Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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विद्या−विस्तार की पुरातन परम्परा
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गुरुकुल-आरण्यकों की प्रणाली आज की प्रचलित शिक्षापद्धति से सर्वथा भिन्न रहीं है। गुरुकुलों का उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से विद्या को विकसित करना रहा है। यहाँ की व्यवस्था-वातावरण का सृजन इसी उद्देश्य को लेकर किया गया था। गरीब-अमीर सभी को बिना किसी भेदभाव, तप-तितीक्षा व्रत-अनुशासन को स्वीकार कर विद्या का अभ्यास करना पड़ता था। उज्जयिनी में स्थित महर्षि संदीपनि के गुरुकुल की कथा पुराण-विख्यात है। वहाँ राजपुत्र कृष्ण और गरीब ब्राह्मण सुदामा दोनों ने समान तप करके विद्या की उपलब्धि की। चक्रवर्ती नरेश दशरथ के पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न को सारे वैभव को तिलाञ्जलि देने पर ही ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के गुरुकुल में प्रवेश मिल सका।
आरण्यकों की व्यवस्था में गुरुकुलों से बहुत कुछ साम्य होते हुए भी तप-साधना गुरुकुलों का उद्देश्य था विद्या-अर्जन एवं व्यक्तित्व का गठन, वहीं आरण्यकों का प्रयोजन था- विद्या का प्रचार तथा व्यक्तित्व का लोकहित में समर्पण। लेकिन शिक्षण की प्रक्रिया और विद्या का स्वरूप दोनों में एक-सा था। प्रागैतिहासिक काल में चतुर्दिक् फैले महर्षि अगस्त्य की वेदपुरी, भारद्वाज की प्रयाग स्थित प्रशिक्षणशाला, विश्वामित्र के सिद्धाश्रम आदि ने जीवन-विद्या के प्रशिक्षण द्वारा अपने समय को माँग को पूरा किया। वेदपुरी में महर्षि अगस्त्य के प्रशिक्षण की सराहना करते हुए आदि कवि वाल्मीकि लिखते हैं-अनीतिकारी आसुरी शक्तियाँ उस दिशा से भय खाती थी। दस हजार छात्रों वाली भारद्वाज की प्रशिक्षणशाला जन-जन को जाग्रत और कर्तव्यनिष्ठा के लिए सचेत रहने वाले प्रहरी तैयार करती थी। सिद्धाश्रम को केन्द्र बनाकर उपयुक्त पात्रों को विद्या दान करके विश्वामित्र ने दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध व्यूह-रचना की। रामराज्य की सतयुगी परिस्थितियाँ इन्हीं गुरुकुल-आरण्यकों की उर्वरता का परिणाम थीं।
बीच के समय में भी भारत को सोने की चिड़िया- स्वर्णभूमि कहलाने का सौभाग्य ऐसे ही विश्वविद्यालयों ने प्रदान किया। गान्धार तक्षशिला, राजगिरि के समीप नालन्दा, भागलपुर स्थित विक्रमशिला एवं काठियावाड़ के वल्लभी विश्वविद्यालयों ने अपने समय से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चाणक्य की दुर्धर्ष प्रखरता तक्षशिला से उपजी थी। यहीं के स्नातक उसके प्रथम सहयोगी थे, जिनके सम्मिलित प्रयासों से जनजाग्रति की लहर फैली और विशाल भारत की समाज संरचना अपना सौंदर्य प्रकट कर सकी। विचारक्रान्ति के अग्रदूत कुमारिल भट्ट नालन्दा में गढ़े गए, निकट रखी मजबूत नींव पर शंकराचार्य ने साँस्कृतिक क्रान्ति की भव्यता निर्मित की। चोल सम्राट देवपाल के समय विक्रमशिला में गढ़े गये परिव्राजकों ने भारत ही क्यों सुदूर वर्मा, मलाया आदि जगहों पर पहुँचकर विद्या का प्रसार किया। पाँचवीं से आठवीं शती तक वल्लभी के स्नातकों ने अकेले काठियावाड़ ही नहीं, समूचे भारत की जनचेतना को जीवन्त और सचेत रखा। यहाँ के आचार्यगण व्यक्तित्वों को ढालने में इतने माहिर थे कि अन्य देशों के लोग भी यहाँ विद्या-अर्जन के लिए तरसते थे। उज्जयिनी, काँचीपुरम, अमरावती, औदेतपुरी आदि जगहों पर भी जीवनविद्या के ऐसे ही आलोक केन्द्र थे, जहाँ से साधारण व्यक्ति असाधारण प्रखर बनकर निकलते थे। वे स्वयं के साथ देश और समाज की उपयोगिता में खरे साबित होते थे।
गुरुकुल-आरण्यक की इस महत्वपूर्ण एवं उपयोगी परम्परा के अतिरिक्त तीर्थों का भी विद्या−विस्तार में मूल्यवान योगदान रहा है। इसी कारण पुराणों के सर्वाधिक पृष्ठ इसके महत्व से भरे पड़े हैं। स्कन्दपुराण का बहुत बड़ा अंश इसी विवरण को अपने में सँजोये है। दूसरे अनेक पुराणों-उपपुराणों में भी तीर्थों के महत्व, तीर्थयात्रा के पुण्यफल पर प्रचुरता से प्रकाश डाला गया है। इस सारे वर्णन एवं विवरण का उद्देश्य जनसाधारण को तीर्थचेतना का सान्निध्य पाने के लिए प्रोत्साहित करना है। इस पारस को छूकर लोग अपने भीतर की लोहे जैसी कठोरता, कलुष-कालिमा को धो सकें और बहुमूल्य सुवर्ण जैसा अन्तःकरण बना सकें-इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु सारा सरंजाम जुटाया गया था। इन्हें उस कल्पवृक्ष की उपमा दी गयी थी-जिसके संपर्क में अपने वाले अपने आन्तरिक अभावों और संकटों से छुटकारा पा सकते थे। प्रत्येक तीर्थस्थान अपने समय में किसी ऋषि की तपस्थली अथवा अवतारों की लीलाभूमि रहा है। उन दिनों ऋषि अपने छात्र-शिष्यों तथा गायों के साथ घूमते रहते थे। वे सुविधाजनक स्थानों पर पड़ाव डालते, कुछ समय वहाँ रुकते और फिर आगे बढ़ जाते। इस क्रम में आस-पास की जनता भी लाभान्वित होती थी। इस तरह छात्रों का अध्ययन और लोकशिक्षण साथ-साथ चलता रहता था। आज जो छोटे-छोटे तीर्थ, देवस्थान, धर्मस्थान दिखाई देते हैं वे ऋषियों के निवास और शिक्षण-प्रक्रिया के स्मारक-चिन्ह जैसे हैं। इस प्रक्रिया में संलग्न ऋषिगण तरह-तरह के व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयोगों द्वारा वातावरण को दिव्य स्पन्दनों से भर देते थे। उनकी तपश्चर्या से उद्भूत प्राण-ऊर्जा तीर्थचेतना की प्रखरता को जन्म देती इसकी समर्थता से तादात्म्य साधने वाले व्यक्तित्व स्वयं की दिशाधारा और स्वरूप में वाँछित बदलाव की अनुभूति किए बिना नहीं रहते थे। प्रयोगों के इसी क्रम में नर-नारायण ने बद्रीनाथ, ऋषि दम्पत्ति अत्रि-अनुसूया ने चित्रकूट, अवधूत श्रेष्ठ दत्तात्रेय ने गिरनार, ब्रह्मा जी ने पुश्कल और भगवान शिव के तप ने कैलाश के दिव्य क्षेत्र को जन्म दिया।
प्राचीनकाल में इनका स्वरूप खुले विश्वविद्यालय का था, जहाँ पर हर कोई बिना किसी भेद-भाव के और बिना किसी रोकटोक के पहुँच सकता था। यहाँ पर आत्मिक विश्रान्ति पाने तथा उद्विग्नता का शमन करने में सहायक वातावरण रहता था। योगी-तपस्वी यहाँ सतत् अपनी आत्म-साधना में निरत रहते थे। तीर्थसेवन के लिए आने वाले उनके समीप ठहरकर जीवनक्रम पर नए सिरे से विचार करते और तपस्वियों, ज्ञानियों से अपनी समस्याओं के समाधान तथा उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण के लिए परामर्श प्राप्त करते थे। बात भी सही है। जीवन की उलझनों की समीक्षा के लिए इनके जाल-जंजाल से कुछ दूर रहकर उन पर विचार करना जरूरी होता है। व्यक्ति तीर्थ में पहुँचने पर सम्बद्ध लोगों से दूर हो जाता है। इसलिए उनके प्रति राग-द्वेष भी झीना हो जाता है। उसी मनोदशा में अपने-पराए गुण-दोषों को समझना आसान होता है। आधा हल तो समस्याओं का सही स्वरूप समझने में ही निकल आया मानना चाहिए। इसी क्रम में पापों के प्रायश्चित के लिए आवश्यक तपश्चर्या करने से वह प्रयोजन भी पूरा हो जाता है, जिसे पाप निवृत्ति कहा है। आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार के विधि-विधान तपःपूत ऋषियों के संरक्षण में पूरी करने से तीर्थसेवन के सभी उद्देश्य पूरे हो जाते थे। साथ ही जीवनविद्या का सार-मर्म भी प्राप्त हो जाता था।
कभी-कभी धर्मसेवियों, ऋषि-तपस्वियों का मिलन सम्मेलन भी यहाँ होता था, ताकि वे मिल-जुलकर विद्या−विस्तार के कार्य को और भी अधिक गति दे सकें। कुम्भपर्व जैसे आयोजन इसी उद्देश्य से निर्धारित किए गए थे। विभिन्न वर्गों के मूर्धन्य मनीषी अभी भी विविध सेमिनारों के रूप में मिलते-जुलते हैं। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान, न्याय व्यवस्था आदि जनोपयोगी विषयों पर मिल-जुलकर उचित समाधान के लिए ढूँढ़-खोज होती है। प्राचीनकाल में कुम्भ जैसे पर्वों का ठीक यही स्वरूप था। ऐसे विशाल आयोजनों की महत्वपूर्ण भूमिका यही थी कि उस अवसर पर विभिन्न मनीषियों के निर्धारणों, प्रतिपादनों तथा प्रेरणाओं से अवगत होकर समुचित निष्कर्ष पर पहुँचा सके। यह समस्त गतिचक्र तीर्थों की धुरी पर ही घूमता था। उन दिनों तीर्थयात्रा से लौटने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक विश्रान्ति के उपरान्त नई क्षमता, नई दृष्टि और नई स्फुरणा से नए सिरे से अपने सामान्य जीवन में प्रवेश करता था।