Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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गुस्सा क्यों करते हैं आप
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क्रोध सामान्य मानव की जीवनचर्या का अभिन्न अंग है। आज लोग बात-बात पर गुस्सा करते देखे जाते हैं परन्तु क्रोध मनुष्य का स्वभाव नहीं है। मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान के विभिन्न शोध परिणामों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य स्वभावतः क्रोधी नहीं होता अपितु सभ्यता के विकासक्रम में किन्हीं कारणों से वह मानव जीवन में सम्मिलित हो गया है।
मनुष्य स्वभावतः शान्त प्राणी है। फिर वे कौन से कारण हैं जो मनुष्य की शान्ति भंग कर उसे क्रोधी व अशान्त बना देते हैं? मनोविज्ञान के अनुसार यह उसके सीखने-सिखाने की अद्भुत विशेषता के कारण होता है। मनुष्य जब अपनी क्षमताओं का सही सदुपयोग नहीं करता तो वे गलत दिशा में नियोजित हो जाती हैं। पिछली कुछ पीढ़ियों से उसे यह दुर्गुण विरासत के रूप में मिलता चला आ रहा है जो आज उसमें आदत के रूप में रच-बस गया है। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया द्वारा प्राणी की किसी भी प्रवृत्ति को नियंत्रित, परिवर्तित अथवा आदत में सम्मिलित किया जा सकता है। इसे सोवियत वैज्ञानिक इवान पावलोव ने एक कुत्ते पर प्रयोग कर सिद्ध कर दिखाया। जब भी कुत्ते को खाना देना होता, वे पहले घण्टी बजाते फिर भोजन देते। यह प्रक्रिया अनेक दिनों तक चलती रही। घण्टी बजती, कुत्ता उपस्थित होता व भोजन कर चला जाता। कुछ दिनों में ही उसके मस्तिष्क में यह बात बैठ चुकी थी। घण्टी बजने का अर्थ भोजन दिया जाना है। अतएव दूसरे अवसरों पर भोजन देखने के बाद भी वह उस ओर से निरपेक्ष ही बना रहता, क्योंकि वह अच्छी तरह समझ चुका था कि यह उसके लिए नहीं है।
इस प्रयोग के द्वारा यह सिद्ध हो गया कि कोई भी आदत प्राणी तब तक आत्मसात् नहीं कर सकता, जब तक वह इस प्रकार की किसी प्रक्रिया से होकर न गुजरा हो। सामान्य जीव-जन्तु से लेकर अविकसित मनुष्य सभी में यह सिद्धान्त समान रूप से लागू होता है। कुछ अपवादों को छोड़कर जो कि अपनी अंतःप्रेरणा से स्वतः ही सीख लेते हैं, शेष सभी को प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। सिंह-शावकों की स्थिति बकरी के बच्चों जैसी ही होती है। कलेवर भले ही उन्हें सिंह का मिला होता है पर व्यवहार में वे भी अनाक्रामक, अहिंस्र जंतुओं जैसे ही होते हैं। यह तो उनके माता-पिता ही होते हैं जो उन्हें नियमित प्रशिक्षण देकर उन्हें अपने मूल स्वरूप में आक्रामक पशु के रूप में गढ़ देते हैं। यदि आरम्भ से ही इन सिंह-शावकों को अहिंस्र पशुओं के साथ रख दिया जाये तो वे भी उनके जैसे ही अहिंसक बनते देखे जाते हैं। शावक अपने वरिष्ठों के शिक्षण प्रक्रिया द्वारा ही आक्रमण प्रत्याक्रमण के घात-प्रतिघात सीखते और तदनुरूप आदत की वंश-परम्परा बनाये रखते हैं।
मनुष्य भी इसका अपवाद नहीं है। जन्म के बाद उसके चलने, बोलने, पढ़ने, सीखने और सुसभ्य बनने तक में यही विद्या काम आती है। सामान्यतः यदि किसी अबोध बच्चे को मानवी समुदाय से पृथक् कर पशुओं के समुदाय में रख दिया जाये तो वह अपने सुविकसित व सुसंस्कृत प्राणी के समस्त लक्षणों को भुला बैठता है। रामू भेड़िये कि वास्तविकता सर्वविदित है।
उपरोक्त तथ्यों से यह पता चलता है कि मनुष्य स्वभाव से ही क्रोधी नहीं है, न ही क्रोध उसकी मूल प्रवृत्ति है। जो ऐसा मानते हैं, वे निश्चित रूप से मानवी मस्तिष्क को ठीक से समझ नहीं पाते। ऐसे लोग शायद क्रोध को मनुष्य की चारित्रिक विशिष्टता समझ लेते हैं। यदि क्रोध मनुष्य की मूल प्रवृत्ति ही होती तो सन्त व सज्जनों में, ऋषियों-महर्षियों में इसकी अनुपस्थिति की व्याख्या करना किस प्रकार संभव होता। जबकि अनाचारी, अत्याचारियों में क्रोध उनका नैसर्गिक गुण प्रतीत होता है। इस अन्तर्विरोध की स्थिति में मनोवैज्ञानिकों के लिए यह उत्तर दे पाना कठिन हो जाता कि जो मूल प्रवृत्ति है उसका समाज के सज्जन पुरुषों में अचानक अभाव कैसे हो गया? क्योंकि मूल प्रवृत्ति तो प्राणी की प्रकृति का अविच्छिन्न अंग होती है। फिर कहीं अभाव, कहीं स्वभाव यह कैसे सम्भव हो पाता?
वास्तव में मनुष्य एक कोरे कागज की तरह है। उसका मन सर्वथा निर्विकार है। उसमें सही-गलत, अच्छा-बुरा जो भी अंकित कर दिया जाता है, वही उसकी आदत बन जाती है। मनुष्य की वर्तमान बुराइयाँ उसके बीते कल की कठिनाइयों की परिणति है। विकास-यात्रा के दौरान उसे जिन प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ा उसके कारण उसके मन में रोष पैदा हुआ, जो बाद में उसकी प्रकृति का अंग बन गया। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही स्वभाव चलते हुए मनुष्य के विकास के वर्तमान पड़ाव तक आ पहुँचा।
शरीर विज्ञान भी मनुष्य को शान्त प्राणी सिद्ध करता है। आस्ट्रेलियाई जीव विज्ञानी डॉ. ज्विंग ने इसके लिए एक प्रयोग किया। उन्होंने बिल्ली के मस्तिष्क में हाइपोथैलेमस वाले हिस्से को बिजली का झटका दिया। प्रतिक्रिया तुरंत सामने आई। बिल्ली क्रोध में आकर गुर्राने और आक्रामक भाव-भंगिमा बनाने लगी। झटका समाप्त होते ही वह पुनः सामान्य हो गई। ठीक ऐसा ही प्रयोग गुरिल्लाओं पर किया गया, किन्तु परिणाम वैसा नहीं पाया गया। उनके दिमाग के उक्त भाग को उत्तेजित करने पर भी वे अनुत्तेजित बने रहे। इसका कारण बताते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि प्राइमेट (स्तनपायी जन्तु का वर्ग विशेष) में जन्तुओं का व्यवहार हाइपोथैलेमस के स्थान पर सेरेबल कोर्टेक्स द्वारा नियंत्रित होता है। इनमें कोई भी निर्णय मस्तिष्क के इसी हिस्से द्वारा लिया जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार इतना होने के बाद भी सेरेबल कोर्टेक्स किसी बाह्य कारण की उपस्थिति मात्र से ही कोई निर्णय नहीं लेता, वरन् वह उस समय की परिस्थिति एवं मस्तिष्क में अंकित विगत अनुभवों का पूरा-पूरा अध्ययन-विश्लेषण करने के उपरान्त ही कोई प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता है। विशेषज्ञों के अनुसार यह प्राइमेटों की विशिष्ट मस्तिष्कीय संरचना ही है, जो उन्हें काफी सावधानी से कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की छूट देती है।
मनुष्य नैसर्गिक रूप से क्रोधी नहीं है यह मनोविज्ञान एवं शरीर विज्ञान के तर्कों एवं तथ्यों से प्रमाणित हो चुका है, परन्तु क्रोध की अग्नि में आज जिस प्रकार सम्पूर्ण मानव समाज जल रहा है उसमें क्रोध के विश्लेषण का समय निकल चुका है। मनुष्य क्रोधी है या शान्त, स्वभावतः आक्रामक है या अनाक्रामक यह निर्णय करने के बजाय यह ज्यादा आवश्यक हो गया है कि इन दिनों की इस विनाशक प्रवृत्ति पर काबू किस प्रकार पाया जाये? उसे एक विकसित, बुद्धिमान, विवेकशील प्राणी के अनुरूप विनिर्मित कैसे किया जाये?
समाधान के लिए हमें अध्यात्म-विज्ञान की ओर उन्मुख होना पड़ेगा। अध्यात्म उपचारों द्वारा ही आज के तनावग्रस्त, तुनकमिज़ाज व्यक्ति के मानस को बदला जा सकता है। मनुष्य की बहुत सारी समस्याएँ सुविचारों की कमी के कारण पैदा होती हैं। गलतियाँ होने पर क्रोध कर और एक गलती करने की बजाय उससे सीख लेना चाहिए। जिसे बदला नहीं जा सकता, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए और जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता, उसे हर हाल में बदल देना चाहिए। अपने लिए औरों को बदलना उतना आसान नहीं है, जितना कि उनके लिए खुद को बदलना आसान है।
क्रोध का बाह्य परिणाम आस-पास के वातावरण को विषाक्त बना देता है, वहीं आँतरिक परिणाम मनुष्य के भीतर की कोमल भावनाओं को अवरुद्ध कर देता है। आध्यात्मिक उपचार के रूप में ‘ध्यान’ क्रोध घटाने का सशक्त माध्यम है। यदि व्यक्ति की चेतना को अन्तर्मुखी बना कर उसे प्रशिक्षित कर लिया जाये तो क्रोध की महामारी से मुक्त हुआ जा सकता है।