Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात- - नवयुग का मत्स्यावतार अपना इतिहास पुनः दुहरा रहा है।
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परमपूज्य गुरुदेव अक्सर कहा करते थे कि प्रज्ञावतार का कार्य नवयुग के मत्स्यावतार की तरह विराट रूप लेता हुआ फैलता चला जाएगा वह इस सदी के अंत तक अपने चरमतम रूप में पहुँच जाएगा। चेतना के अंशावतार के रूप में जब भी ऋषिचेतना, द्रष्टास्तर की अवतारी-चेतना इस धरती पर जन्म लेती है-वह सारी भवितव्यता का ढाँचा गढ़कर अपने साथ लाती है। उसे अपने कार्य करने की शैली का -संभावित सहयोगियों का- ऐसी संस्कार प्रधान भूमि का भी ज्ञान होता है, जहाँ उसका कार्य होना होता है, जहाँ उसे लघु से विराट बनते जमाना देखता है व बाद में आश्चर्यचकित हो सोचता है कि यह सब कुछ कैसे इतनी अल्पावधि में होता चला गया। ऐसी अवतारी अंशधारी सत्ता सशरीर नहीं भी रहे, तो भी सूक्ष्मकारण शरीर से सक्रिय हो यह कार्य पूरा करती चली जाती है। श्रेय भले ही उनके सहयोगियों को मिलता रहे-सभी जानते हैं कि इन सबके मूल में सक्रिय वह चैतन्य सत्ता ही है, जिसने उस मूलभूत मॉडल को, नक्शे को अपनी ‘विजन’ में देखकर गढ़ा व जन्म देकर उसे वैसा विराट में बदलने हेतु सारा आंदोलन-अभियान नियोजित किया।
गायत्री परिवार, युगनिर्माण योजना-प्रज्ञा अभियान, युगान्तरीय चेतना-शान्तिकुञ्ज-गायत्रीतीर्थ सभी उसी सत्ता के मत्स्यावतार रूपी विराट स्वरूप के पर्यायवाची नाम हैं, जिनके जन्मदाता हमारे संरक्षक-परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी है। इस ऋषियुग्म के प्यारे समर्पण का कमाल ही है कि इन दोनों से जन्मा एक परिवार आज अन्तर्राष्ट्रीय गायत्री परिवार के रूप में करोड़ों परिजनों के रूप में फैला दिखाई देता है। जब भगवान को अनीति-अत्याचार-दुर्बुद्धि का साम्राज्य बढ़ता दिखाई देता है, तो वह कई देवमानवों का धरती पर भेजकर विभिन्न रूपों में उनसे कार्य कराके अपनी सक्रियता का परिचय देता है। ये देवमानव आ करके अवतारी चेतना के अवतरण हेतु ‘संभवामि युगे-युगे-की प्रतिज्ञा को साकार करने हेतु उपयुक्त वातावरण का निर्माण करते है। अंशधारी यही सत्ताएँ फिर इस कार्य को विराट बनाने में भी गीध-गिलहरी रीछ-वान ग्वाल-बाल-पाण्डव भिक्षुक-अशोक आनन्द आदि की भूमिका निभाते व सहयोग देकर विराटतम रूप देते चले जाते है। यह तो इतिहास ही बताता है कि छोटा-सा बीज कैसे वट-वृक्ष बनता चला गया। अस्तित्वहीन एक छोटी-सा बीज कैसे वट-वृक्ष बनता चल गया। अस्तित्वहीन एवं छोटी-सी नगण्य-सी सत्ता कैसे विराटरूप लेती चली जाती है, इसके दो उदाहरण अवतारों के कथानकों में से ही लेकर यहाँ दिये जा रहे हैं।
श्रेय-सौभाग्य पाने का अब यही अन्तिम अवसर है
पहला उदाहरण तमो मत्स्यावतार का है, जो कभी शुभारम्भ के रूप में ब्रह्माजी के कमण्डलु में छोटी-सी मछली के रूप में प्रकट हुए थे। जब परिस्थितियों को देखते हुए उन्होंने लुप्त होने जा रही-जलप्रलय में विलीन होने जा रही ज्ञान-सम्पदा को बचाने की बात सोची तो उन्होंने ब्रह्माजी के कमण्डलु को ही संदेश विस्तार हेतु अपना केन्द्र बनाया व विराट रूप में स्वयं को बदलना आरम्भ किया। बढ़ते विराट रूप को देख अचंभित ब्रह्माजी ने उस जीव को एक तालाब में छोड़ दिया। देखते-देखते वहाँ भी उन्होंने वही कार्य प्रारम्भ रखा-विस्तार अंतहीन विस्तार। बड़े विराट मत्स्य को अंततः सृजन के देवता ब्रह्मा भगवान द्वारा समुद्र में छोड़ा गया, जहाँ उन्होंने और भी विराट रूप लेकर स्वयं निर्माण के देवता ब्रह्माजी को आश्चर्यचकित कर प्रश्न पूछने पर विवश कर दिया कि वे हैं कौन व किस कारण यहाँ लीला रच रहे हैं। तब जवाब मिला कि विष्णु के अवतारी प्रकरण के अन्तर्गत वे प्रथम अवतार हैं एवं लुप्त होने जा रहे ज्ञान की रक्षा के लिए इस धरती पर आए है। वेद रूपी ज्ञान का मूल यदि न बचाया जा सका, तो भावी जलप्रलय में विलीन हो नष्ट हो जाएगा। अन्ततः यही हुआ एवं ज्ञान के भण्डार की रक्षा सम्भव हो सकी। यह पौराणिक कथा नहीं-मत्स्यावतार के अवतरण का शिक्षण प्रधान वह अंश है, जो बताता है कि जब-जब सद्ज्ञान-मानवमात्र को जीवनकला का शिक्षण देने वाला ज्ञान संकट में पड़ता है, तो उसकी रक्षा भगवत् सत्ता अवश्य करती है, चाहे उसे विराटतम रूप लेकर यह कार्य करना पड़े। लीलाधारी भगवान भिन्न-भिन्न रूपों में आते रहे हैं वे यह कार्य करते रहे है। सृष्टि के आरम्भ में जो भी स्वरूप रहा होगा, तब जलप्रलय से रक्षा के लिए भगवान ने विराट मत्स्य का रूप लेकर यह कार्य अपने युग में इस तरह सम्पन्न किया था।
दूसरा उदाहरण भगवान विष्णु के नौंवे अवतार-बुद्धावतार के प्रकरण का है। यह महत्वपूर्ण व जानने योग्य इसलिए भी है कि इसी का उत्तरार्द्ध प्रज्ञावतार के रूप में इन दिनों विराट रूप लेने जा रहा है। भगवान बुद्ध करुणा के अवतार थे। एक छोटे-से कार्यक्षेत्र, जिसे आज के बिहार का मगध व पाटलिपुत्र वाला हिस्सा व साथ लगा नेपाल एवं उत्तर प्रदेश का छोटा-सा भाग कहा जा सकता है, से आरम्भ हुआ बुद्ध का संघम् बुद्धम् एवं धम्मम् शरणम् गच्छामि का संदेश उनके बाद विराट रूप लेता हुआ विश्वव्यापी बनता चला गया। बुद्ध के जीवनकाल में जितना कार्य नहीं हुआ था-अशोक, संघमित्र, महेन्द्र, आनन्द, हर्षवर्धन-राज्यश्री आदि के माध्यम से एवं कुमारजीव जैसे मरजीवड़ों के जीवट की बदौलत वही विश्वव्यापी विस्तार लेता चला गया। आज ईसाई धर्म यदि यदि किसी धर्म का सर्वाधिक विस्तार है तो वह बौद्धधर्म ही है। बहुसंख्य व्यक्ति चीन, जापान, कोरा, तैवान, कम्पूचिया, थाइलैंड, मलेशिया, लंका जैसे देशों में रहते हैं अथवा वहाँ से सारे विश्व में फैल गए है। बौद्ध धर्म अनुयायी है। अमेरिका-कनाडा में बौद्धधर्म के अनुयायियों ने बड़े-बड़े मन्दिर बनाए है। जापान का तो राष्ट्रिय व धार्मिक आधार ही बौद्धधर्म पर टिका है। भारत में बीजारोपण से जन्मा यह धर्म कैसे सारी विश्व-वसुधा में फैलता चला गया, यह एक आश्चर्य का विषय हो सकता है, परन्तु यह भारतीय संस्कृति की सार्वभौमिकता व करुणा, भाव-संवेदना पर आधारित हमारी ऋषियों की मनीषा का परिचायक भी है। भगवान बुद्ध के विहारों की अवधारण आज भी भग्नावशेषों के रूप में खाड़ी के मुस्लिम प्रधान देशों-दक्षिण उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका में प्राप्त खण्डहरों के माध्यम से विश्व-विस्तार के रूप में देखी जा सकती है। बुद्ध का संदेश आज भी प्रासंगिक है-विशेष रूप से विश्वशान्ति के परिप्रेक्ष्य में।
अहिंसा व अणुव्रत का संदेश देने वाले तीर्थंकर महावीर भी बुद्धावतार के समकालीन थे। उनका भी कार्यक्षेत्र बिहार, नेपाल का वही क्षेत्र एवं जैन धर्म भी उसी परिमाण में फैला, यद्यपि उसका विस्तार बौद्धधर्म की तुलना में उतनी गति नहीं पकड़ सका। हिन्दुत्व के व्यापक विराट स्वरूप में बौद्ध-जैन-सिक्ख सभी संप्रदाय-धर्म समा जाते है व बताते है कि छोटे-से शुभारम्भ की अंतिम परिणति क्या होती है। आज भी हम भारतीय संस्कृति के विश्वव्यापी विस्तार की बात सोचते हैं, तो उसके मूल में चैतन्य जगत से उतरा वही एकोऽहं बहुस्याम का संदेश ही है।
आज जब हम यही चर्चा निष्कलंक प्रज्ञावतार के संदर्भ में करते है, तो लगता है। सर्वप्रथम व अब से पूर्व का अंतिम नौवाँ अवतार अपना इतिहास पुनः दुहरा रहा है। परमपूज्य गुरुदेव ने दशावतार को तीन खण्डों में बाँटकर 1967 की जून से नवम्बर तक की अखण्ड-ज्योति के अंकों में बड़े ही विस्तार से उसके लीला-प्रसंगों के विषय में लिखा है। पूज्यवर ने प्रथम खण्ड के रूप में श्री रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानन्द के अवतरण व क्रिया–कलापों को, द्वितीय खंड के रूप में योगीराज श्री अरविन्द एवं महर्षि रमण की तपश्चर्या व गतिविधियों को तथा तृतीय खण्ड के रूप में युगनिर्माण योजना, गायत्री परिवार के रचनात्मक क्रान्तिकारी क्रिया–कलापों को वर्णित किया है। यदि विगत डेढ़ सौ वर्षों इतिहास को पलटें तो यह अक्षरशः सही प्रतीत होता है। परमपूज्य गुरुदेव की जीवनावधि के एक-एक वर्ष को देखें तो लगता है कि बड़े ही सुनियोजित रूप में उन्होंने युग के नवनिर्माण राष्ट्र के नवोन्मेष के साथ संस्कृति के विश्वव्यापी विस्तार की परिकल्पना ही नहीं की उसके क्रियान्वयन हेतु एक पूरा समग्र तंत्र भी खड़ा कर दिया, जो उनके महाप्रयाण के बाद भी एक चेतना विस्तार प्रक्रिया के रूप में प्रतिपल-प्रतिदिन विराटतम रूप लेता दिखाई देता है।
युगनिर्माण की प्रक्रिया का बीजारोपण तो 1962 में पूज्यवर की हिमालय यात्रा से लौटने के बाद हुआ, किन्तु गायत्री परिवार के रूप में एक विराट प्रकटीकरण का शुभारम्भ अखण्ड दीपक प्रज्ज्वलन के साथ 1926 में तंग हो चुका था जब परमपूज्य गुरुदेव की अदृश्य मार्गदर्शक सत्ता हिमालय से आकर उनके कक्ष में अवतरित हुई थी। तब से सतत् जल रहा-मिशन हर निर्धारण का साक्षी व प्रत्येक के मूल में विद्यमान रहा यह अखण्ड दीपक अपने 75 वर्ष सन् 2001 में युगसंधि महा-पुरश्चरण की अंतिम पूर्णाहुति के साथ सम्पन्न करने जा रहा है। अखण्ड दीपक की हीरक जयंती के साथ युग-परिवर्तन का एक नया इतिहास लिखा जाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।
ऋषियुग्म रूपी अवतारी चेतना के विराट व्यापक रूप का दर्शन सभी ने 1958 के सहस्रकुण्डी यज्ञ, 1971 की मथुरा विदाई सम्मेलन, 1990 में सम्पन्न श्रद्धांजलि समारोह, 1992 में हुए शपथ समारोह व देव-संस्कृति दिग्विजय अभियान के शुभारम्भ के साथ 1996 तक सम्पन्न 27 विराट आश्वमेधिक पराक्रमों, महायज्ञों एवं प्रथम महापूर्णाहुति में किया, जो आँवलखेड़ा में सम्पन्न हुई। लाखों-करोड़ों व्यक्ति विगत आठ वर्षों में सम्पन्न हुए इन विराट आयोजनों-देवसंस्कृति दिग्विजय अभियान के अन्तर्गत सम्पन्न अश्वमेधों के अलावा हुए संस्कार-महोत्सवों के माध्यम से गायत्री महासत्ता की चेतना से अनुप्राणित हो चुके हैं। प्रत्येक को अब लग रहा है कि संधिकाल की विषम बेला से उबारने हेतु गायत्री महाशक्ति ब्रह्मास्त्र ही उनके लिए रक्षा कवच बनकर आएगा एवं उन्हें सतयुग की उज्ज्वल अरुणिमा आभा का दर्शन करायेगा। न्यूजर्सी वाजपेय यज्ञ जो अगले दिनों अमेरिका के पूर्वी समुद्र तट पर एडीसन नामक शहर के एक्सपोहॉल में 24, 25, 26 जुलाई 1998 की तारीखों में सम्पन्न हो रहा है, इसी युगप्रत्यावर्तन प्रक्रिया की ही एक कड़ी है।
शान्तिकुञ्ज को पूज्य गुरुदेव ने इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री तथा महाकाल का घोंसला कहा है। यह वह स्थान है। जहाँ उनके महारौद्र स्वरूप तप का उत्तरार्द्ध अंतिम बीस वर्ष की तपश्चर्या के रूप में बीता। विश्वामित्र नूतन सृष्टि के सृजेता थे। इस युग के विश्वामित्र ने भी नूतन सृष्टि का सृजन कर शान्तिकुञ्ज के रूप में भविष्य की दुनिया का ढाँचा खड़ा कर दिया व विराट विस्तार लेने की घोषणा कर दी। मत्स्यावतार की तरह बढ़ रही विराट रूप ले रही गुरुवर की चेतना अब शान्तिकुञ्ज के सीमित परिकर में समा नहीं पा रही है। इसी कारण अतिरिक्त स्थान की आवश्यकता पड़ने लगी थी व इस की खोज-पड़ताल काफी दिनों से चल रही थी। विगत शिवरात्रि को महाकाल की प्रतीक स्थापना के साथ शान्तिकुञ्ज के नए विस्तृत बड़े परिसर में निर्माण की शुरुआत हो गयी-यह प्रसन्नतावर्द्धक समाचार परिजन विगत अंक में पढ़ चुके हैं। यह प्रज्ञावतार के विराट रूप के थोड़े से अंश की ही झाँकी है। इसमें क्या बनना है, क्या किया जाना है, इसका विस्तृत अनुशीलन इस विशेषांक में किया गया है व इसे नवसृजन अंक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। उसे पढ़कर परिजन एक झलक पा सकेंगे, नवयुग के इस मत्स्यावतार की- पूज्यवर की चेतना के विराट व्यापक आकार की।
समय की माँग के अनुरूप नए परिसर में एक ऐसी विश्वविद्यालय स्तर की स्थापना की जा हरी है, जहाँ पर सर्वांगपूर्ण शिक्षण देकर कार्यकर्ताओं का निर्माण किया जा के। विभिन्न विधाओं-भाषाओं में प्रशिक्षण ये कार्यकर्ता जहाँ जाएँगे एक नए शान्तिकुञ्ज का निर्माण कर सकने में सक्षम होंगे। छह माह की अवधि के सघन शिक्षण के बाद जो कार्यकर्ता भाई या बहिन यहाँ से कार्यक्षेत्र में जाएँगे-विचार-क्रान्ति अभियान को एक विराट व्यापक रूप देने योग्य सक्षम-समर्थ बन सकेंगे। इसके अतिरिक्त भारतव्यापी प्रशिक्षण तंत्र को नालन्दा-तक्षशिला स्तर का बनाया जा रहा है, इसकी एक बहुमुखी प्रशिक्षण प्रधान योजना बनायी गयी है, ताकि सार्वभौम संस्कृति प्रधान शिक्षण द्वारा विद्या-विस्तार की प्रक्रिया को बढ़ाया जा सके। इसे देवसंस्कृति विश्वविद्यालय कहा जाए, तो कोई अत्युक्ति न होगी।
आयुर्वेद की समग्र विधाओं का पुनर्जीवन व विज्ञानसम्मत प्रस्तुतीकरण आज के समय की सबसे बड़ी माँग है। घटती जा रही जीवनीशक्ति वाले इस युग में यदि वनौषधि विज्ञान व रस-भस्मों को एक प्रामाणिक तंत्र के पुनर्जीवन द्वारा ऐसी औषधियाँ समाज को दी जा सकी जो उन्हें पीड़ा व अशक्ति से मुक्ति दिला सकें तो यह युग की सबसे बड़ी सेवा होगी। आयुर्वेद व आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का नए समन्वित शोध संस्थान नए परिसर में बनकर जब समग्र रूप में सामने आएगा तब सब इसकी उपयोगिता भली−भाँति समझ सकेंगे। साथ में एक दिव्य-दुर्लभ वनौषधि-वाटिका का निर्माण भी आकर्षण का केन्द्र होगा। प्रवासी भारतीयों उनके बालकों के शिक्षण व निवास हेतु एक समग्र भवन का निर्माण भी उसी परिसर में हो रहा है। इसी वर्ष 29 जुलाई 22 अगस्त की अवधि में 24 दिवसीय विशिष्ट प्रशिक्षण (सृजन) का शुभारम्भ इसी कड़ी में पहला चरण है। इस भवन में अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार व वर्कशॉप भी होंगे तथा विश्वव्यापी विस्तार की भूमिका भी बनेगी।
पूरे अंक में विस्तार से परिजन जो पढ़ चुके हैं, उसे अभी वर्तमान में बनने जा रहे परिसर का एक छोटा-सा हिस्सा मान सकते है। सूक्ष्म व कारण−शरीर से सक्रिय पूज्यवर की प्राणचेतना क्यों व किस प्रकार अगला सारा सरंजाम जुटा रही है, यह जब आगामी दो-तीन वर्षों में सबके सामने आएगा, तब सभी अभी की घोषणा को, भवितव्यता को मात्र अचंभा न मानकर एक युगऋषि-दृष्टा का विराट-व्यापक रूप समझकर नतमस्तक हुए बिना न रहेंगे। जहाँ छह लाख लोगों के भविष्य को नए सिरे से लिखा जा रहा हो वहाँ विश्वव्यापी तंत्र को सक्रिय करने हेतु केन्द्रीय तंत्र को भी अपने आपको रामकाज को समर्पित हनुमान जी की तरह से विराट बनाना पड़ता है। परमपूज्य गुरुदेव ने श्रद्धांजलि समारोह के स्वरूप की-परमवंदनीय माताजी व बाद में उनके उत्तराधिकारी कार्यकर्तागणों द्वारा उत्पन्न होने वाले कार्यों की घोषणा ब्रह्मकमल के बहुगुणित होने के रूप में अपने जीवनकाल में कर दी थी। उन्होंने यह भी कहा था कि कैसे सब कुछ होता चला जाएगा व जहाँ-जहाँ श्रद्धांजलि समारोह में हर कार्यकर्ता का श्रम नियोजित होगा वह सारा स्थान शान्तिकुञ्ज होता चला जाएगा। अभी का विस्तार महाकाल की चेतना के विराट रूप की घोषणा के अनुरूप ही हो रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले 5-6 वर्षों में शान्तिकुञ्ज के आसपास का सारा क्षेत्र गायत्री महाशक्ति की चेतना से अनुप्राणित हो उसी के विस्तार में नियोजित दिखाई दे। द्रष्टास्तर की अवतारी सत्ता का हर कथन हमेशा सत्य होकर ही रहता है, क्योंकि वे जिस स्तर पर अपनी चेतना को स्थित कर कोई बात लिखते या कहते हैं। वह परमसत्ता के स्तर की होती है। प्रस्तुत परिकर के विराट रूप को इसी रूप में देखा जाना चाहिए।
श्रीमन्तों साधनसम्पन्नों को श्रेय अर्जित करने के लिए इससे श्रेष्ठ कोई और समय मिलने वाला नहीं है। यह एक ऐसी वेला है, जो लाखों वर्षों में कभी-कभी बहुमूल्य अवसर के रूप में आती है। जो इस कार्य में श्रेय का भागी बन जाता है, अपने कुछ साधन इसके लिए नियोजित कर देता है, उसका यह जीवन तो धन्य हो ही जाता है, आगे के लिए अनेकों पुण्य उसके हिस्से में लिख दिए जाते है। इससे अधिक कुछ लिखना संभव भी नहीं है, क्योंकि भामाशाहों-जमुनालाल बजाजों पर अब भी विश्वास है कि वे बढ़कर देव-संस्कृति के विराट विस्तार के निमित्त किए जा रहे इस कार्य के लिए बढ़-चढ़ कर आगे आएँगे व अपने साधनों का नियोजन उससे करेंगे। सभी साधक-परिजनों पाठकों से इस श्रेष्ठ कार्य के लिए जो एक और भागीरथी पुरुषार्थ के रूप में सामने आ खड़ा हुआ है, अपनी साधना का एक अंश एक माला प्रतिदिन इसी की सफलता के निमित्त तथा कमाई का एक हिस्सा प्रतिमाह एक दिन की आजीविका इस कार्य के लिए नियोजित करने के लिए भावभरा अनुरोध किया जा रहा है। युगदेवता का यह संकल्प पूरा होकर ही रहेगा। यह विश्वास दैनन्दिन दृढ़ रखकर हम सबको इस प्रज्ञावतार की विराट चेतना का दर्शन करने के लिए दिव्यचक्षु धारण करने हेतु स्वयं को उद्यत रखना चाहिए। कोई भी यह मौका चूकने न पाए, विशाल रूप लेने जा रहे कारवाँ से अलग न रहे, इसका हम सभी को विशेष ध्यान रखना है।