Magazine - Year 1998 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
यज्ञ विधा का वनौषधि विज्ञान
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
ऋग्वेद में कहा गया है, वात आवातु भेषजम् अर्थात् जब भेषजयुक्त औषधयुक्त वायु चारों ओर अच्छी प्रकार बहती है, तो वह सर्वश्रेष्ठ भेषजवात अर्थात् रोगों को नष्ट करने वाली वायु बन जाती है। अथर्ववेद में स्पष्ट किया गया है कि यज्ञादि में दी जने वाली आहुतियों में टी.बी. आदि रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है।
मु´्चामि त्वा हविषा जीवनाय
कमज्ञातयक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्।
अथर्ववेद 3-11-1
वेद, विज्ञानाचार्य पं. वीरसेन वेदत्रयी ने अपने निबन्ध विश्व-स्वास्थ्य के लिए यज्ञ की उपयोगिता’ के अंतर्गत उल्लेख किया है कि यज्ञ के अद्भुत प्रभाव से हृदय, वात, श्वास, उन्माद, लकवा, वाक्-सामर्थ्य हीनता, रक्तचाप, शारीरिक पीड़ा, गलित कुष्ठ, कल्पवात, कैंसर, क्षय, सन्तानहीनता, अशक्ति आदि अनेकों रोग दूर होते है। रोगों से मुक्ति, यज्ञ में प्रयुक्त वनौषधि के प्रयोग पर निर्भर करता है। इस तरह इन वनौषधियों द्वारा हवन करके पर्यावरण के प्रदूषण-मुक्त करने में भी सहायता मिलती है। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द का कथन है कि हवन के समय प्रयुक्त वनौषधियाँ सूक्ष्म होकर वायु में फैल जाती हैं और वायुमण्डल को दुर्गन्ध से निवृत्ति कर सुगन्ध से भर देती हैं। यह हवन सामग्रियाँ अग्नि के सामर्थ्य के साथ दुर्गन्ध युक्त वायु को हटाकर उस स्थान पर पवित्र वायु का संचार करती है। इस तरह वनौषधियाँ वायु, वृष्टि, जलादि को शुद्ध एवं पुष्टिकारक बनाती है।
शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ से रोग-निवारण की विधियों का विस्तार से उल्लेख किया गया है। इसमें अग्निहोत्र में प्रयुक्त किये जाने वाली वनौषधियों का वर्णन मिलता है। अपामार्ग होम द्वारा देवों ने राक्षसों को अपने मार्ग से हटा दिया था। मार्कण्डेय पुराण में इस पौधे का नाम आघाट दिया गया है। एकलिंग रचित ‘शतपथ ब्राह्मण’ भाग-3 में स्पष्ट किया गया है कि अर्क को हवियों के रूप में प्रयुक्त किया जाता था। अर्क को अन्न कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण के नवम खण्ड में शतरुद्रीय में रुद्र को समर्पित 425 हवियों में से एक हवि अर्क पत्र की भी है। अथर्ववेद तथा तैत्तरीय संहिता के अनुसार ‘अवका’ यज्ञ विषयों में प्रयुक्त किया जाता था। यह एक जलीय पौधा है। क्रमुक लाल रंग के मीठे फल वाला एक ऐसा वृक्ष है, जिसे हवन करने के बाद उसका भस्म नहीं मिलता। वैद्यक ब्राह्मणों से अश्वत्थ, अश्वबाल, उदुम्बर, कापर्मर्य, छाढिर, गवेधुक, सोम आदि वनौषधियों का प्रयोग शरीर एवं मन को निरोग तथा शाँति बनाये रखने के लिए किया जाता था।
महर्षि दयानन्द ने देवयज्ञ में प्रयुक्त होने वाले चार प्रकार के पदार्थों का वर्णन किया है-
1- पौष्टिक पदार्थ-घृत दूध, अन्न जैसे गेहूँ, चावल, जौ, ज्वार आदि।
2- सुगन्धित पदार्थ-केसर कस्तूरी, अगर, तगर, श्वेतचन्दन, जायफल, जावित्री, इलायची आदि।
3- रोग निवारक पदार्थ- गिलोय, सोमलता, गुग्गुल आदि।
4- मिष्ठान्न पदार्थ- शक्कर, गुड़, शहद, छुहारे, मुनक्का आदि।
इन पदार्थों का रासायनिक गुणधर्म उनकी भौतिक अवस्था पर आधारित है। पदार्थों की ठोस अवस्था की अपेक्षा सूक्ष्म अवस्था में पदार्थों के घटक अत्यधिक संख्या में परस्पर मिलते हैं इसलिए पदार्थ की वाष्पीय अवस्था में इनका सम्बन्ध बढ़ जाता है। हवन सामग्री को जलाने से अल्डीक्लाइड, एमाइन्स, पिलोनिलिक, सायक्लिक टरयेनिक श्रेणी के पदार्थों की पहचान हो चुकी है। हवन में घी का विशेष उपयोग किया जाता हे। यह वाष्परूप में बदलकर सामग्रियों के सूक्ष्म कणों को चारों और से घेर लेता है और उस पर विद्युत शक्ति का ऋणात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है। केसर में लीन रंगद्रव्य, एक उड़नशील तैल, स्थिर तैल, कोसीन नामक ग्लूकोसाइड तथा पिकोकोसीन नामक तिक्त तत्व शर्करा होती है। इसकी भस्म में पोटेशियम और फास्फोरस होता है। यह मस्तिष्क को बल देता है। केसर वातावरण को परिष्कृत करता है। गुलाब में टैनिक एसिड तथा गैलिक एसिड होता है। चन्दन का हवन करने से वायुमण्डल शुद्ध एवं सुगन्धित होता है। यह शामक, दुर्गन्धहर, दाहप्रशमन तथा रक्तशोधक है। हवन में इसका प्रयोग मानसिक व्यग्रता एवं दुर्बलता को दूर करने के लिए किया जाता है।
वनौषधियों में ब्राह्मी मेधावर्द्धक तथा मानसिक विकार, रक्त, श्वास, त्वचा सम्बन्धी रोगों का निवारक माना जाता है। इसमें हाइड्रोकोटिलीन एशियाटिकोसाइड तथा मस्तिष्कीय संरचनाओं के लिए उपयोगी आइजोब्रालीक एसिड होता है। वायुमण्डल का शोधन करने के लिए जायफल एवं जावित्री का हवन किया जाता है। इनके सूक्ष्म कणों में वक्रता कम होने से इनका रासायनिक प्रभाव बढ़ जाता है। सतावरी का हवन वात, पित्त विकारों को दूर करने के लिए किया जाता है। यह नाड़ीबलदायक भी है। अश्वगंधा में ग्लाइकोसाइड, विठानिआल अम्ल, स्टार्च शर्करा तथा एमिनो एसिड पाया जाता है। यह बलवर्धक एवं पुष्टिदायक होता है। वट-वृक्ष की समिधा का प्रयोग रक्तविकारों को मुक्त करने के लिए किया जाता है। कर्पूर के धुएँ में नजलानाशक गुण होता है। खाण्ड का हवन हैजा, टीवी, चेचक आदि बिमारियों को शीघ्र नष्ट करता है।
गिलोय, चिरायता, शहद आदि रक्तशोधक औषधियाँ है। कर्पूर, गुग्गुल कृमिनाशक है। डॉ. लेनवान लाक्स का कहना है कि कृमि मनुष्य को भयावह रोग से ग्रसित कर देता है। गुग्गुल आदि कृमिनाशक सामग्री का हवन करने पर इनके सूक्ष्मकण के श्वास-प्रश्वास द्वारा शरीर के अन्दर पहुँच जाते है। एवं कृमियों का नष्ट कर देते है। इसमें शक्कर भी मिलाया जाता है, ताकि इसके माध्यम से सारे कृमि एक जगह एकत्रित हो जाए एवं इन्हें आसानी से नष्ट किया जा सके।
वेदों का वैज्ञानिक अध्ययन करने वाले एक संस्थान ने दावा किया है। अग्निहोत्र में विशिष्ट वनौषधियों का प्रयोग कर न केवल शारीरिक एवं मानसिक रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है, बल्कि वातावरण को भी शुद्ध एवं परिष्कृत किया जा सकता है। इस संस्थान ने डेंगू जैसे घातक रोगों के निवारण के लिए भी हवन के महत्व को दर्शाया है। शिवपुरी महाराष्ट्र के वेद विज्ञान अध्ययन संस्थान के प्रवक्ता रवि राजू के अनुसार दिल्ली में फैलने वाले डेंगू रोग के लिए हवन ही एकमात्र सार्थक एवं पूर्ण उपचार हो सकता है। श्री राजू के अनुमान है कि विश्व में लगभग पाँच लाख लोग नियमित रूप से यज्ञ करते हैं। इन्होंने आगे स्पष्ट किया है कि यज्ञ की वनौषधि विज्ञान अत्यन्त लाभदायक एवं चमत्कारपूर्ण परिणाम उत्पन्न करता है। इससे वायुमण्डल प्रदूषण मुक्त रहता है। यज्ञ के अन्त में प्राप्त वनौषधियों की भस्मों का भी उपयोग रोगोपचार के लिये किया जाता है। डॉ. एल.बी. कोटरीकर ने इन भस्मों से अनेकों रोगों से सफल उपचार की पुष्टि की है। दिल्ली के एक वैज्ञानिक डॉ. सेल्वामूर्ति ने इन वनौषधियों के महत्व को स्वीकारा है। इनके अनुसार यज्ञ से तनाव कम होता है एवं मानसिक शाँति में अभिवृद्धि होती है। इससे मस्तिष्कीय अल्फा तरंगों में 20 प्रतिशत की वृद्धि देखी गयी है।
रोगियों की प्रकृति एवं रोग के आधार पर ही विभिन्न वनौषधियों के प्रयोग का विधान है। प्रत्येक रोग के लिए इसका अनुपात एवं प्रकार अलग-अलग होता ह। शीत ज्वर में पटोल पत्र, नागरमोथा, कुटकी, नीम की छाल एवं पुष्प गिलोय, करंचा आदि से बनी हवन सामग्री का प्रयोग, किया जाता है। खाँसी के लिए मुलहठी, पाल, हल्दी, अनार, कटेरी, उन्नाज, अंजीर की छाल तथा लौंग के एक निश्चित अनुपात का उपयोग किया जाता है। जुकाम हेतु दूब, पोस्त, कासनी, अंजीर, सौंफ, उन्नाज, बहेड़ा, धनिया व कालीमिर्च लिया जाता है। मंदबुद्धि के लिए शतावरी, ब्राह्मी, ब्रह्मदण्डी, गोरखमुखी, शंखपुष्पी, मण्डूकपर्णी, बच व मालकौंगनी की हवन सामग्री बनायी जाती है। मस्तिष्क रोग में बेर की गुठली का गूदा, मौलश्री की छाल, पीपल की काँपल, इमली के बीजों का गूदा, काखजंघा, बरगद के फूल, सिरेटी, गिलोय का प्रयोग किया जाता है। चर्म रोग दूर करने हेतु शीतल चीनी, चोपचीनी, नीम के फल, चमेली के पत्ते, दारुहल्दी, कपूर, मेथी व पद्माख मिलाया जाता है। रक्तविकार से छुटकारा पाने के लिए धमासा, शाखा, अड़ूसा, सरपाँखा, मजीठ, कुल्की तथा रासना की हवन सामग्री का निर्माण किया जाता है।
ऋतु विचार के अनुसार भी औषधियों का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि अलग-अलग ऋतुओं में इसका प्रभाव अलग-अलग होता है। वसंत ऋतु मैं गुग्गुल, धूप, देवदारु, गिलोय, मुनक्का, गूलर की छाल, सुगंध कोकिला, हाआबेर, चिरायता, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, कमल गट्ठा, कर्पूर कचरी, इन्द्रजौ, शीतल चीनी, तालीसपत्र, अगर, तगर, मजीठ, जावित्री एवं केसर को एक निश्चित अनुपात में मिलाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु में गूगल, देसी शक्कर, गुलाब चिरौंजी, शतावर, खस, गिलोय, सुपारी, आँवला, जटामासी, नागरमोथा, बायबिडंग, छरीला, दालचीनी, लौंग, लालचन्दन, तगर, मजीठ, बड़ी इलायची, धूप का बुरादा, तालीसपत्र, उन्नाज, पद्माख तथा केसर का उपयोग किया जाता है।
वर्षा ऋतु में गूगल, देसी शक्कर, देवदारु, राल, गोला, जायफल, जटामासी, बच, सफेद चन्दन, छुआरा, नीम के सूखे पत्ते, जड़सहित मकोय, सुगन्ध कोकिला, काला अगर, इन्द्रजौ, धूप, तगर तेजपत्र, बेल का गूदा, गिलोय, तुलसी, वायविडंग, नागकेसर, चिरायता, छोटी इलायची एवं केसर का प्रयोग किया जाता है। शरद ऋतु में गूगल, सफेद चन्दन, चिरौंजी, गूलर की छाल, पीली सरसों, कर्पूर कचरी, जायफल, चिरायता, जटामासी, सहदेवी, लाल एवं पीला चन्द्रह, नागकेसर, गिलोय, दालचीनी, पित्तपापड़, मोचरस, अगर, इन्द्रजौ, असगंध, शीतल चीनी, पत्रज, तालमखाना, धान की खील, मुनक्का, देसी शक्कर व केसर से बनी हवन सामग्री का उपयोग किया जाता है।
शिशिर ऋतु में प्रयोग किये जाने वाली हवन सामग्रियों में गूगल, देसी शक्कर, अख़रोट की गिरी, मुनक्का, काले तिल, लालचन्दन, चिरायता, छुआरा, जटामासी, तुम्बरु, राल, काफूर वायविडंग, बड़ी इलायची, मुलहठी, मोबास, गिलोय, तुलसी, चिरौंजी, काकड़ासिंगाी, शतावर, दारुहल्दी, पद्माख, प्रसुपीर, रेणुका, शंखपुष्पी, काँच की बीज, भोजपत्र आदि मिलाया जाता है। हेमन्त ऋतु में गूगल, देसी शक्कर, कपूर कचरी, मुनक्का, अख़रोट गिरी, काले तिल, गोला, सुगन्ध कोकिला, हाआबेर, मुसली काली, पित्तपापड़, कूट गिलोय, दालचीनी, जावित्री, मुश्कवाला, तालीस पत्र, तेजपत्र, सफेद चन्दन, रासना एवं केसर से बनी हवन सामग्री का उपयोग में लाया जाता है। वनौषधियों की यह यज्ञीय प्रक्रिया समस्त मानवता को स्वास्थ्य, आयुष्य एवं आरोग्य का वरदान देने वाली है।