Magazine - Year 2001 - Version 2
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Language: HINDI
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यम-नियम - (8) तप - दैनिक जीवन में सुव्यवस्था का समावेश
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(1) सूर्य उदय होने से पहले ही उठ जाना।
(2) आरीं किए काम को समय पर पूरा करना।
(3) दिनचर्या में अनुशासन रखना।
(4) सादा-सुपाच्य और ताजा भोजन ही करना।
सरदी-गरमी, कष्ट-सुविधा, प्रिय-अप्रिय और अनुकूल -प्रतिकूल परिस्थितियों से विचलित हुए बिना अविराम कर्म करते रहा जा सके, तो समझना चाहिए कि जीवन में तप की प्रतिष्ठा हो गई है। ‘तपस्वी’ विशेषण सुनते ही पंचाग्नि तप कर रहे, नंगे बदन, कांटों पर सोने या नंगे पैर चलने वाले साधु-बाबाओं की छवि आँखों के सामने तैर जाती है। साधु-तपस्वियों की यह चर्या दिखावे के लिए भी हो सकती है और इनके पीछे कोई आध्यात्मिक आत्मिक उद्देश्य भी हो सकता है, लेकिन सामान्य साधकों को इन कठिन व्रतों या अभ्यासों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है। पतंजलि ने जिस ‘तप’ का उपदेश दिया है वह शरीर को साधना के अनुरूप समर्थ-सक्षम बनाने के लिए है।
शरीर स्वस्थ रहे, कोई कष्ट-कठिनाई चित्त को विचलित नहीं करे,, सुख-दुख आदि द्वंद्व सामने आएँ तो मन में ऐसा क्षोभ उत्पन्न न हो कि जीवनचर्या में विक्षेप आ जाए। यम-नियम के अंतर्गत आने वाले तप का इतना ही अर्थ है। यही सार्वभौम भी है। श्रीकृष्ण ने तप को व्यापक अर्थ देते हुए, उसमें पूरी जीवनचर्या को ही समाविष्ट कर दिया था। अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए उन्होंने तप की जैसी व्याख्या की है, उसमें पूरी जीवन साधना ही आ जाती है। तप को शरीर, वाणी और मन के खंडों में बाँटते हुए उन्होंने कहा है, “देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है। जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा सत्साहित्य के अध्ययन, पाठ और मंत्रजप का अभ्यास है, वह वाणी सम्बन्धी तप है। मन की प्रसन्नता, शाँतभाव, मौन रहकर आत्मचिंतन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अंतःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता को धन सम्बन्धी तप कहते हैं।” (गीता 17/14-16)
भगवद्गीता के इन श्लोकों के अनुसार तप एक समग्र जीवनपद्धति है। इन विधि निषेधों का उद्देश्य व्यक्तित्व में समरसता लाना, सामंजस्य स्थापित करना और संतुलन साधना है।
योगशास्त्र के यम-नियमों में इन मर्यादाओं का कुछ अलग ढंग से लेकर विस्तृत मार्गदर्शन आ गया है। परिभाषा और कसौटियों को सीधे लागू नहीं किया जा सकता। उन तक पहुँचने के लिए छोटे आरंभ ही सहयोगी होते हैं। तप का अर्थ जीवन को द्वंद्व रहने योग्य बनाना है, तो आरंभ छोटे मोटे अनुशासन से ही करना चाहिए। सामान्यतः हमारा जीवन अस्त-व्यस्त रहता है। तीन -चौथाई काम इसलिए पूरे नहीं होते या उनका आरंभ ही खटाई में पड़ जाता है कि उनकी कोई व्यवस्थित योजना नहीं बन पाती।
तप का व्यावहारिक पक्ष दैनिक जीवन को व्यवस्थित करने के साथ आरंभ होता है। छोटी सी शुरुआत सूर्योदय से पहले उठने के साथ की जा सकती है। स्वास्थ्य, मानसिक आरोग्य और शेष दिन स्फूर्ति बने रहने की दृष्टि से सूर्य उदय होने से पहले ही जाग जाने के कई लाभ है। उनकी चर्चा यहाँ अभीष्ट नहीं है, सिर्फ यही समझना पर्याप्त है कि जल्दी उठना एक अच्छी शुरुआत की दृष्टि से उपयोगी है। देर तक सोते रहने के लिए शहरी जीवन के तकाजों की ओट ली जाती है। कामकाजी या शहरी जीवन की व्यवस्था के कारण देर तक सोने की मजबूरी मुश्किल से आधा प्रतिशत लोगों के साथ ही जुड़ी हुई है। निन्यानवे प्रतिशत से ज्यादा लोगों की व्यस्तता शाम के बाद नौ-दस बजे तक पूरी हो जाती है। भोजन आदि के घंटा आधा घंटे बाद वे सो जाएँ, तो सुबह छह बजे से पहले आसानी से उठा जा सकता है।
जिनके साथ अपरिहार्य स्थितियाँ जुड़ी हुई है, वे नींद खुल जाने के बाद प्रमाद और आलस्य में यों ही पड़े रहने की आदत छोड़ें। आँख खुलने के बाद उठ जाने और दिनचर्या आरंभ कर देने का क्रम अपनाएँ। समय पर उठने और तुरंत बाद दिनचर्या आरंभ करने का प्रभाव पूरे दिन दिखाई देगा। यह बहुत साधारण सी बात लगती है और बहुतों को शायद विश्वास भी नहीं हो कि जल्दी उठने की आदत व्यक्ति को अपने काम तत्परता से पूरा करने की ऊर्जा देती है। जल्दी उठने का अभ्यास शुरू करते समय कुछ दिन के लिए थोड़ी असुविधा भले हो, लेकिन जल्दी ही वह सिद्ध हो जाता है। आरंभ में एक सप्ताह पूरा होने तक यह अभ्यास प्रफुल्लता देने लगता है। वह उत्साह चित्त को स्फूर्तिवान बनाता है।
स्फूर्ति और उत्साह के अभाव में ही दिनचर्या के अधिकाँश काम अधूरे रह जाते हैं। हड़बड़ी में किए गए काम भी अधूरे ही कहे जाएँगे। उदाहरण के लिए, कार्यालय में फाइल पर ठीक से फीता नहीं बँधा है। कुछ कागज बाहर निकल रहे है। घर में या दफ्तर में सामान बिखरा हुआ है। गाड़ी में बैठ रहे है या बस में चढ़ रहे हैं, तो कपड़े उलझ रहे हैं। इस तरह की अस्त-व्यस्तता हड़बड़ी और आधी-अधूरी तैयारियों का ही परिणाम है।
एक समय में एक ही काम करने का अभ्यास भी काम को सावधानी से करने का उपाय है। आमतौर पर लोक एक साथ कई काम शुरू कर देते हैं, उदाहरण के लिए भोजन करते समय लोग अखबार पढ़ने लगते हैं या थोड़ी सी आहट होने पर बाहर झाँकने लगते हैं। पढ़ने-लिखने और घूमने-फिरने के अलावा दूसरे काम करते हुए भी इस तरह का बिखराव आ जाता है। नतीजा यह होता है कि कोई भी काम ठीक से नहीं हो पाता। जो काम करें, मन लगाकर और इधर -उधर ध्यान बँटाए बिना करें।
अभ्यास की पूर्णता आरंभ किए काम को समय पर पूरा करने के रूप में होनी चाहिए। ज्यादातर काम इसलिए अधूरे पड़े रहते या आरंभ होने के बाद टलते जाते हैं कि अब बीच में दूसरे काम शुरू हो जाते हैं। आरंभ किए गए काम को पूरा सम्मान दिया जाए, तो वह मनोयोग से भी होता है और पूरी कुशलता से संपन्न होता है। यह पद्धति किसी उपलब्धि तक पहुँचाती है। वैज्ञानिक फ्रैंकलिन ने सफलता के तेरह नियमों का निर्धारण करते हुए उस मर्यादा को आधार बताया था। अपने व्याख्यानों में वे कहा करते थे कि इस नियम का पालन नहीं किया जाए, तो आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकेंगे। आगे बढ़ने के लिए पहला कदम पूरी तरह जमाए बिना ही आप दूसरा कदम उठा देंगे और धड़ाम से नीचे गिर पड़ेंगे।
काम-काज, लोक व्यवहार और दैनंदिन चर्या में नियमित व्यवस्थित होने के लिए सजग रहना जरूरी है। हम जो खरच कर रहे है, जिन लोगों से मिल जुल रहे हैं, समय के जिस तरह व्यतीत कर रहे हैं, उसका औचित्य है या नहीं? समय, साधन और शक्ति के व्यय को नियोजन की तरह समझना चाहिए। उस नियोजन का लाभ आत्मविकास के रूप में होना चाहिए। अपने निजी, पारिवारिक और आस-पास के जीवन में उस नियोजन से सुख शाँति में अभिवृद्धि नहीं होती हों, तो व्यर्थ मानना चाहिए।
फ्रैंकलिन ने लिखा है कि परमात्मा ने आपको जीवन में संपदा के तौर पर जो दिया है वह समय है। समाज आपको साधनों के रूप में संपदा भेंट करता है। समय और साधनों का उपयोग करने से पहले सोचना चाहिए कि यदि यह व्यय नहीं किया जाए, तो क्या नुकसान होगा? आपका विवेक यदि कहे कि कोई हानि नहीं है, तो सच मानिए कि वह अपव्यय है। इस कसौटी को ध्यान में रखकर आप अपव्यय की आदत पर अंकुश लगा सकेंगे।
किन्हीं भी अभ्यासों के लिए सजग रहने का अर्थ हर आचरण के समय ऊहापोह से गुजरना नहीं है। आत्म समीक्षा या ग्रहण किए जा रहे नियमोँ को प्रतिदिन पढ़ने और उस आधार पर दिनभर के कामों का लेखा जोखा लेने से सजगता का उदय होने लगता है। तप-अनुशासन का चौथा नियम आहार से सम्बन्धित है। भोजन का उद्देश्य स्वाद न होकर पोषण मान लिया जाए, तो आहार संयम की आधी मंजिल पूरी हो जाती है।
आहार-संयम का उद्देश्य स्वास्थ्य और पोषण तो है, लेकिन साधकों के लिए वह इससे भी कही ज्यादा है। साधक शक्ति और पोषण के लिए ही नहीं खाता। यह प्राथमिक लेकिन अपेक्षाकृत गौण उद्देश्य है, असल उद्देश्य चेतना को संस्कारित करना है। बल और पोषण देना ही उद्देश्य होता है। साधकों को गरिष्ठ और राजसी भोजन करने के लिए मना किया जाता है। उस भोजन को पचाने के लिए कठोर श्रम करने और पसीना बहाने की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए साधकों को सादा-सात्विक, आसानी से पचने योग्य हल्का- फुल्का भोजन करने की सलाह दी गई है।
सात्विक भोजन में कुछ आहर ऐसे भी हैं, जो दूसरे पदार्थों की तुलना में बहुत कम पोषण देते हैं, लेकिन उनका प्रभाव चित्त हो हल्का और निर्मल बनाता है। लहसुन प्याज जैसे पदार्थों का औषधीय गुणों के कारण आयुर्वेद में विशेष महत्व दिया गया है, लेकिन दक्षिणमार्गी साधकों के लिए ये वर्जित है। योग के आचार्य इन्हें तामसी मानते हैं, उड़द, चना, अरहर, राजमा, सेम, मटर और विभिन्न अनाज पोषण की दृष्टि से उन्नीस बीस होते हुए भी साधकों के लिए कुछ विहित हैं और कुछ निषिद्ध। आहार का यह सूक्ष्म विवेक बहुत आगे की स्थिति में किया जाता है। आरंभ सादा, सुपाच्य और सात्विक भोजन की मर्यादा से ही किया जाना चाहिएं वह सध जाए तो आगे की यात्रा सहज होने लगती है।