किए गए कार्य, पाँच शरीरों से किए गए कार्य, पाँच स्थूलशरीर, पाँच स्थापनाएँ इन प्रसंगों पर चर्चा कर रहे थे, पाँच सूक्ष्म शरीरों की भी चर्चा आपसे की थी। उपरोक्त पाँच कार्य इन पाँच शरीरों के माध्यम से ही सम्पन्न हुए। संक्षेप में 1984 में प्रारम्भ हुई यह सावित्री साधना पूज्यवर के उस ‘आकाल्ट’ स्वरूप को दर्शाती है, जिसमें वे विराट से विराटतम होते चले जा रहे थे।
पूज्य गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण के इस गुह्यविज्ञान को और स्पष्ट करते हुए अपनी उस अवधि में प्रकाशित अखण्ड-ज्योति के मार्गदर्शन में लिखा है कि “इस प्रक्रिया में अपनी प्राणऊर्जा को इतना प्रचण्ड किया जाता है कि उससे अपने ही अन्तराल में सन्निहित पाँच कोष इतने गरम हो सकें कि एक स्वतंत्र इकाई के रूप में उनकी सत्ता विनिर्मित हो सके।” वस्तुतः इस साधना के बाद ही मिशन के विराट पंचकोशी शरीर में वह मोड़ आया कि वह भी विराट रूप लेता चला गया। न जाने कितने व्यक्तियों को अपनी ध्यान साधना में, स्वप्नों में, रोजमर्रा के जीवन में ऐसा मार्गदर्शन अनुभूतियों के रूप में मिलता चला गया कि जिसका विवरण संकलित करने पर एक विशाल ग्रन्थ का निर्माण किया जा सकता है। विश्व के कुण्डलिनी जागरण (जिसका विवरण बाद में जनवरी 1987 की अखण्ड ज्योति में प्रकाशित हुआ) तथा पाँच वीरभद्रों के उत्पादन के रूप में तीन वर्षीय सावित्री की साधना जो 1984 से 1987 तक चली, की अंतिम परिणति हुई। उनकी यह सावित्री साधना जो 1984 से 1987 तक चली, की अंतिम परिणति हुई। उनकी यह सावित्री साधना आत्मिक चेतना और सविता चेतना के बीच तारतम्य स्थापित करने का मूलभूत आधार बनी, रामनवमी 1984 से आरम्भ हुई एवं 1987 में राष्ट्रव्यापी 108 कुण्डीय यज्ञों के साथ राष्ट्रीय एकता सम्मेलन तथा फिर विराट दीपयज्ञ योजनों का सम्पन्न करने के रूप में समष्टि में ‘इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य के गगनभेदी उद्घोषों के रूप में चलती रही। यह ध्यान देने योग्य है कि दीपयज्ञों के माध्यम से विचारक्रान्ति अभियान को आगे बढ़ाते चलना-संस्कार सम्पन्न होते चलना एवं इन्हीं के द्वारा 1989 में प्रारम्भ बारह वर्षीय युगसन्धि महापुरश्चरण की प्रथम व द्वितीय पूर्णाहुतियाँ सम्पन्न होना यह पूज्यवर की अंतिम महत्वपूर्ण घोषणाएँ थीं।
मोटी बुद्धि सूक्ष्मीकरण को या पाँच सूक्ष्मशरीरों-वीरभद्रों को समझ नहीं पाती। कोई पूज्यवर के आस-पास कार्य करने वाले पाँच वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं को इनका वीरभद्र समझने लगे तो कोई उनकी व्याख्या अपनी-अपनी बुद्धि के अनुरूप भिन्न-भिन्न ढंग से करने लगे। वस्तुतः ये शक्ति के पुँज थे, जिनको मोटे रूप में पाँच दायित्व, उपरोक्त पाँच कार्य जो लेख के प्रारम्भ में बताए गए के साथ-साथ सम्पन्न करना था। पहला-लोगों की उल्टी बुद्धि को उलट कर सीधा करना विचार संशोधन करना, दूसरा-नवनिर्माण के लिए प्रचुर साधन किसी भी कीमत पर जुटाने के लिए समर्थ बनना, तीसरा-दुरात्माओं के लिए भय का वातावरण उत्पन्न कर उनका मनोबल पस्त करना, चौथा प्रस्तुत भावी परिजनों को जिन्हें प्रज्ञा परिवार में जुड़ना था, अधिकाधिक सामर्थ्य व सुरक्षा प्रदान करने के निमित्त विकसित होना, पाँचवाँ-उपरोक्त चारों के लिए अपने असाधारण कार्य के लिए उपयुक्त तप रूपी खुराक जुटाना। इस वीरभद्र को विशुद्धतः तपश्चर्या में निरत रहना था।
जो मिशन की प्रगति का अद्यावधि तो नहीं 1980 से अब तक का इतिहास जानते हैं, इन्हें मालूम है कि इस अवधि में वह कार्य सम्पन्न हुआ जो सम्भवतः पिछली एक सहस्राब्दी में पूरी विश्ववसुधा पर सम्पन्न नहीं हुआ। यह अवधि मिशन की ही नहीं, सारे विश्व की स्वर्ण युग वाली अवधि कही जा सकती है, जिसमें सभी ने साम्यवाद का अंत देखा, पूँजीवाद की विभीषिका भिन्न-भिन्न रूपों में उभरी मानव की तृष्णा के रूप में देखी व आगामी तीन वर्षों में उसके समापन के रूप में देखेंगे। धर्मतंत्र का प्रगतिशील विज्ञानसम्मत स्वरूप कैसे लोगों के विचारों में परिवर्तन लाकर उन्हें सन्मार्ग पर चलने के लिए बलात् प्रेरित कर सकता है, दुष्टता के पथ पर चलने वाले कैसे भयभीत होते देखे जा रहे हैं, यह सारा पराक्रम यदि पाँच सूक्ष्मशरीरों का माना जाए तो इसे अतिशयोक्ति नहीं माना जाना चाहिए।
सूक्ष्मीकरण साधना-जब परमपूज्य गुरुदेव पाँच शरीरों के रूप में सूक्ष्मजगत में सक्रिय हो रहे थे की अवधि में दो तरह के प्रभाव देखे जा सकते हैं-एक समष्टिगत, दूसरा परिजनों की अनुभूतियों के रूप में, जिसे हम सूक्ष्मतम रूप में के स्तर पर मान लें। यहाँ उनका ही थोड़ा विस्तृत विवेचन करेंगे। यह विवेचन 1984 से 1997 की अंत तक की तेरह वर्षीय अवधि के एक समीक्षात्मक अध्ययन रूप में, विवरण रूप में प्रस्तुत किया जा रहा हैं।
(1) समष्टिगत प्रभाव
सभी जानते हैं कि 1984 से अब तक की अवधि बड़ी उथल-पुथल भरि रही है। सभी ने देखा कि दो महाशक्तियों की धुरी में बँटा यह विश्व देखते-देखते सोवियत रूस के विघटन, पूर्वी यूरोप में उन्मुक्त जीवन जीने की अदम्य इच्छा, बर्लिन की दीवार के टूटने व साम्यवाद के समापन के रूप में बदल गया। हथियारों की बिक्री की आड़ में अपनी अर्थव्यवस्था चलाने वाले राष्ट्रों के लिए यह एक सदमे के समान था। अमेरिका अकेला भी पूँजीवाद की अपनी मान्यता को लेकर कब तक चल सकता है। 28 करोड़ की आबादी वाला यह राश्ट्र अब एक चौथाई से भी अधिक गरीब जनशक्ति से भरा राश्ट्र है, जहाँ रोजगार न के बराबर हैं। ‘द फ्यूचर ऑफ कैपिटलिज्म’ नामक एक पुस्तक पिछले दिनों प्रकाशित हुई है। ‘जीरो सम सोसायटी’ (1980) के लेखक लेस्टर थूरो ने इसे लिख है। 1996 में प्रकाशित इस पुस्तक में ‘अर्थव्यवस्था व प्रबन्धन’ विधा में एम॰ आय॰ टी0 हार्वर्ड (बोस्टन) के प्रोफेसर थूरो ने बड़े विस्तार से लिखा है कि कैसे आने वाले दिनों में पूँजीवाद का समापन होगा। वे ‘ग्लोबल इकॉनामी’ के पक्षधर हैं व लिखते हैं कि अगले दिनों विश्व स्तर पर पूँजी का सबके लिए समान रूप से वितरण होगा एवं सभी सीमित साधनों में रहकर सबके साथ हँसती-हँसाती जिन्दगी जीने का पाठ प्रकृति के विधान के अंतर्गत सीखेंगे। यह सभी 1999 के आगमन तक हो जाएगा व 2000 के बाद पूरे विकसित रूप में सभी को दिखाई देने लगेगा।
साम्प्रदायिक, जातिगत एवं नस्लवादी हिंसा आज चरमोत्कर्ष पर है, किन्तु इसका शीघ्र समापन होकर एक ही स्वरूप मानवजाति का सबके समक्ष आएगा, यह भविष्यवाणी यदि आगामी ढाई वर्षों में साकार होती नजर आए तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। इन दिनों प्रकृति में सूक्ष्म स्तर पर एवं प्रत्यक्षतः भी ऐसा ही कुछ चल रहा है जो यह बताता है कि आने वाला समय विलक्षण परिवर्तनों से भरा है। 1986 से 1991 तक जितना कुछ हुआ इससे कहीं अधिक पिछले पाँच वर्षों में हुआ है। ग्लोबल नेटवर्क-विश्वव्यापी संचार-तंत्र का विकसित होकर आना एवं साँस्कृतिक स्तर पर सारे विश्व की चैतन्य सत्ताओं का एक विशाल छतरी के नीचे आ जाना आने वाले परिवर्तनों का द्योतक है। अब आगामी पाँच वर्ष व उनमें भी प्रथम ढाई वर्ष भारी उथल-पुथल से भरे हैं, यह सभी द्रष्टाओं, भविष्यवक्ताओं का मानना है। यह कार्य यदि पाँच वीरभद्र कर रहे हैं तो सभी को सुखद लगना चाहिए, क्योंकि उनकी सुरक्षा स्वतः उस महाचेतना से जुड़ने के बाद सुनिश्चित हो जाती हैं चौथा वीरभद्र उनकी सुरक्षा के निमित्त नियोजित जो है। बस अपने साधना-पुरुषार्थ में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।
(2) व्यष्टिगत प्रभाव
सभी ने विगत 12-12 वर्षों में अनुभव किया है कि अनेकानेक प्रतिकूलताएँ समक्ष होते हुए भी परमपूज्य गुरुदेव की सावित्री साधना की फलश्रुति के रूप में उन्हें सदैव सही मार्गदर्शन मिलता रहा है। उन्हें अनपेक्षित सहयोग भी मिला है एवं आत्मबल संवर्द्धन के रूप में ऐसी पूँजी मिली है जिसने मानो एक सुरक्षा कवच चारों ओर प्रदान कर दिया हो। बहुत से प्राणवान परिजन पूज्यवर की सूक्ष्मीकरण अवधि में ही उनके सूक्ष्मशरीर से प्रेरणा पाकर उनके दर्शन कर सतत् यही कहती रही कि युगधर्म की पुकार अनसुनी नहीं करनी है। अब शेष समय यदि भगवान के कार्य में लगाना है तो अभी ही छलाँग लगानी होगी। बहुत से परिजन इन्हीं दिनों शाँतिकुँज से बाहर गए भी-व्यक्तिगत कारणों से अथवा युग-चेतना के प्रवाह से तालमेल न बिठा पाने के कारण। किन्तु कार्य रुका नहीं। जितने गए उससे तीन गुना अधिक स्थायी कार्यकर्ता सुशिक्षित-प्राणवान एवं समर्पित आकर बस गए। नियमित रूप से समय देने वालों की संख्या इस बीच संस्कार महोत्सवों श्रद्धांजलि समारोह एवं प्रथम पूर्णाहुति में उमड़ी समर्पित जनमेदिनी के रूप में देखा जा सकता है।
व्यक्तिगत स्तर पर कइयों को अनुभूतियाँ सावित्री साधना के दौरान हुईं जिन्हें 1984-85 की अखण्ड-ज्योति के विभिन्न अंकों में प्रकाशित किया गया था। यहाँ कुछ संस्मरण उस समय उस के बाद की अवधि के हम दे रहे हैं, जो मात्र एक झलक देते हैं प्रज्ञावतार की उस दिव्यसत्ता की, जो सतत् हम सभी परिजनों के आस-पास है हमारे योगक्षेमं का वहन करने को तत्पर है।
श्री श्यामलाल धरणी मॉडलटाऊन पानीपत में रहते हैं। 1983 में जब पंजाब में उग्रवाद अपनी चरमावस्था में था, वे सपत्नीक अमृतसर रहा करते थे। उन्हीं दिनों 10 से 20 जून के सत्र में वे शाँतिकुँज आए थे, तब पूज्यवर ने पति-पत्नी को अंशदान नियमित भेजने-झोला पुस्तकालय चलाते रहने का संकल्प दिलाकर कलावा बाँधा था और कहा था कि तुम हमारा कार्य करते रहना, हम तुम्हारा काम करेंगे। तुम्हारी सतत् रक्षा हम करते रहेंगे जिन दिनों चारों ओर गालियाँ चलती थीं, कोई संयोगवश बाहर नहीं निकलता-दोनों पति-पत्नी ने कर्फ्यू खुलने की अवधि के दौरान साहित्य बाँटते रहने का संकल्प मन में लिया व सतत् निकलते रहने का क्रम बना लिया। कर्फ्यू की अवधि समाप्त होते ही वे वापस घर आ जाते। एक दिन की बात है- श्यामलालजी की पत्नी कमला को पता नहीं था कि पुनः गोलियाँ चलने से बाहर सब कुछ निर्जन है एवं वे किसी मुसीबत में पड़ सकती हैं। मिलिटरी के सैनिकों ने रोक लिया व कहा-झोला खोलकर दिखाओ। बिना जरा भी गड़बड़ के कर्फ्यू खुले तब आकर ले जाना। हमें पढ़ना है। हमारे एक साथी को आपने परसों दी थी, उसको तो जैसे जीवन जीने का नया रास्ता मिल गया है। मिलिटरी वालों ने अपनी गाड़ी में उन्हें घर तक छोड़ दिया व बार-बार प्रणाम किया। इतना होता तो कम ही माना जाता। एक दिन उग्रवादियों के दल ने उन्हें घेर लिया। फिर झोला पुस्तकालय से पुस्तकें निकलीं। उग्रवादी-जाने किस प्रेरणावश उन्हें अपनी संगीनों के साये में लेकर सुरक्षित घर छोड़ कर चले गए। मानो पूज्यवर की वाणी के रूप में एक सुरक्षा कवच झोला पुस्तकालय के रूप में उनके साथ चल रहा था। वे उनका काम कर रहे थे, जिन्हें उनने गुरु माना था व गुरु उनका काम कर रहे थे। वे उनका काम कर रहे थे। उस पर यह कि परमवन्दनीया माताजी का पत्र उपरोक्त घटना के ठीक चार दिन बाद इन्हें मिला कि “बच्चों तुम उतना ही काम करो जितना आसानी से कर सकते हो? अपनी जान जोखिम में डालकर हमारा ध्यान-अपनी तरफ मत खींचो। हमको और भी बड़े-बड़े काम करने हैं।” 84-85 का यह घटनाक्रम अभी भी दोनों की आँखों के समक्ष घूम जाता है एवं गुरुसत्ता की वाणी याद आ जाती है। उन्हीं दम्पत्ति ने कुरुक्षेत्र अश्वमेध के लिए तमाम प्रतिकूलताओं के बीच घर-घर जाकर धनराशि एकत्र की व सतत् उन्हें मातृसत्ता का मार्गदर्शन मिलता रहा।
नजीबाबाद की कु॰ कुमुद सिंह बुलन्दशहर अश्वमेध यज्ञ हेतु तैयारी कर रही थीं। उनकी दादीजी जो कि स्वयं गायत्री की उपासक हैं, घर में सफाई कर रही थीं कि उन्हें एक सर्प ने काट लिया। माँ के अभाव में कुमुद को दादी ने ही पाला था। पाँच फुट लम्बे जहरीले साँप को मरा देख सभी ने कहा कि अब कुछ ही क्षण इनके जीवन के बाकी हैं? गायत्री मंत्र जप रही कुमुद को वन्दनीया माताजी के दर्शन हुए कि जो गायत्री मंत्र से व हम से जुड़ा है, उस घर कभी सर्पदंश से मृत्यु नहीं हो सकती। सतत् मुँह से मंत्र निकलता रहा। बिना किसी चिकित्सा के उनकी दादीजी बच गयीं। उनने बुलन्दशहर अश्वमेध यज्ञ में भाग लिया। एक दूसरी घटना में कुमुद लिखती हैं कि उनके पिता ने बुलन्दशहर अश्वमेध से पूर्व कहा कि जितने लोगों के लिए बस में जगह है वह भर चुकी है। नये लोग भाग लें-अच्छा है। तुम घर पर ही रहो। माँ के चित्र के समक्ष बैठी कुमुद रोती रही। यज्ञ से ठीक एक दिन पूर्व अप्रत्याशित रूप से एक सज्जन आए-बोले तुम्हारे पिता हमारे यहाँ होते हुए गए थे। कह गए थे कि इसका मन था, उस लेते आना। भले ही पूर्णाहुति में भाग ले ले पर कुमुद का मन रह जाएगा। एक गाड़ी लगी खड़ी थी एवं कुमुद यज्ञ में पहुँच गयी। दीपयज्ञ में भी भाग लिया एवं पूर्णाहुति में भी। दोनों दिन सतत् दोनों ही सत्ताओं की अनुभूति होती रही कि वे सामने ही हैं, मंच पर विराजमान हैं। पिता से पूछने पर वे अवाक् रह गए। क्योंकि उनने तो किसी से भी नहीं कहा था।
ओनीडा टेलीविजन कारखाने की सीनियर इंजीनियर श्रीमती रश्मि सिन्हा ने 19-06-91 को शाँतिकुँज आकर स्वयं एक घटना सुनाई, जिससे पता चलता है कि भक्तवत्सल गुरुसत्ता कितना ध्यान अपने शिष्यों का रखती है। सिरदर्द होने पर उनकी जाँच-पड़ताल जब दो वर्ष पूर्व की गयी तो एम॰ आर॰ आय॰ की जाँच से ब्रेन ट्यूमर होना बताया गया। अपने श्वसुर के माध्यम से अमेरिका चिकित्सा हेतु जाने से पूर्व वे शाँतिकुँज पहली बार आयीं। माँ का आश्वासन मिला कि सब कुछ ठीक होगा ।डॉ॰ कुमार जिन्होंने परामर्श दिया था, अमेरिका ले जाने का, अब परीक्षण करने पर कुछ गोलियाँ देकर बोले कि अभी ले लें-वे दो-तीन सप्ताह में अमेरिका से लौटकर फिर चेकअप करेंगे। जैसे ही डॉ॰ कुमार, लौटे, उनने पुनः चेक किया। परिजनों के आग्रह पर पुनः एम॰ आर॰ आय॰ टेस्ट किया, जिसकी आवश्यकता सामान्यतः 3 सप्ताह से कम अवधि में ग्रोथ में 50 प्रतिशत से अधिक कमी देखकर चिकित्सक हतप्रभ थे। धीरे-धीरे वे इस व्याधि से जिसे हम असाध्य मानते हैं, पूर्णतः ठीक हो गयीं। डाइग्नोसिस होने से लेकर शाँतिकुँज आकर घटना बताने की अवधि मात्र दो वर्ष, दवा मात्र यज्ञ की भस्म व सुरक्षा का आश्वासन एवं परिणाम एक घातक ब्रेन ट्यूमर से बिना सर्जरी के मुक्ति पा जाना। अब वे एक कर्मठ कार्यकर्ता के रूप में कार्यक्षेत्र में लगी हुई है।
कुण्डरु सीकर-राजस्थान के श्री नागरमल गुप्ता को 1983 में लेरिन्क्स (गले का वाइस बाक्स) का कैंसर बता दिया गया। तीन वर्ष तक चिकित्सा चलती रही किन्तु कोई लाभ नहीं। परमवन्दनीया माताजी के दर्शन, आश्वासन, आशीर्वाद एवं दूर से परमपूज्य गुरुदेव के दर्शन के बाद सारी दवाएँ बन्द कर गायत्री मंत्र का जप आरम्भ कर दिया। कैंसर समाप्त हो गया। आवाज पुनः लौट आयी। लगता असम्भव है किन्तु कोई शक्ति ऐसी है जो परोक्षजगत से कार्य कर अपनों की रक्षा करती है। इन्हीं सज्जन को लोकसेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षा में बैठने का आशीर्वाद गुरुसत्ता से मिला। उनसे भी योग्य उम्मीदवार थे किन्तु सफलता मात्र इन्हीं को मिली। वे आज तक कृतकृत्य हैं। 1985 से जुड़े श्रीगुप्ताजी दवाओं के कार्य में कभी कमी न कर सतत् लगे ही रहे, परिणाम रो-मुक्ति भौतिक उपलब्धियों व आत्मिक संतोष के रूप में मिला। गायत्री के सिद्ध पुरुष का आश्वासन कभी मिथ्या थोड़े ही हो सकता है।
ब्रह्मवर्चस् में कार्यरत डॉ॰ अमल कुमार दत्ता के बड़े पुत्र अरविन्द व उनकी पत्नी ममता न्यूजर्सी में रहते हैं। बहुत स्नेह पूज्यवर व माताजी का बाल्यकाल से ही पाया है। उन्हीं के आशीर्वाद से विदेश जाने का अवसर मिला। शाँतिकुँज से इन पंक्तियों के लेखक के नेतृत्व में गयी टोली को विमान तल से छोड़कर लौट रहे थे कि न जाने कैसे कार का संतुलन बिगड़ गया एवं 6 लेन वाले मार्ग पर एक ही नहीं छह पलटियाँ खाकर गाड़ी कोने में जा गिरी। लगभग चकनाचूर हो गयी गाड़ी से बाहर निकले अरविन्द व ममता को खरोंच तक नहीं आयी थी। तुरन्त पहुँची एंबुलेंस की टीम भी विस्मित थी कि वह क्या करे व इस घटना को कैसे सत्य मान ले। नाममात्र की पट्टी करके उनके घर छोड़कर वे चले गए। अगले दिन इंष्योरेंस कम्पनी ने आकर सारी कार्यवाही कर दी। कोई आरोप न लगकर कार की खराबी को कारण मानकर सारी राशि भी मिल गयी। आश्चर्य यह कि अगले ही दिन परमवन्दनीया माताजी ने फोन से हाल−चाल पूछ लिए, जबकि यह घटना अमेरिका के अपने परिजनों को भी ज्ञात नहीं थी।
परमपूज्य गुरुदेव के पाँच सूक्ष्मशरीर की चर्चा के साथ समष्टिगत एवं व्यष्टिगत कुछ चर्चाएँ ऊपर कीं। घटनाएँ अत्यधिक हैं, अनन्त है। आने वाले तीन वर्षों में पाठकगण देखेंगे कि विश्व का नक्शा किस तेजी से आमूलचूल बदल रहा है-सौर-कलंकों बढ़ते चले जा रहे है। रक्तरंजित घटनाक्रम भी बढ़ रहे है, किन्तु वे सभी सुरक्षित रहेंगे जो महाकाल की चेतना के प्रवाह से जुड़े रहेंगे। हम सभी सौभाग्यशाली हैं कि ऐसी गुरुसत्ता हमें मिली, हम उसके संरक्षण में रह रहे है एवं उसे सुदूर विराट रूप में बैठे हुए भी हम सबकी सारी विश्ववसुधा के कल्याण की चिन्ता है।