Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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रागों से होता है रोग निवारण
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संगीत की सुरलहरियाँ किसे पसन्द नहीं? इसकी मनोनुकूल एवं मधुर ताल एवं लय में कौन भाव-विभोर नहीं हो उठता? संगीत की सुन्दर धुनों का प्रभाव बड़ा गहरा होता है। इससे मन और भाव शान्त एवं प्रसन्न ही नहीं होते बल्कि इनके विकारों एवं समस्याओं का भी निराकरण हो जाता है। इतना ही नहीं संगीत भाव-संवेदना को उभारने उकेरने के अतिरिक्त यह मनुष्य के स्वभाव व आदतों को भी प्रभावित कर देता है। इसी प्रभावोत्पादक प्रभाव से ही म्यूजिक थेरेपी अर्थात् संगीत चिकित्सा का प्रादुर्भाव हुआ जो काफी लोकप्रिय व उपयोगी सिद्ध हो रही है।
संगीत प्रेमी कार्लाइल ने तो यहाँ तक कहा है कि संगीत के पीछे-पीछे खुदा चलता है और जहाँ पर स्वयं भगवान् होगा वहाँ भला कैसे कोई रोग-शोक टिक सकते हैं, वहाँ तो आनन्द का निर्झर बहेगा। कार्लाइल की इस उक्ति को आज के आधुनिक चिकित्सा शास्त्रियों ने यथार्थ में परिणित कर दिखाया है। वस्तुतः संगीत का सूक्ष्म प्रभाव मन के बारीक तन्तुओं एवं सुकोमल भावनाओं पर पड़ता है, और शरीर की समस्त जैविक क्रिया पद्धति इन्हीं मनोभावों के नन्हें तारों से जुड़ी होती है, संचालित व नियमित होती है। यह वह आधार है जो संगीत को चिकित्सा क्षेत्र में भी उपयोगी व उपादेय साबित कर दिया। इसी कारण पाश्चात्य जगत् में ‘म्यूजिक थेरेपी’ प्रचलन बन गई है। इस पद्धति की अनन्त सम्भावनाओं को देखकर डॉ. लीक ने ठीक ही कहा है कि यदि संगीत को दैनन्दिन जीवन में शारीरिक एवं मानसिक आवश्यकता के रूप में उतारा एवं स्वीकारा जा सके तो मानव जाति का बहुत बड़ा लाभ एवं उपकार हो सकता है।
योग के सदृश्य संगीत भी मनुष्य के सुप्त दिव्य क्षमताओं को जागृत करता है। संगीत और योग दोनों ही नाद विद्या के अंतर्गत आते हैं। योग को अनाहत नाद के रूप में जाना जाता है तो संगीत आहत नाद के रूप में। अतः संगीत के स्वरों का सीधा सम्बन्ध मानवीय काया में उपस्थित सात चक्रों से होता है। संगीत के आधारभूत सात स्वर- सा, रे, ग, म, प, ध, नि का सम्बन्ध एक-एक चक्रों से है। मूलाधार का सम्बन्ध ‘सा’ से, स्वाधिष्ठान का ‘रे’, मणिपुर का ‘ग‘, अनाहत का ‘म’, विशुद्ध का ‘प’, आज्ञाचक्र का ‘ध’ एवं सहस्रार का ‘नि’ से माना जाता है। स्वरों का आरोह और अवरोह इन्हीं चक्रों के क्रम में होता है। मूलाधार से सहस्रार की ओर के स्वर को अवरोह कहते हैं। सामान्यतः हृदय, कण्ठ और मूर्धन्य से नाद की उत्पत्ति होती है। संगीत में प्रयुक्त सात स्वर इन्हीं तीन स्थानों से अभिव्यक्त होते हैं। इसी कारण संगीत को हृदय की वाणी के रूप में जाना जाता है।
भारतीय संगीत की रचना स्वरों और चक्रों के सम्बन्धों पर आधारित है। अतः संगीत से एक ओर जहाँ शारीरिक व मानसिक समस्याओं का समाधान मिलता है, वहीं दूसरी ओर प्रसुप्त क्षमताओं का विकास होता है। शास्त्रीय संगीत की चिकित्सीय महत्ता अत्यधिक है। इसका प्रमाण 1933 की एक विस्मयकारी घटना से मिलता है। इन दिनों इटली के तानाशाह मुसोलिनी अनिद्रा रोग से हैरान-परेशान थे। कोई भी चिकित्सा कारगर नहीं हो पा रही थी। यहाँ तक की पाश्चात्य संगीत भी उन्हें कोई लाभ न दे सका। उन्हीं दिनों शास्त्रीय संगीतकार पं. ओंकारनाथ ठाकुर यूरोप की यात्रा पर निकले हुए थे। मुसोलिनी की व्यथा को सुनकर पं. ओंकारनाथ ने राग पुरिया का आलाप किया और आधे घण्टे के अन्दर ही मुसोलिनी को नींद आ गयी। इस घटना से अनेक चिकित्सा शास्त्री एवं वैज्ञानिक आकृष्ट व प्रभावित हुए तथा संगीत चिकित्सा पर नयी-नयी खोज प्रारम्भ हुई।
लन्दन के चिकित्सा वैज्ञानिकों के अनुसार शास्त्रीय रागों का प्रभाव रोगियों पर सकारात्मक होता है। उनका मानना है कि रागों से सर्वप्रथम जो लाभ होता है वह मानसिक शान्ति। क्योंकि राग मानसिक तनाव एवं उदासी दूर करने में सक्षम होते हैं। अनुसंधानकर्त्ताओं ने अपने शोध निष्कर्षों के आधार पर स्पष्ट किया है कि शरीरगत पाँच प्राणों पर संगीत का सीधा प्रभाव पड़ता है। संगीत से शरीर में प्राण ऊर्जा में वृद्धि होनी है। प्राण ऊर्जा की कमी से ही तो शरीर में रोग का निवास होता है और व्यक्ति दुर्बल, कमजोर व अशक्त हो जाता है। संगीत ऐसे लोगों में प्राणों का संचार करता है और आशा एवं उत्साह में अभिवृद्धि करना है जिससे मानसिक विकारों में कमी आती है। भावावेश, तनाव, कुण्ठा, निराशा, मानसिक अस्थिरता, अनियंत्रित क्रोध आदि संगीत से शमित, संतुलित व नियंत्रित होते हैं। उच्च रक्तचाप, माइग्रेन, अनिद्रा, सिर दर्द आदि रोग भी संगीत चिकित्सा से ठीक होते हैं। डॉ. वान्टर एच. वैलेस के कथनानुसार पीलिया, यकृत रोग और अपच भी संगीत के प्रभाव से दूर हो जाते हैं।
संगीत के स्वर केवल मन को ही झंकृत नहीं करते बल्कि शरीर के अंग-प्रत्यंगों पर भी अपनी तान की छाप छोड़ते हैं। डॉ. जेनी के अनुसार भारतीय राग से मस्तिष्क की सिकुड़ी हुई माँसपेशियों को नूतन शक्ति मिलती है। संगीत की स्वर आकृतियाँ कानों की झिल्लियों को प्रकम्पित करती हैं। परिणामतः स्नायु तंत्र के सेन्सरी एवं मोटर नर्वस सजग व सक्रिय होकर शारीरिक प्राण चेतना के प्रवाह को बढ़ा लेते हैं।
भारतीय रागों पर अनुसंधान-अन्वेषण करने वाले चिकित्सा वैज्ञानिक कहते हैं कि राग भैरवी से शरीर में कफजन्य बीमारियाँ दूर होती है। राग आसावरी रक्त अशुद्धियों का शमन करता है। राग मल्हार से क्रोध एवं मानसिक अस्थिरता दूर होते हैं। राग सौरत एवं राग जैजैवन्ती से भी मानसिक रोगों से छुटकारा मिलता है। श्वाँस सम्बन्धी बीमारी, तपेदिक, खाँसी, दमा आदि में राग भैरवी का प्रयोग किया जाता है। राग हिण्डोल से मेधा वृद्धि तथा यकृत व प्लीहा रोगों से आराम मिलता है।
रागों से रोग निवारण होता है, इसके अलावा शंख और घण्टा की ध्वनि भी इस क्षेत्र में चमत्कारिक परिणाम उत्पन्न करती हैं। बर्लिन विश्वविद्यालय में हुए अनुसंधान से पता चलता है कि शंख-ध्वनि की लहरों से बैक्टीरिया और अन्यान्य रोगों के जीवाणु नष्ट होते हैं। प्रति सेकेण्ड सत्ताईस घन फुट की शक्ति से यदि शंख को फूँका जाय तो बाईस सौ फीट के क्षेत्र में रहने वाले बैक्टीरिया मर जाते हैं और छब्बीस सौ फीट क्षेत्र के बैक्टीरिया निष्क्रिय हो जाते हैं। इसके साथ ही मलेरिया के कीटाणुओं का दुष्प्रभाव भी खत्म हो जाता है। शंख ध्वनि का प्रभाव मिर्गी, मूर्च्छा, कण्ठमाला तथा कोढ़ जैसे रोगों में अद्भुत रूप से देखा गया है। शिकागो के डॉ. डी ब्राइन ने शंख ध्वनि के माध्यम से हजारों बहरे रोगियों को ठीक कर पौराणिक मान्यता को सही कर दिखाया। इस दिशा में मास्को, सेनेटोरियम, जर्मनी, हालैण्ड आस्ट्रेलिया के कई शोध केन्द्रों में अन्वेषण जारी है। यह प्रयोग उत्साहवर्धक हैं। वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है कि शंख ध्वनि एवं राग विशेष के स्वरों से मानसिक उपचार किये जा सकते हैं।
डॉ. हेकेने की मान्यता है कि म्यूजिक थेरेपी में पाश्चात्य और पूर्वी संगीत को उपयोग में लाया जाता है। परन्तु भारतीय शास्त्रीय संगीत में रोग निवारण की क्षमता अपेक्षाकृत अत्यधिक होती है। हालाँकि वर्तमान में प्रचलित रॉक, जेज, बल्यू, रैप आदि पाश्चात्य संगीत अत्यधिक लोकप्रिय हो रहे हैं। हाइबिट्स से लोग इन्हें पसन्द जरूर करते हैं, परन्तु इसका शारीरिक दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहा है। इस संदर्भ में स्वीडन तथा जर्मनी में अनेक शोध कार्य कर चुके डॉ. बालाजी ताम्बे का कहना है कि रॉक तथा हाईबिट्स संगीत को कम समय जैसे 5-10 मिनट तक सुनने से तो स्फूर्ति आती है, आलस्य दूर होता है। पर लगातार सुनने से रीढ़ की हड्डियों में कई प्रकार की समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। कान के अन्दर का द्रव सूख जाता है। इसी कारण चिकित्सा में भारतीय शास्त्रीय संगीत ही अधिक उपयोगी साबित हो रहे हैं।
संगीत चिकित्सा संवेदना के तारों से संचालित होती है। इसकी स्वर लहरियाँ तथा तरंगें स्नायु तंत्र को आन्दोलित-उद्वेलित कर रोगी को निरोग बनाने में सहायक होती है। इसी वजह से संगीत का सबसे सफल चिकित्सा उपचार मानसिक रोगों के निराकरण में किया जा रहा है। इससे मन स्थिर व शान्त रहता है तथा भाव सरस व सुविकसित हो उठता है।
म्यूजिक थेरेपी की इस सफलता को देखकर यह कहा जा सकता है कि संगीत विद्या में अनेकों सम्भावनाएँ सन्निहित हैं। संगीत की धुनों और ध्वनि तरंगों में मंत्र विद्या की विलुप्त कड़ियों को यदि ढूंढ़ा व जोड़ा जा सके तो मंत्र चिकित्सा की भावी एवं नूतन पद्धति को विकसित किया जा सकता है। यह मानव जीवन के लिए एक वरदान सिद्ध हो सकती है।