Books - जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
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सुनिश्चित राजमार्ग अपनाएँ
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देवता की पूजा- अर्चना के लिए पंचोपचार, षोडशोपचार नाम से जाने जाने वाले
कर्मकाण्डों, क्रिया- कृत्यों का प्रयोग भक्तजन करते रहते हैं। इसके बदले
उन्हें क्या मिला? उसका विवरण तो वे स्वयं ही बता सकते हैं, पर उपर्युक्त
साधनाओं को निश्चित रूप से विश्वासपूर्वक नवधा भक्ति के स्थान पर
प्रतिपादित किया जा सकता है और देखा जा सकता है कि उसके सहारे प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्ष दोनों ही क्षेत्रों में गरिमामय उपलब्धियों को सहज-
सरलतापूर्वक हस्तगत कर लिया गया या नहीं?
राजमार्ग पर चलने वाले भटकते नहीं। झाड़- झंखाड़ों में वे उलझते हैं, जिन्हें छलांग लगाकर तुर्त- फुर्त बिना पुरुषार्थ का परिचय दिये ही बहुत कुछ पा लेने की ललक सताती है। आकुल- व्याकुल मनःस्थिति में आनन- फानन इन्द्र जैसा वर्चस् और कुबेर जैसा वैभव कहीं से भी उड़ा लाने की मानसिकता ही लोगों को हैरान करती रहती है। ऐसे ही व्यक्ति साधना से सिद्धि के सिद्धान्त पर लांछन लगाते और आरोप थोपते हुए देखे गये हैं। नौ गुणों का नौ सूत्रों वाला यज्ञोपवीत धारण करने की विधा इसी संकेत पर ध्यान केन्द्रित किए रहने के लिये विनिर्मित की गई है कि पञ्च तत्त्वों से बनी, रक्त माँस, अस्थि जैसे पदार्थों से अंग- प्रत्यंगों को जोड़- गाँठ कर खड़ी की गयी, इस मानव काया को यदि नौलखा हार से सुसज्जित करना हो, तो उन नौ गुणों को चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में- गुण कर्म, स्वभाव में गहराई तक समाविष्ट किया जाए। उन्हें क्रियाकलाप में, अभ्यास में शामिल करने के लिए प्राण- प्रण से प्रयत्न करना चाहिए।
यह ऐसा कायाकल्प है जिसके लिए किसी बाहरी धन्वन्तरि की मनुहार आवश्यक नहीं। यह च्यवन ऋषि जैसा पुनर्यौवन प्राप्त करने का सुयोग है, जिसके लिए अश्विनीकुमारों का अनुग्रह तनिक भी अपेक्षित नहीं। यह समूची उदात्तीकरण की, पशु को देवता बना देने वाली महान् उपलब्धि है, जिसे कभी ‘‘द्विजत्व’’ दूसरे जन्म के नाम से जाना जाता था। इसमें आकृति नहीं, प्रकृति भर बदलती है और मनुष्य जिस भी, जैसी भी स्थिति में रह रहा हो, उसे उसी क्षेत्र में वरिष्ठता की सहज उपलब्धि हो जाती है।
धर्म- धारणा को विभिन्न सम्प्रदायों और मतमतान्तरों ने भिन्न- भिन्न संख्याओं में गिनाया है और स्वरूप तथा प्रयोग अपनी- अपनी मान्यता के अनुरूप बताया- समझाया है, किन्तु आज की स्थिति में जबकि अनेक थनों से दुहे गये दूध को सम्मिश्रित करके एक ही मथानी से मथ कर, एक जैसी आकृति का एक ही नाम वाला मक्खन निकालने की उपयोगिता- आवश्यकता समझी जा रही है, तो फिर उपर्युक्त नौ रत्नों से जड़े गए हार को सर्वप्रिय एवं सर्वमान्य आभूषण ठहराया जा सकता है।
मिठाई- मिठाई रटते रहने और उनके स्वरूप- स्वाद का आलंकारिक वर्णन करते रहने भर से न तो मुँह मीठा होता है और न पेट भरता है। उसका रसास्वादन करने और लाभ उठाने का तरीका एक ही है, कि जिसकी भावभरी चर्चा की जा रही है, उसे खाया ही नहीं, पचाया भी जाये। धर्म उसे कहते हैं, जो धारण किया जाये। उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए कथा प्रवचनों को कहते- सुनते रहना भी कुछ कारगर न हो सकेगा। बात तो तभी बनेगी जब जिस प्रक्रिया का माहात्म्य कहा- सुना जा रहा हो, उसे व्यवहार में उतारा जाये। व्यायाम किये बिना कोई पहलवान कहाँ बन पाता है? इसी प्रकार धर्म के तत्त्वज्ञान को व्यावहारिक जीवनचर्या में उतारने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है।
राजमार्ग पर चलने वाले भटकते नहीं। झाड़- झंखाड़ों में वे उलझते हैं, जिन्हें छलांग लगाकर तुर्त- फुर्त बिना पुरुषार्थ का परिचय दिये ही बहुत कुछ पा लेने की ललक सताती है। आकुल- व्याकुल मनःस्थिति में आनन- फानन इन्द्र जैसा वर्चस् और कुबेर जैसा वैभव कहीं से भी उड़ा लाने की मानसिकता ही लोगों को हैरान करती रहती है। ऐसे ही व्यक्ति साधना से सिद्धि के सिद्धान्त पर लांछन लगाते और आरोप थोपते हुए देखे गये हैं। नौ गुणों का नौ सूत्रों वाला यज्ञोपवीत धारण करने की विधा इसी संकेत पर ध्यान केन्द्रित किए रहने के लिये विनिर्मित की गई है कि पञ्च तत्त्वों से बनी, रक्त माँस, अस्थि जैसे पदार्थों से अंग- प्रत्यंगों को जोड़- गाँठ कर खड़ी की गयी, इस मानव काया को यदि नौलखा हार से सुसज्जित करना हो, तो उन नौ गुणों को चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में- गुण कर्म, स्वभाव में गहराई तक समाविष्ट किया जाए। उन्हें क्रियाकलाप में, अभ्यास में शामिल करने के लिए प्राण- प्रण से प्रयत्न करना चाहिए।
यह ऐसा कायाकल्प है जिसके लिए किसी बाहरी धन्वन्तरि की मनुहार आवश्यक नहीं। यह च्यवन ऋषि जैसा पुनर्यौवन प्राप्त करने का सुयोग है, जिसके लिए अश्विनीकुमारों का अनुग्रह तनिक भी अपेक्षित नहीं। यह समूची उदात्तीकरण की, पशु को देवता बना देने वाली महान् उपलब्धि है, जिसे कभी ‘‘द्विजत्व’’ दूसरे जन्म के नाम से जाना जाता था। इसमें आकृति नहीं, प्रकृति भर बदलती है और मनुष्य जिस भी, जैसी भी स्थिति में रह रहा हो, उसे उसी क्षेत्र में वरिष्ठता की सहज उपलब्धि हो जाती है।
धर्म- धारणा को विभिन्न सम्प्रदायों और मतमतान्तरों ने भिन्न- भिन्न संख्याओं में गिनाया है और स्वरूप तथा प्रयोग अपनी- अपनी मान्यता के अनुरूप बताया- समझाया है, किन्तु आज की स्थिति में जबकि अनेक थनों से दुहे गये दूध को सम्मिश्रित करके एक ही मथानी से मथ कर, एक जैसी आकृति का एक ही नाम वाला मक्खन निकालने की उपयोगिता- आवश्यकता समझी जा रही है, तो फिर उपर्युक्त नौ रत्नों से जड़े गए हार को सर्वप्रिय एवं सर्वमान्य आभूषण ठहराया जा सकता है।
मिठाई- मिठाई रटते रहने और उनके स्वरूप- स्वाद का आलंकारिक वर्णन करते रहने भर से न तो मुँह मीठा होता है और न पेट भरता है। उसका रसास्वादन करने और लाभ उठाने का तरीका एक ही है, कि जिसकी भावभरी चर्चा की जा रही है, उसे खाया ही नहीं, पचाया भी जाये। धर्म उसे कहते हैं, जो धारण किया जाये। उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए कथा प्रवचनों को कहते- सुनते रहना भी कुछ कारगर न हो सकेगा। बात तो तभी बनेगी जब जिस प्रक्रिया का माहात्म्य कहा- सुना जा रहा हो, उसे व्यवहार में उतारा जाये। व्यायाम किये बिना कोई पहलवान कहाँ बन पाता है? इसी प्रकार धर्म के तत्त्वज्ञान को व्यावहारिक जीवनचर्या में उतारने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है।