Books - जीवन साधना प्रयोग और सिद्धियां-
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Language: HINDI
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नागरिक कर्तव्यों की उपेक्षा न करें
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अपने आचरण दृष्टिकोण और क्रियाकलापों द्वारा समाज के हित का ध्यान रखना उन पर आघात न करना और स्वार्थ के साथ समाज के हितों को भी साधना सामाजिकता है। पारस्परिक सम्बन्धों में जिसे हम नैतिकता कहते हैं, समाज के प्रति उन्हीं भावनाओं को सामाजिकता कहा जा सकता है। उसी प्रकार सामान्य सम्बन्धों में जिसे शिष्टता कहा जाता है सामाजिक सन्दर्भों में उन भावनाओं के परिपालन को नागरिकता कहा जाना चाहिए। लोक व्यवहार में जिस प्रकार दूसरों की सुविधा सद्भावनाओं की अभिव्यक्ति अपने व्यवहार के माध्यम से की जाती हैं उसी प्रकार उन अज्ञात और अपरिचित व्यक्तियों की सुविधा, सम्मान तथा भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिए जो प्रत्यक्षतः हमारे सम्पर्क में नहीं आते। शिष्टाचार उन्हीं के साथ बरतना सम्भव है जो प्रत्यक्ष रूप से अपने सम्पर्क में आते हैं किन्तु समाज में रहने के नाते हमारा आचरण अन्य, अपरिचित व्यक्तियों को भी प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए हमें पता नहीं रहता कि जिस रास्ते से हम गुजरते हैं उस पर पांच दस मिनट बाद कौन गुजरेगा या उसी समय कौन चल रहा है। उस समय कोई परिचित व्यक्ति भी वहां से गुजर सकता है और अपरिचित भी। परिचित हो तो भी उसी रास्ते उसका गुजरना हमारे लिए असम्बन्धित है। स्वयं चलते समय राह में यदि ऐसी कोई हरकत की जाये जिससे कि वहां चलने वाले को परेशानी या नुकसान उठाना पड़े तो प्रत्यक्षतः उसके लिए हम अपने को जिम्मेदार नहीं मान सकते परन्तु अपनी लापरवाही के कारण उसे हानि पहुंची यह जरूर अनुभव किया जा सकता है। इस लापरवाही को असभ्यता अथवा अनागरिकता कहा जाना चाहिए। नागरिक कर्तव्यों के प्रति उपेक्षा-लापरवाही के कारण होने वाले दुष्परिणामों की चर्चा करते हुए एक विद्वान् लेखक ने लिखा है। ‘‘क्या आपने केले और नारंगी के छिलके चारों तरफ पड़े हुए नहीं देखे हैं? क्या ऐसा कभी हुआ है कि जब आप जरूरी काम से सड़क पर चल रहे हों या जल्दी में रेल पर चढ़ने के लिए प्लेटफार्म पर दौड़े हों तो इन छिलकों पर पैर रख जाने के कारण फिसल कर गिर पड़े। अगर आपका ऐसा अनुभव है तो आपने कभी सोचा है कि आप स्वयं ने भी छिलके ऐसी जगहों पर नहीं फेंके जहां नहीं फेंके जाने चाहिए थे।’’ ‘‘क्या आपको ऐसा अनुभव कभी नहीं हुआ कि जब आप रेल पर चढ़े हों तो रेल के डिब्बे में व्यर्थ का कूड़ा करकट पाकर बड़ा बुरा लगा हो और आपने उन मुसाफिरों को खूब कोसा हो जो उस डिब्बे में पहले चढ़े थे और जिन चीजों को बाहर फेंक देना चाहिए था उन्हें डिब्बे में ही छोड़ कर चल दिये। परन्तु आपने खुद कभी इस बात का विचार रखा है कि इस प्रकार के कूड़े को कम करें या उसे और न बढ़ायें?’’ सार्वजनिक जीवन की उपेक्षा और असावधानी का यह रोग मनुष्यों तक ही नहीं उनके पालित पशुओं और बच्चों तक फैल गया है। लोग दूध पीने के लिए पशु पालते हैं किन्तु खर्च से बचने के लिए उन्हें खुला छोड़ देते हैं। और ये पशु बाजारों, सार्वजनिक स्थानों, रास्तों सड़कों पर स्वतंत्र घूमते रहते हैं वहां लोगों का नुकसान करते हैं। कभी कभी तो बाजारों में पशुओं की लड़ाई से जन धन की भी हानि हो जाती है। इस स्थिति के लिए निश्चित रूप से उन्हें पालने वाले जिम्मेदार हैं। यही नहीं इस तरह की छोटी छोटी बातों से हमारे राष्ट्रीय जीवन का व्यक्तित्व भी विकृत होता है। बाहर देशों से आने वाले पर्यटक यात्री इस तरह की घटनाओं को बड़े आश्चर्य से देखते हैं और हमारी असभ्यता का दुष्प्रभाव लेकर जाते हैं। इस तरह की गयी आदतों का दुष्प्रभाव सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। इन दिनों अस्पताल,औषधालय बढ़ रहे हैं किन्तु मरीजों और बीमारों की संख्या भी बढ़ रही है। कारण चारों ओर फैली रहने वाली गन्दगी हटा दी जाने पर फिर ढेर बन जाती है। सफाई के लिए सरकार या नगरपालिका कुछ प्रबन्ध करती है किन्तु लोग अपनी गन्दी आदतों से पुनः वहां गन्दगी पैदा कर देते हैं। सार्वजनिक स्थान सड़कों, बाजारों आदि स्थानों पर स्वच्छता कर्मचारी दिन में दो तीन बार झाडू लगाते हैं किन्तु किसी भी समय वहां जाकर देखा जाय तो गन्दगी पुनः ज्यों की त्यों मिलती है। कारण है लोगों में नागरिक कर्तव्यों का अज्ञान या उनकी जानबूझ कर अवज्ञा। सार्वजनिक जीवन में सुव्यवस्था तभी सम्भव है जबकि नागरिक कर्तव्यों के प्रति हम पर्याप्त सजग हों। सार्वजनिक स्थानों पर हम जैसा बर्ताव करते हैं—इसका औरों पर भी प्रभाव पड़ता है। छोटे बच्चे, कम पढ़े लिखे, और हमसे निम्न स्तर के व्यक्ति उन बर्तावों को देख कर ही स्वयं भी आचरण करते हैं। जैसे एक शिक्षित व्यक्ति का अनुकरण अल्प शिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति करता है, सम्पन्न व्यक्ति का कम सम्पन्न या निर्धन व्यक्ति अनुकरण करता है। प्रतिष्ठित जनों का सामान्य जन अनुकरण करते हैं। और देखते हैं कि हमसे शिक्षित, प्रभावशाली, बड़े या प्रतिष्ठित व्यक्ति नागरिक कर्तव्यों का कोई ध्यान नहीं रख रहे हैं अथवा उनकी अवहेलना कर रहे हैं तो हम ही क्यों करें। इसलिए प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को सार्वजनिक जीवन में सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए स्वयं नागरिकता के नियमों का पालन करना चाहिए। शिष्टता की भांति नागरिकता की भी कोई सर्वांगपूर्ण परिभाषा नहीं की जा सकती। समय, परिस्थिति और वातावरण के अनुरूप हमें स्वयं ही यह निर्धारित करना पड़ता है कि कहां किन मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। आमतौर पर सार्वजनिक स्थानों में जहां लोगों का आना जाना हमेशा बना रहता है कई जगह वहां के विशिष्ट नियम लिखे रहते हैं। उनका ध्यान तो रखना ही चाहिए स्वच्छता, सुव्यवस्था और शान्ति बनाये रखने के लिए स्वयं अपने विवेक का भी उपयोग करना चाहिए। सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जहां हम उपस्थित हैं वहां दूसरे लोग भी हैं या हमारे बाद में हो सकते हैं। हम अपनी उपस्थिति का ऐसा कोई फूहड़ प्रमाण वहां न छोड़ें जिससे मौजूद या आने वाले व्यक्तियों को असुविधा हो। न ही इस प्रकार का उच्छृंखल आचरण ही करें कि उस स्थान की व्यवस्था और शान्ति भंग होती हो। अच्छा नागरिक बनने के लिए इन निषेधात्मक पहलुओं पर ध्यान देने के साथ साथ विधेयात्मक पहलुओं पर भी ध्यान देना चाहिए। इसके लिए हम सार्वजनिक जीवन में सुव्यवस्था और शान्ति स्थापित करने के लिए स्थिति और सामर्थ्य के अनुसार किसी तरह का योगदान दे सकते हैं। सार्वजनिक जीवन में नागरिक कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए, दूसरों की सुविधा असुविधा का ध्यान रखने और व्यवस्था एवं शान्ति बनाये रखने में सहयोग देते हुए हम सुयोग्य नागरिक बन सकते हैं। जीवन साधना का यह एक अनिवार्य पहलू है। यह एक प्रमाणित तथ्य है कि किसी देश समाज का, जाति का उत्कर्ष उसमें उत्पन्न होने वाले दो-चार महापुरुषों से ही नहीं हो जाता। यदि ऐसा हुआ होता तो महापुरुषों की खान कही जाने वाली भारत भूमि की सन्तानें—भारतीय समाज आज इतना दुर्दशाग्रस्त नहीं होता। किसी भी समाज या जाति का उत्कर्ष उसमें रहने वाले सदस्यों के उज्ज्वल चरित्र और धवल व्यक्तित्व पर निर्भर रहता है महापुरुषों के प्रयास सदैव इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए चलते हैं। एक आदर्श मानव का व्यक्तित्व सुसंस्कृत अन्तस् तथा सुसभ्य आचार से मिल कर ही बनता व निखरता है,जीवन साधना का यही प्रयोजन है। इस साधना को अपनाकर ही व्यक्तिगत जीवन में सुख शान्ति तथा सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और समुन्नति की स्थिति बनाई जा सकती है। जीवन साधना के आधारभूत सिद्धान्तों की चर्चा ही इस पुस्तक में की गयी है। उसे व्यवहार में किस प्रकार उतारा जाय—इसका भी दिग्दर्शन किया गया है, किन्तु अपने लिए उसका स्वरूप निर्धारण स्वयं ही करना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की मनोभूमि, उसकी प्रकृति, परिस्थितियां तथा मान्यतायें सर्वथा भिन्न-भिन्न होती हैं। इनमें से किसी भी एक का साम्य किन्हीं दो व्यक्तियों में नहीं हो पाता। अतः आदर्श जीवन की आचार संहिता क्या हो यह स्वयं अपने विवेक से प्रस्तुत सिद्धान्तों के आधार पर निर्धारित करना चाहिए और व्यक्तित्व का अन्तरंग-बहिरंग विकसित करते चलना चाहिए। *** *समाप्त*