Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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शिष्यत्व का समर्पण
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शिष्यत्व का समर्पण आध्यात्मिक जीवन का सौभाग्य शिखर है। बड़े ही पुण्यवान जनों के हृदयों में शिष्यत्व अंकुरित होता है। यह अंकुरण सहज नहीं है। अनेकों जन्मों के तप, व्रत, जप, दान और अनगिन शुभ कर्मों के सुयोग से हृदय भूमि इतनी उर्वर हो पाती है कि उसमें शिष्यत्व अंकुरित हो सके। इस अद्भुत-अलौकिक अंकुरण का बड़े जतन से रख-रखाव करना पड़ता है। एक तरफ साँसारिक विषय-वासना की विपदाओं से बचना पड़ता है, तो दूसरी ओर बड़ी आध्यात्मिक विकलता से सद्गुरु को टेर लगानी पड़ती है। बड़े ही भाव-विह्वल हृदय से उन्हें पुकारना पड़ता है। सद्गुरु की पुकार के अमृत जल से ही शिष्यत्व का यह बिरवा पल्लवित-पुष्पित होता है।
विकसित होते शिष्यत्व में बड़ा ही दैवी आकर्षण होता है। समस्त मानवीय सद्गुण अपने आप ही इस ओर खिंचे चले आते हैं। आध्यात्मिक शक्तियाँ और अनुभूतियाँ, दिव्य लोकों के ऋषि व देवगण अनायास ही इस पर अपनी कृपा वृष्टि करते हैं। लेकिन शिष्यत्व तो बस अपने सद्गुरु के चरणों का चंचरीक होता है। गुरु प्रेम की पुकार उसके प्राणों में बसती है। गुरुभक्ति में उसकी भावनाएँ पलती हैं। गुरुश्रद्धा उसका सर्वस्व होती है। उसे तो बस एक ही धुन रहती है कब मेरे समर्पण को पूर्णता मिलेगी? कब मेरे आराध्य मेरे समूचे अस्तित्त्व को स्वीकारेंगे? कब वह मेरे हृदय की भावनाओं को अपना भवन बनाएँगे?
इस धुन में शिष्यत्व दिव्यता का महाचुम्बकत्व सघन हो जाता है। उसमें न लोक की कोई चाहत बचती है और न परलोक की। अब उसे न कोई कामना सताती है, न कोई वासना। स्वर्ग, मुक्ति, ज्ञान, ध्यान सबके सब गुरु प्रेम में विलीन हो जाते हैं। उसके प्रत्येक कर्म के कौशल में, विचारों के संवेदन में, भावनाओं की विह्वलता में बस समर्पण के स्वर गूँजते हैं। ‘सद्गुरु कृपा हि केवलम्, न हि अन्यत्र में जीवनम्’ प्राणों में बस यही एक गीत पलता है। शिष्यत्व की कोई माँग नहीं होती, उसकी कोई शर्त नहीं होती। वह तो अपने प्रभु पर न्यौछावर हो जाना चाहता है। स्वयं को उन पर लुटा देना चाहता है। उनके प्रत्येक संकेत व आदेश पर सौ-सौ बार जीना-मरना चाहता है। उसके इस समर्पण को पूर्णता देने के लिए परम कृपालु गुरुदेव उसकी अन्तर्चेतना में अवतरित होते हैं। शिष्यत्व में गुरुपूर्णिमा के प्रेरक पर्व की उमंगे बरस जाती हैं।