Books - मानवी क्षमता असीम अप्रत्यासित
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Language: HINDI
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जीवन विद्युत का उद्गम स्रोत
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अपनी उंगलियों से नापने पर 96 अंगुल के इस मनुष्य शरीर का वैसे तो प्रत्येक अवयव गणितीय आधार पर बना और अनुशासित है पर जितना रहस्यपूर्ण यन्त्र इसका मस्तिष्क है, संसार का कोई भी यन्त्र न तो इतना जटिल, रहस्यपूर्ण है और न समर्थ। यों साधारणतया देखने में उसके मुख्य कार्य—1. ज्ञानात्मक, 2. क्रियात्मक और 3. संयोजनात्मक है। पर जब मस्तिष्क के रहस्यों की सूक्ष्मतम जानकारी प्राप्त करते हैं तो पता चलता है कि इन तीनों क्रियाओं को मस्तिष्क में इतना अधिक विकसित किया जा सकता है कि (1) संसार के किसी भी एक स्थान में बैठे बैठे सम्पूर्ण ब्रह्मांड के किसी भी स्थान की चींटी से से भी छोटी वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। (2) कहीं भी बैठे हुए किसी को कोई सन्देश भेज सकते हैं, कोई भार वाली वस्तु को उठाकर ला सकते हैं, किसी को मूर्छित कर सकते हैं, मार भी सकते हैं। (3) संसार में जो कुछ भी है, उस पर स्वामित्व और वशीकरण भी कर सकते हैं। अष्ट सिद्धियां और नव-निद्धियां वस्तुतः मस्तिष्क के ही चमत्कार हैं, जिन्हें मानसिक एकाग्रता और ध्यान द्वारा भारतीय योगियों ने प्राप्त किया था।
ईसामसीह अपने शिष्यों के साथ यात्रा पर जा रहे थे। मार्ग में वे थक गये, एक स्थान पर उन्होंने अपने एक शिष्य से कहा—‘‘तुम जाओ सामने जो गांव दिखाई देता है, उसके अमुक स्थान पर एक गधा चरता मिलेगा तुम उसे सवारी के लिए ले आना।’’ शिष्य गया और उसे ले आया। लोग आश्चर्यचकित थे कि ईसामसीह की इस दिव्य दृष्टि का रहस्य क्या है? पर यह रहस्य प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान है, बशर्ते कि हम भी उसे जागृत कर पायें।
जिन शक्तियों और सामर्थ्यों का ज्ञान हमारे भारतीय ऋषियों ने आज से करोड़ों वर्ष पूर्व बिना किसी यन्त्र के प्राप्त किया था, आज विज्ञान और शरीर रचना शास्त्र (बायोलॉजी) द्वारा उसे प्रमाणित किया जाना यह बतलाता है कि हमारी योग-साधनायें, जप और ध्यान की प्रणालियां समय का अपव्यय नहीं वरन् विश्व के यथार्थ को जानने की एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रणाली है।
मस्तिष्क नियन्त्रण प्रयोगों द्वारा डा. जोजे डेलगाडो ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि मस्तिष्क के दस अरब न्यूरोन्स के विस्तृत अध्ययन और नियन्त्रण से न केवल प्राण-धारी की भूख-प्यास, काम-वासना, आदि पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता वरन् किसी के मन की बात जान लेना, अज्ञात रूप से कोई भी कार्य करा लेना भी सम्भव है। न्यूरोन मस्तिष्क से शरीर और शरीर से मस्तिष्क में सन्देश लाने, ले जाने वाले बहुत सूक्ष्म कोषों (सेल्स) को कहते हैं, इनमें से बहुत पतले श्वेत धागे से निकले होते हैं, इन धागों से ही इन कोषों का परस्पर सम्बन्ध और मस्तिष्क में जाल-सा बिछा हुआ है। यह कोष जहां शरीर के अंगों से सम्बन्ध रखते हैं, वहां उन्हें ऊर्ध्वमुखी बना लेने से प्रत्येक कोषाणु सृष्टि के दस अरब नक्षत्रों के प्रतिनिधि का काम कर सकते हैं, इस प्रकार मस्तिष्क को ग्रह-नक्षत्रों का एक जगमगाता हुआ यन्त्र कह सकते हैं। डा. डेलगाडो ने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिये कई सार्वजनिक प्रयोग करके भी दिखाये। अली नामक एक बन्दर को केला खाने के लिए दिया गया। जब वह केला खा रहा था, तब डा. डेलगाडो ने ‘इलेक्ट्रो-एसीफैलोग्राफ’ के द्वारा बन्दर के मस्तिष्क को सन्देश दिया कि केला खाने की अपेक्षा भूखा रहना चाहिए तो बन्दर ने भूखा होते हुए भी केला फेंक दिया। ‘इलेक्ट्रो-एन्सीफैलोग्राफ’ एक ऐसा यन्त्र है जिसमें विभिन्न क्रियाओं के समय मस्तिष्क में उठने वाली भाव-तरंगों को अंकित कर लिया गया है। किसी भी प्रकार की भाव-तरंग को विद्युत शक्ति द्वारा तीव्र कर देते हैं तो मस्तिष्क के शेष सब भाव दब जाते हैं और वह एक ही भाव तीव्र हो उठने से मस्तिष्क केवल वही काम करने लगता है।
डा. डेलगाडों ने इस बात को एक अत्यन्त खतरनाक प्रयोग द्वारा भी सिद्ध करके दिखाया। एक दिन उन्होंने इस प्रयोग की सार्वजनिक घोषणा कर दी। हजारों लोग एकत्रित हुए। सिर पर इलेक्ट्रोड जड़े हुए दो खूंखार सांड़ लाये गये। इलेक्ट्रोड एक प्रकार का एरियल है, जो रेडियो ट्रांसमीटर द्वारा छोड़ी कई तरंगों को पकड़ लेता है। जब दोनों सांड़ मैदान में आये तो उस समय की भयंकरता देखते ही बनती थी, लगता था दोनों सांड़ डेलगाडो का कचूमर निकाल देंगे पर वे जैसे ही डेलगाडो के पास पहुंचे उन्होंने अपने यन्त्र से सन्देश भेजा कि युद्ध करने की अपेक्षा शान्त रहना अच्छा है तो वह फुंसकारते हुए दोनों सांड़ ऐसे प्रेम से खड़े हो गये, जैसे दो बकरियां खड़ी हों। उन्होंने कई ऐसे प्रयोग करके रोगियों को भी अच्छा किया।
सामान्य व्यक्ति के मस्तिष्क में 20 वाट विद्युत शक्ति सदैव संचालित होती रहती है पर यदि किसी प्रविधि (प्रोसेस) से प्रत्येक न्यूरोन को सजग किया जा सके तो दस अरब न्यूरोन, दस अरब डायनमो का काम कर सकते हैं, उस गर्मी, उस प्रकाश, उस विद्युत क्षमता का पाठक अनुमान लगायें कितनी अधिक हो सकती होगी।
विज्ञान की यह जानकारियां बहुत ही सीमित हैं। मस्तिष्क संबंधी भारतीय ऋषियों की शोधें इससे कहीं अधिक विकसित और आधुनिक हैं। हमारे यहां मस्तिष्क को देव-भूमि कहा गया है और बताया है कि मस्तिष्क में जो सहस्र दल कमल है, वहां इन्द्र और सविता विद्यमान है, सिर के पीछे के हिस्से में रुद्र और पूषन देवता बताये हैं। इनके कार्यों का विवरण देते हुए शास्त्रकार ने केन्द्र और सविता को चेतन शक्ति कहा है और रुद्र एवं पूषन को अचेतन। दरअसल वृहत् मस्तिष्क (सेरेब्रम) ही वह स्थान है, जहां शरीर के सब भागों से हजारों नस-नाड़ियां आकर मिली हैं। यही स्थान शरीर पर नियंत्रण रखता है, जबकि पिछला मस्तिष्क स्मृति शक्ति केन्द्र है। अचेतन कार्यों के लिये यहीं से एक प्रकार के विद्युत प्रवाह आते रहते हैं।
मनोविज्ञान रसायनों के विशेषज्ञ डा. स्किनर का कथन है कि वह दिन दूर नहीं जब इस बीस करोड़ तन्त्रिका कोशिकाओं वाले तीन पौंड वजन के अद्भुत ब्रह्मांड मानवीय मस्तिष्क के दिये हुए एक से एक अद्भुत रहस्य को बहुत कुछ समझ लिया जायगा और उस पर रसायनों तथा विद्युत धाराओं के प्रयोग द्वारा आधिपत्य स्थापित किया जा सकेगा। यह सफलता अब तक की समस्त वैज्ञानिक उपलब्धियों से बढ़कर होगी क्योंकि अन्य सफलतायें तो केवल मनुष्य के लिए सुविधा साधन ही प्रस्तुत करती हैं पर मस्तिष्क केन्द्र नियन्त्रण से तो अपने आपको ही अभीष्ट स्थिति में बदल लेना सम्भव हो जायगा, लेकिन इसके बड़े भारी विनाशकारी दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। कोई हिटलर, मुसोलिनी या स्टालिन जैसा अधिनायकवादी प्रकृति का व्यक्ति उन साधनों पर आधिपत्य कर बैठा तो वह इसका उपयोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए लोगों को गलत दिशा में बहका भी सकता है।
जर्मनी के मस्तिष्क विधा विज्ञानी डा. ऐलन जैक वसन और उनके सहयोगी मार्क रोजवर्ग एक प्रयोग कर रहे हैं कि क्या किसी सुविकसित मस्तिष्क की प्रतिभा को स्वस्थ अविकसित मस्तिष्क में भी विकसित किया जा सकता है? क्या समर्थ मस्तिष्क का लाभ अल्प विकसित मस्तिष्क को भी मिल सकता है।
शिक्षण की प्रणाली पुरानी है। शिक्षित व्यक्ति अशिक्षित व्यक्ति को पढ़ा लिखा कर सुयोग्य बनाते हैं और मस्तिष्कीय क्षमता विकसित करते हैं। विद्यालयों में यही होता चला आया है।
चिकित्सा शास्त्री ब्राह्मी, आंवला, शतावरी, असगंध, सर्पगन्धी आदि औषधियों की सहायता से बुद्धि वृद्धि का उपाय करते हैं। मस्तिष्क रासायनिक तत्वों का सार लेकर इन्जेक्शन द्वारा एक जीव से लेकर दूसरे के मस्तिष्क में प्रवेश करने का भी प्रयोग हुआ पर वह कुछ अधिक न हो सका। अन्य जाति के जीवों का विकसित मस्तिष्क सत्य अन्य जाति के जीवों का शरीर ग्रहण नहीं करता कई बार तो उल्टी प्रतिक्रिया होने से उल्टी हानि होती है। फिर क्या उपाय किया जाय। उसी जाति के जीव का मस्तिष्क उसी जाति के दूसरे जीव को पहुंचाये तो लाभ कुछ नहीं क्योंकि उनकी संरचना प्रायः एक सी होती है। मस्तिष्क के तीन भाग मुख्य हैं—एक समस्त क्रिया प्रक्रियाओं का संचालक, दूसरा मांस पेशियों का नियंत्रक, तीसरा सांस लेने, भोजन पचाने आदि स्वसंचालित प्रक्रिया का विधायक। इन तीनों में वह भाग अधिक महत्वपूर्ण है जो मन और बुद्धि को संभालता है। इसी के विकास को मानसिक विकास माना जाता है। शेष मस्तिष्कीय क्रिया कलाप तो प्राणियों के शरीरों की स्थिति के अनुरूप अपना काम करते ही रहते हैं।
कुछ प्राणियों के मस्तिष्क सुई की नोक जितने छोटे होते हैं। कुछ के बहुत बड़े। ह्वेल मछली का मस्तिष्क मनुष्य से भी बड़ा होता है। इतने बड़े शरीर की व्यवस्था बनाये रखने के लिए इतना बड़ा यन्त्र भी होना चाहिए पर उसमें भी बौद्धिक प्रतिभा वाला भाग अविकसित है।
प्राणशास्त्री विचिस्टन और मनोविज्ञान शोधकर्त्ता वेलेस्कोव मानसिक विकास की बहुत कुछ संभावना इस बात पर संभव मानते हैं कि अविकसित मस्तिष्क वालों का सान्निध्य विकसित मस्तिष्क वालों के साथ रहे। सरकस के पशुओं को सिखाने में जहां सधाने की पद्धति कम कारगर सिद्ध होती है वहां उनका बौद्धिक और भावनात्मक विकास बहुत कुछ पशु शिक्षक की स्थिति से जुड़ा रहता है। समीपता के कारण उनके सोचने का ढंग और भावना बहुत कुछ वैसी ही बनने लगती है।
राजाओं, सेनापतियों के घोड़े, हाथी उनका इशारा समझते थे और सम्मान करते थे। बिगड़े हुए हाथी को राजा स्वयं जाकर संभाल लेते थे। राणा प्रताप, नैपोलियन,—झांसी की रानी के घोड़े मालिकों के इशारे ही नहीं उनकी इच्छा को भी समझते थे और उसका पालन करते। यह उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का अल्प विकसित बुद्धि वाले घोड़े हाथी आदि पशुओं पर पड़ा हुआ प्रत्यक्ष प्रभाव ही था।
मस्तिष्क में से एक प्रकार की गन्ध सरीखी विशेष चेतन क्षमता निरन्तर उड़ती रहती है। समीप रहने वाले लोग उस विशेषता से प्रभावित होते हैं। व्यक्तित्व जितना प्रभावशाली होगा—मस्तिष्क जितना विकसित होगा उसका सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करने वाला चुम्बक भी उतना ही प्रभावशाली होगा। यदि तीव्र इच्छा और भावना के साथ इस शक्ति को किसी दूसरे की ओर प्रभावित किया जाय तो उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। मनस्वी लोगों की समीपता से अल्प बुद्धि वालों का मस्तिष्कीय विकास होने लगता है, भले ही वह मन्द गति से क्यों न हो रहा हो।
धातु पट्टी बांधने बंधवाने के झंझट से बचने के लिए एक दूसरा सरल रासायनिक तरीका निकाला जा रहा है वह है रेडियो तत्वों से प्रभावित औषधियों को मनुष्य के रक्त में मिला देना। यह कार्य इन्जेक्शन लगा कर अथवा मुख के द्वारा खिला कर उसे खून में घोला दिया जायगा। अब यह सारा रक्त ही एरियल का काम करेगा और प्रेषित प्रभाव तरंगों को पकड़ कर रक्त में समाविष्ट करेगा। यह रक्त मस्तिष्क में पहुंचने पर मनुष्य को उसी प्रकार सोचने के लिए मजबूर कर देगा जैसा कि रक्त में मिश्रित तरंगें उसे प्रेरणा देंगी। इस अपेक्षाकृत अधिक सरल विधि में वैज्ञानिक साधन किसी भी व्यक्ति को कुछ भी सोचने और कुछ भी करने के लिए पूर्णतया पराधीन बना देंगे। जिस प्रकार अन्तरिक्ष यानों का नियंत्रण निर्देशन धरती पर बैठे हुए वैज्ञानिक करते रहते हैं और यान उनके निर्देशानुसार अपनी गति विधियों में हेर फेर करता रहता है, ठीक उसी प्रकार यह प्रयत्न भी वैज्ञानिक क्षेत्र में आरम्भ हो गया है कि मनुष्य के मन मस्तिष्क को भी वैसी ही सूक्ष्म तरंगों द्वारा नियन्त्रित किया जाय जैसे राकेटों को किया जाता है।
इन नये वैज्ञानिक अन्वेषणों द्वारा मनुष्य को जीवित ‘काबॉट’ बनाया जायगा। वह संचालकों की इच्छानुसार चेतना युक्त राकेट की भूमिका सम्पादित करेगा। प्रयोग इस स्थिति में चल रहा है कि मनुष्य के शिर से एक विशेष प्रकार की धातु तारों से युक्त पट्टियां बांध दी जायं और व्यक्ति के मस्तिष्क को एक प्रकार से रेडियो सुनते समय काम आने वाले एरियल की तरह बना दिया जाय। ट्रान्समीटर द्वारा फेंकी हुई शब्द किरणों को जिस प्रकार एरियल पकड़ता है और उसे रेडियो पर सुन लिया जाता है उसी प्रकार वैज्ञानिक केन्द्र द्वारा फेंकी गई तरंगों को मनुष्य के सिर पर बंधी हुई वह धातु पट्टी पकड़ेगी और उसे मस्तिष्क में प्रवेश कर देगी। बस चिन्तन पर वही प्रेषित तरंगें छा जायगी और उसे जैसा सोचने के लिए निर्देश दिया गया था वैसा ही सोचने के लिए विवश करेंगी। मनुष्य की स्वतन्त्र चिन्तन क्षमता समाप्त हो जायगी और वह बौद्धिक पराधीनता से पूरी तरह ग्रस्त होकर वही सोचेगा जो उसे सोचने के लिए बाध्य किया गया है।
क्या दूरवर्ती लोग बिना किसी तार रेडियो आदि के केवल मनःचेतना के आधार पर परस्पर सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं, उनके बीच विचारों का आदान प्रदान हो सकता है? इस प्रश्न को किम्वदन्तियों पर आधारित नहीं छोड़ा गया है, वरन् मन;शास्त्रियों ने इस सन्दर्भ को शोध का विषय भी बनाया है। उत्तरी केरोलिना के ड्यूक विश्वविद्यालय द्वारा डा. राइन के नेतृत्व में इस विषय पर ढूंढ़ खोज की गई। और केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के डा. व्हाटले कैरिंगटन ने इस अन्वेषण को हाथ में लिया। उन्होंने पाया कि यह चेतना एक सीमा तक हर किसी में होती है पर जो लोग उसे विकसित कर लेते हैं वे अपेक्षाकृत अधिक सफल रहते हैं। किन्हीं को जन्मजाति रूप से यह प्राप्त रहती है और कुछ साधनाओं द्वारा इसे विकसित कर सकते हैं। प्रेम और घनिष्ठता की स्थिति में यह आदान प्रदान किन्हीं महत्वपूर्ण अवसरों पर अनायास भी हो सकता है।
भारत के अध्यात्म वेत्ता किसी समय इस दिशा में बहुत बड़ी खोज करने और सफलता प्राप्त करने में कृत कार्य हो चुके हैं। बुद्ध की प्रचंड विचारधारा ने अपने समय में लगभग ढाई लाख व्यक्तियों को अपनी विलासी एवं भौतिक महत्वाकांक्षी गति-विधियां छोड़ कर उस कष्ट कर प्रयोजन को अपनाने के लिए खुशी-खुशी कदम बढ़ाया जो प्रचण्ड मानसिक विद्युत से सुसम्पन्न बुद्ध को अभीष्ट था। भगवान राम ने रीछ वानरों को ऐसे कार्य में जुट जाने के लिए भावावेश में संलग्न कर दिया जिससे किसी लाभ की आशा तो थी नहीं उल्टे जीवन संकट स्पष्ट था। भगवान कृष्ण ने महाभारत की भूमिका रची और उसके लिए मनोभूमियां उत्तेजित की। पाण्डव उस तरह की आवश्यकता अनुभव नहीं कर रहे थे और अर्जुन को उस संग्राम में रुचि थी तो भी विशिष्ट प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए मानसिक क्षमता के धनी कृष्ण ने उस तरह की उत्तेजनात्मक परिस्थितियां उत्पन्न कर दी। गोपियों के मन में सरस भावाभिव्यंजनाएं उत्पन्न करने का सूत्र-संचालन कृष्ण ही कर रहे थे।
ईसा मसीह, मुहम्मद, जरथुस्थ आदि धार्मिक क्षेत्र के मनस्वी ही थे जिन्होंने लोगों को अभीष्ट पथ पर चलने के लिए विवश किया। उपदेशक लोग आकर्षक प्रवचन देते रहते हैं उनकी कला की प्रशंसा करने वाले भी उस उपदेश पर चलने को तैयार नहीं होते। इसमें उनके प्रतिपाद्य विषय का दोष नहीं उस मनोबल की कमी ही कारण है जिसके बिना सुनने वालों के मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न किया जा सकना संभव न हो सका। नारद जी जैसे मनस्वी ही, अपने स्वल्प परामर्श से लोगों की जीवन धारा बदल सकते हैं। वाल्मीकि, ध्रुव, प्रहलाद, सुकन्या आदि कितने ही आदर्शवादी उन्हीं की प्रेरणा भरी प्रकाश किरण पाकर आगे बढ़े थे।
समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, गुरु गोविंद सिंह, कबीर आदि मनस्वी महामानवों ने अपने समय के लोगों की उपयोगी प्रेरणाएं दी हैं और अभीष्ट पथ पर चलने के लिए साहस उत्पन्न किया है। गान्धी जी की प्रेरणा से स्वतन्त्रता संग्राम में अगणित व्यक्ति असाधारण त्याग बलिदान करने के लिए किस उत्साह के साथ आगे आये यह पिछले ही दिनों की घटना है।
शक्तिपात इसी स्तर की प्रक्रिया है जिसमें मानुषी विद्युत से सुसम्पन्न व्यक्ति का तेजस दूसरे अल्प तेजस व्यक्तियों में प्रवेश करके उन्हें देखते-देखते समर्थ बना कर रख देता है। दीपक से दीपक जलने का, पारस स्पर्श से लोहा सोना होने का उदाहरण इसी प्रकार के सन्दर्भों में दिया जाता है।
विद्युतीय आवेशों का प्रभाव
पश्चिमी वैज्ञानिकों ने स्थूल उपकरणों का भी इस दिशा में उपयोग किया है। उन प्रयोगों के परिणाम भी आये हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी डा. विल्टर पेनफील्ड ने मस्तिष्क की वातनाड़ियों का अध्ययन करते समय कई कौतूहल देखे। एक दिन उन्होंने एक दिन 8 वर्षीया बालिका के मस्तिष्क के एक भाग में विद्युत-आवेश प्रवाहित किया। ऐसा करते ही लड़की ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह एक घटना सुनाने लगी—‘‘मैं अपने भाइयों के साथ खेत में घूम रही थी। मेरे भाई मुझे चिढ़ाने के लिये खेत में छुप गये। मैं उनसे भटक गई एक आदमी दिखाई दिया। उसके वस्त्र बड़े भद्दे थे। उसने अपने थैले से एक सांप निकालकर दिखाया। मैं डर कर भागी और हांफते हुए घर पहुंची।’’
डा. पेनफील्ड पहले ही आश्चर्यचकित थे कि 8 वर्षीया बालिका का यह विचार प्रवाह असामान्य है। छोटे बच्चे इतनी खूबसूरती से घटनाओं के चित्रण नहीं कर सकते। बाद में उस लड़की की माता से पूछने पर उसने बताया—‘‘सचमुच जब वह कोई ढाई वर्ष की बच्ची थी, तब उसके साथ यह घटना सचमुच घटित हुई। पेनफील्ड को विश्वास था इतनी छोटी आयु का बच्चा अतीत की स्मृतियां बनाये रखने में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए निःसन्देह खोपड़ी के अन्दर पूर्ण प्रतिभा प्रौढ़ और विचार सम्पन्न शक्ति होनी चाहिए। उन शक्ति का स्वरूप, आकृति और महत्तम क्षमतायें क्या और कितनी हो सकती हैं, इसका उत्तर वे तुरन्त तो नहीं दे सके पर तबसे वे निरन्तर मस्तिष्क के आश्चर्यजनक तथ्यों की खोज में लगे हैं, उनकी उपलब्धियां भारतीय तत्व-दर्शन की सहस्रार कमल वाली उपलब्धियों को ही प्रमाणित करती है। एक दिन लोग यह सच मानेंगे कि खोपड़ी के भीतर सहस्रार कमल जैसा कोई सूक्ष्म शक्ति प्रवाह है अवश्य, जो मानवीय चेतना का ब्रह्मांड की विराट् शक्तियों से तादात्म्य कराता है। जिसमें सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता, भूत-भविष्य और वर्तमान सबकी सर्वज्ञता शक्ति विद्यमान है।
भारतीय योगियों ने ब्रह्मरन्ध्र स्थित जिन षट्-चक्रों की खोज की है, सहस्रार कमल उनसे बिलकुल अलग और सर्व प्रभुता सम्पन्न है। वह स्थान कनपटियों से दो-दो इन्च अन्दर भृकुटी से लगभग ढाई या तीन इन्च अन्दर छोटे से पोले में प्रकाश पुंज के रूप में है। तत्वदर्शियों के अनुसार यह स्थान उलटे छाते या कटोरे के समान 17 प्रधान प्रकाश तत्त्वों से बना होता है, देखने में मर्करी लाइट के समान दिखाई देता है। छान्दोग्य उपनिषद् में सहस्रार दर्शन की सिद्धि पांच अक्षरों में इस तरह प्रतिपादित की—‘तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति’ अर्थात् सहस्रार प्राप्त कर लेने वाला सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। यही वह शक्ति केन्द्र है जहां से मस्तिष्क शरीर का नियन्त्रण करता है और विश्व में जो कुछ भी मानवकृत विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है, उनका सम्पादन करता है।
डा. पेनफील्ड ने मस्तिष्क की खोज करके बताया कि मस्तिष्क में ऐसे तत्व विद्यमान हैं, जो किसी भी पुस्तक के 20 हजार पृष्ठों से भी अधिक ज्ञान भण्डार सुरक्षित रख सकते हैं। एक व्यक्ति एक एक दिन में लगभग 5 लाख चित्र देखता है। चित्रों के साथ ही वह उनकी बनावट, रंग रूप, ध्वनि, सुगन्ध और मनोभावों का भी आकलन करता है। यह देखा या पढ़ा हुआ कुछ ही दिन में विस्मृत हो गया जान पड़ता है, यह केवल इसलिये होता है कि हमारा बौद्धिक संस्थान मलिनताओं से घिर जाता है। उसे तीक्ष्ण करने के लिये जिस शुद्ध स्वास्थ्य और स्वाध्याय की आवश्यकता होती है, वह हम कर नहीं पाते फलस्वरूप यह दैवी तत्व देवता और अपनी विभूतियों से मनुष्य को वंचित करता चला जाता है।
यदि हम अपने मस्तिष्क के ज्ञान भाग को प्रखर रख पायें तो पिछले जीवन में कभी भी कुछ देखा सुना, सोचा, अनुभव किया वही नहीं वरन् दूसरों के द्वारा पढ़ा, सोचा, देखा-सुना और अनुभव किया हुआ भी उसी तरह पकड़ सकते हैं, जिस प्रकार परदे पर दिखाई देने वाली सिनेमा की रीलें। प्रति सेकिंड एक चित्र की दर से अतीत में जो कुछ भी देखा है या भविष्य में देखने वाले हैं, वह सब मस्तिष्क में चमत्कार की तरह विद्यमान है। उसे कभी भी ढूंढ़ा और उसका लाभ उठाया जा सकता है।
योग तत्त्व की इस बात को अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा भी सिद्ध किया जा चुका है। उपरोक्त घटना के बारे में यह सन्देह हो सकता है कि बालिका के साथ यह घटना इतनी तीव्रता से घटी होगी कि छोटी अवस्था में भी अमिट छाप छोड़ गई होगी पर कुछ ऐसे विलक्षण मामले सामने आये हैं, जो यह बताते हैं कि इसी जन्म की नहीं मस्तिष्क में ऐसे संस्कार कोष विद्यमान हैं, जिनसे पूर्व जन्मों की घटनाओं और अनुभवों को याद किया जा सकता है। उनसे पुनर्जन्म लोकोत्तर जीवन और जीवन की अमरता को प्रतिपादित किया जा सकता है।
उपरोक्त प्रकार का एक प्रयोग एक लड़के पर किया गया। जैसे ही मस्तिष्क को एक वातनाड़ी पर विद्युत धारा प्रवाहित की गई, लड़का एक गीत गुनगुनाने लगा। लड़का विचित्र भाषा में गा रहा था। छन्द बद्ध गुनगुनाने और संगीत मिलने के कारण लोगों को आश्चर्य हुआ। गीत टेप कर लिया गया। बाद में भाषा विशेषज्ञों और अनुवांशिकी विशेषज्ञों से जांच कराई गई तो पता चला कि लड़के ने पश्चिम जर्मनी में बोली जाने वाली एक ऐसी भाषा का गीत गाया था, जो बहुत समय पहले बोली जाती थी। लड़के का वहां के लोगों से किसी प्रकार का पैतृक या मातृक सम्बन्ध भी नहीं था। इससे एक ही बात साबित होती है कि लड़का किसी जन्म में उस प्रदेश का कोई मनुष्य था, उस जीवन के संस्कार उसमें विद्यमान थे, विद्युत आवेश द्वारा उन्हें केवल जागृत कर लिया गया।
डा. पेनफील्ड के पास ऐसा रोगी आया जिसे मिर्गी आती थी। उसका आपरेशन करके उन्होंने देखा कि जब मिर्गी आती है तो एक विशेष नस ही उत्तेजित होती है, उसे काटकर अलग कर दिया तो वह रोगी सदा के लिए अच्छा हो गया। बाद में पेनफील्ड ने बताया कि मस्तिष्क में कई अरब प्रोटीन-अणु पाये जाते हैं, इन प्रोटीन अणुओं में औसत आयु 70 वर्ष के लगभग सवा अरब सेकिंड होते हैं, इन क्षणों में जागृत स्वप्न में वह जो कुछ देखता सुनता और अनुभव करता है, वह सब मस्तिष्क के कार्यालय में जमा रहता है और उसमें से किसी भी अंश को विज्ञान की सहायता से पढ़ा जाना सम्भव है। मस्तिष्क के 10 अरब स्नायु कोषों में अगणित आश्चर्य संग्रहीत हैं, उन सबकी विधिवत् जानकारी रिकार्ड करने वाला कोई यन्त्र बन सका तो जीव किन-किन योनियों में कहां-कहां जन्म लेकर आया है और उसने कब क्या पाप, क्या पुण्य किया है, उस सबकी जानकारी प्राप्त करना सम्भव हो जायेगा। उन सब की याददाश्त दिलाने वाला सहस्रार में बैठा हुआ वह ‘क्रिस्टल’ मात्र है, जिसे हमारे धर्म ग्रन्थों में सूत्रात्मा कहते हैं।
इस आचरण की पुष्टि के लिए हनावा होकाइशी (जापान) का उदाहरण दिया जा सकता है। 101 वर्ष की आयु में मरने वाले इस ज्ञान के अवतार का जन्म सन् 1722 में हुआ था और मृत्यु 1822 में। जब वह सात वर्ष का था तभी विधाता ने उसकी नेत्र ज्योति छीन ली थी। उसने नेत्रहीन होकर भी ज्ञानार्जन की साधना आरम्भ की। उसने 40 हजार पुस्तकें पढ़ीं। कुछ ग्रन्थ तो उसे केवल एक बार ही सुनाये गये थे। उसके मस्तिष्क में ज्ञान का अनन्त भण्डार जमा हो गया। वह ऐसे उद्धरण प्रस्तुत कर देता, जो कभी औरों की कल्पना में भी न आते थे। अपने मित्रों के आग्रह पर उसने एक पुस्तक लिखी, जो 2820 खण्डों में तैयार हुई। क्या इसे मस्तिष्क की साधारण शक्ति कहा जा सकता है।
असाधारण ज्ञान, असाधारण कार्य प्रणाली और मस्तिष्क की विलक्षण रचना से जहां जीवात्मा के अनेक रहस्यों का ज्ञान होता है, वहां उसको दूर-दर्शन और इन्द्रियातीत ज्ञान के भी अनेक प्रमाण पाश्चात्य देशों में संकलित व संग्रहीत किये गये हैं। ‘‘दि न्यू फ्रान्टियर्स आफ माइन्ड’’ के लेखक श्री जे.बी. राइन ने दूर-दर्शन के तथ्यों का वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरह से अध्ययन किया और यह पाया कि कुछ मामलों में अभ्यास के द्वारा ऐसे प्रयोग 50 प्रतिशत से अधिक सत्य पाये गये, जबकि स्वप्नों एवं मनोवेगों द्वारा भविष्य दर्शन की अनेक घटनाओं को शत प्रतिशत पाया।
स्वप्नावस्था में हमारे शरीर के सारे क्रिया-कलाप अन्तर्मुखी हो जाते हैं। उस समय भी मस्तिष्क जागृत अवस्था के समान ही क्रियाशील रहता है, यदि उस स्थिति में देखे हुए दृश्य सत्य हो सकते हैं तो यह मानना ही पड़ेगा कि आत्म-चेतना का कभी अन्त नहीं होता, वह एक सर्वव्यापी और अतीन्द्रिय तत्त्व हैं पर सम्पूर्ण तन्मात्राओं की अनुभूति उसे होती है।
उक्त घटना श्री राइन महोदय के एक प्रोफेसर द्वारा बताई गई, जब वे स्नातक थे। बाद में वह लिखते हैं कि मैं जब पेन्सिलवेनिया के पहाड़ों पर रहता था तो मुझे भी अनेक निर्देश और सन्देश इसी प्रकार अदृश्य शक्तियों द्वारा भेजे हुये मिलते थे।
एक अन्य प्रोफेसर की धर्म-पत्नी का भी इसी पुस्तक में उल्लेख है और यह बताया है कि वह जब अपनी एक सहेली के घर ब्रज खेल रही थीं तो उन्हें एकाएक ऐसा लगा जैसे उनकी बालिका किसी गहरे संकट में हो। उन्होंने बीच में ही उठकर टेलीफोन से घर से पूछना चाहा पर सहेली के आग्रह पर वे थोड़ी देर खेलती रहीं। इस बीच उनकी मानसिक परेशानी काफी बढ़ जाने से खेल बीच में ही छोड़कर टेलीफोन पर गईं और अपनी नौकरानी से पूछा लड़की ठीक है, उसने थोड़ा रुककर कहा—हां ठीक है। इसके बाद वे फिर खेलने लगीं, खेल समाप्त कर जब वे घट लौटी तो पता चला कि एक बड़ी दुर्घटना हो गई थी। उनकी लड़की पिता के साथ कार में आ रही थी, वह खेलते-खेलते शीशे के बाहर लटक गई और काफी सफर उसने उसी भयानक स्थिति में पार किया। जब एक पुलिस वाले ने गाड़ी रुकवाई तब पता चला कि लड़की मजबूती से कार की दीवार पकड़े न रहती तो किसी भी स्थान पर वह कार से कुचलकर मर गई होती नौकरानी ने कहा चूंकि बच्ची सकुशल थी, इसलिए आपको परेशानी से बचाने के लिये झूठ बोलना पड़ा। यह घटनायें यह विश्लेषण भी हमें मानव मस्तिष्क की उसी अमर सत्ता की ओर ले जाते हैं, जिधर ले जाने का प्रयास वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने अपने सापेक्षवाद सिद्धान्त (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) के द्वारा पहुंचाने का प्रयत्न किया। दोनों का उद्देश्य जीवन की अमरता और ज्ञान रूप में मनुष्य के मस्तिष्क में विद्यमान सहस्रार का ही परिचय कराना है, भले ही उतनी सूक्ष्म जानकारी अभी वैज्ञानिकों को नहीं मिल पाई हो।
मस्तिष्क विकास की सम्भावना
मानवी मस्तिष्क की छोटी सी थैली में इतना विशाल रत्न भण्डार भरा हुआ है कि उसका सदुपयोग कर सकने वाला देवोपम जीवन जी सकता है। बहुमूल्य वस्तुएं हों पर उनका महत्व विदित न हो अथवा उपयोग न आता हो तो फिर उनका होना न होना बराबर है। वनवासी महिला को कीमती हीरा सड़क पर पड़ा मिल जाय तो वह छोटा सा चमकदार पत्थर भर प्रतीत होगा और वह टुकड़ा जहां-तहां ठुकराया जाता रहेगा।
मस्तिष्क में सोचने की शक्ति रहती है, इसे हर कोई जानता है। अधिक जानकारी बढ़ाने के लिए पढ़ने, लिखने और सीखने-सिखाने का क्रम भी चलता है उतने भर से भी पेट भरने और निर्वाह करने की सुविधा मिल जाती है। पर यदि इससे गहरा उतरा जा सके और चिन्तन को उत्कृष्टता के साथ जोड़ा जा सके तो सामान्य स्थिति का निर्धन व्यक्ति भी उस स्तर का बन सकता है जिसे सन्त सज्जन एवं श्रद्धास्पद कहा जा सके।
प्रेरणा शक्ति मस्तिष्क में रहती है। चिन्तन की दिशा जिस ओर मुड़ती है उसी प्रकार की गतिविधियां विनिर्मित होने लगती हैं, कौन किस प्रकार का जीवन जी रहा है इसे देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी चिन्तन धारा किस दिशा में बह रही है। जीवन का स्वरूप जो कुछ भी है, व्यक्ति के चिन्तन की प्रतिक्रिया भर है। मस्तिष्क की गहराई में एक सीढ़ी और नीचे उतरा जाय तो प्रतीत होगा कि उसमें मणि-मुक्तकों का अजस्र भाण्डागार भरा पड़ा है। उसमें वह सब भी बहुत कुछ है, जिसे अद्भुत कह सकते हैं। यदि इन परतों को समझा जा सके और उनसे सम्बन्ध बनाकर उपयोग में लाया जा सके तो कोई भी व्यक्ति अपने को सामान्य स्थिति से ऊंचा उठाकर असामान्य बनने में सफलता प्राप्त कर सकता है।
मस्तिष्कीय संरचना पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि वह मांस-पिण्डी नहीं वरन् जीवन्त विद्युत भण्डार है। उसमें चल रही हलचलें ठीक वैसी ही हैं जैसी किसी शक्तिशाली बिजली घर की होती हैं। खोपड़ी की हड्डी से बनी टोकरी में परमात्मा ने इतनी महत्वपूर्ण सामग्री संजोकर रखी है कि उसे जादू की पिटारी कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। शरीर के अन्य किसी भी अवयव की अपेक्षा उसमें सक्रियता, चेतना और संवेदनशीलता की इतनी अधिक मात्रा है कि उसे मानवीय सत्ता का केन्द्र बिन्दु कहा जा सकता है।
मस्तिष्क को दो भागों में विभक्त माना जा सकता है। वह जिसमें मन और बुद्धि काम करती है। सोचने, विचारने तर्क विश्लेषण और निर्णय करने की क्षमता इसी में है। दूसरा भाग वह है जिसमें आदतें संग्रहीत हैं और शरीर के क्रिया-कलापों का निर्देश निर्धारण किया जाता है। हमारी नाड़ियों में रक्त बहता है, हृदय धड़कता है, फेफड़े श्वांस-प्रश्वांस क्रिया में संलग्न रहते हैं, मांस-पेशियां सिकुड़ती फैलती हैं, पलक झपकते-खुलते हैं, सोने-जागने का खाने-पीने और मल-मूत्र त्याग का क्रम अपने ढर्रे पर अपने आप स्व संचालित ढंग से चलता रहता है, पर यह सब अनायास ही नहीं होता इसके पीछे वह निरन्तर सक्रिय मन नाम की शक्ति काम करती है जिसे अचेतन मस्तिष्क कहते हैं। इस ढर्रे को मन कहते हैं। शरीर के यन्त्र अवयव अपना-अपना काम करते रहने योग्य कल-पुर्जों से बने हैं पर उनमें अपने आप संचालित रहने की क्षमता नहीं है, यह शक्ति उन्हें मस्तिष्क के इस अचेतन मन से मिलती है। विचारशील मस्तिष्क तो रात को सो जाता है, विश्राम ले लेता है नशा पीने या बेहोशी की दवा लेने से मूर्छाग्रसित हो जाता है। उन्माद, आवेश आदि रोगों से ग्रसित भी वही होता रहता है। डॉक्टर इसी को निद्रित करके आपरेशन करते हैं। किसी अंग विशेष में सुन्न करने की सुई लगा कर भी इस बुद्धिमान मस्तिष्क तक सूचना पहुंचाने वाले ज्ञान तन्तु संज्ञा शून्य कर दिये जाते है, फलतः पीड़ा का अनुभव नहीं होता और आपरेशन हो जाता है। पागलखानों में इस चेतन मस्तिष्क का ही इलाज होता है। अचेतन की एक छोटी परत ही मानसिक अस्पतालों की पकड़ में आयी है वे इसे प्रभावित करने में थोड़ा बहुत सफल होते जा रहे हैं। किन्तु उसका अधिकांश भाग प्रत्येक नियन्त्रण से बाहर है। पागल लोगों के शरीर की भूख, मल-त्याग, श्वांस-प्रश्वांस, रक्त-संचार तथा पलक झपकना आदि क्रियायें अपने ढंग से होती हैं, मस्तिष्क की विकृति का शरीर के सामान्य क्रम संचालन पर बहुत कम असर पड़ता है।
मस्तिष्क में इतनी जानकारियां भरी रहती हैं कि यदि किसी मानवकृत कम्प्यूटर में उतना सा-संग्रह किया जाय तो धरती के क्षेत्रफल जितने चुम्बकीय टेप की उसमें आवश्यकता पड़ेगी, किन्तु इसे उभारना उत्तेजित करना डी.एन.ए. (डी. आक्सीराइवो न्यूक्लिक ऐसिड) के यदि आर.एन.ए. (राइवोन्यूक्लिक ऐसिड) के एक इन्जेक्शन से ही सम्भव हो सकता है। स्वीडन के गार्डनवर्ग यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक होलगर ने यह सिद्ध किया है कि मानवी मस्तिष्क की स्थिर पत्थर की लकीर नहीं है। उसकी क्षमता को रासायनिक पदार्थों की सहायता से घटाया-बढ़ाया और सुधारा-बिगाड़ा जा सकता है।
इसी प्रसुप्त क्षमता को विकसित करने के लिए योगाभ्यास की साधनाएं प्रयुक्त होती हैं उनके कारण चिन्तन में उत्कृष्टता और प्रखरता उत्पन्न करने के दोनों प्रयोजन पूरे होते हैं।
मिशीवान विश्वविद्यालय के डा. बर्नाड एग्रानोफ ने सुनहरी मछलियों पर यह प्रयोग किया कि उन्हें यदि भोजन के बाद प्यूरोनाइसिन नामक औषधि खिला दी जाय तो वे यह भूल जाती हैं कि वे भोजन कर चुकीं। कुछ कुत्तों को स्मृति नाशक दवा खिलाई गई तो वे अपने घर और मालिक को भी भूल गये, जिसे वे बहुत प्यार करते थे। यह प्रयोग अभी मनुष्यों पर एक सीमा तक ही सफल हुए हैं, दवा का असर रहने तक ही कारगर रहते हैं, पर सोचा यह भी जा रहा है कि किन्हीं प्रियजनों की मृत्यु, अपमानजनक घटना, शत्रुता या भयंकर क्षति की चित्त को विक्षुब्ध करते रहने वाली दुःखद घटनाओं को स्थायी रूप से विस्मृत कराने के लिए मस्तिष्क के उस भाग को मूर्छित कर दिया जाय जहां वे जमकर बैठी हुई हों। इसी प्रकार मन्द बुद्धि लोगों के लिए स्मरण शक्ति बढ़ाने के उपास औषधि जगत में खोजे जा रहे हैं यदि यह सफल हो सके तो छात्रों को पाठ याद करने के श्रम से छुटकारा मिल जायगा और वे एक बार पुस्तक पढ़कर ही परीक्षा भवन में पूरे उत्साह और विश्वास के साथ प्रवेश कर सकेंगे।
इस छोटी सी कोठरी को एक प्रकार से बहुमूल्य रत्नों में भरी हुई तिजोरी कहा जा सकता है। इस पोटली में इतना कुछ भरा है, जिसका सहज ही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। दुःख इसी बात का है कि बाहर के जड़ पदार्थों के सम्बन्ध में कुछ खोजा जाता है और उनका संग्रह तथा उपयोग-उपभोग करने की ललक लगी रहती है, पर अन्तर्जगत में दृष्टि डालकर यह नहीं देखा जाता कि अपने भीतर कितनी बहुमूल्य सम्पदा भरी पड़ी है। बाहर से जो कुछ जितने श्रम के, जितने मनोयोग के मूल्य पर प्राप्त किया जा सकता है उससे कहीं कम प्रयत्न से अन्तर्जगत खोजा जा सकता है और कहीं अधिक पाया जा सकता है।
ऐलेक्ट्रिकल स्टीम्यूलेशन आफ ब्रेन (ई.एस.बी.) पद्धति के अनुसार कई एशियन विश्वविद्यालयों ने आंशिक रूप से मस्तिष्क की धुलाई (ब्रेन वाशिंग) में सफलता प्राप्त करली है। अभी यह बन्दर, कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, चूहे जैसे छोटे स्तर के जीवों पर ही प्रयोग किये गये हैं। आहार की रुचि, शत्रुता, मित्रता, भय, आक्रमण आदि के सामान्य स्वभाव को जिस प्रकार चरितार्थ किया जाना चाहिए उसे वे बिलकुल भूल जाते हैं और विचित्र प्रकार का आचरण करते हैं। बिल्ली के सामने चूहा छोड़ा गया तो वह आक्रमण करना तो दूर उससे डरकर एक कोने में जा छिपी। क्षणभर में एक दूसरे पर खूनी आक्रमण करना; एक आध मिनट बाद परस्पर लिपट कर प्यार करना यह परिवर्तन उस विद्युत क्रिया से होता है जो उनके मस्तिष्कीय कोषों के साथ संबद्ध रहती है। यही बात मनुष्यों पर भी लागू हो सकती है। मानव मस्तिष्क अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत होता है उसमें प्रतिरोधक शक्ति भी अधिक होती है इसलिये उसमें हेर-फेर करने के लिए प्रयास भी कुछ अधिक करने पड़ेंगे और पूर्ण सफलता प्राप्त करने में देरी भी लगेगी, पर जो सिद्धान्त स्पष्ट हो गये हैं; उनके आधार पर यह निश्चित हो गया है कि मनुष्य को भी जैसा चाहे सोचने मान्यता बनाने और गतिविधियां अपनाने के लिए विवश किया जा सकता है। निर्धारित रसायन तत्वों को पानी घोलकर पिलाया जाता रहे तो किसी तानाशाह शासक की इच्छानुकूल समस्त प्रजा बन सकती है। फिर विचार-प्रसार की आवश्यकता न रहेगी वरन् अन्न, जल, औषधि आदि के माध्यम से कुछ रसायन भर लोगों के शरीर में पहुंचाने की आवश्यकता पड़ेगी, वे मस्तिष्क में पहुंच कर वैसा ही परिवर्तन कर देंगे जैसा वैज्ञानिकों या शासकों को अभीष्ट होगा, तब घोर अभावग्रस्त स्थिति में भी जनता अपने को रामराज्य जैसी सुखद स्थिति में अनुभव करती रह सकती है। यदि लड़ाकू पीढ़ी बनानी हो तो उस देश का हर नागरिक दूसरे देशों पर आक्रमण करने के लिए आतुर हो सकता है।
चाहे हम सो रहे हों या जग रहे हों, हर समय तीन पौंड भारी मस्तिष्क—मेरुदण्ड एवं लगभग दस अरब तन्त्रिकाओं द्वारा देह की समस्त क्रियाओं का नियन्त्रण एवं संचालन करता रहता है। उसे करीब 20 वॉट विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है; जो ग्लूकोस एवं ऑक्सीजन से प्राप्त होती है।
वैज्ञानिकों की दृष्टि में हर विचार-हर आकांक्षा और हर अनुभूति एक विद्युत हलचल अथवा रासायनिक प्रक्रिया है। इस क्रिया-कलाप को इलेक्ट्रो-एनिसोफेलो ग्राफ (ई.सी.जी.) यन्त्र द्वारा जाना जा सकता है और यह समझा जा सकता है कि मस्तिष्क में किस स्तर की विचारधारा प्रवाहित हो रही है।
यह चिन्तन का परिष्कार हुआ। मनोविकारों को धोया जा सकता है और मस्तिष्क की स्थिति ऐसी बन सकती है जिसमें मात्र देवत्व का ही साम्राज्य हो। यह प्रयत्न रासायनिक पदार्थों और विद्युत धाराओं के आधार पर भौतिक विज्ञानियों द्वारा किये जा रहे हैं। अध्यात्म विज्ञान द्वारा यह कार्य और भी अधिक ऊंचे एवं उपयोगी ढंग पर किया जाना सम्भव है।
कुछ वर्ष पूर्व इच्छा शक्ति के चमत्कारों का प्रत्यक्ष प्रदर्शन करने के लिए डा. राल्फ एलेक्जेण्डर ने एक सार्वजनिक प्रदर्शन मैक्सिको नगर में किया था। इस प्रदर्शन में प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्रों के प्रतिनिधि और अन्यान्य वैज्ञानिक, तार्किक, बुद्धिजीवी तथा संभ्रांत नागरिक आमन्त्रित किये गये थे। प्रदर्शन यह था कि आकाश में छाये बादलों को किसी भी स्थान से—किसी भी दिशा में हटाया जा सकता है और उसे कैसी हो शक्ल दी जा सकती है। बादलों को बुलाया और भगाया जा सकता है। नियत समय पर प्रदर्शन हुआ। उस समय आकाश में एक भी बादल नहीं था। पर प्रयोग कर्त्ता ने देखते-देखते घटाएं बुला दीं और दर्शकों की मांग के अनुसार बादलों के टुकड़े अभीष्ट दिशाओं में बखेर देने और उनकी विचित्र शक्लें बना देने का सफल प्रदर्शन किया। इस अद्भुत प्रदर्शन की चर्चा उन दिनों अमेरिका के प्रायः सभी अखबारों में मोटे हैडिंग देकर छपी थी।
उपरोक्त प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए एक प्रसिद्ध विज्ञानी एलेन एप्रागेट ने ‘साइकोलॉजी’ पत्रिका में एक विस्तृत लेख छापकर यह बताया कि मनुष्य की इच्छा शक्ति अपने ढंग की एक सामर्थ्यवान विद्युतधारा है और उसके आधार पर प्रकृति कह हलचलों को प्रभावित कर सकना पूर्णतया विधि सम्मत हैं। इसे जादू नहीं समझा जाना चाहिए।
यह हुई मस्तिष्क की प्रखरता। इसे यदि समझा जा सके और आन्तरिक अलौकिकता को समुन्नत किया जा सके तो उसका परिणाम वैसा ही हो सकता है, जैसा कि भूतकाल के योगी और तपस्वियों ने अपनी अलौकिकताएं प्रकट करते हुए सिद्ध किया था।
ईसामसीह अपने शिष्यों के साथ यात्रा पर जा रहे थे। मार्ग में वे थक गये, एक स्थान पर उन्होंने अपने एक शिष्य से कहा—‘‘तुम जाओ सामने जो गांव दिखाई देता है, उसके अमुक स्थान पर एक गधा चरता मिलेगा तुम उसे सवारी के लिए ले आना।’’ शिष्य गया और उसे ले आया। लोग आश्चर्यचकित थे कि ईसामसीह की इस दिव्य दृष्टि का रहस्य क्या है? पर यह रहस्य प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान है, बशर्ते कि हम भी उसे जागृत कर पायें।
जिन शक्तियों और सामर्थ्यों का ज्ञान हमारे भारतीय ऋषियों ने आज से करोड़ों वर्ष पूर्व बिना किसी यन्त्र के प्राप्त किया था, आज विज्ञान और शरीर रचना शास्त्र (बायोलॉजी) द्वारा उसे प्रमाणित किया जाना यह बतलाता है कि हमारी योग-साधनायें, जप और ध्यान की प्रणालियां समय का अपव्यय नहीं वरन् विश्व के यथार्थ को जानने की एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रणाली है।
मस्तिष्क नियन्त्रण प्रयोगों द्वारा डा. जोजे डेलगाडो ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि मस्तिष्क के दस अरब न्यूरोन्स के विस्तृत अध्ययन और नियन्त्रण से न केवल प्राण-धारी की भूख-प्यास, काम-वासना, आदि पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता वरन् किसी के मन की बात जान लेना, अज्ञात रूप से कोई भी कार्य करा लेना भी सम्भव है। न्यूरोन मस्तिष्क से शरीर और शरीर से मस्तिष्क में सन्देश लाने, ले जाने वाले बहुत सूक्ष्म कोषों (सेल्स) को कहते हैं, इनमें से बहुत पतले श्वेत धागे से निकले होते हैं, इन धागों से ही इन कोषों का परस्पर सम्बन्ध और मस्तिष्क में जाल-सा बिछा हुआ है। यह कोष जहां शरीर के अंगों से सम्बन्ध रखते हैं, वहां उन्हें ऊर्ध्वमुखी बना लेने से प्रत्येक कोषाणु सृष्टि के दस अरब नक्षत्रों के प्रतिनिधि का काम कर सकते हैं, इस प्रकार मस्तिष्क को ग्रह-नक्षत्रों का एक जगमगाता हुआ यन्त्र कह सकते हैं। डा. डेलगाडो ने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिये कई सार्वजनिक प्रयोग करके भी दिखाये। अली नामक एक बन्दर को केला खाने के लिए दिया गया। जब वह केला खा रहा था, तब डा. डेलगाडो ने ‘इलेक्ट्रो-एसीफैलोग्राफ’ के द्वारा बन्दर के मस्तिष्क को सन्देश दिया कि केला खाने की अपेक्षा भूखा रहना चाहिए तो बन्दर ने भूखा होते हुए भी केला फेंक दिया। ‘इलेक्ट्रो-एन्सीफैलोग्राफ’ एक ऐसा यन्त्र है जिसमें विभिन्न क्रियाओं के समय मस्तिष्क में उठने वाली भाव-तरंगों को अंकित कर लिया गया है। किसी भी प्रकार की भाव-तरंग को विद्युत शक्ति द्वारा तीव्र कर देते हैं तो मस्तिष्क के शेष सब भाव दब जाते हैं और वह एक ही भाव तीव्र हो उठने से मस्तिष्क केवल वही काम करने लगता है।
डा. डेलगाडों ने इस बात को एक अत्यन्त खतरनाक प्रयोग द्वारा भी सिद्ध करके दिखाया। एक दिन उन्होंने इस प्रयोग की सार्वजनिक घोषणा कर दी। हजारों लोग एकत्रित हुए। सिर पर इलेक्ट्रोड जड़े हुए दो खूंखार सांड़ लाये गये। इलेक्ट्रोड एक प्रकार का एरियल है, जो रेडियो ट्रांसमीटर द्वारा छोड़ी कई तरंगों को पकड़ लेता है। जब दोनों सांड़ मैदान में आये तो उस समय की भयंकरता देखते ही बनती थी, लगता था दोनों सांड़ डेलगाडो का कचूमर निकाल देंगे पर वे जैसे ही डेलगाडो के पास पहुंचे उन्होंने अपने यन्त्र से सन्देश भेजा कि युद्ध करने की अपेक्षा शान्त रहना अच्छा है तो वह फुंसकारते हुए दोनों सांड़ ऐसे प्रेम से खड़े हो गये, जैसे दो बकरियां खड़ी हों। उन्होंने कई ऐसे प्रयोग करके रोगियों को भी अच्छा किया।
सामान्य व्यक्ति के मस्तिष्क में 20 वाट विद्युत शक्ति सदैव संचालित होती रहती है पर यदि किसी प्रविधि (प्रोसेस) से प्रत्येक न्यूरोन को सजग किया जा सके तो दस अरब न्यूरोन, दस अरब डायनमो का काम कर सकते हैं, उस गर्मी, उस प्रकाश, उस विद्युत क्षमता का पाठक अनुमान लगायें कितनी अधिक हो सकती होगी।
विज्ञान की यह जानकारियां बहुत ही सीमित हैं। मस्तिष्क संबंधी भारतीय ऋषियों की शोधें इससे कहीं अधिक विकसित और आधुनिक हैं। हमारे यहां मस्तिष्क को देव-भूमि कहा गया है और बताया है कि मस्तिष्क में जो सहस्र दल कमल है, वहां इन्द्र और सविता विद्यमान है, सिर के पीछे के हिस्से में रुद्र और पूषन देवता बताये हैं। इनके कार्यों का विवरण देते हुए शास्त्रकार ने केन्द्र और सविता को चेतन शक्ति कहा है और रुद्र एवं पूषन को अचेतन। दरअसल वृहत् मस्तिष्क (सेरेब्रम) ही वह स्थान है, जहां शरीर के सब भागों से हजारों नस-नाड़ियां आकर मिली हैं। यही स्थान शरीर पर नियंत्रण रखता है, जबकि पिछला मस्तिष्क स्मृति शक्ति केन्द्र है। अचेतन कार्यों के लिये यहीं से एक प्रकार के विद्युत प्रवाह आते रहते हैं।
मनोविज्ञान रसायनों के विशेषज्ञ डा. स्किनर का कथन है कि वह दिन दूर नहीं जब इस बीस करोड़ तन्त्रिका कोशिकाओं वाले तीन पौंड वजन के अद्भुत ब्रह्मांड मानवीय मस्तिष्क के दिये हुए एक से एक अद्भुत रहस्य को बहुत कुछ समझ लिया जायगा और उस पर रसायनों तथा विद्युत धाराओं के प्रयोग द्वारा आधिपत्य स्थापित किया जा सकेगा। यह सफलता अब तक की समस्त वैज्ञानिक उपलब्धियों से बढ़कर होगी क्योंकि अन्य सफलतायें तो केवल मनुष्य के लिए सुविधा साधन ही प्रस्तुत करती हैं पर मस्तिष्क केन्द्र नियन्त्रण से तो अपने आपको ही अभीष्ट स्थिति में बदल लेना सम्भव हो जायगा, लेकिन इसके बड़े भारी विनाशकारी दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। कोई हिटलर, मुसोलिनी या स्टालिन जैसा अधिनायकवादी प्रकृति का व्यक्ति उन साधनों पर आधिपत्य कर बैठा तो वह इसका उपयोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए लोगों को गलत दिशा में बहका भी सकता है।
जर्मनी के मस्तिष्क विधा विज्ञानी डा. ऐलन जैक वसन और उनके सहयोगी मार्क रोजवर्ग एक प्रयोग कर रहे हैं कि क्या किसी सुविकसित मस्तिष्क की प्रतिभा को स्वस्थ अविकसित मस्तिष्क में भी विकसित किया जा सकता है? क्या समर्थ मस्तिष्क का लाभ अल्प विकसित मस्तिष्क को भी मिल सकता है।
शिक्षण की प्रणाली पुरानी है। शिक्षित व्यक्ति अशिक्षित व्यक्ति को पढ़ा लिखा कर सुयोग्य बनाते हैं और मस्तिष्कीय क्षमता विकसित करते हैं। विद्यालयों में यही होता चला आया है।
चिकित्सा शास्त्री ब्राह्मी, आंवला, शतावरी, असगंध, सर्पगन्धी आदि औषधियों की सहायता से बुद्धि वृद्धि का उपाय करते हैं। मस्तिष्क रासायनिक तत्वों का सार लेकर इन्जेक्शन द्वारा एक जीव से लेकर दूसरे के मस्तिष्क में प्रवेश करने का भी प्रयोग हुआ पर वह कुछ अधिक न हो सका। अन्य जाति के जीवों का विकसित मस्तिष्क सत्य अन्य जाति के जीवों का शरीर ग्रहण नहीं करता कई बार तो उल्टी प्रतिक्रिया होने से उल्टी हानि होती है। फिर क्या उपाय किया जाय। उसी जाति के जीव का मस्तिष्क उसी जाति के दूसरे जीव को पहुंचाये तो लाभ कुछ नहीं क्योंकि उनकी संरचना प्रायः एक सी होती है। मस्तिष्क के तीन भाग मुख्य हैं—एक समस्त क्रिया प्रक्रियाओं का संचालक, दूसरा मांस पेशियों का नियंत्रक, तीसरा सांस लेने, भोजन पचाने आदि स्वसंचालित प्रक्रिया का विधायक। इन तीनों में वह भाग अधिक महत्वपूर्ण है जो मन और बुद्धि को संभालता है। इसी के विकास को मानसिक विकास माना जाता है। शेष मस्तिष्कीय क्रिया कलाप तो प्राणियों के शरीरों की स्थिति के अनुरूप अपना काम करते ही रहते हैं।
कुछ प्राणियों के मस्तिष्क सुई की नोक जितने छोटे होते हैं। कुछ के बहुत बड़े। ह्वेल मछली का मस्तिष्क मनुष्य से भी बड़ा होता है। इतने बड़े शरीर की व्यवस्था बनाये रखने के लिए इतना बड़ा यन्त्र भी होना चाहिए पर उसमें भी बौद्धिक प्रतिभा वाला भाग अविकसित है।
प्राणशास्त्री विचिस्टन और मनोविज्ञान शोधकर्त्ता वेलेस्कोव मानसिक विकास की बहुत कुछ संभावना इस बात पर संभव मानते हैं कि अविकसित मस्तिष्क वालों का सान्निध्य विकसित मस्तिष्क वालों के साथ रहे। सरकस के पशुओं को सिखाने में जहां सधाने की पद्धति कम कारगर सिद्ध होती है वहां उनका बौद्धिक और भावनात्मक विकास बहुत कुछ पशु शिक्षक की स्थिति से जुड़ा रहता है। समीपता के कारण उनके सोचने का ढंग और भावना बहुत कुछ वैसी ही बनने लगती है।
राजाओं, सेनापतियों के घोड़े, हाथी उनका इशारा समझते थे और सम्मान करते थे। बिगड़े हुए हाथी को राजा स्वयं जाकर संभाल लेते थे। राणा प्रताप, नैपोलियन,—झांसी की रानी के घोड़े मालिकों के इशारे ही नहीं उनकी इच्छा को भी समझते थे और उसका पालन करते। यह उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का अल्प विकसित बुद्धि वाले घोड़े हाथी आदि पशुओं पर पड़ा हुआ प्रत्यक्ष प्रभाव ही था।
मस्तिष्क में से एक प्रकार की गन्ध सरीखी विशेष चेतन क्षमता निरन्तर उड़ती रहती है। समीप रहने वाले लोग उस विशेषता से प्रभावित होते हैं। व्यक्तित्व जितना प्रभावशाली होगा—मस्तिष्क जितना विकसित होगा उसका सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करने वाला चुम्बक भी उतना ही प्रभावशाली होगा। यदि तीव्र इच्छा और भावना के साथ इस शक्ति को किसी दूसरे की ओर प्रभावित किया जाय तो उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। मनस्वी लोगों की समीपता से अल्प बुद्धि वालों का मस्तिष्कीय विकास होने लगता है, भले ही वह मन्द गति से क्यों न हो रहा हो।
धातु पट्टी बांधने बंधवाने के झंझट से बचने के लिए एक दूसरा सरल रासायनिक तरीका निकाला जा रहा है वह है रेडियो तत्वों से प्रभावित औषधियों को मनुष्य के रक्त में मिला देना। यह कार्य इन्जेक्शन लगा कर अथवा मुख के द्वारा खिला कर उसे खून में घोला दिया जायगा। अब यह सारा रक्त ही एरियल का काम करेगा और प्रेषित प्रभाव तरंगों को पकड़ कर रक्त में समाविष्ट करेगा। यह रक्त मस्तिष्क में पहुंचने पर मनुष्य को उसी प्रकार सोचने के लिए मजबूर कर देगा जैसा कि रक्त में मिश्रित तरंगें उसे प्रेरणा देंगी। इस अपेक्षाकृत अधिक सरल विधि में वैज्ञानिक साधन किसी भी व्यक्ति को कुछ भी सोचने और कुछ भी करने के लिए पूर्णतया पराधीन बना देंगे। जिस प्रकार अन्तरिक्ष यानों का नियंत्रण निर्देशन धरती पर बैठे हुए वैज्ञानिक करते रहते हैं और यान उनके निर्देशानुसार अपनी गति विधियों में हेर फेर करता रहता है, ठीक उसी प्रकार यह प्रयत्न भी वैज्ञानिक क्षेत्र में आरम्भ हो गया है कि मनुष्य के मन मस्तिष्क को भी वैसी ही सूक्ष्म तरंगों द्वारा नियन्त्रित किया जाय जैसे राकेटों को किया जाता है।
इन नये वैज्ञानिक अन्वेषणों द्वारा मनुष्य को जीवित ‘काबॉट’ बनाया जायगा। वह संचालकों की इच्छानुसार चेतना युक्त राकेट की भूमिका सम्पादित करेगा। प्रयोग इस स्थिति में चल रहा है कि मनुष्य के शिर से एक विशेष प्रकार की धातु तारों से युक्त पट्टियां बांध दी जायं और व्यक्ति के मस्तिष्क को एक प्रकार से रेडियो सुनते समय काम आने वाले एरियल की तरह बना दिया जाय। ट्रान्समीटर द्वारा फेंकी हुई शब्द किरणों को जिस प्रकार एरियल पकड़ता है और उसे रेडियो पर सुन लिया जाता है उसी प्रकार वैज्ञानिक केन्द्र द्वारा फेंकी गई तरंगों को मनुष्य के सिर पर बंधी हुई वह धातु पट्टी पकड़ेगी और उसे मस्तिष्क में प्रवेश कर देगी। बस चिन्तन पर वही प्रेषित तरंगें छा जायगी और उसे जैसा सोचने के लिए निर्देश दिया गया था वैसा ही सोचने के लिए विवश करेंगी। मनुष्य की स्वतन्त्र चिन्तन क्षमता समाप्त हो जायगी और वह बौद्धिक पराधीनता से पूरी तरह ग्रस्त होकर वही सोचेगा जो उसे सोचने के लिए बाध्य किया गया है।
क्या दूरवर्ती लोग बिना किसी तार रेडियो आदि के केवल मनःचेतना के आधार पर परस्पर सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं, उनके बीच विचारों का आदान प्रदान हो सकता है? इस प्रश्न को किम्वदन्तियों पर आधारित नहीं छोड़ा गया है, वरन् मन;शास्त्रियों ने इस सन्दर्भ को शोध का विषय भी बनाया है। उत्तरी केरोलिना के ड्यूक विश्वविद्यालय द्वारा डा. राइन के नेतृत्व में इस विषय पर ढूंढ़ खोज की गई। और केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के डा. व्हाटले कैरिंगटन ने इस अन्वेषण को हाथ में लिया। उन्होंने पाया कि यह चेतना एक सीमा तक हर किसी में होती है पर जो लोग उसे विकसित कर लेते हैं वे अपेक्षाकृत अधिक सफल रहते हैं। किन्हीं को जन्मजाति रूप से यह प्राप्त रहती है और कुछ साधनाओं द्वारा इसे विकसित कर सकते हैं। प्रेम और घनिष्ठता की स्थिति में यह आदान प्रदान किन्हीं महत्वपूर्ण अवसरों पर अनायास भी हो सकता है।
भारत के अध्यात्म वेत्ता किसी समय इस दिशा में बहुत बड़ी खोज करने और सफलता प्राप्त करने में कृत कार्य हो चुके हैं। बुद्ध की प्रचंड विचारधारा ने अपने समय में लगभग ढाई लाख व्यक्तियों को अपनी विलासी एवं भौतिक महत्वाकांक्षी गति-विधियां छोड़ कर उस कष्ट कर प्रयोजन को अपनाने के लिए खुशी-खुशी कदम बढ़ाया जो प्रचण्ड मानसिक विद्युत से सुसम्पन्न बुद्ध को अभीष्ट था। भगवान राम ने रीछ वानरों को ऐसे कार्य में जुट जाने के लिए भावावेश में संलग्न कर दिया जिससे किसी लाभ की आशा तो थी नहीं उल्टे जीवन संकट स्पष्ट था। भगवान कृष्ण ने महाभारत की भूमिका रची और उसके लिए मनोभूमियां उत्तेजित की। पाण्डव उस तरह की आवश्यकता अनुभव नहीं कर रहे थे और अर्जुन को उस संग्राम में रुचि थी तो भी विशिष्ट प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए मानसिक क्षमता के धनी कृष्ण ने उस तरह की उत्तेजनात्मक परिस्थितियां उत्पन्न कर दी। गोपियों के मन में सरस भावाभिव्यंजनाएं उत्पन्न करने का सूत्र-संचालन कृष्ण ही कर रहे थे।
ईसा मसीह, मुहम्मद, जरथुस्थ आदि धार्मिक क्षेत्र के मनस्वी ही थे जिन्होंने लोगों को अभीष्ट पथ पर चलने के लिए विवश किया। उपदेशक लोग आकर्षक प्रवचन देते रहते हैं उनकी कला की प्रशंसा करने वाले भी उस उपदेश पर चलने को तैयार नहीं होते। इसमें उनके प्रतिपाद्य विषय का दोष नहीं उस मनोबल की कमी ही कारण है जिसके बिना सुनने वालों के मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न किया जा सकना संभव न हो सका। नारद जी जैसे मनस्वी ही, अपने स्वल्प परामर्श से लोगों की जीवन धारा बदल सकते हैं। वाल्मीकि, ध्रुव, प्रहलाद, सुकन्या आदि कितने ही आदर्शवादी उन्हीं की प्रेरणा भरी प्रकाश किरण पाकर आगे बढ़े थे।
समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, गुरु गोविंद सिंह, कबीर आदि मनस्वी महामानवों ने अपने समय के लोगों की उपयोगी प्रेरणाएं दी हैं और अभीष्ट पथ पर चलने के लिए साहस उत्पन्न किया है। गान्धी जी की प्रेरणा से स्वतन्त्रता संग्राम में अगणित व्यक्ति असाधारण त्याग बलिदान करने के लिए किस उत्साह के साथ आगे आये यह पिछले ही दिनों की घटना है।
शक्तिपात इसी स्तर की प्रक्रिया है जिसमें मानुषी विद्युत से सुसम्पन्न व्यक्ति का तेजस दूसरे अल्प तेजस व्यक्तियों में प्रवेश करके उन्हें देखते-देखते समर्थ बना कर रख देता है। दीपक से दीपक जलने का, पारस स्पर्श से लोहा सोना होने का उदाहरण इसी प्रकार के सन्दर्भों में दिया जाता है।
विद्युतीय आवेशों का प्रभाव
पश्चिमी वैज्ञानिकों ने स्थूल उपकरणों का भी इस दिशा में उपयोग किया है। उन प्रयोगों के परिणाम भी आये हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी डा. विल्टर पेनफील्ड ने मस्तिष्क की वातनाड़ियों का अध्ययन करते समय कई कौतूहल देखे। एक दिन उन्होंने एक दिन 8 वर्षीया बालिका के मस्तिष्क के एक भाग में विद्युत-आवेश प्रवाहित किया। ऐसा करते ही लड़की ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह एक घटना सुनाने लगी—‘‘मैं अपने भाइयों के साथ खेत में घूम रही थी। मेरे भाई मुझे चिढ़ाने के लिये खेत में छुप गये। मैं उनसे भटक गई एक आदमी दिखाई दिया। उसके वस्त्र बड़े भद्दे थे। उसने अपने थैले से एक सांप निकालकर दिखाया। मैं डर कर भागी और हांफते हुए घर पहुंची।’’
डा. पेनफील्ड पहले ही आश्चर्यचकित थे कि 8 वर्षीया बालिका का यह विचार प्रवाह असामान्य है। छोटे बच्चे इतनी खूबसूरती से घटनाओं के चित्रण नहीं कर सकते। बाद में उस लड़की की माता से पूछने पर उसने बताया—‘‘सचमुच जब वह कोई ढाई वर्ष की बच्ची थी, तब उसके साथ यह घटना सचमुच घटित हुई। पेनफील्ड को विश्वास था इतनी छोटी आयु का बच्चा अतीत की स्मृतियां बनाये रखने में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए निःसन्देह खोपड़ी के अन्दर पूर्ण प्रतिभा प्रौढ़ और विचार सम्पन्न शक्ति होनी चाहिए। उन शक्ति का स्वरूप, आकृति और महत्तम क्षमतायें क्या और कितनी हो सकती हैं, इसका उत्तर वे तुरन्त तो नहीं दे सके पर तबसे वे निरन्तर मस्तिष्क के आश्चर्यजनक तथ्यों की खोज में लगे हैं, उनकी उपलब्धियां भारतीय तत्व-दर्शन की सहस्रार कमल वाली उपलब्धियों को ही प्रमाणित करती है। एक दिन लोग यह सच मानेंगे कि खोपड़ी के भीतर सहस्रार कमल जैसा कोई सूक्ष्म शक्ति प्रवाह है अवश्य, जो मानवीय चेतना का ब्रह्मांड की विराट् शक्तियों से तादात्म्य कराता है। जिसमें सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता, भूत-भविष्य और वर्तमान सबकी सर्वज्ञता शक्ति विद्यमान है।
भारतीय योगियों ने ब्रह्मरन्ध्र स्थित जिन षट्-चक्रों की खोज की है, सहस्रार कमल उनसे बिलकुल अलग और सर्व प्रभुता सम्पन्न है। वह स्थान कनपटियों से दो-दो इन्च अन्दर भृकुटी से लगभग ढाई या तीन इन्च अन्दर छोटे से पोले में प्रकाश पुंज के रूप में है। तत्वदर्शियों के अनुसार यह स्थान उलटे छाते या कटोरे के समान 17 प्रधान प्रकाश तत्त्वों से बना होता है, देखने में मर्करी लाइट के समान दिखाई देता है। छान्दोग्य उपनिषद् में सहस्रार दर्शन की सिद्धि पांच अक्षरों में इस तरह प्रतिपादित की—‘तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति’ अर्थात् सहस्रार प्राप्त कर लेने वाला सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। यही वह शक्ति केन्द्र है जहां से मस्तिष्क शरीर का नियन्त्रण करता है और विश्व में जो कुछ भी मानवकृत विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है, उनका सम्पादन करता है।
डा. पेनफील्ड ने मस्तिष्क की खोज करके बताया कि मस्तिष्क में ऐसे तत्व विद्यमान हैं, जो किसी भी पुस्तक के 20 हजार पृष्ठों से भी अधिक ज्ञान भण्डार सुरक्षित रख सकते हैं। एक व्यक्ति एक एक दिन में लगभग 5 लाख चित्र देखता है। चित्रों के साथ ही वह उनकी बनावट, रंग रूप, ध्वनि, सुगन्ध और मनोभावों का भी आकलन करता है। यह देखा या पढ़ा हुआ कुछ ही दिन में विस्मृत हो गया जान पड़ता है, यह केवल इसलिये होता है कि हमारा बौद्धिक संस्थान मलिनताओं से घिर जाता है। उसे तीक्ष्ण करने के लिये जिस शुद्ध स्वास्थ्य और स्वाध्याय की आवश्यकता होती है, वह हम कर नहीं पाते फलस्वरूप यह दैवी तत्व देवता और अपनी विभूतियों से मनुष्य को वंचित करता चला जाता है।
यदि हम अपने मस्तिष्क के ज्ञान भाग को प्रखर रख पायें तो पिछले जीवन में कभी भी कुछ देखा सुना, सोचा, अनुभव किया वही नहीं वरन् दूसरों के द्वारा पढ़ा, सोचा, देखा-सुना और अनुभव किया हुआ भी उसी तरह पकड़ सकते हैं, जिस प्रकार परदे पर दिखाई देने वाली सिनेमा की रीलें। प्रति सेकिंड एक चित्र की दर से अतीत में जो कुछ भी देखा है या भविष्य में देखने वाले हैं, वह सब मस्तिष्क में चमत्कार की तरह विद्यमान है। उसे कभी भी ढूंढ़ा और उसका लाभ उठाया जा सकता है।
योग तत्त्व की इस बात को अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा भी सिद्ध किया जा चुका है। उपरोक्त घटना के बारे में यह सन्देह हो सकता है कि बालिका के साथ यह घटना इतनी तीव्रता से घटी होगी कि छोटी अवस्था में भी अमिट छाप छोड़ गई होगी पर कुछ ऐसे विलक्षण मामले सामने आये हैं, जो यह बताते हैं कि इसी जन्म की नहीं मस्तिष्क में ऐसे संस्कार कोष विद्यमान हैं, जिनसे पूर्व जन्मों की घटनाओं और अनुभवों को याद किया जा सकता है। उनसे पुनर्जन्म लोकोत्तर जीवन और जीवन की अमरता को प्रतिपादित किया जा सकता है।
उपरोक्त प्रकार का एक प्रयोग एक लड़के पर किया गया। जैसे ही मस्तिष्क को एक वातनाड़ी पर विद्युत धारा प्रवाहित की गई, लड़का एक गीत गुनगुनाने लगा। लड़का विचित्र भाषा में गा रहा था। छन्द बद्ध गुनगुनाने और संगीत मिलने के कारण लोगों को आश्चर्य हुआ। गीत टेप कर लिया गया। बाद में भाषा विशेषज्ञों और अनुवांशिकी विशेषज्ञों से जांच कराई गई तो पता चला कि लड़के ने पश्चिम जर्मनी में बोली जाने वाली एक ऐसी भाषा का गीत गाया था, जो बहुत समय पहले बोली जाती थी। लड़के का वहां के लोगों से किसी प्रकार का पैतृक या मातृक सम्बन्ध भी नहीं था। इससे एक ही बात साबित होती है कि लड़का किसी जन्म में उस प्रदेश का कोई मनुष्य था, उस जीवन के संस्कार उसमें विद्यमान थे, विद्युत आवेश द्वारा उन्हें केवल जागृत कर लिया गया।
डा. पेनफील्ड के पास ऐसा रोगी आया जिसे मिर्गी आती थी। उसका आपरेशन करके उन्होंने देखा कि जब मिर्गी आती है तो एक विशेष नस ही उत्तेजित होती है, उसे काटकर अलग कर दिया तो वह रोगी सदा के लिए अच्छा हो गया। बाद में पेनफील्ड ने बताया कि मस्तिष्क में कई अरब प्रोटीन-अणु पाये जाते हैं, इन प्रोटीन अणुओं में औसत आयु 70 वर्ष के लगभग सवा अरब सेकिंड होते हैं, इन क्षणों में जागृत स्वप्न में वह जो कुछ देखता सुनता और अनुभव करता है, वह सब मस्तिष्क के कार्यालय में जमा रहता है और उसमें से किसी भी अंश को विज्ञान की सहायता से पढ़ा जाना सम्भव है। मस्तिष्क के 10 अरब स्नायु कोषों में अगणित आश्चर्य संग्रहीत हैं, उन सबकी विधिवत् जानकारी रिकार्ड करने वाला कोई यन्त्र बन सका तो जीव किन-किन योनियों में कहां-कहां जन्म लेकर आया है और उसने कब क्या पाप, क्या पुण्य किया है, उस सबकी जानकारी प्राप्त करना सम्भव हो जायेगा। उन सब की याददाश्त दिलाने वाला सहस्रार में बैठा हुआ वह ‘क्रिस्टल’ मात्र है, जिसे हमारे धर्म ग्रन्थों में सूत्रात्मा कहते हैं।
इस आचरण की पुष्टि के लिए हनावा होकाइशी (जापान) का उदाहरण दिया जा सकता है। 101 वर्ष की आयु में मरने वाले इस ज्ञान के अवतार का जन्म सन् 1722 में हुआ था और मृत्यु 1822 में। जब वह सात वर्ष का था तभी विधाता ने उसकी नेत्र ज्योति छीन ली थी। उसने नेत्रहीन होकर भी ज्ञानार्जन की साधना आरम्भ की। उसने 40 हजार पुस्तकें पढ़ीं। कुछ ग्रन्थ तो उसे केवल एक बार ही सुनाये गये थे। उसके मस्तिष्क में ज्ञान का अनन्त भण्डार जमा हो गया। वह ऐसे उद्धरण प्रस्तुत कर देता, जो कभी औरों की कल्पना में भी न आते थे। अपने मित्रों के आग्रह पर उसने एक पुस्तक लिखी, जो 2820 खण्डों में तैयार हुई। क्या इसे मस्तिष्क की साधारण शक्ति कहा जा सकता है।
असाधारण ज्ञान, असाधारण कार्य प्रणाली और मस्तिष्क की विलक्षण रचना से जहां जीवात्मा के अनेक रहस्यों का ज्ञान होता है, वहां उसको दूर-दर्शन और इन्द्रियातीत ज्ञान के भी अनेक प्रमाण पाश्चात्य देशों में संकलित व संग्रहीत किये गये हैं। ‘‘दि न्यू फ्रान्टियर्स आफ माइन्ड’’ के लेखक श्री जे.बी. राइन ने दूर-दर्शन के तथ्यों का वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरह से अध्ययन किया और यह पाया कि कुछ मामलों में अभ्यास के द्वारा ऐसे प्रयोग 50 प्रतिशत से अधिक सत्य पाये गये, जबकि स्वप्नों एवं मनोवेगों द्वारा भविष्य दर्शन की अनेक घटनाओं को शत प्रतिशत पाया।
स्वप्नावस्था में हमारे शरीर के सारे क्रिया-कलाप अन्तर्मुखी हो जाते हैं। उस समय भी मस्तिष्क जागृत अवस्था के समान ही क्रियाशील रहता है, यदि उस स्थिति में देखे हुए दृश्य सत्य हो सकते हैं तो यह मानना ही पड़ेगा कि आत्म-चेतना का कभी अन्त नहीं होता, वह एक सर्वव्यापी और अतीन्द्रिय तत्त्व हैं पर सम्पूर्ण तन्मात्राओं की अनुभूति उसे होती है।
उक्त घटना श्री राइन महोदय के एक प्रोफेसर द्वारा बताई गई, जब वे स्नातक थे। बाद में वह लिखते हैं कि मैं जब पेन्सिलवेनिया के पहाड़ों पर रहता था तो मुझे भी अनेक निर्देश और सन्देश इसी प्रकार अदृश्य शक्तियों द्वारा भेजे हुये मिलते थे।
एक अन्य प्रोफेसर की धर्म-पत्नी का भी इसी पुस्तक में उल्लेख है और यह बताया है कि वह जब अपनी एक सहेली के घर ब्रज खेल रही थीं तो उन्हें एकाएक ऐसा लगा जैसे उनकी बालिका किसी गहरे संकट में हो। उन्होंने बीच में ही उठकर टेलीफोन से घर से पूछना चाहा पर सहेली के आग्रह पर वे थोड़ी देर खेलती रहीं। इस बीच उनकी मानसिक परेशानी काफी बढ़ जाने से खेल बीच में ही छोड़कर टेलीफोन पर गईं और अपनी नौकरानी से पूछा लड़की ठीक है, उसने थोड़ा रुककर कहा—हां ठीक है। इसके बाद वे फिर खेलने लगीं, खेल समाप्त कर जब वे घट लौटी तो पता चला कि एक बड़ी दुर्घटना हो गई थी। उनकी लड़की पिता के साथ कार में आ रही थी, वह खेलते-खेलते शीशे के बाहर लटक गई और काफी सफर उसने उसी भयानक स्थिति में पार किया। जब एक पुलिस वाले ने गाड़ी रुकवाई तब पता चला कि लड़की मजबूती से कार की दीवार पकड़े न रहती तो किसी भी स्थान पर वह कार से कुचलकर मर गई होती नौकरानी ने कहा चूंकि बच्ची सकुशल थी, इसलिए आपको परेशानी से बचाने के लिये झूठ बोलना पड़ा। यह घटनायें यह विश्लेषण भी हमें मानव मस्तिष्क की उसी अमर सत्ता की ओर ले जाते हैं, जिधर ले जाने का प्रयास वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने अपने सापेक्षवाद सिद्धान्त (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) के द्वारा पहुंचाने का प्रयत्न किया। दोनों का उद्देश्य जीवन की अमरता और ज्ञान रूप में मनुष्य के मस्तिष्क में विद्यमान सहस्रार का ही परिचय कराना है, भले ही उतनी सूक्ष्म जानकारी अभी वैज्ञानिकों को नहीं मिल पाई हो।
मस्तिष्क विकास की सम्भावना
मानवी मस्तिष्क की छोटी सी थैली में इतना विशाल रत्न भण्डार भरा हुआ है कि उसका सदुपयोग कर सकने वाला देवोपम जीवन जी सकता है। बहुमूल्य वस्तुएं हों पर उनका महत्व विदित न हो अथवा उपयोग न आता हो तो फिर उनका होना न होना बराबर है। वनवासी महिला को कीमती हीरा सड़क पर पड़ा मिल जाय तो वह छोटा सा चमकदार पत्थर भर प्रतीत होगा और वह टुकड़ा जहां-तहां ठुकराया जाता रहेगा।
मस्तिष्क में सोचने की शक्ति रहती है, इसे हर कोई जानता है। अधिक जानकारी बढ़ाने के लिए पढ़ने, लिखने और सीखने-सिखाने का क्रम भी चलता है उतने भर से भी पेट भरने और निर्वाह करने की सुविधा मिल जाती है। पर यदि इससे गहरा उतरा जा सके और चिन्तन को उत्कृष्टता के साथ जोड़ा जा सके तो सामान्य स्थिति का निर्धन व्यक्ति भी उस स्तर का बन सकता है जिसे सन्त सज्जन एवं श्रद्धास्पद कहा जा सके।
प्रेरणा शक्ति मस्तिष्क में रहती है। चिन्तन की दिशा जिस ओर मुड़ती है उसी प्रकार की गतिविधियां विनिर्मित होने लगती हैं, कौन किस प्रकार का जीवन जी रहा है इसे देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी चिन्तन धारा किस दिशा में बह रही है। जीवन का स्वरूप जो कुछ भी है, व्यक्ति के चिन्तन की प्रतिक्रिया भर है। मस्तिष्क की गहराई में एक सीढ़ी और नीचे उतरा जाय तो प्रतीत होगा कि उसमें मणि-मुक्तकों का अजस्र भाण्डागार भरा पड़ा है। उसमें वह सब भी बहुत कुछ है, जिसे अद्भुत कह सकते हैं। यदि इन परतों को समझा जा सके और उनसे सम्बन्ध बनाकर उपयोग में लाया जा सके तो कोई भी व्यक्ति अपने को सामान्य स्थिति से ऊंचा उठाकर असामान्य बनने में सफलता प्राप्त कर सकता है।
मस्तिष्कीय संरचना पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि वह मांस-पिण्डी नहीं वरन् जीवन्त विद्युत भण्डार है। उसमें चल रही हलचलें ठीक वैसी ही हैं जैसी किसी शक्तिशाली बिजली घर की होती हैं। खोपड़ी की हड्डी से बनी टोकरी में परमात्मा ने इतनी महत्वपूर्ण सामग्री संजोकर रखी है कि उसे जादू की पिटारी कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। शरीर के अन्य किसी भी अवयव की अपेक्षा उसमें सक्रियता, चेतना और संवेदनशीलता की इतनी अधिक मात्रा है कि उसे मानवीय सत्ता का केन्द्र बिन्दु कहा जा सकता है।
मस्तिष्क को दो भागों में विभक्त माना जा सकता है। वह जिसमें मन और बुद्धि काम करती है। सोचने, विचारने तर्क विश्लेषण और निर्णय करने की क्षमता इसी में है। दूसरा भाग वह है जिसमें आदतें संग्रहीत हैं और शरीर के क्रिया-कलापों का निर्देश निर्धारण किया जाता है। हमारी नाड़ियों में रक्त बहता है, हृदय धड़कता है, फेफड़े श्वांस-प्रश्वांस क्रिया में संलग्न रहते हैं, मांस-पेशियां सिकुड़ती फैलती हैं, पलक झपकते-खुलते हैं, सोने-जागने का खाने-पीने और मल-मूत्र त्याग का क्रम अपने ढर्रे पर अपने आप स्व संचालित ढंग से चलता रहता है, पर यह सब अनायास ही नहीं होता इसके पीछे वह निरन्तर सक्रिय मन नाम की शक्ति काम करती है जिसे अचेतन मस्तिष्क कहते हैं। इस ढर्रे को मन कहते हैं। शरीर के यन्त्र अवयव अपना-अपना काम करते रहने योग्य कल-पुर्जों से बने हैं पर उनमें अपने आप संचालित रहने की क्षमता नहीं है, यह शक्ति उन्हें मस्तिष्क के इस अचेतन मन से मिलती है। विचारशील मस्तिष्क तो रात को सो जाता है, विश्राम ले लेता है नशा पीने या बेहोशी की दवा लेने से मूर्छाग्रसित हो जाता है। उन्माद, आवेश आदि रोगों से ग्रसित भी वही होता रहता है। डॉक्टर इसी को निद्रित करके आपरेशन करते हैं। किसी अंग विशेष में सुन्न करने की सुई लगा कर भी इस बुद्धिमान मस्तिष्क तक सूचना पहुंचाने वाले ज्ञान तन्तु संज्ञा शून्य कर दिये जाते है, फलतः पीड़ा का अनुभव नहीं होता और आपरेशन हो जाता है। पागलखानों में इस चेतन मस्तिष्क का ही इलाज होता है। अचेतन की एक छोटी परत ही मानसिक अस्पतालों की पकड़ में आयी है वे इसे प्रभावित करने में थोड़ा बहुत सफल होते जा रहे हैं। किन्तु उसका अधिकांश भाग प्रत्येक नियन्त्रण से बाहर है। पागल लोगों के शरीर की भूख, मल-त्याग, श्वांस-प्रश्वांस, रक्त-संचार तथा पलक झपकना आदि क्रियायें अपने ढंग से होती हैं, मस्तिष्क की विकृति का शरीर के सामान्य क्रम संचालन पर बहुत कम असर पड़ता है।
मस्तिष्क में इतनी जानकारियां भरी रहती हैं कि यदि किसी मानवकृत कम्प्यूटर में उतना सा-संग्रह किया जाय तो धरती के क्षेत्रफल जितने चुम्बकीय टेप की उसमें आवश्यकता पड़ेगी, किन्तु इसे उभारना उत्तेजित करना डी.एन.ए. (डी. आक्सीराइवो न्यूक्लिक ऐसिड) के यदि आर.एन.ए. (राइवोन्यूक्लिक ऐसिड) के एक इन्जेक्शन से ही सम्भव हो सकता है। स्वीडन के गार्डनवर्ग यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक होलगर ने यह सिद्ध किया है कि मानवी मस्तिष्क की स्थिर पत्थर की लकीर नहीं है। उसकी क्षमता को रासायनिक पदार्थों की सहायता से घटाया-बढ़ाया और सुधारा-बिगाड़ा जा सकता है।
इसी प्रसुप्त क्षमता को विकसित करने के लिए योगाभ्यास की साधनाएं प्रयुक्त होती हैं उनके कारण चिन्तन में उत्कृष्टता और प्रखरता उत्पन्न करने के दोनों प्रयोजन पूरे होते हैं।
मिशीवान विश्वविद्यालय के डा. बर्नाड एग्रानोफ ने सुनहरी मछलियों पर यह प्रयोग किया कि उन्हें यदि भोजन के बाद प्यूरोनाइसिन नामक औषधि खिला दी जाय तो वे यह भूल जाती हैं कि वे भोजन कर चुकीं। कुछ कुत्तों को स्मृति नाशक दवा खिलाई गई तो वे अपने घर और मालिक को भी भूल गये, जिसे वे बहुत प्यार करते थे। यह प्रयोग अभी मनुष्यों पर एक सीमा तक ही सफल हुए हैं, दवा का असर रहने तक ही कारगर रहते हैं, पर सोचा यह भी जा रहा है कि किन्हीं प्रियजनों की मृत्यु, अपमानजनक घटना, शत्रुता या भयंकर क्षति की चित्त को विक्षुब्ध करते रहने वाली दुःखद घटनाओं को स्थायी रूप से विस्मृत कराने के लिए मस्तिष्क के उस भाग को मूर्छित कर दिया जाय जहां वे जमकर बैठी हुई हों। इसी प्रकार मन्द बुद्धि लोगों के लिए स्मरण शक्ति बढ़ाने के उपास औषधि जगत में खोजे जा रहे हैं यदि यह सफल हो सके तो छात्रों को पाठ याद करने के श्रम से छुटकारा मिल जायगा और वे एक बार पुस्तक पढ़कर ही परीक्षा भवन में पूरे उत्साह और विश्वास के साथ प्रवेश कर सकेंगे।
इस छोटी सी कोठरी को एक प्रकार से बहुमूल्य रत्नों में भरी हुई तिजोरी कहा जा सकता है। इस पोटली में इतना कुछ भरा है, जिसका सहज ही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। दुःख इसी बात का है कि बाहर के जड़ पदार्थों के सम्बन्ध में कुछ खोजा जाता है और उनका संग्रह तथा उपयोग-उपभोग करने की ललक लगी रहती है, पर अन्तर्जगत में दृष्टि डालकर यह नहीं देखा जाता कि अपने भीतर कितनी बहुमूल्य सम्पदा भरी पड़ी है। बाहर से जो कुछ जितने श्रम के, जितने मनोयोग के मूल्य पर प्राप्त किया जा सकता है उससे कहीं कम प्रयत्न से अन्तर्जगत खोजा जा सकता है और कहीं अधिक पाया जा सकता है।
ऐलेक्ट्रिकल स्टीम्यूलेशन आफ ब्रेन (ई.एस.बी.) पद्धति के अनुसार कई एशियन विश्वविद्यालयों ने आंशिक रूप से मस्तिष्क की धुलाई (ब्रेन वाशिंग) में सफलता प्राप्त करली है। अभी यह बन्दर, कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, चूहे जैसे छोटे स्तर के जीवों पर ही प्रयोग किये गये हैं। आहार की रुचि, शत्रुता, मित्रता, भय, आक्रमण आदि के सामान्य स्वभाव को जिस प्रकार चरितार्थ किया जाना चाहिए उसे वे बिलकुल भूल जाते हैं और विचित्र प्रकार का आचरण करते हैं। बिल्ली के सामने चूहा छोड़ा गया तो वह आक्रमण करना तो दूर उससे डरकर एक कोने में जा छिपी। क्षणभर में एक दूसरे पर खूनी आक्रमण करना; एक आध मिनट बाद परस्पर लिपट कर प्यार करना यह परिवर्तन उस विद्युत क्रिया से होता है जो उनके मस्तिष्कीय कोषों के साथ संबद्ध रहती है। यही बात मनुष्यों पर भी लागू हो सकती है। मानव मस्तिष्क अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत होता है उसमें प्रतिरोधक शक्ति भी अधिक होती है इसलिये उसमें हेर-फेर करने के लिए प्रयास भी कुछ अधिक करने पड़ेंगे और पूर्ण सफलता प्राप्त करने में देरी भी लगेगी, पर जो सिद्धान्त स्पष्ट हो गये हैं; उनके आधार पर यह निश्चित हो गया है कि मनुष्य को भी जैसा चाहे सोचने मान्यता बनाने और गतिविधियां अपनाने के लिए विवश किया जा सकता है। निर्धारित रसायन तत्वों को पानी घोलकर पिलाया जाता रहे तो किसी तानाशाह शासक की इच्छानुकूल समस्त प्रजा बन सकती है। फिर विचार-प्रसार की आवश्यकता न रहेगी वरन् अन्न, जल, औषधि आदि के माध्यम से कुछ रसायन भर लोगों के शरीर में पहुंचाने की आवश्यकता पड़ेगी, वे मस्तिष्क में पहुंच कर वैसा ही परिवर्तन कर देंगे जैसा वैज्ञानिकों या शासकों को अभीष्ट होगा, तब घोर अभावग्रस्त स्थिति में भी जनता अपने को रामराज्य जैसी सुखद स्थिति में अनुभव करती रह सकती है। यदि लड़ाकू पीढ़ी बनानी हो तो उस देश का हर नागरिक दूसरे देशों पर आक्रमण करने के लिए आतुर हो सकता है।
चाहे हम सो रहे हों या जग रहे हों, हर समय तीन पौंड भारी मस्तिष्क—मेरुदण्ड एवं लगभग दस अरब तन्त्रिकाओं द्वारा देह की समस्त क्रियाओं का नियन्त्रण एवं संचालन करता रहता है। उसे करीब 20 वॉट विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है; जो ग्लूकोस एवं ऑक्सीजन से प्राप्त होती है।
वैज्ञानिकों की दृष्टि में हर विचार-हर आकांक्षा और हर अनुभूति एक विद्युत हलचल अथवा रासायनिक प्रक्रिया है। इस क्रिया-कलाप को इलेक्ट्रो-एनिसोफेलो ग्राफ (ई.सी.जी.) यन्त्र द्वारा जाना जा सकता है और यह समझा जा सकता है कि मस्तिष्क में किस स्तर की विचारधारा प्रवाहित हो रही है।
यह चिन्तन का परिष्कार हुआ। मनोविकारों को धोया जा सकता है और मस्तिष्क की स्थिति ऐसी बन सकती है जिसमें मात्र देवत्व का ही साम्राज्य हो। यह प्रयत्न रासायनिक पदार्थों और विद्युत धाराओं के आधार पर भौतिक विज्ञानियों द्वारा किये जा रहे हैं। अध्यात्म विज्ञान द्वारा यह कार्य और भी अधिक ऊंचे एवं उपयोगी ढंग पर किया जाना सम्भव है।
कुछ वर्ष पूर्व इच्छा शक्ति के चमत्कारों का प्रत्यक्ष प्रदर्शन करने के लिए डा. राल्फ एलेक्जेण्डर ने एक सार्वजनिक प्रदर्शन मैक्सिको नगर में किया था। इस प्रदर्शन में प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्रों के प्रतिनिधि और अन्यान्य वैज्ञानिक, तार्किक, बुद्धिजीवी तथा संभ्रांत नागरिक आमन्त्रित किये गये थे। प्रदर्शन यह था कि आकाश में छाये बादलों को किसी भी स्थान से—किसी भी दिशा में हटाया जा सकता है और उसे कैसी हो शक्ल दी जा सकती है। बादलों को बुलाया और भगाया जा सकता है। नियत समय पर प्रदर्शन हुआ। उस समय आकाश में एक भी बादल नहीं था। पर प्रयोग कर्त्ता ने देखते-देखते घटाएं बुला दीं और दर्शकों की मांग के अनुसार बादलों के टुकड़े अभीष्ट दिशाओं में बखेर देने और उनकी विचित्र शक्लें बना देने का सफल प्रदर्शन किया। इस अद्भुत प्रदर्शन की चर्चा उन दिनों अमेरिका के प्रायः सभी अखबारों में मोटे हैडिंग देकर छपी थी।
उपरोक्त प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए एक प्रसिद्ध विज्ञानी एलेन एप्रागेट ने ‘साइकोलॉजी’ पत्रिका में एक विस्तृत लेख छापकर यह बताया कि मनुष्य की इच्छा शक्ति अपने ढंग की एक सामर्थ्यवान विद्युतधारा है और उसके आधार पर प्रकृति कह हलचलों को प्रभावित कर सकना पूर्णतया विधि सम्मत हैं। इसे जादू नहीं समझा जाना चाहिए।
यह हुई मस्तिष्क की प्रखरता। इसे यदि समझा जा सके और आन्तरिक अलौकिकता को समुन्नत किया जा सके तो उसका परिणाम वैसा ही हो सकता है, जैसा कि भूतकाल के योगी और तपस्वियों ने अपनी अलौकिकताएं प्रकट करते हुए सिद्ध किया था।