Books - इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग १
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किंकर्तव्य विमूढ़ता जैसी परिस्थितियाँ
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विज्ञान और बुद्धिवाद बीसवीं सदी की बड़ी उपलब्धियाँ हैं। उनसे सुविधा-
साधनों के नये द्वार भी खुले, वस्तुस्थिति समझने में, सहायक स्तर की बुद्धि
का विकास भी हुआ, पर साथ ही दुरुपयोग का क्रम चल पड़ने से इन दोनों ही युग
चमत्कारों ने लाभ के स्थान पर नई हानियाँ, समस्याएँ और विपत्तियाँ उत्पन्न
करनी आरंभ कर दीं। उत्पादनों को खपाने के लिये आर्थिक उपनिवेशवाद का
सिलसिला चल पड़ा। युद्ध उकसाए गये, ताकि उनमें अतिरिक्त उत्पादनों को
झोंका- खपाया जा सके। कुशल कारीगरी ने स्थान तो पाया, गृह उद्योगों के
सहारे जीवनयापन करने वाली जनता की रोटी छिन गई। काम के अभाव में आज बड़ी
संख्या में लोग बेकार- बेरोजगार हैं। परिस्थितियाँ गरीबी की रेखा से
दिनोंदिन नीचे गिरती जा रही हैं, यों बढ़ तो अमीरों की अमीरी भी रही है।
कारखाने और द्रुतगामी वाहन निरन्तर विषैला धुँआ उगल कर वायुमण्डल को जहर से भर रहे हैं। उनमें जलने वाले खनिज ईंधन का इतनी तेजी से दोहन हुआ है कि समूचा खनिज भण्डार एक शताब्दी तक भी और काम देता नहीं दीख पड़ता। धातुओं और रसायनों के उत्खनन से भी पृथ्वी उन सम्पदाओं से रिक्त हो रही हैं। उन्हें गँवाने के साथ- साथ धरातल की महत्त्वपूर्ण क्षमता घट रही है और उसका प्रभाव धरती के उत्पादन से गुजारा करने वाले प्राणियों पर पड़ रहा है। जलाशयों में बढ़ते शहरों का, कारखानों का कचरा, उसे अपेय बना रहा है। साँस लेते एवं पानी पीते यह आशंका सामने खड़ी रहती है कि उसके साथ कहीं मंद विषों की भरमार शरीरों में न हो रही हो? उद्योगों- वाहनों द्वारा छोड़ा गया प्रदूषण ‘‘ग्रीन हाउस इफेक्ट के कारण अन्तरिक्ष में अतिरिक्त तापमान बढ़ा रहा है, जिससे हिम प्रदेशों की बर्फ पिघल जाने और समुद्रों में बाढ़ आ जाने का खतरा निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। ब्रह्माण्डीय किरणों की बौछार से पृथ्वी की रक्षा करने वाला ओजोन कवच, विषाक्तता का दबाव न सह सकने के कारण, फटता जा रहा है। क्रम वही रहा, तो जिन सूर्य किरणों से पृथ्वी पर जीवन का विकास क्रम हुआ है, वे ही छलनी के अभाव में अत्यधिक मात्रा में आ धमकने के कारण विनाश भी उत्पन्न कर सकती हैं।
अणु- ऊर्जा विकसित करने का जो नया उपक्रम चल पड़ा है, उसने विकिरण फैलाना तो आरम्भ किया ही है, यह समस्या भी उत्पन्न कर दी है कि उनके द्वारा उत्पन्न राख को कहाँ पटका जाएगा? जहाँ भी वह रखी जाएगी, वहाँ संकट खड़े करेगी।
कारखाने और द्रुतगामी वाहन निरन्तर विषैला धुँआ उगल कर वायुमण्डल को जहर से भर रहे हैं। उनमें जलने वाले खनिज ईंधन का इतनी तेजी से दोहन हुआ है कि समूचा खनिज भण्डार एक शताब्दी तक भी और काम देता नहीं दीख पड़ता। धातुओं और रसायनों के उत्खनन से भी पृथ्वी उन सम्पदाओं से रिक्त हो रही हैं। उन्हें गँवाने के साथ- साथ धरातल की महत्त्वपूर्ण क्षमता घट रही है और उसका प्रभाव धरती के उत्पादन से गुजारा करने वाले प्राणियों पर पड़ रहा है। जलाशयों में बढ़ते शहरों का, कारखानों का कचरा, उसे अपेय बना रहा है। साँस लेते एवं पानी पीते यह आशंका सामने खड़ी रहती है कि उसके साथ कहीं मंद विषों की भरमार शरीरों में न हो रही हो? उद्योगों- वाहनों द्वारा छोड़ा गया प्रदूषण ‘‘ग्रीन हाउस इफेक्ट के कारण अन्तरिक्ष में अतिरिक्त तापमान बढ़ा रहा है, जिससे हिम प्रदेशों की बर्फ पिघल जाने और समुद्रों में बाढ़ आ जाने का खतरा निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। ब्रह्माण्डीय किरणों की बौछार से पृथ्वी की रक्षा करने वाला ओजोन कवच, विषाक्तता का दबाव न सह सकने के कारण, फटता जा रहा है। क्रम वही रहा, तो जिन सूर्य किरणों से पृथ्वी पर जीवन का विकास क्रम हुआ है, वे ही छलनी के अभाव में अत्यधिक मात्रा में आ धमकने के कारण विनाश भी उत्पन्न कर सकती हैं।
अणु- ऊर्जा विकसित करने का जो नया उपक्रम चल पड़ा है, उसने विकिरण फैलाना तो आरम्भ किया ही है, यह समस्या भी उत्पन्न कर दी है कि उनके द्वारा उत्पन्न राख को कहाँ पटका जाएगा? जहाँ भी वह रखी जाएगी, वहाँ संकट खड़े करेगी।