Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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समन्वय की संस्कृति का पोषक : भारतवर्ष
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आज हम वैज्ञानिक विकास के विलक्षण युग से गुजर रहे हैं। संचार क्रान्ति की ऐतिहासिक घटना ने पूरे विश्व को एक ग्राम में बदल दिया है। ऐसे में इंसान-इंसान के बीच की भौगोलिक दूरियाँ जहाँ सिमट गई हैं, किन्तु उनके हृदय के बीच का फासला कम नहीं हुआ है। विश्व ग्राम की अवधारणा को एक जीवन्त रूप देने के लिए आज एक समन्वयकारी रसायन की जरूरत महसूस हो रही है जो इंसान के हृदय को आपस में जोड़ने का काम करें, विश्व में व्याप्त विविध धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृतियों एवं समाजों की विषमता को मिटाकर उन्हें एक सूत्र में पिरो सकें। इस गुरुत्तर दायित्व का वहन भारतीय संस्कृति भलीभाँति कर सकती है, जिसकी साँस्कृतिक संवेदना में सहज ही उदारता, सहिष्णुता, एवं समन्वयशीलता का वह दिव्य रसायन विद्यमान है जो युग की विषमताओं को मिटाकर विश्व मानव को एक पारिवारिक सूत्र में बाँध सके।
हर राष्ट्र का अपना एक मिशन होता है। रोम का मिशन साम्राज्य एवं शक्ति का विस्तार था। यूनान का मिशन ज्ञान प्राप्त करना था। अरब राष्ट्रों के आविर्भाव से पूर्व मिश्र पिरामिड में मृत व्यक्ति को जीवित रखने की, अमरता की भावना को संजोता था। इसी प्रकार भारत का भी एक मिशन रहा है, जो है इसकी सामाजिक समरसता एवं समन्वय की साधना अनेकता में एकता, विविधता के बीच समता, यही भारतीय संस्कृति की चिरंतन विशेषता रही है। चाहे दर्शन हो या साहित्य, स्थापत्य हो या कला सब जगह वैविध्य है, लेकिन इन विविधताओं में एकता देखना भारतीय मनीषा की अभीप्सा रही है। आज भी भारतीय राष्ट्र इसी का एक प्रतिदर्श है। राष्ट्र के निर्माण में भाषा, धर्म, प्रजाति आदि प्रमुख तत्त्व माने जाते हैं। किन्तु यूरोप में एक ही ईसाई धर्म है, लेकिन दर्जनों राष्ट्र हैं। मध्यपूर्व या दक्षिण एशिया में एक ही धर्म इस्लाम है, किन्तु 40 से ऊपर राष्ट्र हैं। एक ही बौद्ध धर्म को मानने वालों के अनेक राष्ट्र हैं। लेकिन भारत में कम से कम आधे दर्जन वैदिक, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिक्ख एवं जरथुस्त धर्मों को मानने वाले सैकड़ों वर्षों से बस रहे हैं। जहाँ भाषा को लेकर पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गये और हाल में कनाडा में जनमत संग्रह के आधार पर देश का विभाजन बिल्कुल समीप आ गया था, वहाँ भारत में 18 तो संविधान स्वीकृत राष्ट्र भाषाएँ हैं, बोलियाँ तो एक हजार से भी ऊपर हैं। नस्ल भी एक नहीं, उत्तर भारत में आर्य, दक्षिण में द्रविड़ पूर्वोत्तर भारत में मंगोल सब एक साथ रह रहे हैं। इसी प्रकार खान-पान, पोशाक-त्यौहार, संगीत, साहित्य में विविधता स्पष्ट है।
वस्तुतः भिन्नता में एकता हमारी प्रकृति भी है और नियति भी। जैसे यहूदी धर्म परम्परा में अपनी प्रजाति के नाम पर जेवोह और यूनानी परम्परा में अन्य कोई को एकेश्वर रूप में प्रतिष्ठित कर दिया, भारत में एकेश्वरवाद में भी वैचित्र्य है। एक ही परम सत्य है। लोग उसे अलग-अलग नाम देते हैं - ‘एकं सत्विप्राः बहुधा वदन्ति।’ तत्त्व एक ही है, कल्पनाएँ विविध हैं। कोई उन्हें ब्रह्म, कोई इन्द्र, कोई वरुण आदि कहते हैं। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि वही खुदा या गॉड कहलाता है। ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम।’ यही नहीं, भारतीय श्रुतियों में देव कल्पना एकेश्वरवाद से बढ़कर ‘अद्वैत’ तक चली गई है। ‘एकमेवाद्वितीयम्। एकाऽहं द्वितीयो नास्ति।’ वह एक तत्त्व सगुण-निर्गुण से परे है। यही नहीं, वह आत्मा, अनात्मा, जगत्कर्त्ता, अकर्त्ता आदि कल्पनाओं से परे है। उपनिषद् में उसे ‘नेति-नेति’ कहा गया है, क्योंकि वह शब्दातीत ही नहीं, मनसातीत, वचनातीत एवं कल्पनातीत भी है। इसी प्रकार यहाँ एकेश्वरवाद की कल्पना से अधिक आगे जाने का उपक्रम प्रकट हुआ है।
दर्शन क्षेत्र में भी यह विविधता दर्शनीय है। वैशेषिक, जैन, मीमाँसा में अनेकता प्रतिष्ठित है, साँख्य में पुरुष-प्रकृति द्वैत है और अन्त में अद्वैत का दर्शन आता है। लेकिन वैशेषिक का पंचभूत और साँख्य का पुरुष-प्रकृति द्वैत, अद्वैत की जगत् व्याख्या में समाहित कर दिया जाता है। प्रपंच के अंतर्गत सभी को स्वीकार करते हुए, व्यवहार सत्ता में सबों को समाहित किया गया है। ‘सर्व खलु इदं ब्रह्म’ या ‘ईशावास्यामिदं’ कहने से ही सभी का अन्तर्विधान हो जाता है।
धर्म-समन्वय की साधना भी हमारी साँस्कृतिक विरासत है। यहाँ नास्तिक और आस्तिक, सभी सनातन धर्म में स्थान पाते हैं। चाहे वे वेद को मानते हों या नहीं, किसी को बहिष्कृत करने की परम्परा नहीं है। इसी प्रकार शैव, शाक्त, वैष्णव, उदासी आदि सभी का वैदिक धर्म में समावेश है। इसमें कम से कम 300-400 विभिन्न पंथ हैं। वास्तव में भारतीय मनीषा धर्म को सम्प्रदाय या पंथ विशेष की सीमा में नहीं रखना चाहती। सभी धर्मों एवं धर्म प्रवर्तकों तथा सभी धर्म स्थानों के प्रति आदर एवं पूजा का भाव भारतीय धर्म की विशेषता है। इसीलिए विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द जी ने ‘विश्वधर्म’ की कल्पना प्रस्तुत की, जिसमें विभिन्न धर्मों के विशिष्ट अवदानों से मानव जाति को लाभान्वित होने का निर्देश दिया। हिन्दु धर्म की आध्यात्मिकता एवं सात्विकता, इस्लाम का भ्रातृत्व भाव एवं समानता तथा ईसाइयत की सेवा एवं त्याग भावना आदि मानव जाति की समान सम्पत्ति है। विनोबा जी ने तो स्पष्ट कहा है कि ‘ साम्प्रदायिक धर्म के दिन बीत गए हैं अब अध्यात्म एवं विज्ञान के समन्वय का युग आया है।’ इसी प्रकार नीति एवं राजनीति को ही देखें, आठ प्रकार के राज्यों का वर्णन है। स्वराज्य, वैराज्य, महाराज्य, साम्राज्य आदि। राजसूय यज्ञ और अश्वमेध यज्ञ तथा चक्रवर्ती राज्य की कल्पना में अनेकता में एकता का दर्शन है। राष्ट्र विशेष की संकुचित सीमा में भी रहने की हमारी वृत्ति नहीं है। इसीलिए तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की कल्पना रखी गयी है। राज्य की भौगोलिक सीमा से ऊपर उठकर ‘माताभूमि’ की भावना भी वैश्विकता की ही परिचायक है। आधुनिक समय में विनोबा भावे ने जय-हिन्द से ऊपर उठकर जय-जगत् का उद्घोष आरम्भ किया था। 1978 में विश्व राज्य के लिए प्रयत्न करने का एच. बी. कामथ का प्रस्ताव भारतीय संसद में पारित किया गया था। राष्ट्रीय परिधि से बाहर जाकर ‘भारत-पाक महासंघ’ या ‘दक्षिण एशियाई भाईचारा’ या विनोबा जी द्वारा ‘ए-बी-सी ‘ का प्रस्ताव वैश्विकता की ओर बढ़ते चरण हैं। भारत आज 50 वर्षों से जो गुट निरपेक्ष के मंच में अपना योगदान दे रहा है, इसे भी नई विश्व-व्यवस्था के निर्माण में एक प्रभावशाली कदम माना जा सकता है। भले ही चीन से धोखा हुआ हो, लेकिन पंचशील एवं सह-अस्तित्व की भावना पुष्ट करना राजनीतिक दृष्टि से समन्वय है।
साहित्य और कला के क्षेत्र में विभिन्नता स्वाभाविक है। इसमें अपनी-अपनी प्रतिभा होती है। यहाँ भाषा एवं साहित्य का धर्म विशेष से सम्बन्ध नहीं माना जाता। उत्तर भारत में हिन्दी भाषा के सूत्रधारों में अमीर खूसरो को कोई भूल नहीं सकता। कितने मुस्लिम कवि हैं जिन्होंने न केवल हिन्दी भाषा को समृद्ध किया है बल्कि राम एवं कृष्ण की भक्ति में वे किसी हिन्दु भक्त से कम सराबोर नहीं दिखते। भारतेन्दु जी ने ठीक ही कहा है- ‘इन मुसलमान हरिजन नौ कौटिन हिन्दु न बारि हैं।’ ऐसे अनेक मुसलमान भक्ति कवि हुए हैं जिन्होंने कृष्ण मन्दिर में मक्के का नूर देखा और ब्रजवासियों की धूल में लोट-लोटकर अपने इष्टदेव को रिझाने के लिए स्वयं का होश-हवास तक भूल गए। रसखान और उनकी टोली तो कृष्ण भक्ति में सराबोर हो गए, जबकि यारी या दरिया साहब ने राम-कर्तार को रिझाने के लिए कबीर की सुहागिन का साज सजाया। रहीम खान खाना तो रामचरित मानस को साक्षात् कुरान मानते थे- ‘जमनहि प्रकटकुरान’ रसखान की कृष्ण भक्ति किसी हिन्दु से कम नहीं थी।
रहीम एवं रसखान के अतिरिक्त यारी साहब, दरिया साहब (मारवाड़ वाले), शेख वजीर, कारे खाँ, करीम बख्श, इन्शा वाहिद, दीन दरवेश, अफसोस, खलास, वहजन, मंसूर, लतीफ, हुसैन, चकरंग, काबस, निजामुद्दीन औलिया, फ्रहरत, काजी महमूद, आलम, गालिब शाह, महबूबा, नसीफ खलील, सैयद कासिम अली आदि अनेक भक्त मुस्लिम कवि हैं। उर्दू एवं फारसी में भी अनेक हिन्दु लेखक हुए हैं। फिराक गोरखपुरी, प्रेमचन्द, कृष्णचंदर आदि अनेक उर्दू के स्वनाम धन्य लेखक हैं।
मोक्ष साधन के लिए भी यहाँ एक मार्ग माना गया। ज्ञान-मार्ग, भक्ति मार्ग या कर्म योग का मार्ग या ध्यान-मार्ग आदि सभी उपयोगी हैं। बल्कि आपस में भी इनमें विरोध नहीं है। इन सबका समन्वय भी हो जाता है। श्री अरविन्द का पूर्णयोग या समग्र योग (इंटीग्रल योगा) इस समन्वय को प्रकट करता है। गीता में भी कहा गया है-
यथा नदिनाँ बहवो अम्बु वेगाः
समुद्र मेवा-भिमुखा-वहन्ति।
यहाँ तो एक निष्ठावान् हिन्दू, बुद्ध, जैन ही नहीं सूफी सन्तों की दरगाह एक मजार पर भी भक्ति युक्त पूजा करते हैं। इस्लाम की सूफी धर्मधारा में भी अपार उदारता है।
कहीं समन्वय की यह साधना हमारी दुर्बलता तो नहीं है या इससे सचमुच हमारा नुकसान तो नहीं हुआ है। इतिहास साक्षी है कि समन्वय की साधना के विपरीत मानसिकता वाली संस्कृतियों के नामों-निशान मिट गये। जो जुलियस सीजर या सिकन्दर विश्व विजयी बनने की इच्छा रखते थे वे आज इतिहास के कूड़ेदान में चले गये हैं। जो धर्म या सम्प्रदाय आग और तलवार लेकर फैलना चाहता था, उसका वेग थम गया, उसकी प्रतिष्ठ गिर गई है। ईसाइयत जो विश्व विस्तारक धर्म बनना चाहता था, उसके धर्म गुरु को रोम में ‘धर्म समन्वयक’ का सचिवालय बनाना पड़ा। आज धर्म के क्षेत्र में यदि हम सह-अस्तित्व की संस्कृति धारण नहीं कर सकते हैं तो धर्म का अस्तित्व ही संकट में हो जायेगा।
भारत इसलिए जगत्गुरु माना जा सकता है कि वह समन्वय की संस्कृति का पोषक है। विविधता को नष्ट करने से राष्ट्र की एकात्मकता सशक्त नहीं हो सकती। विविधता हमारी अक्षय निधि है। हमारा दायित्व है कि विविधता में एकता का अन्वेषण करें। वस्तुतः विविधता में एकता ही हमारी नियति है। इसमें विविधताओं का वैभव भी मिलेगा और एकता का सूत्र भी। जिस प्रकार किसी पुष्प माल में अनेक रंग के पुष्प गूँथे होते हैं लेकिन एक अदृश्य सूत्र में सब गूँथे होते हैं, उसी प्रकार विभिन्नता एकता के सूत्र में पिरोये रहेंगे। हीगेल ने अपने तत्त्वज्ञान में भी इसी प्रकार और अनेकता का समन्वय कर उसे शक्तिशाली तत्त्वज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया था। इस तत्त्वज्ञान में विरोधों का समागम भी है लेकिन भारतीय मनीषा ने अनेकता को विरोध तत्त्व नहीं मानकर, एक-दूसरे का पूरक और संवर्धक माना है। इस दृष्टि से यहाँ की समन्वय-साधना में आरम्भ और अन्त दोनों में विरोध नहीं। भिन्नता विरोधिता नहीं है। हमारे शरीर में हाथ, पैर, आँख, नाक, नाक आदि सब पृथक-पृथक तत्त्व हैं लेकिन सब के बीच समन्वय है। समन्वय के बिना शरीर का संचालन असम्भव है। भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि के गुण अलग हैं, लेकिन उनके समन्वय में हमारी समृद्धि बढ़ती हैं। स्वामी विवेकानन्द जी ने इसीलिए कहा था कि ‘भारत में इस्लामी शरीर एवं वेदान्ती मस्तिष्क का समन्वय जरूरी है।’ आज युग की ज्वलन्त चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें ‘सामाजिक समरसता एवं समन्वय की साधना’ के अपने राष्ट्रीय मिशन के प्रति जीवन्त एवं जाग्रत् होने की निताँत आवश्यकता है।