Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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स्वावलम्बन शिक्षा की अनिवार्य शर्त बने
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स्वावलम्बन व्यक्तिगत ही नहीं राष्ट्रीय गौरव में भी अभिवृद्धि करता है। देश की युवा जनशक्ति यदि कार्य-कुशल एवं स्वावलम्बी हो, तो राष्ट्र भी समर्थ सशक्त एवं सक्षम होगा। आज हम यदि पिछड़े देशों की कतार में हाथ बाँधें, असहाय की-सी स्थिति में खड़े हैं तो इसका एक प्रमुख कारण बढ़ती हुई बेरोजगारी है। हमारे देश में बेरोजगारों की संख्या दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। एक ओर तो स्कूल-कालेजों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है और दूसरी ओर पढ़े-लिखे बेकारों की संख्या द्रुतगति से बढ़ रही है।
देश में हर साल बढ़ती हुई शिक्षित बेरोजगारों की संख्या इस तथ्य का स्पष्ट बोध कराती है कि प्रचलित ढर्रे की शिक्षा, शिक्षार्थी बनाने और उसकी रोजमर्रा की व्यावहारिक समस्याओं को सुलझा पाने में असमर्थ है। शिक्षा का स्तर भी हमारे यहाँ निरंतर घटता जा रहा है। पढ़ाई-लिखाई लोग केवल पेट भरने तथा नौकरी करने के उद्देश्य से करते है॥ उसमें भी असफलता हाथ लगती है। ग्रामीण युवक भी कृषि आदि न करके कुर्सी पर बैठकर कलम चलाने की लालसा से शहरों की ओर दौड़ते हैं। अधिकांशतः छात्रों का उद्देश्य उचित-अनुचित किन्हीं भी साधनों से डिग्री प्राप्त कर लेना होता है। इसलिए शिक्षा के क्षेत्रों में पात्र-कुपात्रों की भीड़ बढ़ने के साथ-साथ शिक्षितों की बेकारी बढ़ती जा रही है, क्योंकि हर पढ़े-लिखे को नौकरी मिल नहीं सकती और शारीरिक श्रम प्रधान अन्य कामों से वे जी चुराते हैं। अब तो स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है-बी-ए एम.ए. नहीं चिकित्सक, इंजीनियर एवं पी.एच.डी. भी बेकार है।
इन सबका एक ही कारण है कि शिक्षा के साथ स्वावलम्बन को जोड़कर नहीं रक्षा गया। उसे शिखा की अनिवार्य शर्त के रूप में नहीं स्वीकारा गया। यदि शिक्षा के साथ स्वावलम्बन जोड़कर रखा गया होता, तो न तो शिक्षित युवक, नौकरी के लिए मारे-मारे फिरते, न ही उनके अभिभावक हैरान-परेशान होते। सरकार की स्कूल-कालेजों पर खर्च की गयी भारी धनराशि बेकारी बढ़ाने में न लगती। शिक्षा पाकर निकले हुए युवा इतने परिश्रमी एवं अनुभवी होते के बेकारी-बेरोजगारी उनके पास न फटकती।
इस कठिनाई का हल सरकार के ऊपर छोड़कर चुप हो जाना चाहिए अथवा देश के विचारशील वर्ग तथा जन-सामान्य का भी कुछ कर्तव्य होता है कि निदान के लिए कुछ कारगर कदम उठाए जाएँ? यह विचारणीय है। सभी जानते हैं कि सरकारी योजनाएँ जनसामान्य के सहयोग से ही सफल हो पाती हैं। पिछले कई सालों से यह समस्या देश की अस्मिता के सामने मुँह फाड़े खड़ी और दिन-प्रतिदिन विकराल होती जा रही है। सरकारी सेवाओं में सीमित व्यक्तियों की ही आवश्यकता होती है। इसलिए यह सोचना नितान्त अविवेकपूर्ण है कि कोई समय ऐसा भी आ सकता है कि जब सरकारी सेवाओं से सभी शिक्षितों को रोजगार के अवसर मिल जाएँगे। आवश्यकता से अधिक नियुक्तियाँ तो व्यर्थ का असन्तुलन ही उत्पन्न करेंगी।
हमारे राष्ट्रीय जीवन के समक्ष उभरे इस महाप्रश्न के हल के लिए दो ही उपाय हैं। एक में तो सरकारी सहयोग अपेक्षित है तथा दूसरे में जन-सहयोग ऐसे कई देश हैं, जहाँ शिक्षा भागों में विभक्त है। सामान्य और विशिष्ट शिक्षा। सामान्य शिक्षा के साथ सामान्य ज्ञान की विविध धाराएँ जुड़ी हुई हैं, जिनका लक्ष्य है-दैनिक जीवनकाल में काम आने वाली सामान्य ज्ञान की बातों से छात्रों को अवगत कराना। इस शिक्षा के साथ तकनीकी एवं औद्योगिक ज्ञान का शिक्षण अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। जिन्हें हम विकसित देश कहते एवं मानते हैं वहाँ प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के साथ ऐसी ही व्यवस्था है।
इन देशों में विद्यार्थी अपनी स्कूली शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी और औद्योगिक शिक्षण प्राप्त करते रहते हैं। जिन विद्यालयों में ऐसी व्यवस्था नहीं है वहाँ अनेकों ऐसी गैर सरकारी संस्थाएँ हैं, जो इस प्रकार का शिक्षण देती हैं। यही वजह है कि वहाँ विशिष्ट शिक्षा न प्राप्त करने वाले छात्रों को भी रोजगार के लिए भटकना नहीं पड़ता। वे विभिन्न कार्यों हेतु इतनी योग्यता प्राप्त कर लेते हैं कि अपनी जीवन-गाड़ी स्वयं खींच सकें। कुटीर उद्योग, कृषि करने की विशिष्ट तकनीक, ड्रॉइंग, पेंटिंग छोटे-छोटे मोटरपार्ट्स बनाना, इलेक्ट्रॉनिक के सामानों को ठीक करने, बनाने की प्रवीणता जैसे अनेकों प्रकार के शिक्षण प्रचलित हैं। कितने ही छात्र विद्यार्थी जीवन में ही इनमें अपनी प्रतिभा विकसित करके स्वावलम्बी होकर शिक्षा-अर्जन करते रहते हैं। किन्हीं कारणों से जो आगे की शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते वे अपना स्वतन्त्र व्यवसाय खोल लेते हैं अथवा फिर किसी-न-किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान में सहज ही रोजगार उपलब्ध कर लेते हैं।
विशिष्ट शिक्षा के लिए वे ही छात्र उन्मुख होते हैं जो अत्यंत मेधावी होते हैं और भविष्य में शोध-प्रयोजनों में अपनी क्षमता लगाना चाहते हैं। कई देशों में तो देश की आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा दी जाती है। जिस विभाग में जितने व्यक्तियों की जरूरत होती है, उतने ही व्यक्ति उस विषय में नामाँकित किए जाते हैं। फलस्वरूप असन्तुलन की स्थिति नहीं उत्पन्न होने पाती और न ही अपने देश जैसी स्थिति आती है कि विशिष्टता हासिल करने के बाद भी युवाओं को रोजगार के लिए भटकना पड़े। अपने देश में भी यह व्यवस्था उपयोगी हो सकती है। देश को प्रतिवर्ष कितने अध्यापकों, कितने इंजीनियरों, कितने चिकित्सकों की आवश्यकता है, इसका पूर्व निर्धारण हो सके तथा इन विषयों में विशिष्टता प्राप्त करने में नामांकन पर प्रतिबन्ध लगाकर उतने ही छात्र लिए जाएँ तो आज की स्थिति का सामना न करना पड़े। विशिष्ट शिक्षा प्राप्त करने वालों के लिए यही रीति-नीति उचित है।
सामान्य शिक्षा प्राप्त करने वालों के साथ तकनीकी ज्ञान का प्रशिक्षण अनिवार्य रूप से जुड़ा होना आवश्यक है। अपने यहाँ हाईस्कूल, इण्टर अथवा बी.ए. पास करने के बाद यदि किसी सरकारी दफ्तर में नौकरी नहीं मिलती, तो युवकों को बेकार बैठना पड़ता है। उनमें इतनी अतिरिक्त योग्यता नहीं होती, जिसके बलबूते कोई स्वतन्त्र रोजगार अथवा व्यवसाय कर सके। फलस्वरूप दर-दर भटकना ही उनकी नियति बन जाती है। प्रचलित शिक्षा के साथ औद्योगिक प्रशिक्षण का क्रम समाविष्ट किया जाना अनिवार्य है, जिससे छात्रों में स्वावलम्बन के लिए आत्मविश्वास पैदा हो सके और पढ़ाई छूटने के बाद उस तकनीकी योग्यता के सहारे छोटे-छोटे उद्योग खोलकर अपना निर्वाह कर सकें। बेरोजगारी और अधिक न बढ़े, इसके लिए शिक्षा के साथ उपयुक्त व्यवस्था जितनी शीघ्र बनायी जा सके उत्तम है।
इस क्रम में निम्नलिखित प्रयास किए जा सकते हैं।
1- प्राइमरी तक की शिक्षा प्रत्येक नागरिक के लिए अनिवार्य होनी चाहिए। 2-
2- सरकार की ओर से इस प्रकार का सर्वेक्षण होना चाहिए कि देश में किस प्रकार के कार्यों के लिए, कितने व्यक्तियों की आवश्यकता है। इस आवश्यकता के अनुसार ही विद्यार्थियों को उन-उन विषयों की शिक्षा देनी चाहिए।
3- उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए हर किसी व्यक्ति को कॉलेज में प्रवेश की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। अपितु प्रतिभा, योग्यता और आवश्यकता के अनुसार ही उन्हें प्रवेश कराना चाहिए।
4- बालक को उसकी रुचि-रुझान के अनुरूप ही शिक्षा देनी चाहिए। मनोवैज्ञानिक परीक्षणों से उसकी रुचि किस ओर है, यह जान करके उसी विषय की शिक्षा दिलानी चाहिए। किसी बालक की रुचि यदि साहित्य में है, परन्तु अभिभावक उसे विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने को विवश करें, तो निश्चित ही वह अपनी प्रतिभा का समुचित उपयोग न कर पाएगा। ऐसी स्थिति में वह न तो वैज्ञानिक बन पाएगा, न ही साहित्यकार।
5- 8 वीं कक्षा के बाद ही विद्यार्थियों को उपयुक्त विषयों के विशेष अध्ययन में लगा दिया जाए, तो समय भी बचे और धन भी।
6- विद्यार्थियों को शिक्षा के साथ-साथ शारीरिक श्रम के लिए भी प्रोत्साहित करना चाहिए। उन्हें हस्तशिल्प, कुटीर उद्योग आदि की शिक्षा देनी चाहिए, जिससे कि आवश्यकता पड़ने पर वे उनके द्वारा अपनी आजीविका भी कमा सकें।
7- शिक्षित व्यक्ति कुछ ही घण्टे काम करके अधिक धन प्राप्त कर लेते हैं, जबकि अशिक्षित व्यक्ति सारे दिन लगे रहकर भी अपना पेट नहीं भर पाते। यह विषमता कम होनी चाहिए तथा श्रमिकों को उचित वेतन एवं सामाजिक प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए।
परिश्रम करने के प्रति जो दृष्टिकोण आज का शिक्षित वर्ग अपनाने लगा है, वह हीनतम वृत्ति है। शिक्षितों की बेरोजगारी समस्या के हल में यह एक व्यापक मनोवैज्ञानिक अवरोध है। अंग्रेजी हुकूमत ने ऑफिस में काम करने वाले बाबुओं को प्रतिष्ठा दी, वह अब भी भारतीय मानस में बैठी चली आ रही है। बाबूगिरी का काम करने वाले, कुर्सी पर बैठकर कलम घिसने वाले व्यक्ति बड़े होते हैं तथा शारीरिक श्रम करने वाले, छोटे-मोटे काम करने वाले छोटे। यह बेतुकी मान्यता आज भी अपने देश में प्रचलित है। राष्ट्रीय मानस से जब तक इस ग्रन्थि को नहीं निकाल फेंका जाता, तब तक बेरोजगारी की समस्या का हल आकाशकुसुम ही बना रहेगा।
शान्तिकुञ्ज-जिस देवसंस्कृति के विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए कृत-संकल्पित है, उसमें स्वावलम्बन संकाय का महत्वपूर्ण स्थान है। इस स्वावलम्बन संकाय का उद्देश्य मात्र कुटीर उद्योगों-गृह उद्योगों के प्रशिक्षण तक ही सीमित नहीं है, अपितु ऐसी राष्ट्रव्यापी मानसिकता का निर्माण करना है, जो श्रम करने में संकोच न करें। श्रम की प्रतिष्ठा को स्वयं की प्रतिष्ठा एवं राष्ट्र की प्रतिष्ठा माने। आज के समय में स्वाभिमानपूर्वक स्वावलम्बी जीवन-निर्वाह की सुविधा एवं क्षमता हर व्यक्ति तक पहुँचाना आवश्यक हो गया है। इसके बिना न तो व्यक्ति जीवन में सुनिश्चितता सम्भव है और न सामाजिक कार्यों में स्थिरतापूर्वक योगदान किया जा सकता है। आज के दौर में भौतिक प्रगति के साथ अर्थकेन्द्रित जीवनपद्धति विकसित और स्थापित हो चुकी है। अर्थोपार्जन की अंधी दौड़ से लोगों को बचाना जितना जरूरी हो गया है, उतना ही आवश्यक है उन्हें औसत स्तर के जीवन-निर्वाह योग्य अर्थोपार्जन की रीति-नीति सिखाना।
यह कार्य व्यक्तिगत सम्पन्नता बढ़ाने के लिए आतुर स्वार्थकेन्द्रित व्यक्तियों के बस का नहीं। इस हेतु जन-जीवन से अभाव मिटाने के लिए संकल्पित, परमार्थनिष्ठ व्यक्तियों को आगे आना होगा। स्वावलम्बन संकाय के अंतर्गत ऐसे ही ऋषि सम्मत अर्थनीति के प्रति आस्थावान् व्यक्तियों को प्रशिक्षित किया जाएगा। व्यक्ति स्वावलम्बी होंगे तो देश स्वावलम्बी होगा। इसी आधारभूत सत्य को ध्यान में रखकर स्वावलम्बन संकाय के अंतर्गत जड़ी-बूटियों और विभिन्न कृषि-उत्पातों को क्षेत्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों तक पहुँचाने के लिए ताना-बाना बुना जा रहा है। इसके संचालन एवं प्रबन्धन के लिए योग्य व्यक्तियों को प्रशिक्षित किया जाएगा।
कुटीर उद्योगों एवं ग्रामोद्योगों के माध्यम से जनजीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं के प्रमाणित उत्पादन, निरीक्षण एवं वितरण हेतु प्रशिक्षक तैयार करने की व्यापक रूपरेखा बनायी जा रही है। इस क्रम में पर्यावरण के संरक्षण एवं सन्तुलन को बनाए रखने योग्य विभिन्न उद्योगों के विकास-विस्तार एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की जानी है। हरीतिमा-संवर्द्धन भूमि-संरक्षण पशुधन-गोधन संरक्षण, पशु-ऊर्जा से घरेलू एवं ग्रामोद्योगों के संचालन सम्बन्धी शोध-अनुसंधान की व्यवस्था भी विचारणीय है, इसके लिए आवश्यकता होने पर मिशन के स्तर पर सहकारी संगठनों की स्थापना और उनमें कुटीर उद्योगों के प्रचलन को जन-स्तर पर किया जाएगा। इस क्रम में स्वावलम्बन संकाय को स्वावलम्बन आन्दोलन की गंगोत्री बनाए जाने का संकल्प उभरा है। इस महत कार्य के लिए थोड़े-से विचारशील और समर्थ परिजन उठ खड़े हों तो जो समस्या आज सभी के लिए सिरदर्द बनी हुई है, उसका हल देखते-देखते निकल सकता है। इस आन्दोलन में भागीदारी उज्ज्वल राष्ट्रीय जीवन के लिए उठाया जाने वाला सार्थक एवं समर्थ कदम होगा।