Books - जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
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निकृष्टता से उबरें, महानता अपनाएँ
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बादल बरसते सभी जगह समान रूप से हैं, पर उनका पानी उतनी ही मात्रा में वहाँ
जमा होता है, जहाँ जितनी गहराई या पात्रता होती है। वर्षा के अनुग्रह से
व्यापक भू- क्षेत्र में हरियाली उगती और लहराती है, पर रेगिस्तानों और
चट्टानों में एक तिनका तक जमता दृष्टिगोचर नहीं होता है, उसमें बादल का
पक्षपात नहीं, भूमि की अनुर्वरता ही प्रमुख रूप से उत्तरदायी है।
धुलाई के बिना रँगाई निखरती कहाँ है? गलाई के बिना ढलाई किसने कर दिखाई है? मल- मूत्र से सने बच्चे को माता तब ही गोद में उठाती है, जब उसे नहला- धुला कर साफ- सुथरा बना देती है। मैला- गँदला पानी पीने के काम कहाँ आता है? मैले दर्पण में छवि कहाँ दीख पड़ती है? जलते अंगारे पर यदि राख की परत जम जाए, तो न उसको गर्मी का आभास होता है, न चमक का। बादलों से ढक जाने पर सूर्य- चन्द्र तक अपना प्रकाश धरती तक नहीं पहुँचा पाते। कुहासा छा जाने पर दिन में भी लगभग रात जैसा अँधेरा छा जाता है और कुछ दूरी की वस्तुएँ तक सूझ नहीं पड़तीं।
इन्हीं सब उदाहरणों को देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुष्य यदि लोभ की हथकड़ियाँ, मोह की बेडिय़ों और अहंकार की जंजीरों में जकड़ा हुआ रहे, तो उसकी समस्त क्षमताएँ नाकारा बन कर रह जाएँगी। बँधुआ मजदूर रस्सी में बँधे पशुओं की तरह बाधित और विवश बने रहते हैं। वे अपना मौलिक पराक्रम गवाँ बैठते हैं और उसी प्रकार चलने- करने के लिए विवश होते हैं, जैसा कि बाँधने वाला उन्हें चलने के लिए दबाता- धमकाता है। कठपुतलियाँ अपनी मर्जी से न उठ सकती हैं, न चल सकती हैं। मात्र मदारी ही उन्हें नचाता- कुदाता है।
कुसंस्कारों और कुप्रचलनों का दुहरा दबाव ही मनुष्य के, मौलिक चिंतन का सही मार्ग अपनाने में भारी अवरोध बनकर खड़ा हो जाता है और उत्कृष्टता की दिशा में सहज सम्भव हो सकने वाली प्रगति, बुरी तरह अवरुद्ध होकर रह जाती है। अन्तरात्मा ऊँचा उठने के लिए कहती है और सिर पर छाया हुआ दुष्प्रवृत्तियों का आकाश जितना विस्तृत नरक, नीचे गिरने के लिए बाधित करता है। फलतः: मनुष्य त्रिशंकु की तरह अधर में ही लटका रह जाता है। यह असमंजस बना ही रहता है कि उसका क्या होगा? भविष्य न जाने कैसा बन कर रहेगा?
इस विषम विडम्बना से छूटने का एक ही उपाय है कि दोष- दुर्गुणों की जो भारी चट्टानें सिर पर लदी हैं, उन्हें किसी भी कीमत पर हटाया- गिराया जाए, अन्यथा उतनी बोझिल विपन्नता को सिर पर लादे हुए, कुछ दूर तक भी आगे चल सकना सम्भव न होगा। वासनाएँ आदमी को नीबू की तरह निचोड़ लेती हैं। जीवन में से स्वास्थ्य, संतुलन, आयुष्य जैसा सब कुछ निचोड़ कर, उसे छिलके जैसा निस्तेज बनाकर रख देती हैं।
तृष्णाओं की खाई इतनी गहरी है, जिसे रावण, हिरण्यकश्यपु, वृत्तासुर जैसे प्रबल पराक्रमी भी समूचा पौरुष दाँव पर लगा देने के बाद भी पाट सकने में तनिक भी समर्थ न हुए। सिकंदर जैसे सफलताओं के धनी भी मुट्ठी बाँधे आए और हाथ पसारे चले गए। अहंकार प्रदर्शित करने के दर्प में, संसार भर को चुनौती देने और ताल ठोकने वाले किसी समय के दुर्दान्त दैत्यों में से अब कोई कहीं दीख नहीं पड़ता। राजाओं के मणि- मुक्तकों से जड़े राजमुकुट और सिंहासन, न जाने धराशायी होकर कहाँ धूल चाट रहे होंगे? यह करतूतें उन्हीं पैशाचिक दुष्प्रवृत्तियों की हैं, जो मनुष्य पर उन्माद की तरह छाई रहती हैं और उसकी बहुमूल्य जीवन- सम्पदा को कौड़ी के मोल गँवा देने के लिए दिग्भ्रमित करती रहती हैं।
स्वार्थ सिद्धि की ललक- लिप्सा वस्तुतः: अनर्थ के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने नहीं देती। स्थिति उस जादुई राजमहल जैसी बन जाती है, जिसमें प्रवेश करने पर दुर्योधन को जल के स्थान पर थल और थल के स्थान पर जल दीखने लगा था। जो करना चाहिए, उसका निरन्तर तिरस्कार -बहिष्कार ही होता रहता है और अपनी चतुरता की डींग हाँकने वाले निरन्तर वह करते रहते हैं, जो नहीं ही करना चाहिए। इस मानसिकता को, व्यामोह का सम्मोहन नाम देने के अतिरिक्त और क्या कहा जाए? क्या यह दुर्गति और दुर्गंध से भरी दुर्दशा ही मानव जीवन की नियति है?
जो हो, पर वास्तविकता यही है कि औसत आदमी इन्हीं परिस्थितियों में स्वेच्छापूर्वक या बाधित होकर रहने के लिए अभ्यस्त पाया जाता है। हानि को लाभ और लाभ को हानि समझने वालों के हाथ वैसी ही दुर्गति लग सकती है, जैसी कि अधिकांश लोगों के गले बँधी और छाती पर चढ़ी दिखाई देती है।
अचम्भा यही है कि सड़े नालों में पलने और बढ़ने वाले कीड़े, अपनी स्थिति की दयनीयता का अनुभव तक नहीं कर पाते। उससे किसी प्रकार छुटकारा पाकर इतनी भी नई सोच जुटा नहीं पाते कि यदि कीड़े की ही स्थिति में रहना था, तो फूलों पर उड़ने वाली तितलियों की तरह आकर्षक होने के सुयोग को चाहने और पाने के लिए तो मानस बनाया जाए। जब आकांक्षा तक मर गई, तो उत्कर्ष की पक्षधर हलचलें भी कहाँ से, कैसे उभर सकेंगी?
मानव जीवन का परम पुरुषार्थ, सर्वोच्च स्तर का सौभाग्य एक ही है कि वह अपनी निकृष्ट मानसिकता से त्राण पाये। भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण वाले स्वभाव- अभ्यास को और अधिक गहन करते रहने से स्पष्ट इन्कार कर दे। भूल समझ में आने पर उलटे पैरों लौट पड़ने में भी कोई बुराई नहीं है। गिनती गिनना भूल जाने पर दुबारा नये सिरे से गिनना आरम्भ करने में किसी समझदार को संकोच नहीं करना चाहिए। मानव सच्चे अर्थों में धरती पर रहने वाला देवता है। नर- कीटक नर- पशु नर- पिशाच जैसी स्थिति तो उसने अपनी मर्जी से स्वीकार की है। यदि वह काया- कल्प जैसे परिवर्तन की बात सोच सके, तो उसे नर- नारायण महामानव बनने में भी देर न लगेगी। आखिर वह है तो ऋषियों, तपस्वियों, मनस्वियों और मनीषियों का वंशधर ही।
धुलाई के बिना रँगाई निखरती कहाँ है? गलाई के बिना ढलाई किसने कर दिखाई है? मल- मूत्र से सने बच्चे को माता तब ही गोद में उठाती है, जब उसे नहला- धुला कर साफ- सुथरा बना देती है। मैला- गँदला पानी पीने के काम कहाँ आता है? मैले दर्पण में छवि कहाँ दीख पड़ती है? जलते अंगारे पर यदि राख की परत जम जाए, तो न उसको गर्मी का आभास होता है, न चमक का। बादलों से ढक जाने पर सूर्य- चन्द्र तक अपना प्रकाश धरती तक नहीं पहुँचा पाते। कुहासा छा जाने पर दिन में भी लगभग रात जैसा अँधेरा छा जाता है और कुछ दूरी की वस्तुएँ तक सूझ नहीं पड़तीं।
इन्हीं सब उदाहरणों को देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुष्य यदि लोभ की हथकड़ियाँ, मोह की बेडिय़ों और अहंकार की जंजीरों में जकड़ा हुआ रहे, तो उसकी समस्त क्षमताएँ नाकारा बन कर रह जाएँगी। बँधुआ मजदूर रस्सी में बँधे पशुओं की तरह बाधित और विवश बने रहते हैं। वे अपना मौलिक पराक्रम गवाँ बैठते हैं और उसी प्रकार चलने- करने के लिए विवश होते हैं, जैसा कि बाँधने वाला उन्हें चलने के लिए दबाता- धमकाता है। कठपुतलियाँ अपनी मर्जी से न उठ सकती हैं, न चल सकती हैं। मात्र मदारी ही उन्हें नचाता- कुदाता है।
कुसंस्कारों और कुप्रचलनों का दुहरा दबाव ही मनुष्य के, मौलिक चिंतन का सही मार्ग अपनाने में भारी अवरोध बनकर खड़ा हो जाता है और उत्कृष्टता की दिशा में सहज सम्भव हो सकने वाली प्रगति, बुरी तरह अवरुद्ध होकर रह जाती है। अन्तरात्मा ऊँचा उठने के लिए कहती है और सिर पर छाया हुआ दुष्प्रवृत्तियों का आकाश जितना विस्तृत नरक, नीचे गिरने के लिए बाधित करता है। फलतः: मनुष्य त्रिशंकु की तरह अधर में ही लटका रह जाता है। यह असमंजस बना ही रहता है कि उसका क्या होगा? भविष्य न जाने कैसा बन कर रहेगा?
इस विषम विडम्बना से छूटने का एक ही उपाय है कि दोष- दुर्गुणों की जो भारी चट्टानें सिर पर लदी हैं, उन्हें किसी भी कीमत पर हटाया- गिराया जाए, अन्यथा उतनी बोझिल विपन्नता को सिर पर लादे हुए, कुछ दूर तक भी आगे चल सकना सम्भव न होगा। वासनाएँ आदमी को नीबू की तरह निचोड़ लेती हैं। जीवन में से स्वास्थ्य, संतुलन, आयुष्य जैसा सब कुछ निचोड़ कर, उसे छिलके जैसा निस्तेज बनाकर रख देती हैं।
तृष्णाओं की खाई इतनी गहरी है, जिसे रावण, हिरण्यकश्यपु, वृत्तासुर जैसे प्रबल पराक्रमी भी समूचा पौरुष दाँव पर लगा देने के बाद भी पाट सकने में तनिक भी समर्थ न हुए। सिकंदर जैसे सफलताओं के धनी भी मुट्ठी बाँधे आए और हाथ पसारे चले गए। अहंकार प्रदर्शित करने के दर्प में, संसार भर को चुनौती देने और ताल ठोकने वाले किसी समय के दुर्दान्त दैत्यों में से अब कोई कहीं दीख नहीं पड़ता। राजाओं के मणि- मुक्तकों से जड़े राजमुकुट और सिंहासन, न जाने धराशायी होकर कहाँ धूल चाट रहे होंगे? यह करतूतें उन्हीं पैशाचिक दुष्प्रवृत्तियों की हैं, जो मनुष्य पर उन्माद की तरह छाई रहती हैं और उसकी बहुमूल्य जीवन- सम्पदा को कौड़ी के मोल गँवा देने के लिए दिग्भ्रमित करती रहती हैं।
स्वार्थ सिद्धि की ललक- लिप्सा वस्तुतः: अनर्थ के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने नहीं देती। स्थिति उस जादुई राजमहल जैसी बन जाती है, जिसमें प्रवेश करने पर दुर्योधन को जल के स्थान पर थल और थल के स्थान पर जल दीखने लगा था। जो करना चाहिए, उसका निरन्तर तिरस्कार -बहिष्कार ही होता रहता है और अपनी चतुरता की डींग हाँकने वाले निरन्तर वह करते रहते हैं, जो नहीं ही करना चाहिए। इस मानसिकता को, व्यामोह का सम्मोहन नाम देने के अतिरिक्त और क्या कहा जाए? क्या यह दुर्गति और दुर्गंध से भरी दुर्दशा ही मानव जीवन की नियति है?
जो हो, पर वास्तविकता यही है कि औसत आदमी इन्हीं परिस्थितियों में स्वेच्छापूर्वक या बाधित होकर रहने के लिए अभ्यस्त पाया जाता है। हानि को लाभ और लाभ को हानि समझने वालों के हाथ वैसी ही दुर्गति लग सकती है, जैसी कि अधिकांश लोगों के गले बँधी और छाती पर चढ़ी दिखाई देती है।
अचम्भा यही है कि सड़े नालों में पलने और बढ़ने वाले कीड़े, अपनी स्थिति की दयनीयता का अनुभव तक नहीं कर पाते। उससे किसी प्रकार छुटकारा पाकर इतनी भी नई सोच जुटा नहीं पाते कि यदि कीड़े की ही स्थिति में रहना था, तो फूलों पर उड़ने वाली तितलियों की तरह आकर्षक होने के सुयोग को चाहने और पाने के लिए तो मानस बनाया जाए। जब आकांक्षा तक मर गई, तो उत्कर्ष की पक्षधर हलचलें भी कहाँ से, कैसे उभर सकेंगी?
मानव जीवन का परम पुरुषार्थ, सर्वोच्च स्तर का सौभाग्य एक ही है कि वह अपनी निकृष्ट मानसिकता से त्राण पाये। भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण वाले स्वभाव- अभ्यास को और अधिक गहन करते रहने से स्पष्ट इन्कार कर दे। भूल समझ में आने पर उलटे पैरों लौट पड़ने में भी कोई बुराई नहीं है। गिनती गिनना भूल जाने पर दुबारा नये सिरे से गिनना आरम्भ करने में किसी समझदार को संकोच नहीं करना चाहिए। मानव सच्चे अर्थों में धरती पर रहने वाला देवता है। नर- कीटक नर- पशु नर- पिशाच जैसी स्थिति तो उसने अपनी मर्जी से स्वीकार की है। यदि वह काया- कल्प जैसे परिवर्तन की बात सोच सके, तो उसे नर- नारायण महामानव बनने में भी देर न लगेगी। आखिर वह है तो ऋषियों, तपस्वियों, मनस्वियों और मनीषियों का वंशधर ही।