Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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युगगीता−34 - उठो भारत! स्वयं को योग से प्रतिष्ठित करो
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(गीता के चतुर्थ अध्याय की युगानुकूल व्याख्या− सोलहवीं कड़ी)
‘ज्ञान से अधिक पवित्र कुछ नहीं’ शीर्षक से विगत मई 2002 की अखण्ड ज्योति पत्रिका में परिजन विस्तार से पढ़ चुके हैं कि ज्ञान की पूर्णता पर पहुँचा हुआ साधक अपनी श्रद्धा, संयमशीलता एवं तत्परता द्वारा भगवत्प्राप्ति रूपी परम शाँति को प्राप्त होता है। भगवान इन समापन के श्लोकों में ज्ञान के साथ श्रद्धा, आदर्शों में असीम प्यार, श्रेष्ठता को प्राप्त करने की अटूट लगन पर सर्वाधिक जोर देते हैं। वे कहते हैं कि श्रद्धाहीन अज्ञानी संशय से भरा मनुष्य तो परमार्थ पथ से भटक जाता है एवं अंततः उसका नाश होता है। उसे किसी भी काल व लोक में कभी भी सुख−शाँति की उपलब्धियाँ नहीं होतीं। गुरु पर निष्ठा रख उनसे ज्ञान प्राप्त कर जो उपलब्धियाँ मिलती हैं, उन्हें श्रीकृष्ण सर्वोपरि बताते हैं। अज्ञान व अविधा न केवल मनुष्य को अशाँति, दुःख देते हैं, उसकी अधोगति भी करते हैं। विगत कड़ी में ज्ञान व श्रद्धा दोनों शब्दों की विस्तार से व्याख्या की गई थी। जो व्यक्ति श्रद्धावान बनता है, कभी अनावश्यक संदेह नहीं करता, सतत साधनापरायण रहता है तथा चारों संयमों का (इंद्रिय, अर्थ, समय, विचार) पालन करता है, अपने ऊपर अपना नियंत्रण रखता है, उसे निश्चित ही परमात्मसत्ता का, सत्य से साक्षात्कार का अवसर मिलता है, जो मानव जीवन को सार्थक बना देता है।
पहले के तीन श्लोकों में वर्णित युग सत्य को प्रभु श्रीकृष्ण अपने अंतिम दो श्लोकों में कही गई बात द्वारा अधिक प्रभावशाली ढंग से वर्णित कर ‘ज्ञान कर्म संन्यास योग‘ नामक इस महत्त्वपूर्ण अध्याय चार का समापन करते हैं।
योगसन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तंन कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय॥ 4-41
“हे धनंजय, किसने कर्मयोग की विधि द्वारा समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और ज्ञान द्वारा (विवेक के माध्यम से) जिसके सभी संशय नष्ट हो गए हैं, उस आत्मपरायण पुरुष को (वश में किए हुए अंतःकरण वाले को) कर्म बाँधते नहीं हैं।
तस्मादज्ञानसंभूतं ह्नत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥ 4-42
“इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन, उठ, तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय को विवेक−ज्ञानरूपी तलवार द्वारा काटकर समत्वरूपी योग में स्थित हो जा एवं युद्ध के लिए खड़ा हो जा।”
पहले भगवान ने श्रद्धावान को ही ज्ञान मिलता है, यह कहा एवं फिर यह बताया कि अज्ञानी श्रद्धाहीन व्यक्ति जो संशयों से ग्रस्त रहता है, अंततः विनाश को प्राप्त होता है। उसे किसी भी काल में सुख की प्राप्ति नहीं होती। यह एक प्रकार की दुःखद नकारात्मक स्थिति है। ऐसी मनःस्थिति में हमें बहुत से लोग प्रायः सारे समाज के सभी वर्गों में छाए दिखाई देते हैं। उनका एक ही काम है, निरंतर संशय करना। तर्क और श्रद्धा में तर्क को अधिक महत्त्व देना। वे अपने परिकर के सभी व्यक्ति यों की नियत कर्म भावना एवं प्रयोजन पर अविश्वास रहते हैं। वे प्रत्येक व्यक्ति के प्रत्येक शब्द पर बिना किसी विचार के संदेह रखते हैं। भगवान के अनुसार उनके संशय, उनके अज्ञान के कारण, गैरजिम्मेदारी से भरी भ्राँतियों के कारण ही होते हैं। जब व्यक्ति का न तो अपने आप में और न अपने आस−पास के संसार में ही विश्वास होता है, तो उसे इस संसार में कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं मिलती। साथ ही परलोक में भी उसे दुर्गति का ही सामना करना पड़ता है। इसे कभी भी किसी भी काल में सुख न मिलने का कारण मात्र यही है कि वह निरंतर शंकाओं से घिरा रहता है। इसीलिए भगवान कहते हैं कि श्रद्धावान पुरुष ही ज्ञान−लाभ प्राप्त करते हैं, अन्य कोई और नहीं।
गीता : एक मानवशास्त्र
गीता वस्तुतः मनोविज्ञान की एक पाठ्यपुस्तिका है। यह एक प्रकार का मानवशास्त्र है, जो वातावरण और परिस्थितियों से बिना प्रभावित हुआ एक श्रेष्ठ कर्मों में निरत कर्मठ जीवन जीने हेतु हम सभी को प्रेरित करने के लिए योगेश्वर श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निस्सृत हुआ है। हमारा प्रतिनिधित्व यहाँ अर्जुन कर रहा है। वह बड़ा संशय में है और यह अज्ञान से जन्मा है। उसे लगता है कि जीतने को कोई अवसर नहीं है। कहाँ उसकी अपनी सात अक्षौहिणी सेना और कहाँ प्रतिपक्ष की ग्यारह अक्षौहिणी सेना। उसके मन में अपने ही प्रति अविश्वास है कि जीत नहीं पाएंगे। इस आत्मविश्वास के अभाव में जो स्वर उसके मुँह से निकले रहे हैं, वे अज्ञानजनित हैं। लौकिक दृष्टि से विवश अर्जुन देखकर भी एक तथ्य जो नकार रहा है, वह यह कि सब कुछ प्रतिकूल होते हुए भी श्रीकृष्ण उसके साथ हैं। यदि इतना मात्र दृढ़ विश्वास वह कर ले, तो वह सारी ग्लानियों−उदासीनताओं पर विजय प्राप्त कर युद्ध क्षेत्र में पूरे संकल्प बल के साथ खड़ा हो सका है। यहाँ अर्जुन की पग−पग पर परीक्षा है। गीता के हर श्लोक के साथ उसकी ही नहीं हम सब का भी परीक्षा हो रही है कि जीवन संग्राम में हम स्वयं को कितना तैयार रख पाते हैं। कर्मठता, कर्त्तव्यपरायणता बिना श्रद्धाजन्य ज्ञान के नहीं आ सकती और उसके लिए अपनी गुरुसत्ता पर दृढ़ विश्वास उनके दिए ज्ञान को ग्रहण करने के लिए पात्रता का विकास, साधनपरायणता एवं संयमशीलता का कड़ा अभ्यास चाहिए। जो व्यक्ति शुद्ध अंतःकरण वाले हैं, वे तो स्वतः उस ज्ञान को अपने आप ही यथा समय अपनी आत्मा में पा लेते हैं, पर सामान्य पुरुष, जो संशयों में भटकते रहते हैं, तरह−तरह के तर्कों द्वारा सत्य को पाने का प्रयास करते हैं, श्रद्धा उनके अंदर से उपज ही नहीं पाती, वे तो मानो निरंतर भटकते रहते हैं। इस लोक में नाश को प्राप्त होते हैं और फिर इसी प्रकार जन्म−जन्माँतरों पर विभिन्न योनियों में भटकते रहते हैं।
रखें गुरु के ज्ञान पर दृढ़ विश्वास
हम अपनी गुरुसत्ता के वचनों पर यदि दृढ़ विश्वास रखते हैं हमारे मन में उनके निर्धारणों, युगनिर्माण की उनकी भविष्यवाणी तथा घोषणाओं पर विश्वास है, तब हमारी दुर्गति क्यों हो! हमने तो यह मान लिया है कि हम अकेले हैं, हमें ही सब कुछ करना है। औरों के आचरण हमें जल्दी दिख जाते हैं, तो हम संशयों से घिर जाते हैं। हम अपने आपको देखने, अपनी श्रद्धा−संवर्द्धन करने का, ज्ञानप्राप्ति के परम पुरुषार्थ में तत्पर होने का प्रयास नहीं करते, इसीलिए हमारी भी स्थिति वही होती है, जो अर्जुन की हो रही है। ज्ञान, कर्म संन्यास योग का यह अध्याय भगवान की ‘संभवामि युगे−युगे’ के आश्वासन से व उनके द्वारा सूर्य को बताए गए योग की चर्या से आरंभ हुआ था। कर्म, अकर्म, विकर्म की परिभाषा समझते हुए पंडितजनों की व्याख्या तथा यज्ञ के दार्शनिक पक्ष का विवेचन करते हुए ज्ञान कैसे प्राप्त होगा, किसको लाभ होगा व उस ज्ञान की महिमा कितनी बड़ी है, इन सब विवरणों के साथ अर्जुन को युद्ध क्षेत्र में खड़े होने के उद्बोधन पर समाप्त होने जा रहा है। कैसे−कैसे उतार−चढ़ाव आए हैं, इस अध्याय में, पर यह अध्याय कर्म योग पर आधारित एक महापुरुष के लिए एक संकल्पित अनुष्ठान लिए कार्य कर रहे संगठन के लिए एक निर्देश पुस्तिका हैं। कर्मयोगी को कैसा होना चाहिए, उसके कर्म दिव्य कम बनेंगे तथा बिना श्रद्धा व ज्ञान के कर्मों को दिशा कैसे मिलेगी, इन्हीं सब प्रतिपादनों पर टिका है यह अध्याय, जिसकी पराकाष्ठा पर हम पहुँच चुके हैं। जहाँ बार−बार भगवान कहते हैं कि अर्जुन, तेरे मन में कोई संशय हो, तो निकाल दे। यदि संशय लेकर जिएगा, कर्मयोग के पथ पर आरुढ़ नहीं होगा, तो विनाश को प्राप्त होगा, इसीलिए संशयों में मुक्त होना अनिवार्य है।
भगवान कह रहे हैं, हे धनंजय! आत्मवान् को कर्म नहीं बाँधते, ऐसे व्यक्ति को जिसने विवेक द्वारा अपने समस्त संशयों को नष्ट कर दिया है, ऐसे व्यक्ति को जिसका अंतःकरण उसके वश में है, कर्मों के बंधन में मुक्ति मिलती चली जाती है। (आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय) रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे, जिसे नाचता आ जाए, उसके पाँव गलत नहीं पड़ते, तो जिस आत्म में स्वयं को परमात्मा को अर्पित कर दिया है, जिस दिव्यकर्मी के सभी कर्म परब्रह्म को समर्पित हैं, उससे कभी कोई गलत काम हो ही नहीं सकता। उसके मन में ऐसा कोई भाव भी कभी पैदा नहीं होता। वह कर्म−बंधन से मुक्ति पाकर जीवन्मुक्त हो जाता है। परमपूज्य गुरुदेव कभी मौज में आते थे, तो एक गीत सुनाते थे, ‘मेरे पैरों में घुंघरू बँधा दे तो फिर मेरी चाल देख ले।’ किसी फिल्म का यह गीत सुनाकर वे कहते थे कि ऐसे व्यक्ति की चाल फिर गलत हो ही नहीं सकती। लय और ताल के साथ ही वह चलेगी। ऐसा व्यक्ति कभी गलती नहीं करता, क्योंकि परमात्मा उसका हर क्षण संचालन करते हैं। वह कर्मयोग में सिद्धि प्राप्त कर चुका है। जो बात परमहंस ने कही है कि नाचना सीखने पर गलत पाँव नहीं पड़ते, वही भाव इस पंक्ति से भी निकलता है कि उपास्य−ईष्ट के अनुशासन में ही फिर कर्मों का संपादन होने लगता है। परमसत्ता के अनुशासन रूपी घुंघरू बँध जाने पर समर्पित साधक फिर वही चाल चलता है, जो कि एक कुशल कर्मयोगी को चलनी चाहिए। पूर्णतः त्रुटिहीन, सर्वांगपूर्ण कौशल से भरी हुई।
क्राँतिकारी गर्जना
भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि यहाँ समस्याओं से भागने को नहीं कहा जाता, अपितु दृढ़तापूर्वक डटे रहने और बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी मनःस्थिति से परिस्थिति को नियंत्रित करते हुए कर्म करते रहने हेतु प्रेरित किया जाता है। गीता शुभ शक्तियों के नायक, देवपक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाले अर्जुन के प्रति संबोधित है एवं हे भारत! उठो, युद्ध करो, अनीति को जड़ से उखाड़ फेंको, यही योगेश्वर का अंतिम उपदेश है। क्राँतियाँ जब कभी भी होती हैं, तो भगवान का यही आदेश है कि कंदराओं में मत भागो, डटकर मोरचा लो, अनीति से, कुरीति से, वैचारिक प्रदूषण से एवं सतत सम्यक् कर्म करते रहो, यही तुमसे अपेक्षा है।
इकतालीसवें श्लोक में भगवान यही कहते हैं कि जब विषयों व स्वार्थों की कामना से युक्त कर्मों का दिव्य योग भावना द्वारा त्याग कर दिया जाता है, तो अशाँतिदायक वासनाएँ समाप्त होती चली जाती हैं। अध्ययन−मनन द्वारा इससे आँतरिक ज्ञान में वृद्धि होती है, जो गुरु समर्पण से मिलता चला जाता है। वासनामुक्त अंतःकरण में, ऐसे ज्ञान की वृद्धि होती जाती है, जिसके प्रकाश में हमारी बुद्धि पर घने घटाटोप बादलों की तरह छाए संशय निवृत्त हो जाते हैं (ज्ञान संछिन्न संशयम्)। ज्ञान सूर्य मानो उन बादलों को, अज्ञानजन्य भ्राँतियों को अपने प्रकाश से छाँट देता है, नष्ट कर देता है। ऐसा व्यक्ति स्वतः आत्मपरायण हो जाता है (आत्मवन्तं), वह परमचैतन्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है। फिर इस लौकिक जगत् और उसकी क्रियाएँ उसे वासनाओं की बेड़ियों में नहीं जकड़ पातीं (न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय)।
ऐसी स्थिति में मनुष्य भीतर योग में स्थित रहकर बाहर सभी बुद्धिमत्तापूर्वक किए जाने वाले कर्मों का संपादन कर लेता है। जैसे माँ का ध्यान घरेलू काम−काज में लगा होते हुए भी पालने में पड़े अपने शिशु की ओर निरंतर लगा रहता है, आकाश में उड़ती चिड़िया घोंसले से दूर होते हुए भी अपने बच्चे का ध्यान बराबर रखती है, हमारी गुरुसत्ता सूक्ष्म रूप से विद्यमान युगनिर्माण के कार्यों का संपादन करते हुए भी, हमारी ओर ध्यान निरंतर ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ के भाव से बनाए रखती है। योगी भी, दिव्यकर्मी भी परमसत्ता से कभी भी विमुख नहीं होते। बहिरंग जगत् में कर्म करते हुए भी वे वस्तुतः अकर्म में लीन रहते हैं। इस तरह कर्म करते रहने से मनुष्य के आँतरिक व्यक्तित्व को जकड़ने वाली नई वासनाएँ उत्पन्न नहीं हो पातीं। ‘कर्म नहीं बाँधते’ शब्द से भगवान का यही आशय है। अज्ञान और उससे जन्मी भ्राँतियों से मुक्ति ही वह राजमार्ग है, जो व्यक्ति को सही अर्थों में कर्मयोगी बनाता है।
संशय को काटें, ज्ञान की खड्ग से
जब मनुष्य को वास्तविक आत्मतत्त्व का अनुभव हो गया, जो अहंकार और कामोद्वेगों से ढका हुआ था, तो उसकी समस्त भ्राँतियाँ भी मिट जाती हैं। तब भगवान यह कहकर उपसंहार करते हैं, “हृदयस्थित अज्ञान से उत्पन्न आत्मा संबंधी संशय को ज्ञान की खड्ग से काटकर योग में स्थित हो जा। उठ, हे भारत तू युद्ध के लिए तैयार हो जा।” (बयालीसवाँ अंतिम श्लोक) कितना ओजस्वी उद्बोधन है व कितना मर्मयुक्त ज्ञानोपदेशों से भरा कर्मयोग के प्रतिपादन का समापन है। अगले अध्याय के (पाँचवे) जो कर्म संन्यास योग नाम से प्रसिद्ध है, पूर्व भगवान ने अर्जुन को पूरी तरह हिलाकर रख दिया है। आत्मा के तात्कालिक और अपरोक्ष अनुभव (अपरोक्षानुभूति) द्वारा उनसे निवृत्त हो जाना ही उचित है। यही संशय हमें अहंभाव में जकड़े रहते हैं और ये अज्ञान से जन्मते हैं। प्रभु कहते हैं इस अज्ञानजनित संशयों को अपरोक्षानुभूति की, विवेक ज्ञान की खड्ग से नष्ट कर दो, काट डालो (तस्मादज्ञानसंभूतं ह्नत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः छित्त्वैनं संशयं बयालीसवाँ श्लोक)। यदि हम प्रभु को निरंतर अपने आस−पास विद्यमान मानकर, निरंतर जागरुक बने रहकर उनके प्रति अपने कर्मों के अर्पण का भाव रखें, तो हम योग में स्थित हो जाते हैं। यज्ञीयभाव के कर्म करने लगते हैं (योगमातिष्ठ)। सारे अध्याय का सार−संक्षेप यहाँ आ गया है।
कि तनी विचित्र बात है। गीता युद्ध क्षेत्र में कही जा रही है। मोहग्रस्त अर्जुन को योगेश्वर कर्मयोग का संदेश दे रहे हैं एवं बार−बार यही कह रहे हैं कि युद्ध कर। हमें लगता है कहाँ योग जैसा उच्चस्तरीय दर्शन एवं कहाँ युद्ध, पर यही तो काव्य के लालित्य की विलक्षणता है। चाहे वह महाभारत का युद्ध क्षेत्र हो, चाहे हमारे अंतर्जगत् का देवासुर संग्राम। हमें सदैव इसी प्रकार के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। चाहे हम लौकिक जीवन जी रहे हों या रैदास की तरह, रैक्य की तरह, सदन कसाई की तरह निर्लिप्त भाव से कर्मयोगी की भाँति जीना चाह रहे हों, हमें इसी उच्चतर कर्मयोग की आवश्यकता होगी। युगनिर्माण का कार्य, नई दुनिया बनाने, नया इंसान बनाने का, ज्ञानयज्ञ वाला विचार क्राँति का महापुरुषार्थ, इसीलिए तो हमारे लिए एक उच्चस्तरीय कर्मयोग बन जाता है। इस प्रक्रिया का कार्यान्वयन करते−करते हमारी चेतना विस्तृत होती है, जागरुकता बढ़ती है, प्रतिकूल परिस्थितियाँ बदलती हैं तथा आत्मविश्वास बढ़ता चल जाता है। हम सभी समस्याओं का सामना श्रद्धा से भरे हृदय−विवेकजन्य ज्ञान तथा त्यागभाव से करने को तैयार हों, तो सफलता मिलती चली जाती है।
उठो भारत! योग का आश्रय लो
उठो भारत! योग का आश्रय लो
पहले भी ऐसा रहा है और ऐसी क्राँतिकारी वेला में ही यह युगगीत लिखी जा रही है। जब यजुर्वेद का “सा प्रथमा संस्कृतिः विश्ववारा” वाला संकल्प पुनः जीवंत होने जा रहा है। सच्चा भारतीय श्रीकृष्ण की परिभाषा के अनुसार वही है, जो साहसपूर्वक ज्ञान के प्रकाश में कर्मपरायण जीवन जीने और परमात्मतत्त्व की अनुभूति पाने हेतु तत्पर रह कर्मयोग में स्थित हो। हम सभी को चिंतन करना चाहिए कि क्या हम इस परिभाषा पर खरे उतरते हैं। हम अपने विश्वासों को व्यवहार में लाने का साहस दिखाने की स्थिति में हैं कि नहीं? हम अपनी निम्नगामी प्रवृत्तियों और विषय−वासनाओं से लड़ने के लिए गतिशील हैं कि नहीं। यदि हैं तो, हम सभी को संबोधन है परमसत्ता का, भगवान श्रीकृष्ण का कि उठो भारत, भारतवासी, देवपुत्रों, अमृतपुत्रों, अपनी गरिमा को पहचानो एवं स्वयं को योग में प्रतिष्ठित करो। बस यहीं एक विलक्षण बिंदु पर इस अध्याय का समापन हो जाता है। (आगामी अंक से पाँचवाँ अध्याय)