Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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गायत्री जयन्ती पर विशेष- - उनके लिए एक आह्वान-अनुरोध जो पूज्य गुरुदेव के अपने हैं
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शान्तिकुञ्ज द्वारा नए भूखंड को क्रय करने एवं उस पर देवसंस्कृति के खुले विश्वविद्यालय के नवसृजन का तथ्य परिजन इस अंक के पिछले पृष्ठों में पढ़ चुके हैं। नवसृजन के इस उद्घोष को सुनकर कोई भी सृजनशिल्पी उनींदा, आलसी, अस्त-व्यस्त न रहने पाए। किसी पर न तो खुमारी छाई रहे, न उदासी। न कोई कृपणता अपनाए, न युगधर्म के निर्वाह में उपेक्षा दिखाए। इन दिनों महाकाल की एक ही अपेक्षा और एक ही चेतावनी है।
परमपूज्य गुरुदेव ने इसी आशा और विश्वास के साथ सूक्ष्मलोक में जाकर महातप करने का निश्चय किया था कि उनका परिवार सुसंगठित रहकर नवसृजन के उन पुण्य-प्रयत्नों में सतत् संलग्न रहेगा जिन पर व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति निर्भर है। उनके महाप्रयाण के अवसर पर हममें से प्रत्येक ने अपने-अपने स्थान से मौन संदेश भेजकर यह विश्वास दिलाया था-उनका उपवन सूखने न पावेगा। उनके मिशन को शिथिल न होने दिया जाएगा। उनकी प्रदीप्त की हुई लाल मशाल बुझने न दी जाएगी।
शब्दों में न सही-भाव रूप से हममें से हर किसी ने ऐसा ही आश्वासन दिया था और वे इस आशा और विश्वास के साथ निश्चिन्त होकर सूक्ष्मलोक में अपनी साधना के लिए चले गए। उन्हें पूरा भरोसा था कि उनकी समर्थ मानस सनातन अपने वचन और आश्वासन पर कायम रहेगी और उस ज्ञानदीप को अखण्ड ही रखा जाएगा, जिसका प्रकाश आज नहीं तो कल इन तमसाच्छन्न परिस्थितियों को पलटकर समस्त विश्व को प्रकाशवान बनाने वाला है। हममें से प्रत्येक भावनाशील का कर्तव्य है कि अपने आश्वासन को निभाए और विश्वास की रक्षा करे, जिसे गुरुदेव इन दिनों भी निश्चिन्ततापूर्वक अपने मन में जमाए बैठे होंगे। उनके जाते ही यदि हम कन्धा डाल दें, मुख मोड़ ले पारस्परिक विग्रह खड़े करने लगें, प्रयत्नों को शिथिल कर दें, तो यह शिथिलता गुरुदेव के साथ ही नहीं, विश्व-मानवता के साथ भी विश्वासघात ही होगा, जो यह आशा लगाए बैठी है कि व्यक्ति ओर समाज के नवनिर्माण का, युग-परिवर्तन के महान कार्य का नेतृत्व विचारक्रान्ति अभियान के कर्मवीर सदस्य ही अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर सम्पन्न करेंगे।
भावी देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के द्वारा भारतीय विद्याओं के पुनर्जीवन का जो कार्य होना है, वह कार्य गुरुदेव का व्यक्तिगत नहीं है। वस्तुतः वह युग की सबसे बड़ी चुनौती का एकमात्र समाधान है, जिसे यदि भावनाशील लोग आगे बढ़कर सम्पन्न न करे सके, तो मानवता सर्वनाश के गर्त में जा गिरेगी और संसार का भविष्य हर दृष्टि से निराशाजनक हो जाएगा। हम सब एक चौराहे पर खड़े हैं। यदि उठाने की दिशा में आगे बढ़ते है, तो अपना बेड़ा पार करेंगे और साथियों को तारेंगे, पर यदि लोभ और मोह की जंजीरों में जकड़े हुए खुदगर्जी का ही ताना-बाना बुनते रहे तो न स्वार्थ ही सधेगा, न परमार्थ ही। दोनों हाथों से पतवार छूट जाएगी और उस तूफान में फंस जाएँगे, जिससे फिर उबर सकना सम्भव न रहेगा।
जिसकी आत्मा में जीवन-जाग्रति नहीं हैं, उनसे कुछ नहीं कहा जा सकता। पर जिनमें कर्तव्य और उत्तरदायित्व की भावना शेष है, उनके लिए तो इन ऐतिहासिक घड़ियों में यही उचित है कि तुच्छ स्वार्थों के सीमा-बन्धनों को ढीला करके नवनिर्माण के इस पुण्य-प्रयोजन में अपना भरपूर योगदान दें, क्योंकि मानव-जाति का उज्ज्वल भविष्य देवसंस्कृति के सूत्रों पर ही आधारित है। जाग्रत आत्माओं के ऊपर समय ने जो जिम्मेदारी छोड़ी है और गुरुदेव ने जो मशाल उनके हाथों में थमाई है, उन दोनों के प्रति कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए यही उचित है कि इन दिनों चल रहे प्रयासों में तनिक भी शिथिलता न आने दी जाए।
गुरुदेव के न रहने पर हम सबके लिए यह कार्य प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। संसार के सम्मुख सुयोग्य पिता के अयोग्य पुत्रों-पुत्रियों की तरह हमें हेय दृष्टि से न देखा जाए। जब तक वे थे अपने प्रयत्नों से इस महान अभियान को चला रहे थे। अब जबकि जिम्मेदारी हम लोगों के कन्धों पर आ गयी है, तो इसे हर कीमत पर निवाहा ही जाना चाहिए। पीछे हटने की गुँजाइश नहीं रही। समय ने हमें उस कसौटी के आगे चलकर खड़ा कर दिया है। जहाँ असफल होने पर हमें जन्मान्तरों और पीढ़ियों तक पश्चात्ताप की आग में ही जलना पड़ेगा। आगे बढ़ने और अपना सर्वस्व न्योछावर करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। जीतने पर यश और मरने पर स्वर्ग पाने जैसी घड़ियों में हमें अर्जुन की तरह अब गांडीव को तानकर ही रखना होगा।
देवसंस्कृति के विश्वविद्यालय का निर्माण इन दिनों हम सबके सामने प्रबल एवं प्रचण्ड परीक्षा की तरह आ खड़ा हुआ। इस महापरीक्षा से हमें गुजरना ही है। पूज्य गुरुदेव की महिमा और महत्ता के साथ जुड़े रहकर हम लोग चिरकाल से गौरवान्वित होते रहे है। इस गौरव की पात्रता हममें है भी या नहीं, समय ने इस तथ्य को प्रकट कर दी है, जिस पर खोटे सिद्ध होने पर हमें उतना ही लज्जित होना पड़ेगा, जितना कि पहले गौरवान्वित हुए थे।
गुरुदेव के व्यक्तित्व और कर्तृत्व की गरिमा हम उनके पुत्र और पुत्रियाँ ही बखानें, तो यह एक मोह-ममता ग्रस्त परिवार की श्रद्धाभिव्यंजना मात्र कही जा सकती है। किन्तु जो अनुपम आदर्श उनने प्रस्तुत किए हैं, उनकी न केवल देश के कोने-कोने में चर्चा हुई है, वरन् विश्व के महान विचारकों ने उनकी गतिविधियों को मुक्त कण्ठ से सराहा है। उनके व्यक्तित्व को प्रायः सभी ने मानवता की सजीव प्रतिमा मान है। अध्यात्म तत्वों का अवलम्बन करके इस मार्ग का पथिक अपने लिए तथा दूसरों के लिए क्या कुछ कर सकता है, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करके उन्होंने इन दिनों उपहासास्पद और उपेक्षित कही जाने वाली आत्मविद्या की यथार्थ महत्ता एवं सामर्थ्य की ओर सर्वसाधारण का ध्यान आकर्षित किया है।
अनाचार और अपराधों की बाढ़ में बहकर सर्वनाशी संकट में फँसे हुए मानव समाज को, विनाश के गर्त से बचने एवं ‘जियो और जीने दो’ की नीति पर पुनः लौट चलने के लिए वे अपनी प्रचण्ड सामर्थ्य के अनुसार सूक्ष्मजगत में रहकर भी इतनी तीव्रता और तत्परता से कार्य कर रहे हैं कि प्रवाह को लौटा देने की परिस्थितियाँ बनने की आशामय किरणें इस सघन अंधकार को चीर कर, आज नहीं तो कल निकलने ही वाली है। विदेशियों की उपद्रवी घुसपैठ, उससे उपजे आतंकवाद से लेकर भारत की आन्तरिक दुर्बलता और दुर्दशा तक के हृदयद्रवी संदर्भों से, धर्म-राजनीति और वैयक्तिक मूल्यांकनों के गिरते स्तर से वे कितने व्यथित और दुःखी हैं, इसे वे ही जान सकते हैं, जो दिव्यद्रष्टा होने के साथ, उनसे भावनाओं की गहराई से जुड़े हैं। शरीर रहते हुए वे विश्वपीड़ा के साथ आत्मपीड़ा को जोड़कर कभी भी चैन से न बैठे, प्रतिरोध के लिए जो बन पढ़े करते रहें। दैवीतत्वों के हाथों जो साधना उपलब्ध है, उससे व्याप्त असुरता का समाधान न होते देखा तो इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य को साकार करने के लिए सूक्ष्मजगत में उस दिव्यशक्ति का उद्भव करने चले दिए, जिससे व्यक्ति और समाज के, राष्ट्र और विश्व के सम्मुख उपस्थित विपन्नता का समाधान सम्भव हो सके।
तप-साधना यों अनेक सन्त-महात्मा करते रहते है, पर उनमें से अधिकाँश का प्रयोजन व्यक्तिगत स्वर्ग, मुक्ति, शान्ति, सिद्धि जैसी विभूतियों तक ही सीमित रहता है। व्यक्तिगत लाभ चाहे आत्मिक हों, चाहे भौतिक, उनसे उपार्जनकर्ता के ही वैभव में वृद्धि होती है। ऐसे तपस्वी जिन्होंने अपने आपे को, अपने लाभ, वैभव को एक प्रकार से विस्मृत-विसर्जित ही कर दिया हो, केवल परदुखकातर अन्तःकरण के साथ लोकमंगल और विश्वमंगल ही लक्ष्य रहा हो, आज कहीं ढूँढ़े नहीं मिलते। ऋषि-परम्परा के प्रतीक हमारे गुरुदेव यों जीवन भर जनमानस में प्रकाश उत्पन्न करने के लिए तिल-तिल करके अपने को ज्योतिर्मय दीपक की तरह जलाते रहे, पर अब तो लगता है उनका तप-यज्ञ पूर्णाहुति के समीप जा पहुँचा है। सूक्ष्मजगत में रहकर जिस उग्रतपश्चर्या का अवलम्बन उन्होंने इन दिनों किया है, उसकी तुलना के उदाहरण अन्यत्र ढूँढ़े नहीं मिलेंगे। तत्त्ववेत्ता सूक्ष्म-दर्शियों द्वारा विश्वास के साथ यह आशा की जाती है कि उनका प्रयोजन असफल न होगा और आज के निराशा-जनक वातावरण में कुछ ऐसी किरणें उत्पन्न होंगी, जिन्हें आज की तुलना करने पर अनहोनी ही कहा जा सकता है।
चूँकि हम उनके साथी, सहचर, अनुयायी और परिजन के रूप में अति निकटवर्ती रहे हैं और अति परिचयात् अवज्ञा सूत्र के अनुसार हम उन्हें पहचानने से वंचित रहे एवं सही मूल्याँकन न कर सके। पर देख सकने और समझ सकने वालों ने न जाने उनके बारे में क्या-क्या कहा और आगे क्या-क्या कहने वाले हैं। युग-निर्माण की सुनिश्चित सम्भावना’ पुस्तक में जिन सूक्ष्मदर्शियों के संकेतों का उल्लेख किया गया है, उससे यह आभास लग सकना कठिन नहीं कि एक सुनिश्चित ईश्वरीय व्यवस्था के अनुरूप गुरुदेव कुछ ऐसा करके रहेंगे, जिसके विश्व के इतिहास में सदा अविस्मरणीय ही माना जाता रहेगा। नवनिर्माण एवं युगपरिवर्तन ही माना जाता रहेगा। नवनिर्माण एवं युगपरिवर्तन की सम्भावनाओं के सम्बन्ध में आज की स्थिति को देखते हुए कोई आशंकित और अनिश्चित भी हो सकता है, पर समय बताएगा कि गुरुदेव की महानता विश्वव्यापी महानता के रूप में किस तरह विकसित होगी और उसका लाभ समस्त विश्व के लिए कैसा मंगलमय होगा?
ऐसे महामानव के साथी और सहचर होने का गौरव प्राप्त होना, हम सबके लिए कुछ कम सौभाग्य की बात नहीं है। यदि प्रत्यक्ष रूप से कुछ नहीं भी पाया हो, तो भी यह कुछ कम नहीं कि हम लोग उनके कुटुम्बी और सम्बन्धी, मित्र और शिष्य कहलाने का गौरव प्राप्त कर सके। रीछ-वानरों ने राम के साथी सम्बन्धित रहकर चाहे प्रत्यक्ष और भौतिक लाभ कुछ भी न पाया हो, पर उनकी प्रातःस्मरणीय चर्चा जो अनन्तकाल तक होती रहेगी, वह भी कुछ कम महत्व की उपलब्धि नहीं है।
इस गौरवास्पद स्थिति को प्राप्त कर सकने के उपयुक्त हम हैं भी या नहीं-यह परीक्षा भी इन दिनों समय ने लाकर सामने प्रस्तुत कर दी है और उस स्थिति में डाल दिया है कि खरे और खोटे में से एक पक्ष में अपने को खड़े करने की स्थिति में अनुभव करें। हनुमान-अंगद की महत्ता को आकाश तक पहुँचाने में श्रीराम के साथ उनका सम्बन्ध-सहचरत्व ही पर्याप्त नहीं वरन् उन्हें वे कार्य भी करने पड़े जो महामानव के साथ जुड़े रहने वाले उनके सच्चे साथी होने के प्रमाणस्वरूप करने पड़ते हैं। निष्ठा की परख त्याग कर्म एवं समर्पण से होती है, यों परख के बिना छोटे सिक्के तक आगे नहीं चलते हैं, फिर श्रेय साधना की गौरव-गरिमा के पथ पर चलने वाले के लिए तो बिना परीक्षा की कसौटी पर सही सिद्ध हुए आगे बढ़ने की बात ही नहीं बनती।
गुरुदेव ने जीवनभर अगणित परीक्षाओं में अपने को हँसते-मुसकराते हुए झोंका और हर बार वे सही सिद्ध होते गये। अब भी वे सूक्ष्मजगत में मानव कल्याण के लिए तप-निरत हैं। हम सबको अपने पीछे आने के लिए, लोकमंगल के लिए त्याग अनुदान करने का इशारा करके गए है। वे न गए होते तो बाद दूसरी थी। जो कुछ हो रहा था, उसका श्रेय, दोष उन्हीं के मत्थे था। पर अब जबकि उनने अपने अति आत्मीयजनों को कुछ आगे बढ़ने के लिए स्पष्ट संकेत किए हैं और महाप्रयाण के अवसर पर भावनाओं से अनुरोध कर गए हैं कि ज्ञानयज्ञ की लाल मशाल में मेरे हर प्रियजन को श्रद्धा-स्नेह डालते ही रहना है और इसे किसी भी कीमत पर बुझने नहीं देना है। इस अनुरोध की ओर से मुँह मोड़कर यदि हम कृपणता का ही परिचय देंगे, तो आत्मधिक्कार और लोकापवाद की भर्त्सना की जलन ही पल्ले पड़ेगी।
हमें पिता और माता से अधिक प्यार करने वाले और हमारे भविष्य की उज्ज्वल रेखा में रंग भरने का स्वप्न देखने में संलग्न गुरुदेव की छोटी-सी इच्छा और आज्ञापालन करने से हम भी जी चुराये तो यह अपने लिए लज्जा और कलंक की ही बात होगी। सिंह के बच्चे सिंह और हाथी के बच्चे हाथी होते हैं। ऐसा न हो कि हम अपने महान गुरु के महान शिष्य सिद्ध होने की अपेक्षा कायर, कृपण एवं अकर्मण्य कहलाए और इस उपहास के पात्र बने कि जब परीक्षा की घड़ी आयी, कुछ देने की बारी आयी, तो डरकर पीछे हट गए।
गुरुदेव एवं अपने व्यक्तिगत संबंधों के संदर्भ में कहा जाए अथवा राष्ट्र-धर्म समाज-संस्कृति की दृष्टि से अनिवार्य माना जाए, हर दृष्टि से यह आवश्यक हो गया है कि हमें अब हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ जाना शोभास्पद न होगा। भारतीय विद्याओं के पुनर्जीवन के लिए, देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के नव-निर्माण के लिए इन दिनों हम सबकी ओर जिस आशाभरी दृष्टि से देखा गया है, उससे विमुख होना ठीक नहीं। ढर्रे का जीवन, रोजमर्रा की बातें तो सभी के पीछे लगी हुई है। हमें उससे आगे बढ़ना होगा और सम्पदा एवं सामर्थ्य का महत्वपूर्ण अंश इसके लिए नियोजित करना होगा, ताकि व्यक्ति और समाज जीवन-साधना के सूत्रों को सीख सकें।
चलते-चलते गुरुदेव हम सबके लिए एक अनुग्रह करके गए हैं और मुड़-मुड़कर उसकी पूर्ति के लिए अनुरोध करते गए है कि परिवार का एक व्यक्ति भी ऐसा न बचे, जो देवसंस्कृति के विस्तार के लिए कुछ-न-कुछ प्रयास एवं त्याग हद दिन प्रस्तुत न करता रहे। अनुपात चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो, पर कुछ-न-कुछ करने की अपेक्षा तो इन दिनों सभी से की गई है। व्यक्तिगत कार्यों में चाहे जितने भी खरचे क्यों न हो, फिर भी नवसृजन के इस पुण्य-प्रयोजन में अपनी क्षमता का एक अंश तो देना ही चाहिए। यदि इन दिनों इतने महान प्रयोजन के निमित्त हमारे द्वारा कुछ भी न किया जा सका, तो दिव्यदर्शी गुरुदेव हम लोगों की इस उपेक्षा-अवज्ञा पर दुखी और निराश ही होंगे।
देवसंस्कृति विश्वविद्यालय का भव्य भवन जिस ईंट-चूने से चुना जाएगा, उसका नाम है-श्रद्धावानों का अंशदान। श्रद्धावानों से तात्पर्य, उन प्राणवानों से है-जिनमें आदर्शों के प्रति गहरी भव-संवेदना ही नहीं, उदार साहसिकता भी मौजूद है। वह स्वप्न जिसे साकार करने की बात इन दिनों सोची गयी है, कोई जादुई चमत्कार नहीं है। पका-पकाया लड्डू कही आसमान से नहीं टूटना है। महाकाल प्रबल प्रेरणा दे रहे है, उसे बढ़ने की जिम्मेदारी अपने परिजनों, सृजनशिल्पियों की है। समुद्र का पुल भी इसी प्रकार बनाया गया था और गोवर्धन भी इसी प्रकार उठा था। बुद्ध का धर्मचक्र-प्रवर्तन जिन्हें स्मरण है, उन्हें विदित है कि एशिया को प्रभावित-परिवर्तित करने में प्रायः दो लाख परिव्राजकों का श्रमदान और हर्षवर्धन, अशोक, अम्बपाली जैसे धनकुबेरों के भावभरे योगदान का प्रचुर परिमाण में समावेश हुआ था। पुरातन सृजन प्रयत्नों की तुलना में वर्तमान की विशालता, गम्भीरता और आवश्यकता अनेक गुनी अधिक है।
साधनों के बिना साध्य की उपलब्धि कैसे हो? साधन तो हर हालत में चाहिए ही। महात्मा गाँधी हो, चाहे महामना मालवीय-अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति के लिए सभी को आवश्यक साधन जुटाने पड़े। यदि वैसा न बन पड़ा होता तो जिन सफलताओं की गर्वोन्नत मस्तक से चर्चा होती है, उसका कहीं अता-पता भी न होता। कहा जा चुका है कि भावी निर्माणकार्य के लिए सबसे पहली और सबसे बड़ी आवश्यकता प्राणवानों के भावभरे अंशदान की हैं। इस योजना की विशालता के अनुरूप ही प्रचुर परिणाम में जुटाया जाना है। पिछले दिनों इस संदर्भ में यथासम्भव प्रयत्न होते रहे हैं और यत्किंचित् सफलता भी मिलती रही है।
किन्तु इन दिनों प्रगतिचक्र जिस प्रकार गतिशील होता चला जा रहा है, उसे देखते हुए तो उपलब्ध हो सका वह कम दीख पड़ता है। नवजात का का एक छटाँक दूध और एक फुट कपड़े में चल जाता है, पर प्रौढ़ की आवश्यकता तो अनेक गुनी बढ़ जाती है। निर्माणकार्य की आरम्भिक दिशा में परिजनों का स्वल्प योगदान भी पर्याप्त था, पर अब स्थिति वैसी नहीं रही। गतिचक्र की तीव्रता ने अधिक ईंधन की माँग की है। लक्ष्य तक बिना समय गँवाए पहुँचना है तो साधन जुटाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। इसके लिए लोकश्रद्धा की कामधेनु को मनाना और अधिक दूध देने के के लिए सहमत करना पड़ेगा। प्राणवानों का अंशदान ही इन दिनों गूँज रही महाकाल की सामयिक माँग को पूरा करने का एकमात्र साधन है। इसे जुटाए बिना गतिरोध ही आएगा।
इन पंक्तियों को प्रत्येक परिजन को व्यक्तिगत रूप से लिखे गए भावभरे पत्र के रूप में मानना चाहिए। उसी रूप में इन्हें पढ़ना, विचार करना और सोचना चाहिए, साथ ही बिना तनिक-सा भी विलम्ब किए अपनी श्रद्धा को जीवन्त सक्रियता में बदल देना चाहिए। यह भावपूर्ण आह्वान, अनुरोध एवं आमन्त्रण उनसे है- जो परमपूज्य गुरुदेव के आपने है जिनमें उन्हीं की चेतना लहराती है। उन्हीं का प्राण जिनमें सक्रिय है। जो भावनाओं की गहराइयों में उनसे गुँथे हैं, उन्हीं से अपने स्वरूप को समझने और तदनुरूप भावी निर्माण में स्वयं की सामर्थ्य को नियोजित करने के लिए आग्रह किया जा रहा है। इसे व्यक्तिविशेष का अनुरोध न माना जाए, बल्कि परमपूज्य गुरुदेव की आठवीं पुण्यतिथि के अवसर पर उन्हीं का ऐसा निर्देश निर्धारण माना जाए, जिसे मानने पर आत्मिक जागरूकता सार्थक होती है।
गायत्री जयन्ती-गंगावतरण के पुण्य क्षणों में प्रिय परिजनों के लिए इसी निर्देश का अवतरण हुआ है, जो बहाने तकेंगे वे कृपणता को व्यस्तता के आवरण और चिन्ताओं के आवरण में छिपा लेने पर भी कायर ही कहलायेंगे। अपेक्षा यही की गयी है कि युगचेतना उत्पन्न करने वाले भावी निर्माण का भव्यता के प्रत्येक कण में अपने देव-परिवार के हर सदस्य की श्रद्धा की चमक होगी। यह निर्माण सृजन शिल्पियों की श्रद्धा एवं भावनाओं का साकार रूप होगा।