Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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ऐसा जीवन किस काम का
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अमेरिका के एक वैज्ञानिक के दिमाग में एक बार एक विलक्षण विचार कौंधा। उसने सोचा कि यदि अपने शरीर को मेंढ़कों की शीत और ऊष्ण निष्क्रियता की तरह सुषुप्तावस्था में ले आया जाए तो फिर अनेक वर्ष बाद जागने पर कैसी अनुभूति होगी? यह जानने के लिए एक इंजेक्शन लगाकर अपने शरीर को प्रशीतित (डीप फ्रीज) कर लिया। इस क्रिया से पूर्व उसने अपनी पत्नी को संपूर्ण प्रक्रिया समझा दी थी और बता दिया था कि जब उसकी (पत्नी की) उम्र 50 वर्ष की हो जाए तो वह दूसरा इंजेक्शन उसकी देह में लगा दे। प्रशीतन क्रिया समाप्त हो जाएगी और वह जग पड़ेगा।
ऐसा ही किया गया। ठीक 50वें वर्ष पत्नी ने ताबूत में मृतप्राय बंद प्रति की काया में सुई लगा दी। धीरे−धीरे शरीर में प्राणचेतना लौट आई वह जग पड़ा। जगते ही उसकी दृष्टि पत्नी पर पड़ी। उसका झुर्रीदार चेहरा, सिर पर की श्वेत केशराशि उसकी अधेड़ावस्था का स्वयं बखान कर रही थी। इसके उपराँत उसने स्वयं को निहारा। वह 25 वर्ष का नवयुवक प्रतीत हो रहा था। इससे वह रोमाँचित हो उठा और गदगद अनुभव करने लगा। वह अपने प्रयोग में पूर्ण सफल रहा था।
यह किसी सचमुच के प्रयोग का प्रसंग नहीं, एक विज्ञान कथा के लेख का अंश है। अब वैज्ञानिक इसी तर्ज पर मनुष्य को लंबी उम्र देने की दिशा में अनुसंधानरत हैं, जिसमें उनने कुछ सफलता भी हस्तगत की है। पिछले दिनों इस तरह के प्रयोग बंदरों पर किए गए। कैलिफोर्निया की ‘बायोटाइम’ अनुसंधान कंपनी ने कुछ बंदरों को बरफ द्वारा प्रशीतित करने के कुछ घंटे पश्चात उन्हें फिर से जीवित कर दिया। इससे वैज्ञानिकों का उत्साह बढ़ा और अब वे उन्हें कई दिनों तक प्रसुप्तावस्था में रखने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयोग की विस्तृत जानकारी ‘अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ एंटी एजिंग मेडिसिन’ की वार्षिक बैठक में दी गई। इस प्रक्रिया के मूल में ‘हेक्सटेण्ड’ नामक एक रसायन है। यह रसायन उन प्राणियों के रक्त का स्थान ग्रहण करता है, जिन्हें लम्बी नींद सुलानी है। उनके शरीर से रक्त को निकालकर उसकी जगह उक्त रसायन को भर दिया जाता है। देह में इसे प्रविष्ट कराने का एक विशेष कारण यह है कि शरीर को मूर्च्छित कर जब उसे 1 डिग्री सें0 ग्रे0 तक ठंडा किया जाता है, तब इस अत्यधिक ठंड से ऊतकों को हानि पहुँचने की संभावना रहती है। हेक्सटेंड शरीर के ऊतकों में पहुँचकर उक्त संभाव्यता को निरस्त कर देता है। इस संबंध में अनुसंधान दल के प्रमुख हॉल र्स्टनबर्ग का कहना है कि मेंढ़कों में हाइबरनेशन (शीत निष्क्रियता) और एस्टीवेशन (ऊष्ण निष्क्रियता), ध्रुवीय भालुओं में हाइबरनेशन एवं मनुष्यों में ‘समाधि’ में लगभग एक जैसी क्रियाएँ होती हैं। इन सबका गहन अध्ययन हो रहा है और यह जानने का प्रयास किया जा रहा है कि आखिर इनमें शारीरिक क्रियाएँ इतनी मंद क्यों और कैसे हो जाती हैं?
समाधि में तो जीवन के बाह्य लक्षण तक लुप्त हो जाते हैं। इतने पर भी व्यक्ति वर्षों तक जीवित रहता है और यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है कि वह कब इस स्थिति से बाहर आए। यदि रसायनों द्वारा हम यह स्थिति लाने में सफल रहे तो फिर व्यक्ति को लंबी नींद सुलाया जा सकना संभव होगा। इतना ही नहीं, इससे उसकी आयु भी इच्छानुसार बढ़ाना सरल हो जाएगा। इसके अतिरिक्त एक और महत्त्वपूर्ण लाभ यह होगा कि आदमी की कायिक आयु (बायोलॉजिकल एज) को लंबे समय तक स्थिर रखना शक्य हो जाएगा। जब तक शरीर निष्क्रिय स्थिति में रहेगा, तब तक उसकी उम्र भी स्थिर प्रतीत होगी। लंबी निद्रा के बाद जागने पर वह उसी अवस्था का दिखलाई पड़ेगा, जिस आयु और अवस्था का वह सोते समय था।
यहाँ कुछ वैज्ञानिक आयु बढ़ाने की इस प्रक्रिया से सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि तात्त्विक दृष्टि से आयु बढ़ाना इसे तभी कहा जा सकेगा, जब व्यक्ति उस अतिरिक्त आयु से लाभ उठाए। जो सोया पड़ा हो, निष्क्रिय दशा में डूबा हुआ हो, वह तो मृत के समान है। जीवन का वह भाग तो कार्य की दृष्टि से निरर्थक ही हुआ। दार्शनिक ढंग से कहें तो यह मनुष्य की मृत्यु है। यथार्थ देहाँत तो एक चिरंतन सत्य है। उसे तो कोई भी रोक नहीं सकता, वह तो हर एक के साथ घटित होगा, पर जो जीते−जी मृतक के समान हैं, वह मरण तो वास्तविक मृत्यु से भी खराब है। फिर वैसे जीवन से क्या लाभ, जहाँ मृत्यु जीवन में ही घटित हो जाए। निष्क्रियता मरण है, सक्रियता जीवन। मनुष्य का मूल्याँकन इस बात पर निर्भर है कि उसने जिंदगी के कितने वर्ष किन−किन महत्त्वपूर्ण कार्यों में गुजारे और उससे समाज का कितना कल्याण हुआ। सवाल यहाँ आयु की दृष्टि से वयोवृद्ध हो जाने का नहीं है। प्रश्न यह है कि हमने उस जीवन के कितने भाग लोक−मंगल में बिताए। मनुष्य का वास्तविक जीवन यही है। हमारी साँसें कितने वर्षों तक चलीं, इस बात पर मनुष्य−जन्म की सार्थकता नहीं समझी जा सकती। यह भी एक प्रकार की निश्चेष्टता है और इसे भी मरण की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि जो जीवन सक्रिय नहीं, वह निरुपयोगी और बेकार है। उससे पिंड छुड़ाया जाना चाहिए।
यहाँ मन में एक सवाल यह उठता है कि विज्ञान इन जटिल प्रक्रियाओं में क्यों उलझना चाहता है और जो सरल है, प्रत्यक्ष है, उस पर गंभीर अध्ययन क्यों नहीं करता? यहाँ चर्चा योग विज्ञान की, की जा रही है। योग में ऐसा प्रावधान है, जिसके अनुपालन से न सिर्फ वय बढ़ाना संभव है, वरन् कायिक आयु को घटना और स्थिर रखना भी सरल है। विज्ञान यदि योग प्रक्रिया के अध्ययन को अपनाता है तो इससे एक साथ सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी। आयुष्य भी बढ़ेगी, उसे स्थिर भी रखा जा सकेगा और इस क्रम में जीवन सक्रिय भी बना रह सकेगा। निष्क्रिय का दोष पल्ले न बँधेगा। योगी−यती आएदिन इसे अपनाते देखे जाते हैं और अपनी शताधिक आयु को युवकों जैसी बनाए रखते हैं।
एक बार बंगाल के प्रसिद्ध योगी निगमानंद किसी योग्य योग गुरु की तलाश में भटक रहे थे। इस क्रम में एक बार उन्हें एक जंगल से होकर गुजरना पड़ा। वहाँ उन्हें दो कश्मीरी बालाएँ मिलीं। देखने से वे 20 वर्षीय प्रतीत हो रही थीं। निगमानंद को आश्चर्य हुआ कि इतनी कम वय की युवतियाँ एकाकी इस सघन वन में! पूछने पर पता चला कि उन्हें योग विज्ञान में महारत हासिल है और उनकी वास्तविक उम्र 20 वर्ष की, 80 वर्ष है। इस उम्र में जबकि संपूर्ण शरीर में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, बाल सन के−से सफेद हो जाते हैं, अंग−अवयवों में शिथिलता आ जाती है, वे महिलाएँ बिलकुल तंदुरुस्त एवं स्फूर्तिवान थीं।
इसे योग विज्ञान का चमत्कार कहना चाहिए कि इसमें कायिक आयु को एक जैसी स्थिति में लंबे काल तक स्थिर रखा जा सकना संभव है। भौतिक विज्ञान अब इसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए अपने स्तर पर प्रयास कर रहा है, जिसमें शायद वह कुछ सफल भी हो जाए, पर थोड़ी सफलता मिल जाने का यह अर्थ नहीं कि उसे संपूर्ण सफलता मिल जाएगी और मानवेत्तर प्राणियों पर आजमाया गया प्रयोग मानवों में भी सफल एवं सार्थक कहा जाएगा। पदार्थ विज्ञान के साथ सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वह मनुष्य को मुरदे की तरह जिंदा रखना चाहता है। इस कार्य में यदि उसे सफलता मिल भी गई तो उसकी उपयोगिता क्या होगी, यह समझ से परे है।
जीवन का एक−एक क्षण मूल्यवान है। उसका सदुपयोग होना चाहिए, न कि मुरदे की तरह जड़वत् पड़ा रहकर उसे बरबाद किया जाना चाहिए। विज्ञान इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए नई तकनीक की खोज कर रहा है, जबकि कई बार यह अवस्था संयोगवश प्राप्त हो जाती है, तब पता चलता है कि इस प्रकार का जीवन कितना दुःखदायी है। पिछले दिनों ऐसे कई उदाहरण शरीरशास्त्रियों के समक्ष, प्रस्तुत हुए, जिनमें व्यक्ति किन्हीं दुर्घटनाओं का शिकार होकर वर्षों ‘कॉमा’ की स्थिति में पड़े रहे। उनका जीवन शरीरविज्ञानियों और सगे−संबंधियों के लिए भारभूत बना रहा। उनकी सेवा शुश्रूषा में जो समय और साधन व्यय हुआ, उससे कितने ही लोकोपयोगी कार्य किए जा सकते थे, पर संभव न हो सके। यहाँ कहने का यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि ऐसे बीमारों की शुश्रूषा नहीं की जानी चाहिए। कहा मात्र इतना जा रहा है कि विज्ञान यदि किन्हीं प्रक्रियाओं के अंतर्गत व्यक्ति को मिलती−जुलती दशा में लाकर आयुष्य बढ़ाने का स्वाँग रचता है, तो इससे न तो उस व्यक्ति विशेष का हितसाधन होने वाला है और न ही समाज का। यह मात्र एक कौतुक−क्रिया होगी, जिसे हर प्रकार से हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
विगत दिनों इस प्रकार की एक घटना पटना में प्रकाश में आई। हुआ यों कि वहाँ एक महिला लगभग एक वर्ष से ‘कॉमा’ की स्थिति में पड़ी हुई थी। पटना मेडिकल कॉलेज के चिकित्सकों ने उसे सामान्य दशा में लाने के बहुतेरे प्रयास किए, पर सफल न हो सके। अंततः घर वालों को उसे वापस घर ले जाना पड़ा। पिशाच पति को उसकी उक्त दशा पर तनिक भी दया न आई और उसे गर्भवती बना दिया। जड़वत् पड़ी पत्नी प्रतिरोध करती भी तो कैसे, वह तो संज्ञाशून्य पड़ी थी। एक बार पुनः उसे पटना मेडिकल कॉलेज ले जाना पड़ा, जहाँ डॉक्टरों की मशक्कत से उसे सुरक्षित प्रसव कराया गया। इससे यह अंदाज लगाना कठिन नहीं कि यह अवस्था कितनी अप्रिय होती है, जिसमें आदमी को दूसरों की दया पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में काया से अवाँछनीय छेड़छाड़ संभव है? निर्मम व्यक्ति विद्वेष भाव से अथवा प्रतिशोध में आकर शरीर को नुकसान पहुँचाने से हिचकेगा नहीं।
देह को प्रशीतित करके जीवित बनाए रखना एक बात है और उसको गतिशीलता प्रदान करना सर्वथा दूसरी। एक में प्रच्छन्न जीवन है, दूसरी में जीवंतता, गतिशीलता। संसार की हर गतिशील प्रच्छन्न प्रक्रिया हमें प्राणवान बनने का संदेश देती है। यह गति, यह स्पंदन, यह सक्रियता जिसमें जितनी होगी, उसे उतना ही प्राणवान माना जाएगा और समझा जाएगा कि वह अपने जीवन का मालिक आप है। दूसरों की दया पर तो पशु−पक्षी जीते हैं। हम उतना निर्बल क्यों बनें! विज्ञान को यह बात समझनी होगी और आयुष्य−संवर्द्धन संबंधी निर्णय पूर्णतः समाज पर छोड़ देना होगा कि वह उसे स्वीकार करे या अस्वीकार।