Books - इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग १
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उज्ज्वल भविष्य की संरचना हेतु संकल्पित प्रयास
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अवांछनीय के समापन और वाँछित विकास के लिए राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और
संस्थागत प्रयत्न तो होने ही चाहिए, पर यह नहीं भुला देना चाहिए कि अदृश्य
जगत् की भूमिकाएँ भी ऐसे प्रयत्नों में अतिशय महत्त्वपूर्ण होती हैं। पानी
के प्रवाह के साथ तिनके बहते चले जाते हैं। हवा के दबाव के साथ चलने वाले,
कम शक्ति लगाकर भी तेज गति पकड़ते चले जाते हैं। इसलिए महत्त्वपूर्ण
कार्यों के शुभारम्भ, देव आवाहन के साथ अदृश्य शक्तियों की साक्षी में किये
जाते हैं।
इन दिनों, पिछली प्रगति के नाम पर अवांछनीयताओं को स्वच्छंद रूप से अपनाने वाली दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण भी होना है, और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन भी। इस दुहरे महान परिवर्तन के लिए जहाँ प्रत्यक्ष पुरुषार्थ की आवश्यकता है, वहाँ उसके साथ अदृश्य संकल्प, साहस और दूरदर्शी कौशल भी जुड़ा रहना चाहिए। यही इन दिनों की आवश्यकता भी है, जिसकी पूर्ति के आधार पर दोहरे मोर्चे पर, विश्वव्यापी संघर्ष भरे परिवर्तन का उद्देश्य, बिना विलम्ब लगे और बिना असाधारण अवरोधों का सामना किये सम्पन्न हो सके।
समय ने प्रचण्ड गति पकड़ ली है, जो कार्य हजारों वर्षों में भी नहीं हो पाए थे, वे कुछ दशकों में सम्पन्न हो चले हैं। कुछ सौ वर्ष पुराना व्यक्ति यदि तब की परिस्थितियों के साथ आज के वातावरण की तुलना करें, तो प्रतीत होगा कि वह किसी परलोक जैसे क्षेत्र में आ पहुँचा। यह युग परिवर्तन की सामान्य गति में असाधारण तीव्रता आने का प्रतीक है। अगले दिनों यह प्रवाह और भी अधिक गति पकड़ेगा और जो हेर- फेर पिछली शताब्दियों में हुआ, उसकी तुलना में अगली सदी के चमत्कार और भी अधिक बढ़े- चढ़े होंगे। इसलिए आम मान्यता बनती जाती है कि इक्कीसवीं सदी में पतन का प्रवाह रुकेगा और उज्ज्वल भविष्य की सरचना का कार्य तूफानी गति से आगे बढ़ेगा। यह महाकाल की प्रेरणा- ईश्वर की इच्छा है- समय की माँग है। इसे युग धर्म का पाञ्चजन्य उद्घोषक भी कह सकते हैं। इसमें प्रचण्ड मानवी पुरुषार्थ उभरेगा, पर स्मरण रखा जाए कि इसके पीछे नियन्ता की प्रचण्ड प्रेरणा और सुनिश्चित योजना ही काम कर रही होगी। मनुष्य तो स्वयं नगण्य होते हुए भी उसका अनुगमन करके हनुमान, अंगद, नल- नील और भीम, अर्जुन जैसी भूमिकाएँ निबाहते और सर्वत्र आश्चर्यजनक सफलताएँ उपलब्ध करते दिखाई देंगे। गीताकार ने अर्जुन से कहा था कि कौरव दल का मरण तो नियति ने ही करके रख दिया है, राज्य सुख और अक्षय यश का भागी बनने से कतराता क्यों है? सुयोग का लाभ उठाने में बुद्धिमानी क्यों नहीं देखता? ऐसी ही प्रचण्ड प्रेरणाएँ असंख्यों को मिलेंगी और वे अंतःस्फुरणा के आधार पर ही इतना कुछ करेंगे, जितना करने के लिए किसी को असाधारण प्रलोभन देकर भी उकसाया नहीं जा सकता।
बारह वर्ष बीतते- बीतते ऐसा सरंजाम जुट जाएगा जिसमें उज्ज्वल भविष्य आकाश से बरसने वाली घटाटोप मेघ मालाओं की तरह, अपने चमत्कारों से हर किसी को चमत्कृत कर सके। इन दिनों हर वरिष्ठ प्रतिभाशाली के मन में, कुछ आदर्शवादी पुरुषार्थ प्रकट करने के लिए उठती उमंगों को देखकर उक्त कथन की सच्चाई का प्रमाण पाया जा सकता है, होनी का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
इस सन्दर्भ में विश्व के कोने- कोने में अपने- अपने ढंग की सृजन उमंगों के साथ- साथ एक अति महत्त्वपूर्ण उभार शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार के क्षेत्र से भी उभरता देखा जा सकता है। इन्हीं दिनों आरम्भ हुए, युगसन्धि महापुरश्चरण का एक अद्भुत उपचार देखने ही योग्य है। उसे सामूहिक साधना का एक अभूतपूर्व प्रयोग कहा जा सकता है। इस तपश्चर्या साधना से सम्बन्धित ऐसी ऊर्जा उभरेगी, जो विशालकाय सामूहिक प्रयत्नों से ही उत्पन्न होती देखी जाती है। मानवी श्रम और मनोबल की सामूहिकता के चमत्कारी परिणामों के, अपने- अपने ढंग के अनेक प्रमाण हैं। अध्यात्म क्षेत्र में इसकी उपमा शान्तिकुञ्ज के युगसन्धि महापुरश्चरण के रूप में दी जा सकती है। आशा की गई है कि इस सन्धि वेला के बारह वर्षों में प्राय: चौबीस लाख व्यक्ति यहाँ अथवा यहाँ से संकल्प लेकर, अपने- अपने स्थान पर पुरश्चरण की प्रक्रिया को कार्यान्वित करेंगे। नव संस्थापित प्रज्ञा मण्डलों के साप्ताहिक सत्संगों को इसी युग साधना से जुड़ा हुआ प्रयत्न समझा जाना चाहिए।
शान्तिकुञ्ज को युग चेतना की गंगोत्री कहा जा सकता है। सूर्य सर्वप्रथम पूर्वांचल से निकलता है और वहाँ से आगे बढ़ते- बढ़ते समस्त संसार को आभा से आच्छादित करता है। गंगोत्री से आरम्भ होने वाला निर्झर, बंगाल पहुँचते- पहुँचते सहस्र धाराओं में विकसित हुआ दीख पड़ता है। इस युग साधना का शुभारम्भ शान्तिकुञ्ज से होते हुए भी, उसका विस्तार देश के कोने- कोने और विश्व के हर भाग में व्यापक होते हुए देखा जा सकेगा। उसका प्रभाव भी युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि में आंशिक स्तर की असाधारण भूमिका निबाहते हुए देखा जा सकेगा। प्रत्यक्ष रूप से सृजनात्मक हलचलों का उभार इस आधार पर उभरकर आने की सम्भावना आँकी जा सकती है, जो गोवर्धन उठाने जैसे महान कार्य को लाठियों की सहायता मिल जाने से सम्पन्न हो जाने के समान है।
शान्तिकुञ्ज का निर्माण ही इसके लिए उपयुक्त स्थान खोजकर किया गया है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों की तपोभूमि, दिव्य सान्निध्य, अखण्ड दीप, निरन्तर चलने वाली साधना का नियोजन जैसे संयोग, एक साथ एक स्थान पर अन्यत्र कदाचित ही कहीं देखे जा सकें।
स्थान और समय का चयन अपने आप में असाधारण महत्त्व रखता है। महाभारत के लिए कुरुक्षेत्र चुना गया था। भुसावल के केले, लखनऊ के अमरूद, नागपुर के सन्तरे, मैसूर का चन्दन प्रसिद्ध है। वह उत्पादन हर कहीं उसी स्तर का नहीं हो सकता। बीजों के बोने का समय सही रखना अच्छी फसल पाने के लिए आवश्यक है। वर्षा और वसंत की, असाधारण दृश्य उत्पन्न करने वाली अपनी- अपनी अवधि होती है। वे विशेषताएँ हर समय नहीं देखी जा सकती हैं। सेनीटोरियम उपयुक्त जलवायु में बनाए जाते हैं। ब्राह्मणत्व की खोज करने हेतु कोणार्क के सूर्य मंदिर जैसी जगह चुनकर निर्धारित की गई, जहाँ संसार भर के वैज्ञानिक सूर्य ग्रहण का अन्वेषण- परीक्षण करने आया करते हैं। इसी प्रकार संसार में अनेक स्थान अपनी विशिष्टता के लिए प्रख्यात हैं। हिमालय क्षेत्र को तपस्या के लिए अनादि काल से उपयुक्त स्थान माना जाता रहा है। शान्तिकुञ्ज की निर्माण स्थली भी ऐसे ही सूक्ष्म परीक्षणों के उपरान्त चुनी गई है। यहाँ जो आते हैं, वे अपनी- अपनी पात्रता और आवश्यकता के अनुरूप शक्ति, साहस और प्रकाश प्रेरणा लेकर वापस लौटते हैं। इन्हीं आधारों पर शान्तिकुञ्ज को चेतना का उद्गम बनाया गया है, और उसे युग चेतना की गंगोत्री मान कर उसके विश्व विस्तार की प्रक्रिया किसी अदृश्य प्रेरणा के संकेत पर क्रियान्वित हो रही है।
दिव्य चेतना जब लोक मंगल के लिए आपातकालीन व्यवस्था बनाती है, तब सामान्य क्षमता सम्पन्नों द्वारा भी असाधारण कार्य होते देखे जाते हैं। युग चेतना के अनुरूप संकल्पित प्रयास करने वालों के साथ व्यक्ति- सामर्थ्य की अदृश्य घटाएँ स्वतः जुड़ जाती हैं। गीध- गिलहरी वानर- रीछ आदि के साथ यही हुआ था। ग्वाल- बालों पाण्डवों के साथ भी ऐसा ही प्रवाह जुड़ गया था। बुद्ध के चीवरधारियों से लेकर गाँधी जी के सत्याग्रहियों तक के साथ यही सिद्धान्त लागू होता है। उनकी सामर्थ्य सामान्य थी, असामान्य थी चिन्ताएँ के आधार पर दिव्य चेतना उन्हें अपना माध्यम बनाकर लोकहित के लिए असाधारण कार्य सम्पन्न करा लेती है। शान्तिकुञ्ज भी कुछ ऐसा ही श्रेय सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
इन दिनों, पिछली प्रगति के नाम पर अवांछनीयताओं को स्वच्छंद रूप से अपनाने वाली दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण भी होना है, और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन भी। इस दुहरे महान परिवर्तन के लिए जहाँ प्रत्यक्ष पुरुषार्थ की आवश्यकता है, वहाँ उसके साथ अदृश्य संकल्प, साहस और दूरदर्शी कौशल भी जुड़ा रहना चाहिए। यही इन दिनों की आवश्यकता भी है, जिसकी पूर्ति के आधार पर दोहरे मोर्चे पर, विश्वव्यापी संघर्ष भरे परिवर्तन का उद्देश्य, बिना विलम्ब लगे और बिना असाधारण अवरोधों का सामना किये सम्पन्न हो सके।
समय ने प्रचण्ड गति पकड़ ली है, जो कार्य हजारों वर्षों में भी नहीं हो पाए थे, वे कुछ दशकों में सम्पन्न हो चले हैं। कुछ सौ वर्ष पुराना व्यक्ति यदि तब की परिस्थितियों के साथ आज के वातावरण की तुलना करें, तो प्रतीत होगा कि वह किसी परलोक जैसे क्षेत्र में आ पहुँचा। यह युग परिवर्तन की सामान्य गति में असाधारण तीव्रता आने का प्रतीक है। अगले दिनों यह प्रवाह और भी अधिक गति पकड़ेगा और जो हेर- फेर पिछली शताब्दियों में हुआ, उसकी तुलना में अगली सदी के चमत्कार और भी अधिक बढ़े- चढ़े होंगे। इसलिए आम मान्यता बनती जाती है कि इक्कीसवीं सदी में पतन का प्रवाह रुकेगा और उज्ज्वल भविष्य की सरचना का कार्य तूफानी गति से आगे बढ़ेगा। यह महाकाल की प्रेरणा- ईश्वर की इच्छा है- समय की माँग है। इसे युग धर्म का पाञ्चजन्य उद्घोषक भी कह सकते हैं। इसमें प्रचण्ड मानवी पुरुषार्थ उभरेगा, पर स्मरण रखा जाए कि इसके पीछे नियन्ता की प्रचण्ड प्रेरणा और सुनिश्चित योजना ही काम कर रही होगी। मनुष्य तो स्वयं नगण्य होते हुए भी उसका अनुगमन करके हनुमान, अंगद, नल- नील और भीम, अर्जुन जैसी भूमिकाएँ निबाहते और सर्वत्र आश्चर्यजनक सफलताएँ उपलब्ध करते दिखाई देंगे। गीताकार ने अर्जुन से कहा था कि कौरव दल का मरण तो नियति ने ही करके रख दिया है, राज्य सुख और अक्षय यश का भागी बनने से कतराता क्यों है? सुयोग का लाभ उठाने में बुद्धिमानी क्यों नहीं देखता? ऐसी ही प्रचण्ड प्रेरणाएँ असंख्यों को मिलेंगी और वे अंतःस्फुरणा के आधार पर ही इतना कुछ करेंगे, जितना करने के लिए किसी को असाधारण प्रलोभन देकर भी उकसाया नहीं जा सकता।
बारह वर्ष बीतते- बीतते ऐसा सरंजाम जुट जाएगा जिसमें उज्ज्वल भविष्य आकाश से बरसने वाली घटाटोप मेघ मालाओं की तरह, अपने चमत्कारों से हर किसी को चमत्कृत कर सके। इन दिनों हर वरिष्ठ प्रतिभाशाली के मन में, कुछ आदर्शवादी पुरुषार्थ प्रकट करने के लिए उठती उमंगों को देखकर उक्त कथन की सच्चाई का प्रमाण पाया जा सकता है, होनी का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
इस सन्दर्भ में विश्व के कोने- कोने में अपने- अपने ढंग की सृजन उमंगों के साथ- साथ एक अति महत्त्वपूर्ण उभार शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार के क्षेत्र से भी उभरता देखा जा सकता है। इन्हीं दिनों आरम्भ हुए, युगसन्धि महापुरश्चरण का एक अद्भुत उपचार देखने ही योग्य है। उसे सामूहिक साधना का एक अभूतपूर्व प्रयोग कहा जा सकता है। इस तपश्चर्या साधना से सम्बन्धित ऐसी ऊर्जा उभरेगी, जो विशालकाय सामूहिक प्रयत्नों से ही उत्पन्न होती देखी जाती है। मानवी श्रम और मनोबल की सामूहिकता के चमत्कारी परिणामों के, अपने- अपने ढंग के अनेक प्रमाण हैं। अध्यात्म क्षेत्र में इसकी उपमा शान्तिकुञ्ज के युगसन्धि महापुरश्चरण के रूप में दी जा सकती है। आशा की गई है कि इस सन्धि वेला के बारह वर्षों में प्राय: चौबीस लाख व्यक्ति यहाँ अथवा यहाँ से संकल्प लेकर, अपने- अपने स्थान पर पुरश्चरण की प्रक्रिया को कार्यान्वित करेंगे। नव संस्थापित प्रज्ञा मण्डलों के साप्ताहिक सत्संगों को इसी युग साधना से जुड़ा हुआ प्रयत्न समझा जाना चाहिए।
शान्तिकुञ्ज को युग चेतना की गंगोत्री कहा जा सकता है। सूर्य सर्वप्रथम पूर्वांचल से निकलता है और वहाँ से आगे बढ़ते- बढ़ते समस्त संसार को आभा से आच्छादित करता है। गंगोत्री से आरम्भ होने वाला निर्झर, बंगाल पहुँचते- पहुँचते सहस्र धाराओं में विकसित हुआ दीख पड़ता है। इस युग साधना का शुभारम्भ शान्तिकुञ्ज से होते हुए भी, उसका विस्तार देश के कोने- कोने और विश्व के हर भाग में व्यापक होते हुए देखा जा सकेगा। उसका प्रभाव भी युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि में आंशिक स्तर की असाधारण भूमिका निबाहते हुए देखा जा सकेगा। प्रत्यक्ष रूप से सृजनात्मक हलचलों का उभार इस आधार पर उभरकर आने की सम्भावना आँकी जा सकती है, जो गोवर्धन उठाने जैसे महान कार्य को लाठियों की सहायता मिल जाने से सम्पन्न हो जाने के समान है।
शान्तिकुञ्ज का निर्माण ही इसके लिए उपयुक्त स्थान खोजकर किया गया है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों की तपोभूमि, दिव्य सान्निध्य, अखण्ड दीप, निरन्तर चलने वाली साधना का नियोजन जैसे संयोग, एक साथ एक स्थान पर अन्यत्र कदाचित ही कहीं देखे जा सकें।
स्थान और समय का चयन अपने आप में असाधारण महत्त्व रखता है। महाभारत के लिए कुरुक्षेत्र चुना गया था। भुसावल के केले, लखनऊ के अमरूद, नागपुर के सन्तरे, मैसूर का चन्दन प्रसिद्ध है। वह उत्पादन हर कहीं उसी स्तर का नहीं हो सकता। बीजों के बोने का समय सही रखना अच्छी फसल पाने के लिए आवश्यक है। वर्षा और वसंत की, असाधारण दृश्य उत्पन्न करने वाली अपनी- अपनी अवधि होती है। वे विशेषताएँ हर समय नहीं देखी जा सकती हैं। सेनीटोरियम उपयुक्त जलवायु में बनाए जाते हैं। ब्राह्मणत्व की खोज करने हेतु कोणार्क के सूर्य मंदिर जैसी जगह चुनकर निर्धारित की गई, जहाँ संसार भर के वैज्ञानिक सूर्य ग्रहण का अन्वेषण- परीक्षण करने आया करते हैं। इसी प्रकार संसार में अनेक स्थान अपनी विशिष्टता के लिए प्रख्यात हैं। हिमालय क्षेत्र को तपस्या के लिए अनादि काल से उपयुक्त स्थान माना जाता रहा है। शान्तिकुञ्ज की निर्माण स्थली भी ऐसे ही सूक्ष्म परीक्षणों के उपरान्त चुनी गई है। यहाँ जो आते हैं, वे अपनी- अपनी पात्रता और आवश्यकता के अनुरूप शक्ति, साहस और प्रकाश प्रेरणा लेकर वापस लौटते हैं। इन्हीं आधारों पर शान्तिकुञ्ज को चेतना का उद्गम बनाया गया है, और उसे युग चेतना की गंगोत्री मान कर उसके विश्व विस्तार की प्रक्रिया किसी अदृश्य प्रेरणा के संकेत पर क्रियान्वित हो रही है।
दिव्य चेतना जब लोक मंगल के लिए आपातकालीन व्यवस्था बनाती है, तब सामान्य क्षमता सम्पन्नों द्वारा भी असाधारण कार्य होते देखे जाते हैं। युग चेतना के अनुरूप संकल्पित प्रयास करने वालों के साथ व्यक्ति- सामर्थ्य की अदृश्य घटाएँ स्वतः जुड़ जाती हैं। गीध- गिलहरी वानर- रीछ आदि के साथ यही हुआ था। ग्वाल- बालों पाण्डवों के साथ भी ऐसा ही प्रवाह जुड़ गया था। बुद्ध के चीवरधारियों से लेकर गाँधी जी के सत्याग्रहियों तक के साथ यही सिद्धान्त लागू होता है। उनकी सामर्थ्य सामान्य थी, असामान्य थी चिन्ताएँ के आधार पर दिव्य चेतना उन्हें अपना माध्यम बनाकर लोकहित के लिए असाधारण कार्य सम्पन्न करा लेती है। शान्तिकुञ्ज भी कुछ ऐसा ही श्रेय सौभाग्य प्राप्त हुआ है।