Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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पक्षाघात निवारण हेतु यज्ञोपचार प्रक्रिया
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वात−व्याधियों में सर्वाधिक कष्टप्रद एवं चिकित्सा की दृष्टि से कष्टसाध्य ‘पक्षाघात’ होता है। अस्सी प्रकार की वात−व्याधियों में यह सबसे अधिक दुःसाध्य माना जाता है। यह एक चिरकालिक रोग है, जो अचानक उत्पन्न होता है और इसके कारण रोगी को असह्य कष्ट उठाने पड़ते हैं। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि पक्षाघात दो शब्दों से मिलकर बना है− पक्ष + आघात। पक्ष का अर्थ होता है, अंग या शरीरार्द्ध एवं घात का अर्थ होता है, नाश या नष्ट होना अर्थात् शरीर के किसी अंग का घात होना या उसकी प्राकृतिक क्रिया का नष्ट होना। आयुर्वेद ग्रन्थों में एकाँग वात, पक्षवध, सर्वांगघात, अधराँगघात, अर्दित आदि नामों से इसके विविध रूपों का वर्णन किया गया है। उसके अनुसार शरीर के आधे या परे भाग अथवा किसी अंग विशेष की चेतना व सक्रियता का ह्रास होना ही पक्षाघात कहलाता है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान एलोपैथी पक्षाघात को पैरालिसिस कहता है। यह भी दो शब्दों पार + लिसिस से मिलकर बना है। पारा का अर्थ है− आभ्यंतर और लिसिस का अर्थ है− शिथिलता या निष्क्रियता। यह निष्क्रियता या शिथिलता चाहे माँसपेशियों की विकृति के कारण उत्पन्न हुई हो अथवा किसी अन्य कारण से, किसी अंग विशेष या समूचे शरीर की निष्क्रियता, संज्ञाशून्यता पैरालिसिस के अंतर्गत ही मानी जाती है। इसके अनुसार पक्षाघात स्वतंत्र व्याधि न होकर अन्य व्याधियों के लक्षण स्वरूप उत्पन्न होता है। यह शरीर के किसी भी अंग में, आधे शरीर में या सर्वांग में हो सकता है। यह अस्थायी भी हो सकता है और स्थायी भी। 50-60 वर्ष के बाद मनुष्य में पक्षाघात का खतरा ज्यादा रहता है। महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में इस व्याधि की संभावना अधिक रहती है।
अन्यान्य वात व्याधियों की भाँति ही पक्षाघात भी दूषित वायु प्रकोप के कारण ही उत्पन्न होता है। आयुर्वेद के अनुसार जब प्रकुपित वायु शरीर की वातवाहिनी शिराओं एवं स्नायुओं को सुखाकर शरीर के संधिबंधनों को शिथिल कर शरीर के एक भाग या परे शरीर को निष्क्रिय कर देता है तो कहा जाता है कि उस भाग को लकवा मार गया है। आयुर्वेद शास्त्रों में उल्लेख है−
गृहीत्वार्धन्तनो वायुः शिरास्नायुर्विशोष्य च।
पक्षमन्यतमं हन्ति साधिबन्धान्विमोक्षयन्॥
कृत्स्नोर्धकायं तस्य स्यादकर्म्मण्यो विचेतनः।
एकाँगरोगन्तं केचिदन्ये पक्षवधं विदुः॥
अर्थात् जिस रोग में वायु आधे शरीर को पकड़कर शिरा और स्नायु को सुखाकर संधिबंधन को ढीला कर शरीर के एक ओर के अंग को निष्क्रिय कर देती है, जिससे शरीर का आधा भाग कार्य करने में असमर्थ हो जाता है, उसे पक्षाघात कहते हैं। जब सारे अंग शिथिल या चेष्टारहित हो जाते हैं, तब उसे सर्वांगघात कहा जाता है। अतः स्पष्ट है कि वात की विकृति ही पैरालिसिस का प्रमुख कारण है। यह वातविकृति दो प्रकार से होती है− 1. धातुक्षय जनित और 2. आवरण जनित वात विकृति। चरक संहिता चिकित्सा स्थान में कहा भी गया है, “वायोर्धातुक्षयात् मार्गस्यावरणेन च वा।”
कैंसर एवं हृदयाघात के पश्चात् पक्षाघात सर्वाधिक प्राणघातक बीमारी है। इसकी उत्पत्ति के अनेक कारण हैं। उनमें से प्रमुख हैं− आहारजन्य विहारजन्य, मानसिक एवं अन्य हेतु। आहारजन्य कारणों में खान−पान में गड़बड़ी प्रमुख है। इसमें अति रुक्ष, शीत, लघु, अल्प, गुरु, ठंडा, वासी अन्न, शुष्क, विषमाशन, विरुद्ध आहार, अनशन या अधिक उपवास आते हैं, जिनके कारण वायु प्रकुपित होती है। विहारजन्य हेतुओं में आते हैं− अपने से अधिक बलवान व्यक्ति से लड़ना, अति व्यायाम, अत्यधिक परिश्रम, अधिक पैदल चलना, देर तक नदी−तालाब में तैरना, उल्टी−सीधी कसरत करना, रस, रक्त , माँस, मेद, मज्जा, शुक्र आदि धातुओं में से किसी एक अथवा कई धातुओं का क्षीण हो जाना आदि। मानसिक कारणों में− अधिक तनाव, क्रोध, चिंता, भय, शोक आदि आते हैं। अन्य कारणों में क्षय आदि रोगों के कारण उत्पन्न दुर्बलता, कष्टदायक बिस्तर पर सोना, कष्टदायक आसन पर देर तक बैठना, मल−मूत्रादि वेगों को रोकना, चोट लगना, मस्तिष्क, हृदय आदि मर्मस्थानों पर आघात लगना, कष्टकारी सवारी पर लगातार यात्रा करना आदि आते हैं। इन सभी कारणों से वायु प्रकुपित होती है और शरीर के रिक्त स्थानों को भरती हुई एकाँगवात से लेकर सर्वांगघात तक विभिन्न प्रकार के पक्षाघात रोग उत्पन्न करती है।
आधुनिक चिकित्साविज्ञानी पैरालिसिस अर्थात् पक्षाघात को स्वतंत्र बीमारी नहीं मानते, वरन् उसे अन्य रोगों के लक्षण स्वरूप मानते हैं। उसके अनुसार पक्षाघात उत्पन्न होने के प्रमुख कारण हैं− मस्तिष्कगत रक्त स्राव (ब्रेन हेमरेज), थ्रोम्बोसिस, ब्रेन ट्यूमर, मेनिन्जाइटिस, इंकेफेलाइटिस, सेप्टीसीमिया आदि। इसके अतिरिक्त डायबिटीज, हृदय रोग, गर्भ निरोधक गोलियों का लंबे समय तक सेवन करते रहने से भी पक्षाघात हो जाता है। पक्षाघात की प्रायः अधिकाँश घटनाएँ उच्च रक्त चाप के कारण मस्तिष्कीय धमनियों के फटने तथा मस्तिष्क पर चोट लगने के कारण उत्पन्न ब्रेन हेमरेज के कारण होती है। दुर्घटनावश उच्च वोल्टेज की विद्युत करंट लग जाने के कारण भी अंग विशेष में लकवा मार सकता है।
आयुर्वेद ग्रन्थों के अनुसार पैरालिसिस अर्थात् पक्षाघात चार प्रकार का होता है− 1. मोनोप्लेजिया या एकाँगघात 2. हेमिप्लेजिया या अर्द्धांगघात या फालिज 3. क्वाड्रीप्लेजिया या सर्वांगघात और 4. पैराप्लेजिया अर्थात् अधराँगघात। चेहरे के लकवे को, जिसे अर्दित या आननघात कहते हैं, आयुर्वेद शास्त्रों में पक्षाघात से अलग माना गया है, किंतु मेडिकल साइंस में यह पैरालिसिस या पक्षाघात के अंदर ही गिना जाता है और ‘बेल्स पाल्सी’ कहलाता है। इस तरह ‘फेसियल पैरालिसिस’ (बेल्स पाल्सी) को मिलाकर पाँच प्रकार के पक्षाघात हो जाते हैं।
मोनोप्लेजिया अर्थात् एकाँगघात
जिस पक्षाघात में प्रकुपित वायु शरीर के दायें या बायें भाग में से किसी एक भाग पर आक्रमण करके उसकी शिराओं एवं स्नायुओं को सुखाकर एक हाथ या पैर को संकुचित कर देता है और प्रभावित अंग में सुई चुभाने जैसी पीड़ा होती है, मोनोप्लेजिया या एकाँगघात कहलाता है। इसमें हाथ या पैर में से किसी एक में लकवा होता है।
हेमिप्लेजिया या पक्षवध
इसे ही एकाँग रोग, अर्द्धांग या फालिज कहते हैं। इससे शरीर के एक ओर का आधा भाग सिर से लेकर पैर तक लंबाई में प्रभावित होता है। इस कारण दाहिने या बायें में से एक ओर से प्रत्येक अंग जैसे− एक हाथ, या पैर, एक आँख, एक ओर की आधी जीभ, आधा चेहरा आदि सभी अंग पक्षाघातग्रस्त होकर अपनी स्वाभाविक शक्ति को खो बैठते हैं और निष्क्रिय−निश्चेष्ट हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण ब्रेन हेमरेज, रक्त का थक्का जमना, ब्रेन ट्यूमर, हृदय रोग, वृक्क रोग, वातरक्त , उपदंश तथा अतिशय मद्यपान आदि होते हैं।
शरीर−क्रिया विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क के दाहिने भाग का संबंध काया के बायें भाग से होता है तथा बायें मस्तिष्क का संबंध शरीर के दाहिने भाग से होता है। उक्त कारणों से उत्पन्न अवरोध के कारण जब मस्तिष्क के कुछ हिस्सों को ठीक से रक्त व ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं हो पाती, तो वह भाग क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। इन अवरोधों के फलस्वरूप मस्तिष्क एवं शरीर के अंग−अवयवों के मध्य चलने वाला सूचना−संवेदनाओं का आदान−प्रदान रुक जाता है और वे सभी स्वाभाविक क्षमता को खो बैठते हैं। विकृति मस्तिष्क के जिस भाग में होती है, ठीक उसके विपरीत हिस्से में शारीरिक अपंगता आती है।
क्वाड्रीप्लेजिया अर्थात् सर्वांगघात
जब प्रकुपित वायु संपूर्ण शरीर में व्याप्त होकर सारे शरीर की क्रियाशीलता को समाप्त कर देता है, तो उसे सर्वांगघात या सर्वांग रोग कहते हैं। इसके अभाव से दोनों ओर के सभी अंग शिथिल और निष्क्रिय हो जाते हैं तथा सर्वांग में पीड़ा होती है।
पैराप्लेजिया अर्थात् अधराँगघात
इसे पादाघात, उरुस्तंभ, पैरों का लकवा, निजली देह शाखा एवं निचले धड़ का पक्षाघात कहते हैं। इसमें शरीर का आधा भाग, कमर से ऊपर का अथवा कमर से नीचे का भाग निष्क्रिय हो जाता है। प्रायः शरीर का निचला भाग ही निष्क्रिय होता है, जिससे दोनों टाँगें बेकार हो जाती हैं और व्यक्ति अपंग हो जाता है, इसीलिए इसे दोनों टाँगों का लकवा कहते हैं। यह प्रायः मेरुदंड या मेरुरंजु−पुच्छ के चोट लगने, स्पाइनल कॉर्ड में सूजन आने, स्पॉण्डीलाइटिस, हिस्टीरिया, पेरीफेरल न्यूराइटिस एवं तंत्रिका तंत्र के पोषण संबंधी विकास आदि के कारण उत्पन्न होता है। यह व्याधि धीरे−धीरे प्रकट होती है। यदि सही समय पर चिकित्सा उपचार न किया जाए, तो प्रभावित अंग क्रमशः सूखने और सिकुड़ने लगते हैं और तब रोग असाध्य हो जाता है।
फेसियल पैरालिसिस अर्थात् अर्दित
इसे चेहरे का लकवा, मुँह का लकवा, आननघात आदि नामों से भी पुकारा जाता है। चिकित्साविज्ञानी इसे ही ‘बेल्स पाल्सी’ नाम से संबोधित करते हैं। यह मस्तिष्क की चेहरे की ‘सातवीं’ फेसियल नर्व के क्षतिग्रस्त होने या उसमें चोट आदि लगने के कारण होता है। इसका भी प्रमुख कारण मस्तिष्कगत रक्त स्राव या मस्तिष्कगत धमनी अवरोध माना जाता है।
यों तो पक्षाघात या लकवा का आक्रमण होने पर रोगी को तुरंत अस्पताल पहुँचाना चाहिए, क्योंकि पक्षाघात के आक्रमण के पश्चात् के 24 घंटे रोगी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। समय पर चिकित्सा−सहायता आदि मिल जाने से ब्रेन हेमरेज या हृदयाघात आदि कारणों से उत्पन्न जटिलताओं से पक्षाघातग्रस्त रोगी की जीवनरक्षा हो जाती है। इतने पर भी प्रायः देखा जाता है कि अधिकाँश लकवाग्रस्त मरीजों को अपनी पूर्व स्वाभाविक स्थिति में आने या पूर्ण स्वस्थ होने में बहुत समय लग जाता है। कई बार तो वे ठीक भी नहीं होते और अपंग−अपाहिज−सा जीवन जीने को बाध्य होते हैं। पारिवारिक सदस्यों की उपेक्षा सहने, पराश्रित जीवन जीने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं सूझता। आर्थिक स्थिति गड़बड़ाने या विपन्नता के चलते वे महँगी दवाएँ, रसायन−भस्में भी नहीं खरीद पाते। ऐसी स्थिति में यदि उन्हें यज्ञोपचार प्रक्रिया अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके और उसके लिए आवश्यक हवन सामग्री आदि जुटाई जा सके, जो सहज ही सर्वत्र उपलब्ध हो जाती है, तो न केवल पक्षाघात से मुक्ति पाई जा सकती है, वरन् स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन का पूरा आनंद उठाया जा सकता है।
पक्षाघात के उपचार के उपचार हेतु यज्ञ चिकित्सा सबसे अधिक सुरक्षित, निरापद, सरल व सर्वसुलभ चिकित्सापद्धति है। इसे हर स्थिति का एवं प्रत्येक आयु वर्ग का व्यक्ति स्वयं अकेले या सामूहिक रूप से अपने घर पर ही नित्य−नियमित रूप से संपन्न करके पूर्ण लाभ उठा सकता है। सभी प्रकार के पक्षाघात या लकवों के लिए विशिष्ट हवन सामग्री बनाई जाती है।
पक्षाघात की विशिष्ट हवन सामग्री में निम्नलिखित सामग्री मिलाई जाती है−
1. एरंड मूल 2. कौंच बीज 3. खिरैंटी (बला) मूल 4. उड़द 5. सोंठ 6. सुगंधि तृण (आज्ञा घास) 7. रास्ना 8. अश्वगंधा 9. शतावर 10. पिप्पली 11. पीपलामूल 12. चित्रक 13. ज्योतिष्मती (मालकाँगनी) के बीज 14. सौंफ 15. बिल्व छाल 16. नागबला 17. मीठी बच (अथवा इसकी चौथाई कड़वी बच−उग्रगंधा) 18. धमासा 19. देवदार 20. कचूर 21. अडूसा (वासा) 22. हरड़ 23. चव्य 24. नागरमोथा 25. पुनर्नवा 26. गिलोय 27. विधारा 28. गोक्षुरु 29. चोपचीनी 30. गोरखमुँडी 31. अमलतास का गूदा 32. कटसरैया 33. धनिया 34. छोटी कटेरी 35. बड़ी कटेरी 36. ब्राह्मी। यह सभी 36 चीजें बराबर मात्रा में लें अर्थात् 100-100 ग्राम लें एवं 37. अतीस 5 ग्राम लें।
उपर्युक्त सभी 37 चीजों को लेकर उनका जौकुट पाउडर बना लेते हैं और इसे ‘पक्षाघात रोग की विशिष्ट हवन सामग्री नं. 2’ का लेबल लगाकर एक डिब्बे में सुरक्षित रख लेते हैं। हवन करते समय पहले से तैयार की गई ‘कॉमन हवन सामग्री नं.1’ की बराबर मात्रा लेकर नं. 2 की समान मात्रा में अच्छी तरह मिला लेते हैं, तत्पश्चात् सूर्य गायत्री मंत्र से हवन करते हैं। ‘कॉमन हवन सामग्री नं. 1’ में निम्नलिखित चीजें समान मात्रा में मिलाई जाती हैं− 1. अगर 2. तगर 3. देवदार 4. लाल चंदन 5. सफेद चंदन 6. अश्वगंधा 7. गुग्गुल 8. लौंग 9. जायफल और 10. गिलोय। इन सभी चीजों का जौकुट पाउडर पहले से तैयार कर लेते हैं। हवन करने का मंत्र इस प्रकार है− “ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विद्महे, दिवाकराय धीमहि। तत्रः सूर्यः प्रचोदयात्।”
उक्त सूर्य गायत्री मंत्र का सस्वर उच्चारण करते हुए मंत्र के अंत में “स्वाहाः इंद सूर्याय इदम् न मम” बोलते हुए कम−से−कम चौबीस आहुतियाँ नित्य देनी चाहिए।
हवन करने के साथ ही उपर्युक्त 37 चीजें जो पक्षाघात की विशिष्ट हवन सामग्री नं. 2 में प्रयुक्त की गई हैं, उन सभी की सम्मिश्रित कुछ मात्रा लेकर अधिक बारीक कूट−पीसकर एक अलग मात्रा में रख लेना चाहिए। इसी पाउडर में से प्रतिदिन 40 ग्राम (आठ चम्मच) पाउडर लेकर रात्रि को 750 मिली लीटर (तीन पाव) पानी में स्टील के एक भगोने में भिगो देना चाहिए। सुबह इसी को बर्नर या चूल्हे पर चढ़ाकर मंद आँच में क्वाथ बनाना चाहिए। जब पानी उबलकर चौथाई रह जाए, तो उतारकर ठंडा होने पर बारीक कपड़े से छान लेना चाहिए। तैयार क्वाथ की आधी मात्रा सुबह एवं आधी मात्रा शाम को पक्षाघात पीड़ित व्यक्ति को नित्य−नियमित रूप से पिलाते रहना चाहिए। क्वाथ पिलाते समय उसमें एक चुटकी सोंठ चूर्ण या पिप्पली चूर्ण डाल देना चाहिए। कभी−कभी सप्ताह में एक बार चूर्ण के स्थान पर 10 मिली एरंड तेल (कैस्टर ऑयल) मिलाकर पिलाना चाहिए। फेसियल पैरालिसिस अर्थात् चेहरे के लकवे या अर्दित से पीड़ित व्यक्ति के क्वाथ में उक्त चूर्ण के स्थान पर भुना जीरा 1 ग्राम, सैंधा नमक 2 ग्राम एवं घी से भुनी हुई हींग 25 मिग्रा., तीनों का महीन पिसा हुआ चूर्ण मिलाकर ऊपर से 100 मिली. एरंड तेल मिलाकर तब पिलाना चाहिए। इससे अर्दित रोग जल्दी ठीक होता है।
यह चिकित्सा के साथ ही पक्षाघात पीड़ित अंग पर वातनाशक तेल की मालिश करनी चाहिए। आयुर्वेद चिकित्सा में अभ्यंग−मालिश के लिए माषादि तेल, महानारायण तेल, बला तेल, ज्योतिष्मती तेल, (मालकाँगनी तेल) आदि प्रभावकारी बताए गए हैं लेकिन यहाँ पर एक सर्वाधिक प्रभावी व बनाने में सरल पक्षाघातनाशक तेल की विधि बताई जा रही है, जिसे हर कोई आसानी से बना सकता है व सभी प्रकार के लकवे या पक्षाघात तथा वात दरदा के अभिशाप से मुक्ति पा सकता है। तेल इस प्रकार बनाया जाता है−
1. आँक के हरे पत्ते 2. सेहुँड (थूहर) 3. काले धतूरे के हरे पत्ते 4. एरंड के हरे पत्ते 5. बकायन या निर्गुंडी के हरे पत्ते 6. सँभालू के हरे पत्ते 7. सहजने के पत्ते 8. भृंगराज के पत्ते 9. महुए के पत्ते 10. भाँग के पत्ते 11. सहदेई 12. असगंध के पत्ते 13. मालकाँगनी के पत्ते या बीज। इन सभी को संभाग से लेकर कूट−पीसकर इनका रस निकाल लें। रस के वजन के बराबर मात्रा में काले तिल का तेल मिलाकर उसे एक कड़ाही में मंद आँच पर पकने दें। जब मात्र तेल बच रहे, तब ठंडा होने पर उसे छानकर बोतल में भर लें। पीड़ित अंग पर दो−तीन बार मालिश करते समय तेल में थोड़ा−सा पिप्पली एवं कालीमिर्च का चूर्ण मिला लें। लकवा, फालिज एवं संधिवात आदि सभी वात व्याधियों में यह अतीव लाभकारी सिद्ध होता है।