Books - इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग १
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संतुलन नियंता की व्यवस्था का एक क्रम
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इतने पर भी एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि इस सृष्टि का कोई नियन्ता है।
उसने अपनी समग्र कलाकारिता को बटोर कर इस धरती को, उस पर शासन करने वाले
मनुष्य को बनाया है। वह उसका इस प्रकार विनाश होते देख नहीं सकता। बच्चों
को एक सीमा तक ही मस्ती करने की छूट दी जाती है। जब भी वे उपयोगी और कीमती
चीजें तोड़ने पर उतारू हो जाते हैं, तो उन्हें दुलार करने वाले अभिभावक भी
देने पर उतारू हो जाते हैं। भटकने की भी एक सीमा है। समझदारी बाधित करती है
कि पीछे लौट चला जाए। अनाचारियों को अति बरतने की उद्दण्डता पर उतरने से
पूर्व ही जेल में बंद कर दिया जाता है। कभी- कभी तो उन्हें मृत्यु दण्ड तक
देना पड़ता है। शरीर में प्रवेश करने वाली बीमारियों को खदेड़ देने के लिए
जीवनी शक्ति एकत्रित होकर सब कुछ करने पर उतारू हो जाती है। वर्तमान अनाचार
के सम्बन्ध में भी यही बात है। नियन्ता ने सामयिक निश्चय लिया है कि विनाश
की दिशा में चल रही अंधी दौड़ को रोक दिया जाए और फिर प्रवाह को सन्तुलित
स्तर पर लाया जाए। शासन संचालन जब अयोग्यता प्रदर्शित करता है, तो
राष्ट्रपति शासन लागू होता है और अयोग्यों के स्थान पर सुयोग्यों के हाथ
सत्ता सौंपने हेतु वही उच्चस्तरीय नियंत्रण चलता है।
अंधकार की भयानकता और उसके कारण उत्पन्न होने वाली अव्यवस्था से भी सभी परिचित हैं, पर साथ ही यह भी ध्यान रखने योग्य है कि सृष्टि व्यवस्था उसे अधिक समय तक सहन नहीं करती। ब्रह्म मुहूर्त आता है, मुर्गे बोलते हैं, पूर्वांचल में उषाकाल का आभास मिलता है, जो अपने आलोक से दसों दिशाएँ भर देता हैं। हलचलों का नया माहौल बनता है, यहाँ तक कि फूल खिलने, पक्षी चहकने, उड़ने फुदकने लगते हैं।
वर्तमान प्रवाह को चरम विनाश के बिन्दु तक जा पहुँचने से पहले स्रष्टा ने उस पर रोक लगाने और परिवर्तन का नया माहौल बनाने का निश्चय किया है। इसका अनुमान सभी सूक्ष्मदर्शी समान रूप से लगाने लगे हैं। नया सोच आरम्भ हो रहा है। दृष्टिकोण की दिशा बदल रही है। गतिविधियों के नये निर्धारण की योजनाएँ बन रही हैं। यह परिवर्तन मनुष्यों के मूर्धन्य क्षेत्रों में तो चल ही रहा है। व्यापक वातावरण पर नियंत्रण करने वाली अदृश्य शक्तियाँ अपने ढंग से अपने क्षेत्र में ऐसा कुछ चमत्कार दिखाने पर तुल गई हैं, जो अवांछनीय प्रचलनों को उलटने और उनके स्थान पर नये मूल्यों- कीर्तिमानों की स्थापना कर पाने में सफल हो सके।
समय की गति, मनुष्य की प्रचण्ड पुरुषार्थ परायणता के कारण अत्यधिक तेज हो गई है। जो सृष्टि के आदि से अब तक नहीं बन पड़ा था, वह पिछली थोड़ी सी शताब्दियों में ही आश्चर्यजनक ढंग से बन पड़ा है। भले ही वह अवांछनीय या बुरा ही क्यों न हो। समय की चाल तेज हो जाने पर घण्टे में तीन मील चलने वाला व्यक्ति वायुयान में चढ़कर उतनी ही देर में कहीं से कहीं जा पहुँचता है। मनुष्य के प्रबल पुरुषार्थ की ऊर्जा से समय- प्रवाह में अतिशय तेजी आई है। उसने जो भी भला बुरा किया है, तेजी से किया है। यह द्रुतगामिता आगे भी जारी रहेगी। सुधारक्रम भी उतनी ही तेजी से होगा। तूफान जिस भी दिशा में मुड़ता है, उसी में अपनी प्रचंडता का परिचय देता चलता है।
हर बात की एक सीमा होती है, रावण, कंस हिरण्यकश्यपु वृत्रासुर आदि भी उभरे तो तेजी से, पर उसी गति से उनका अन्त भी हो गया। पानी में बबूले तेजी से उठते हैं और उसी तेजी से वे उछलते और तिरोहित हो जाते हैं। फसल पकती है और कटने के बाद उसी जगह नई उगाई जाती है। जर्जर शरीर मरते और नया जन्म धारण करते हैं। खण्डहरों के स्थान पर नई इमारतें खड़ी होती हैं। इसी क्रम के अनुसार अवांछनीयताओं का माहौल अब समाप्त होने ही जा रहा है और उसका स्थान सच्चे अर्थों वाली प्रगतिशीलता ग्रहण करेगी। लंका दहन के साथ ही रामराज्य का अवतरण भी जुड़ा हुआ था। वही इस बार भी होने जा रहा है।
अंधकार की भयानकता और उसके कारण उत्पन्न होने वाली अव्यवस्था से भी सभी परिचित हैं, पर साथ ही यह भी ध्यान रखने योग्य है कि सृष्टि व्यवस्था उसे अधिक समय तक सहन नहीं करती। ब्रह्म मुहूर्त आता है, मुर्गे बोलते हैं, पूर्वांचल में उषाकाल का आभास मिलता है, जो अपने आलोक से दसों दिशाएँ भर देता हैं। हलचलों का नया माहौल बनता है, यहाँ तक कि फूल खिलने, पक्षी चहकने, उड़ने फुदकने लगते हैं।
वर्तमान प्रवाह को चरम विनाश के बिन्दु तक जा पहुँचने से पहले स्रष्टा ने उस पर रोक लगाने और परिवर्तन का नया माहौल बनाने का निश्चय किया है। इसका अनुमान सभी सूक्ष्मदर्शी समान रूप से लगाने लगे हैं। नया सोच आरम्भ हो रहा है। दृष्टिकोण की दिशा बदल रही है। गतिविधियों के नये निर्धारण की योजनाएँ बन रही हैं। यह परिवर्तन मनुष्यों के मूर्धन्य क्षेत्रों में तो चल ही रहा है। व्यापक वातावरण पर नियंत्रण करने वाली अदृश्य शक्तियाँ अपने ढंग से अपने क्षेत्र में ऐसा कुछ चमत्कार दिखाने पर तुल गई हैं, जो अवांछनीय प्रचलनों को उलटने और उनके स्थान पर नये मूल्यों- कीर्तिमानों की स्थापना कर पाने में सफल हो सके।
समय की गति, मनुष्य की प्रचण्ड पुरुषार्थ परायणता के कारण अत्यधिक तेज हो गई है। जो सृष्टि के आदि से अब तक नहीं बन पड़ा था, वह पिछली थोड़ी सी शताब्दियों में ही आश्चर्यजनक ढंग से बन पड़ा है। भले ही वह अवांछनीय या बुरा ही क्यों न हो। समय की चाल तेज हो जाने पर घण्टे में तीन मील चलने वाला व्यक्ति वायुयान में चढ़कर उतनी ही देर में कहीं से कहीं जा पहुँचता है। मनुष्य के प्रबल पुरुषार्थ की ऊर्जा से समय- प्रवाह में अतिशय तेजी आई है। उसने जो भी भला बुरा किया है, तेजी से किया है। यह द्रुतगामिता आगे भी जारी रहेगी। सुधारक्रम भी उतनी ही तेजी से होगा। तूफान जिस भी दिशा में मुड़ता है, उसी में अपनी प्रचंडता का परिचय देता चलता है।
हर बात की एक सीमा होती है, रावण, कंस हिरण्यकश्यपु वृत्रासुर आदि भी उभरे तो तेजी से, पर उसी गति से उनका अन्त भी हो गया। पानी में बबूले तेजी से उठते हैं और उसी तेजी से वे उछलते और तिरोहित हो जाते हैं। फसल पकती है और कटने के बाद उसी जगह नई उगाई जाती है। जर्जर शरीर मरते और नया जन्म धारण करते हैं। खण्डहरों के स्थान पर नई इमारतें खड़ी होती हैं। इसी क्रम के अनुसार अवांछनीयताओं का माहौल अब समाप्त होने ही जा रहा है और उसका स्थान सच्चे अर्थों वाली प्रगतिशीलता ग्रहण करेगी। लंका दहन के साथ ही रामराज्य का अवतरण भी जुड़ा हुआ था। वही इस बार भी होने जा रहा है।