Magazine - Year 2001 - Version 2
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Language: HINDI
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तप से उपजा सौंदर्य
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महर्षि अत्रि की एकमात्र संतान थी, उनकी पुत्री अपाला। स्वभाव से सुशील और नम्र तथा बुद्धि में अपने पिता की प्रतिमूर्ति। केवल एक बार सुनने से उसे सब कुछ कंठस्थ हो जाता। महर्षि अत्रि वेदों की ऋचाएँ उसे याद करने के लिए देते और वह उन्हें एक बार पढ़कर ही अपने मस्तिष्क में सुरक्षित रख लेती। पिता श्री के पूछने पर वह बिना किसी हिचकिचाहट के सब कुछ सुना देती। इतना ही नहीं, महर्षि अत्रि नित्यप्रति अपने शिष्यों को बतलाते तो अपाला भी उसे भलीभाँति सुनती और उसे सुनकर कंठस्थ कर लेती। धीरे-धीरे उसे चारों वेद और उनके अर्थ कंठस्थ हो गए। वेदों का उसे गहरा ज्ञान भी था। ऋचाओं के गहन अर्थ वह ढूंढ़ती और उनके बारे में जब अपनी आशंकाओं को पिताश्री के सामने रखती, तो महर्षि अत्रि भी उसकी प्रतिभा को देखकर गदगद हो उठते।
महर्षि अत्रि के लिए अपाला जहाँ गर्व और गौरव की वस्तु थी, वही वह उनके लिए चिंता का भी कारण बनी हुई थी। अपाला को बचपन से ही चर्म रोग था। उसके शरीर में यत्र तत्र श्वेत कुष्ठ रोग के चिन्ह थे महर्षि अत्रि ने निकटवर्ती सभी वैद्यों को अपने आश्रम में बुलाया और उसके रोग के निदान का प्रयत्न किया। निदान अनवरत चल रहा था, मगर सफलता के लक्ष्य से अति दूर।
बचपन में तो अपाला को अपने रोग के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं हुआ। वह पक्षियों की तरह कलरव करती हुई आश्रम में स्वच्छंद विहार करती और वात्सल्य रस से अभिभूत महर्षि उसे देखकर अपने सभी दुख दर्दों को भूलकर आत्मविभोर हो उठते मगर ज्यों-ज्यों वह किशोरावस्था को प्राप्त करने लगी, त्यों-त्यों उसे अपने रोग की भयानकता का अहसास होने लगा। इससे उसे मानसिक पीड़ा हुई, मगर उससे भी कही अधिक चिंता उसे इस बात की थी कि उसके पिता श्री भी दुखी रहते हैं तथा स्वाध्याय में दत्तचित्त नहीं हो पाते। पिता को चिंतित देखकर वह तरह-तरह की बातें करके उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करती और जब इसमें वह असफल हो जाती, तो उनके पास जाकर वह धैर्य बँधाने लगती, पिता श्री क्यों चिंता करते हैं? यह रोग तो अपने आप ही निर्मूल हो जाएगा। औषधियाँ भी चल ही रही है। यदि निर्मल नहीं भी हो तो चिंता करने से क्या लाभ? वस्तुस्थिति को स्वीकारना ही पड़ेगा।
अपाला ने धीरे-धीरे यौवनावस्था में पदार्पण किया, तो महर्षि को उसके विवाह का चिंता सताने लगी। महर्षि ने कई युवकों के मन को टटोलने की कोशिश की, परंतु श्वेत कुष्ठ चिन्हों के कारण कोई भी युवक अपाला से विवाह के लिए तैयार नहीं हुआ। इस स्थिति ने महर्षि को और भी झकझोर दिया।
युवावस्था मनुष्य के अनेक शारीरिक दोषों पर परदा डाल देती है। अपाला पर जब युवावस्था गहराने लगी, तो श्वेत कुष्ठ के चिह्न धीरे-धीरे हलके पड़ने लगे। अब पूर्ण जानकारी होने पर ही वे चिन्ह दृष्टिगत होते थे। सामान्यतः अपाला का चेहरा काफी आकर्षक था और वह किसी व्यक्ति को इतना अवसर ही नहीं देता था कि उसकी दृष्टि शरीर के दोषों की ढूंढ़ सके। ऐसे ही अवसर पर एक दिन कृशाश्व नाम के एक ऋषि और ब्रह्मवेत्ता का महर्षि अत्रि के आश्रम में आगमन हुआ। कृशाश्व ने सहज दृष्टि से कुसुमित अपाला को निहारा, तो स्तंभित से रह गए। यौवन काँति की चकाचौंध में वे कुष्ठ चिन्हों का आभास ही नहीं कर पाए। उन्होंने महर्षि से अपाला के परिणय की माँग की, तो महर्षि प्रसन्नता से झूम उठे। महर्षि ने शुभ दिन और शुभ मुहूर्त ज्ञातकर वेदोक्त पद्धति से सौंदर्य प्रतिमा अपाला का विवाह ऋषि कृशाश्व के साथ कर दिया। सौंदर्योपासक कृशाश्व ने नवोढ़ा अर्द्धांगिनी अपाला के साथ अपने आश्रम की ओर प्रस्थान किया।
कुछ समय तक तो अपाला और कृशाश्व का वैवाहिक जीवन बड़े ही प्रेमपूर्ण वातावरण में व्यतीत हुआ। मगर ज्यों-ज्यों युवावस्था ढलने लगी, त्यों-त्यों ही श्वेत कुष्ठ के चिन्ह उभरने लगे। कृशाश्व ने जब देखा, तो मन में प्रेम के स्थान पर घृणा के अंकुर फूटने लगे। वह सौंदर्योपासक अब अपाला के वीभत्स रूप को सहन नहीं कर पाया। उसकी बार-बार इच्छा हुई कि अपाला को महर्षि के आश्रम में छोड़ आए, परंतु महर्षि का सामना करने का साहस वह नहीं जुटा पा रहा था। वस्तुस्थिति को समझकर अपाला स्वयं कृशाश्व की स्वीकृति लेकर अपने पिता के आश्रम की ओर चल दी।
महर्षि अत्रि ने अपनी पुत्री अपाला को देखा तो उनके दुख और वात्सल्य एक साथ ही आँखों की आस फूट निकले। उन्हें इस प्रकार की कुछ आशंका तो पहले से थी ही। फिर भी उस स्थिति का सामना करके वह शाँत न रह सके।
महर्षि अत्रि ने अपनी पुत्री को धैर्य बँधाया और उसे निश्चित होकर आश्रम में रहने के लिए कहा। आश्रम का वातावरण लगभग वैसा ही था जैसा अपाला छोड़ गई थी। समय का प्रभाव अवश्य ही सब कही था। महर्षि भी अब कुछ वृद्ध हो चले थे। अभी भी उनकी कर्मठता चुकी नहीं थी। अपाला आश्रम के वातावरण में शीघ्र ही घुल-मिल गई, पर उसकी वेदना रह -रहकर उसके चेहरे पर उभर आती। उसे विशेष रूप से यह सोचकर कष्ट होता है कि उसी के कारण कृशाश्व का जीवन संकटमय हुआ और पिता श्री को तो वह सदैव कष्ट देती ही रही है।
महर्षि अत्रि अपनी पुत्री के चेहरे के भावों को पढ़ते रहते। उन्होंने एक दिन अपाला को अपने निकट बुलाया और कहा, “बेटी! नियमित आहार, अध्ययन, उपासना और शयन से तेरा उपकार होगा। तू तपस्या कर। उसी से तेरा उद्धार होगा।”
अपाला ने अपने पिता की आज्ञा मानकर इंद्र की तपस्या करनी प्रारंभ कर दी। उसकी तपस्या पूर्ण निष्ठा और लगन से चल रही थी। वह नित्य सूर्य को अर्घ्य देती और शनैः शनैः सभी मानवीय दुर्बलताओं से मुक्त होती जा रही थी।
अपाला की तपस्या से इंद्र प्रभावित हुए। वे अपाला के सामने आए, तो वह श्रद्धा से नत हो गई। वह वेदों की ज्ञाता थी, इसलिए वह जानती थी कि इंद्र को सोमरस प्रिय है। उसके पास सोम बेल थी, पर आस-पास इसे निकालने के लिए कोई साधन नहीं था। वह निराश सी इधर-उधर दृष्टि दौड़ने लगी। साधन हीन होकर भी सोमबेल को अपने दाँतों में दबाकर उसी से सोमरस एक पात्र में निकालने लगी। इस प्रकार सोमरस निकालकर इंद्र को प्रस्तुत किया, तो अपाला की निश्छल भावना को देखकर वे भाव-विभोर हो उठे। उन्होंने प्रेम से सोमरस का पान किया और अपाला से वरदान माँगने के लिए कहा।
अपाला ने वरदान माँगा, हे इंद्र! मुझे आप सुलोम बनाइए। मेरे अंगों को देखकर दोषरहित और श्रेष्ठ त्वचा वाले बनाइए। तभी मैं अपने ऊपर आरोपित आरोपों से मुक्त हो सकती हूँ और अपने पिता एवं पति को प्रसन्न रख सकूँगी।
इंद्र ने अपाला पर अपनी विद्या का प्रयोग किया और तीन बार उसकी त्वचा का शोधन किया। इससे अपाला की त्वचा अत्यंत आकर्षक और दोषरहित बन गई। उसने इंद्र का स्तवन किया और आभार माना।
उधर कृशाश्व भी अपाला के जाने के बाद प्रसन्न नहीं थे उन्हें लग रहा था जैसे उन्होंने भी अपाला के साथ अन्याय किया हो। वह जैसी भी थी उनकी पत्नी थी, जिसका उन्होंने स्वयं अपनी इच्छा से वरण किया था। सो वे अपाला को पुनः लेने के लिए महर्षि आश्रम में आ पहुँचे। ठीक उसी समय अपाला भी तपस्या में सफलता प्राप्त करके वहाँ आई। अपाला के नए रूप को कृशाश्व ने देखा, तो उसकी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। नारी के तप की गरिमा के सामने उनके पौरुष की आँखें नीची हो गई थी। वह समझ चुके थे कि वास्तविक सौंदर्य तप में है, शरीर में नहीं।