Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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तनाव प्रबंध के कुछ सटीक सूत्र
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तनाव मनःस्थिति से उपजा विकार है। मनःस्थिति एवं परिस्थिति के बीच असंतुलन एवं असामंजस्य के कारण तनाव उत्पन्न होता है। तनाव एक द्वन्द्व है जो मन एवं भावनाओं में गहरी दरार पैदा करता है। तनाव अन्य अनेक मनोविकारों का प्रवेश द्वार है। उससे मन अशान्त, भावना अस्थिर एवं शरीर अस्वस्थ अनुभव करते हैं। ऐसी स्थिति में हमारी कार्यक्षमता प्रभावित होती है और हमारी शारीरिक व मानसिक विकास यात्रा में व्यवधान आता है। इससे बचने का एकमात्र उपाय है परिस्थिति के साथ तालमेल रखना जिससे तनाव रूपी मनोविकार को हटाया-मिटाया जा सके।
परिस्थिति को अस्वीकार न करने पर तनाव पैदा होता है और यह तनाव कई प्रकार का होता है। पारिवारिक तनाव, आर्थिक तनाव, आफिस का तनाव, रोजगार का तनाव, सामाजिक तनाव, तनाव के विभिन्न स्वरूप हैं। मनोनुकूल परिस्थिति-परिवेश के अभाव में व्यक्ति उद्विग्न, अशान्त एवं तनावग्रस्त हो उठता है। इसमें केवल एक व्यक्ति प्रभावित होता है, परन्तु यह सीमा जब व्यक्ति को लाँघकर परिवार में पहुँच जाती है तो परिवार तनावग्रस्त हो जाता है। पारिवारिक तनाव से परिवार के आपसी संवेदनशील रिश्तों में दरार एवं दरकन पैदा हो जाती है। जिससे छोटी-छोटी बातों को प्रतिष्ठ का प्रश्न बनाकर कलह एवं कहासुनी जैसी उलझनें खड़ी कर दी जाती हैं। सुन्दर व सुरम्य पारिवारिक वातावरण व्यंग्य और तानों का दंगल बन जाता है।
वैयक्तिक एवं पारिवारिक स्तर पर सम्पदा व सम्पत्ति के सुनियोजन एवं सुव्यवस्था के अभाव में आर्थिक तनाव का जन्म होता है। उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के कारण अपव्यय एवं अनियमितता में वृद्धि हुई है, जिससे यह संकट और भी गहरा हुआ है। सामाजिक तनाव समाज के विभिन्न घटकों, समूहों एवं वर्गों के बीच आपसी तालमेल के होने से उत्पन्न होता है। आज का व्यक्ति, परिवार व समाज तनाव के इस विघटन, टूटन एवं ढरकन से ग्रस्त है। व्यक्ति हो या समाज आज ये इस कदर तनाव ग्रस्त हैं कि उन्हें अपना भार भी असह्य एवं भारी लग रहा है। वे अपने ही बोझ से दबे-कुचले किसी तरह अपना गुजर-बसर कर रहे हैं।
तनाव परिस्थिति से नहीं मनःस्थिति से उपजता है। अगर ऐसा नहीं होता तो विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशा, उत्साह एवं उमंग की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। जीवट के धनियों एवं मनीषियों ने प्रतिकूलताओं में जीवन की राह खोजी है तथा अपने गंतव्य तथा लक्ष्य को प्राप्त किया है। सूरदास, अष्टावक्र, अब्राहम लिंकन आदि मनीषियों ने शारीरिक कुरूपता को बोझजन्य तनाव नहीं माना और इसी समाज में उत्कर्ष व सफलता की बुलन्दियों को स्पर्श किया। सन्त तुकाराम का पारिवारिक जीवन तनाव के घनघोर कुहासों में घिरा हुआ था परन्तु वे इसी कुहाशा-हताशा के आवरण को चीरकर भक्ति की भावधारा में सदा सराबोर रहते थे। कबीरदास के जीवन में आर्थिक तनाव सघन घन बनकर बरसा था। परन्तु वे प्रभु के अलावा किसी के आगे हाथ नहीं पसारे, याचना नहीं की और वे अलमस्त एवं आनन्दपूर्वक जिन्दगी जीकर दिखा दिये। सामाजिक निन्दा, अपमान एवं तिरस्कार रूपी गहन आँधी-तूफान के बीच मीराबाई ने कृष्ण भक्ति की ज्योति जलाई। विपरीत परिस्थितियों में इन महामानवों ने जितना कर दिखाया उतना तो सामान्य एवं सहज परिवेश में भी सम्भव नहीं है और इसका एकमात्र कारण है, मनःस्थिति की सुदृढ़ता-सशक्तता। अतः तनाव परिस्थितियों में नहीं दुर्बल व अशक्त मनःस्थिति में वास करना है। मनीषियों व मनस्वियों को यह स्पर्श नहीं कर पाता है।
तनावजन्य मनोविकारों का आक्रमण केवल दुर्बल व कमजोर मानसिकताओं पर होता है। परिस्थिति तो सबके लिए समान होती है। एक ही परिस्थिति में रहने वालों में से संकल्पवान् अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है और विकल्प तलाशने वाला केवल विकल्प तलाशते रह जाता है। परिस्थितिजन्य तनाव ही प्रमुख व प्रबल होता तो एवरेस्ट के शिखर पर चढ़ा नहीं जा सकता था, अटलाँटिक क्षेत्र की दुर्वह शीत में रहकर अनुसंधान नहीं किया जा सकता था और ज्वालामुखी की भीषण गर्मी में उतरने का साहस नहीं संजोया जा सकता था। अतः तनाव न तो परिस्थितियों में और न मनस्वियों में पनपता है। यह पनपना तो है केवल कमजोर व संशयी मनःक्षेत्र में। जिसका मन परिस्थिति से तालमेल नहीं बैठा पाता उसी के अन्दर तनावजन्य विकृतियाँ अपना जाल बुनती हैं। ऐसे व्यक्तियों का तंत्रिका तंत्र मन के आवेग को सहने-सम्भालने हेतु असमर्थ होता है। कष्ट, कठिनाइयों का हल्का झोंका भी इन्हें तार-तार कर देता है।
तनाव मुख्य रूप से सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है। तनाव से यह तंत्रिका तंत्र अत्यन्त सक्रिय हो जाता है। इसकी सक्रियता हृदयगति एवं रक्त शर्करा के स्तर को बढ़ाने में सहायक होती है। इससे घबड़ाहट होती है एवं सिर भारी रहता है। ऐसी अवस्था में नकारात्मक विचार उठते हैं और मन में निराशा-हताशा के बादल मण्डराने लगते है। ये नैराश्यजनक विचार सेरिब्रल कॉर्टेक्स को प्रभावित करते हैं। तनाव के दौरान सक्रिय सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम एड्रेनेलीन एवं नारएड्रेनेलीन हार्मोन का स्राव तेज कर देता है। एड्रेनेलीन के अधिक स्राव से हृदय गति बढ़ जाती है तथा माँसपेशियों में विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। नारएड्रेनेलीन हार्मोन रक्तवाही नलिका को संकुचित कर देता है, परिणामस्वरूप रक्त का दबाव बढ़ जाता है।
तनाव मन से उत्पन्न होता है अतः तनाव से मन प्रभावित होता है। यह प्रभाव अन्तःस्रावी ग्रन्थियों में भी हलचल उत्पन्न करता है। आधुनिक साइको एण्ड्रोक्राइनो-लॉजी के अनुसार मन और अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के बीच अंतर्संबंध होता है। हालाँकि इस संदर्भ में स्पष्ट प्रतिपादन नहीं हो सका है, परन्तु यह सुनिश्चित तथ्य है कि मन अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को सूक्ष्म रूप से प्रभावित करता है। तनाव के दौरान पिट्यूटरी, थाइराइड, पीनियल एवं एड्रीनल ग्रन्थियाँ अतिक्रियाशील हो उठती हैं। एड्रेलीन ग्रन्थि से उत्पन्न एड्रेनेलीन हार्मोन को तो तनाव हार्मोन कहा जाता है। क्योंकि तनाव के हल्के झोंके से इसका स्राव आरम्भ हो जाता है। तनाव से ACTH (एड्रीनोकार्टिकल हार्मोन या कार्टीसोल) का स्तर एकाएक बढ़ जाता है। कार्टीसोल सोचने-विचारने की प्रक्रिया को तीव्र कर देता है परन्तु इसकी अधिकता एवं स्थायित्व अत्यन्त हानिकारक होता है। मिसौरी यूनिवर्सिटी के एक अनुसंधान से ज्ञात हुआ है कि एक फुटबाल खिलाड़ी में फुटबाल खेलने के पश्चात् कार्टीसोल के स्तर में वृद्धि हो जाती है जो कई घण्टों के बाद अपने सामान्य स्तर में आता है। मानसिक तनाव से भी कार्टीसोल की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि इसे सामान्य स्तर में आने के लिए कई दिन लग जाते हैं।
तनावजन्य नकारात्मक एवं निषेधात्मक विचारों से शरीर की प्रतिरक्षात्मक प्रणाली पर भी विपरीत असर पड़ता है। तनाव की अवधि में WBC (श्वेत रुधिर कणिकाएँ) की सहज सक्रियता कम हो जाती है। ये कणिकाएँ शरीर की रोगों से रक्षा करती हैं तथा शरीर को स्वस्थ एवं निरोग बनाये रखने में अहम् भूमिका निभाती हैं, परन्तु तनाव इस प्रतिरक्षात्मक प्रणाली की मुस्तैदी को कम कर रोगों को प्रवेश करने का अवसर प्रदान करता है। नकारात्मक विचार मस्तिष्क में एण्डार्फीन हार्मोन को घटा देता है जबकि सकारात्मक सोच इसमें अभिवृद्धि करती है। यह हार्मोन प्रतिरक्षा प्रणाली को पुष्ट एवं सुदृढ़ बनाता है जिससे शरीर स्वस्थ एवं प्रसन्न रहता है।
तनाव से मन में कई प्रकार के मनोविकार अपना स्थायी आवास बना लेते हैं। डब्ल्यू. आर. लोवलो ने अपने शोध ग्रन्थ ‘स्ट्रेस एण्ड हेल्थ’ में इस विषय में अनेक अनुसंधान-अन्वेषण के निष्कर्षों का उल्लेख किया है। इनके अनुसार तनाव से चिड़चिड़ापन पैदा हो जाता है। ऐसे व्यक्ति बातों-बातों में चिड़चिड़ा उठते हैं। इनका मानसिक असंतुलन लगभग गड़बड़ा जाता है, परिणामस्वरूप नींद न आना, हताशा-निराशा कल्पनाओं में खोए रहना, डरना आदि मनोरोगों का प्रादुर्भाव होता है। ऐसे लोगों में निर्णय करने की क्षमता नहीं होती है। और यह सही भी है क्योंकि निर्णय तो शान्त मस्तिष्क एवं स्थिर भाव-विचारों की स्थिति में लिया जाता है। इनको मेहनत एवं श्रम के अनुरूप परिणाम नहीं मिलता। इनका अधिकतर समय, श्रम एवं चिंतन व्यर्थ के कार्यों में नियोजित होता है। इस कारण ऐसे लोगों को सदैव असफलता का मुँह देखना पड़ता है जिससे इनका आत्मविश्वास डिगा हुआ होता है।
तनाव शारीरिक एवं मानसिक आधि-व्याधियों का मूल स्रोत है। इसकी गहराई में उतरा जाये तो एक ही तथ्य प्रकट होता है और वह है अहं। अर्थात् तनाव का मूल कारण अहंकार है। अहंकार संसार की समस्त वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है, परन्तु ऐसा सम्भव है नहीं । और यह असम्भव असामंजस्यता पैदा करता है। जिसके कारण तनाव सिर उठाने लगता है। तनाव को पूर्णतया दूर करने के लिए आवश्यक है अहंकार की परतों को हटाना-मिटाना। क्योंकि अहंकार हर छोटी बातों को प्रतिष्ठ का प्रश्न बनाकर फुफकारने लगता है। फिर सामंजस्य एवं समरसता कैसे आ सकती है। इसके अभाव में तनाव प्रबन्धन कारगर नहीं हो सकता है। तनाव प्रबन्धन इसी को ध्यान में रखकर किया जाये तो सफल हो सकता है।
तनाव प्रबन्धन के अंतर्गत 'OCTAPAC'वर्कशाप कारगर सिद्ध हो रही है। इसका तात्पर्य है
O=openness (खुलापन), C=collaboration (सहयोग),
T=trust (विश्वास),
A=autonomy (स्वायतता), P=possibility (सम्भावना), A=authenticity (प्रामाणिकता), C=contribution (योगदान)।
‘OCTAPAC’ के इस वर्कशॉप में तनाव प्रबन्धन का स्वरूप झलकता है। तनाव प्रबन्धन का प्रथम सूत्र है वैचारिक खुलापन अर्थात्, आग्रह, पूर्वाग्रह, हठाग्रह का अभाव। अच्छे विचारों को स्वीकृति एवं समर्थन देना चाहिए। इसी के आधार पर सहयोग-सद्भाव की भूमि तैयार होती है। सहयोग से स्वार्थवृत्ति मिटती है और सेवा का भाव पनपता है जिसमें अपना विश्वास प्रगाढ़ होता है। विश्वास ही विकास का मूल मंत्र है, उन्नति-प्रगति का साधन सोपान है। इस स्थिति में आकर ही स्वायत्तता की परिकल्पना की जा सकती है और स्वतंत्र रूप से अपनी योजना को कार्यरूप प्रदान किया जा सकता है। इसी में आन्तरिक चेतना का परिष्कार तथा बाह्य उन्नति की समस्त सम्भावना सन्निहित है। सम्भावना जब मूर्त रूप लेती है तो प्रामाणिकता के रूप में अभिव्यक्ति पाती है। प्रामाणिकता आत्मविश्वास को जन्म देती है तभी महान् कार्य हेतु स्वयं का योगदान सम्भव हो सकता है और दूसरों का सहयोग मिल सकता है।
तनाव प्रबन्धन के इन सूत्रों में तनाव का समाधान समाहित है। इसके साथ आवश्यक है सर्व शक्तिमान ईश्वर के प्रति श्रद्धा-आस्था की भावना। ईश्वर सर्व समर्थ है। वह हमारी हर समस्याओं का समाधान, हर कठिनाइयों का हल एवं हताशा के कुहासे में ज्योतिर्मय पथ प्रदर्शक है। वह हमारे तनाव का निवारक भी है। वह हमारे हर मनोविकारों के सघन जंजाल को काटकर उत्साह, आनन्द एवं प्रकाश से भर सकता है। अतः उसकी स्मृति को हृदय में बनाये रखने के लिए गायत्री मंत्र की एक माला का न्यूनतम जप करना चाहिए। प्रत्येक दिन अपने नये जीवन का आत्मबोध एवं प्रत्येक रात्रि अपनी मृत्यु का अनुभव तत्त्वबोध भी तनाव मुक्ति के लिए रामबाण साधन है। ईश्वर के प्रति गहन आस्था एवं तत्त्वबोध-आत्मबोध की साधना से मनःस्थिति इतनी सक्षम-समर्थ हो जाती है कि वह किसी भी परिस्थिति से तालमेल कर अपने अभीष्ट लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकती है। यही तनाव का एकमात्र निदान है और उच्चस्तरीय जीवन का पाथेय पथ भी है।