Books - जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
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प्रस्तुत अनुपम सुयोग का लाभ उठाएँ
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इस प्रयोजन में किस मनःस्थिति और किस परिस्थिति का व्यक्ति क्या करे? इसका
व्यावहारिक मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए शान्तिकुञ्ज में निरन्तर चलते
रहने वाले नौ दिन के साधना सत्रों में से हर साल एक बार या कम से कम दो
वर्ष में एक बार हरिद्वार जा पहुँचने की योजना बनानी चाहिए। इस उपक्रम को
बैटरी चार्ज करने या बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप नया प्रकाश, नया
मार्गदर्शन मिलते रहने जैसा सुयोग समझा जा सकता है। आत्मपरिष्कार के लिए यह
विधा कारगर सिद्ध होती देखी गयी है।
जिन्हें देवालय, धर्मशाला, सदावर्त, प्याऊ जैसे परमार्थ प्रयोजन चलाने की इच्छा हो, उनके लिए अत्यन्त दूरदर्शिता से भरापूरा हाथों- हाथ सत्परिणाम उत्पन्न करने वाला एक ही परमार्थ हर दृष्टि से उपयुक्त दीखता है कि वे ‘‘चल ज्ञान मन्दिर’’ का निर्माण कर सकने जैसा प्रयास जुटाएँ। ‘‘ज्ञानरथ’’ के रूप में इसकी चर्चा आमतौर से होती रहती है।
साइकिल के या ठोस रबड़ के चार पहियों पर मन्दिरनुमा आकृति की इस धकेल गाड़ी में टेपरिकार्डर एवं लाउडस्पीकर फिट रहने के कारण उसे जहाँ कहीं भी ले जाया जाए, वहीं संगीत सम्मेलन एवं प्राणवान् संक्षिप्त धर्म प्रवचनों की शृंखला चल पड़ती है। नुक्कड़ सभा जैसा जुलूस, प्रभातफेरी जैसा माहौल बन जाता है। इसी में इक्कीसवीं सदी की प्रेरणाओं से भरापूरा सस्ता, किन्तु युग धर्म का पक्षधर साहित्य भी रखा रहता है, जिसे बिना मूल्य, पढ़ने देने और फिर बाद में वापस लेने का सिलसिला चलता रह सकता है। जिनका कुछ खरीदने जैसा आग्रह हो, उन्हें उपलब्ध साहित्य बेचा भी जा सकता है।
ऐसे चल ज्ञान मन्दिर विनिर्मित करने में प्राय: एक तोले सोने के मूल्य जितनी लागत आती है, जिसे कोई एक या कुछ लोग मिलकर सहज ही जुटा सकते हैं।
असहयोग आन्दोलन के दिनों काँग्रेस के मूर्धन्य नेता, खादी प्रचार की धकेल गाड़ियाँ लेकर निकलते थे और सम्पर्क में आने वालों को उद्देश्य समझाते हुए पूरे उत्साह के साथ खादी प्रचार मे संलग्न रहते थे। आज की परिस्थितियों के अनुरूप ‘चल ज्ञान मन्दिर’ को स्वयं घुमाते हुए वैसा ही पुण्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है, जैसा कि विशेष पर्वों पर भगवान् का रथ खींचने वाले भक्तजन अपने को पुण्यफल का अधिकारी हुआ मानते हैं। अपने मिशन ने पिछले दिनों २४०० से अधिक प्रज्ञापीठें खड़ी की हैं। अब उससे भी कई गुने ‘‘चल ज्ञान मन्दिर’’ बनाने- बनवाने की योजना है। इसे गाँव, मुहल्लों में नव जागरण का अलख जगाने के सदृश युग परिवर्तन का शंखनाद स्तर का उद्घोष जैसा समझा जा सकता है।
भगवान से अनुनय- विनय करने की कामना भरी पूजा- अर्चना भी चिरकाल से होती चली आ रही है। अब इन दिनों एक विशेष अवसर है कि आपत्तिकालीन परिस्थितियों में भगवान् की पुकार पर ध्यान दिया जाये और मनमर्जी छोड़कर महाकाल के आमन्त्रण पर उसी के सुझाए मार्ग पर चल पड़ा जाए। हनुमान् और अर्जुन ने यही किया था। शिवाजी, प्रताप, चन्द्रगुप्त, विवेकानन्द, विनोबा आदि से कितनी पूजा- अर्चा बन पड़ी? इस सम्बन्ध में तो कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता, पर इतना सर्वविदित है कि उनने दिव्य चेतना के आह्वान को सुना और तदनुरूप कार्यरत हो गए। सम्भवत: उनकी पूजा- उपासना की आवश्यकता उनके इष्टदेव ने स्वयं कर ली होगी और अभीष्ट वरदानों से इन सच्चे साधकों को निहाल कर दिया होगा। हम भी उन्हीं का अनुकरण करें, तो इसमें तनिक भी हर्जा होने या घाटा होने या घाटा पड़ने जैसा कुछ भी नहीं है।
इन दिनों दिव्य चेतना, सेवाभावी सज्जनों के समुदाय को अधिक विस्तृत करने में जुट गई है। युग का मत्स्यावतार इन्हीं दिनों अपने कलेवर को विश्वव्यापी बनाने के लिए आकुल- व्याकुल है। अच्छा हो, हम उसी की महती योजना में भागीदार बनें और अपनी मर्जी की पूजा- उपासना करके मनचाहे वरदान की विडम्बना पर अंकुश ही लगाये रखें।
अपेक्षा की गई है कि इन पंक्तियों के पाठक, नर- पामरों से ऊँचे उठकर, विचारशीलता की दृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत बन चले होंगे। वे एक से पाँच, पाँच से पच्चीस, पच्चीस से एक सौ पच्चीस वाली गुणन प्रक्रिया अपनाकर, चार और साथी ढूँढ़ें तथा उन्हें अपने प्रयोजनों में सहभागी बनाकर युग मानवों का एक पंचायतन विनिर्मित करें। समयदान और अंशदान करते रहने के लिए उन्हें भी अपनी जैसी कर्म पद्धति अपनाने के लिए सहमत करें। करने का तो एक ही कार्य है- विवेक -विस्तार’’। इसके कितने ही कार्यक्रम बन चुके हैं। इनमें से कुछ भी अपनी इच्छानुसार अपनाया जा सकता है। आत्मपरिष्कार, सत्प्रवृत्ति सम्वर्द्धन के अतिरिक्त इन दिनों जिस पुण्य- प्रक्रिया को उतने ही उत्साह से अपनाया जाना है, वह है- एक से पाँच की रीति- नीति अपनाते हुए समस्त विश्व को नव जीवन की विचारधारा से अनुप्राणित करना। इसी क्रम में अपने जीवन का असाधारण परिष्कार और विकास भी सुनिश्चित रूप से हो सकेगा।
प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार- प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।
जिन्हें देवालय, धर्मशाला, सदावर्त, प्याऊ जैसे परमार्थ प्रयोजन चलाने की इच्छा हो, उनके लिए अत्यन्त दूरदर्शिता से भरापूरा हाथों- हाथ सत्परिणाम उत्पन्न करने वाला एक ही परमार्थ हर दृष्टि से उपयुक्त दीखता है कि वे ‘‘चल ज्ञान मन्दिर’’ का निर्माण कर सकने जैसा प्रयास जुटाएँ। ‘‘ज्ञानरथ’’ के रूप में इसकी चर्चा आमतौर से होती रहती है।
साइकिल के या ठोस रबड़ के चार पहियों पर मन्दिरनुमा आकृति की इस धकेल गाड़ी में टेपरिकार्डर एवं लाउडस्पीकर फिट रहने के कारण उसे जहाँ कहीं भी ले जाया जाए, वहीं संगीत सम्मेलन एवं प्राणवान् संक्षिप्त धर्म प्रवचनों की शृंखला चल पड़ती है। नुक्कड़ सभा जैसा जुलूस, प्रभातफेरी जैसा माहौल बन जाता है। इसी में इक्कीसवीं सदी की प्रेरणाओं से भरापूरा सस्ता, किन्तु युग धर्म का पक्षधर साहित्य भी रखा रहता है, जिसे बिना मूल्य, पढ़ने देने और फिर बाद में वापस लेने का सिलसिला चलता रह सकता है। जिनका कुछ खरीदने जैसा आग्रह हो, उन्हें उपलब्ध साहित्य बेचा भी जा सकता है।
ऐसे चल ज्ञान मन्दिर विनिर्मित करने में प्राय: एक तोले सोने के मूल्य जितनी लागत आती है, जिसे कोई एक या कुछ लोग मिलकर सहज ही जुटा सकते हैं।
असहयोग आन्दोलन के दिनों काँग्रेस के मूर्धन्य नेता, खादी प्रचार की धकेल गाड़ियाँ लेकर निकलते थे और सम्पर्क में आने वालों को उद्देश्य समझाते हुए पूरे उत्साह के साथ खादी प्रचार मे संलग्न रहते थे। आज की परिस्थितियों के अनुरूप ‘चल ज्ञान मन्दिर’ को स्वयं घुमाते हुए वैसा ही पुण्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है, जैसा कि विशेष पर्वों पर भगवान् का रथ खींचने वाले भक्तजन अपने को पुण्यफल का अधिकारी हुआ मानते हैं। अपने मिशन ने पिछले दिनों २४०० से अधिक प्रज्ञापीठें खड़ी की हैं। अब उससे भी कई गुने ‘‘चल ज्ञान मन्दिर’’ बनाने- बनवाने की योजना है। इसे गाँव, मुहल्लों में नव जागरण का अलख जगाने के सदृश युग परिवर्तन का शंखनाद स्तर का उद्घोष जैसा समझा जा सकता है।
भगवान से अनुनय- विनय करने की कामना भरी पूजा- अर्चना भी चिरकाल से होती चली आ रही है। अब इन दिनों एक विशेष अवसर है कि आपत्तिकालीन परिस्थितियों में भगवान् की पुकार पर ध्यान दिया जाये और मनमर्जी छोड़कर महाकाल के आमन्त्रण पर उसी के सुझाए मार्ग पर चल पड़ा जाए। हनुमान् और अर्जुन ने यही किया था। शिवाजी, प्रताप, चन्द्रगुप्त, विवेकानन्द, विनोबा आदि से कितनी पूजा- अर्चा बन पड़ी? इस सम्बन्ध में तो कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता, पर इतना सर्वविदित है कि उनने दिव्य चेतना के आह्वान को सुना और तदनुरूप कार्यरत हो गए। सम्भवत: उनकी पूजा- उपासना की आवश्यकता उनके इष्टदेव ने स्वयं कर ली होगी और अभीष्ट वरदानों से इन सच्चे साधकों को निहाल कर दिया होगा। हम भी उन्हीं का अनुकरण करें, तो इसमें तनिक भी हर्जा होने या घाटा होने या घाटा पड़ने जैसा कुछ भी नहीं है।
इन दिनों दिव्य चेतना, सेवाभावी सज्जनों के समुदाय को अधिक विस्तृत करने में जुट गई है। युग का मत्स्यावतार इन्हीं दिनों अपने कलेवर को विश्वव्यापी बनाने के लिए आकुल- व्याकुल है। अच्छा हो, हम उसी की महती योजना में भागीदार बनें और अपनी मर्जी की पूजा- उपासना करके मनचाहे वरदान की विडम्बना पर अंकुश ही लगाये रखें।
अपेक्षा की गई है कि इन पंक्तियों के पाठक, नर- पामरों से ऊँचे उठकर, विचारशीलता की दृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत बन चले होंगे। वे एक से पाँच, पाँच से पच्चीस, पच्चीस से एक सौ पच्चीस वाली गुणन प्रक्रिया अपनाकर, चार और साथी ढूँढ़ें तथा उन्हें अपने प्रयोजनों में सहभागी बनाकर युग मानवों का एक पंचायतन विनिर्मित करें। समयदान और अंशदान करते रहने के लिए उन्हें भी अपनी जैसी कर्म पद्धति अपनाने के लिए सहमत करें। करने का तो एक ही कार्य है- विवेक -विस्तार’’। इसके कितने ही कार्यक्रम बन चुके हैं। इनमें से कुछ भी अपनी इच्छानुसार अपनाया जा सकता है। आत्मपरिष्कार, सत्प्रवृत्ति सम्वर्द्धन के अतिरिक्त इन दिनों जिस पुण्य- प्रक्रिया को उतने ही उत्साह से अपनाया जाना है, वह है- एक से पाँच की रीति- नीति अपनाते हुए समस्त विश्व को नव जीवन की विचारधारा से अनुप्राणित करना। इसी क्रम में अपने जीवन का असाधारण परिष्कार और विकास भी सुनिश्चित रूप से हो सकेगा।
प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार- प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।