Magazine - Year 2001 - Version 2
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Language: HINDI
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ब्रह्मविद्या का लाभ (kahani)
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संत अरिष्टनेमि की भक्ति से प्रसन्न होकर इंद्र ने देवदूत को उन्हें सादर स्वर्ग में लाने के लिए भेजा। देवदूत संत के पास आकर बोला, “महाभाग! मुझे सुरपति इंद्र ने भेजा है। उनका आग्रह है कि आप मेरे साथ स्वर्ग चलें और वही निवास करें।”
‘स्वर्ग!” संत ने तो परमार्थ से आत्मकल्याण की बात सुनी थी, जब स्वर्ग बीच में आ टपका तो उनको कहना ही पड़ा, “भाई अपना स्वर्ग तो मैंने यही बना रखा है। मैं क्या करूंगा, उन सुविधाओं का? हो आनंद मुझे उन उपभोगों में मिलता, वही यहाँ धरती पर जन-जन की सेवा करने में मुझे प्राप्त होता है। इसके समक्ष तुम्हारा स्वर्ग मेरे लिए फीका है।”
राजा उदावर्श्र बहुमूल्य रत्नराशि लेकर महर्षि कणाद के आश्रम में पहुँचे और उनसे ब्रह्मविधा का उपदेश करने की प्रार्थना की। महर्षि ने धन अस्वीकार कर उनसे एक वर्ष बाद पुनः आने पर उपदेश की संभावना व्यक्त की और कहा, इस बीच आप अंतर्मुखी होने की साधना करें। वृत्तियों से अपना मुँह मोड़ें।
राजा निराश लौटे, बुरा भी लगा और क्षुब्ध भी थे। मंत्री द्युतकीर्ति ने उनकी खिन्नता दूर करते हुए कहा, “राजन् भूखे को ही अन्न पचता है। जिज्ञासु को ही ज्ञान का लाभ मिलता है। ऋषि ने एक वर्ष की अवधि देकर आपकी जिज्ञासा को परखा है। अनाधिकारी में ज्ञान को पचाने की सामर्थ्य नहीं होती। मनोरंजन के लिए कुछ कहने में समय की बर्बादी समझकर ऋषि ने आपको लौटाया है। उसमें बुरा न मानें।”‘ ऋषि का अभिप्राय उदावर्श्र की समझ में आया। एक वर्ष ब्रह्मचर्य पालनकर अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण कर आत्मिक ज्ञान के अधिकारी बनकर वे आश्रम पहुँचे, तो कणाद ने उन्हें गले से लगा लिया, बोले, “धैर्यवान, श्रद्धावान, जिज्ञासु ही ब्रह्मज्ञान के अधिकारी होते हैं। अब आप ब्रह्मविद्या का लाभ उठा सकेंगे।”