Books - मानवी क्षमता असीम अप्रत्यासित
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
जितना समझते हैं उससे अधिक समझें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मास्को (रूस) की एक अधेड़ महिला मिखाइलोवा सिर्फ घड़ी की ओर देखकर उसका चलना रोक सकती है। वह मेज पर रखे बर्तनों और भोज्य पदार्थों को भी खिसका सकती है। दिशा सूचक यन्त्र (कम्पास) की सुई जो केवल चुम्बकीय शक्ति (मैग्नेटिक फील्ड) से ही प्रभावित होती है, उसे भी अपनी इस शक्ति से घुमा देती है।
रूसी ‘मास्कोवास्काया’ समाचार पत्र ने इस महिला की गहरी ध्यान-शक्ति पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ‘‘मनुष्य के मन में वस्तुतः विज्ञान से परे विलक्षण शक्तियां विद्यमान हैं। उनका विकास करके वर्तमान वैज्ञानिक उपकरणों को ही नहीं पछाड़ा जा सकता मानव से सम्बन्धित गहन आध्यात्मिक तथ्यों का भी पता लगाया जा सकता है।’’ प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान् लुई जकालियट जो भारतवर्ष में बहुत दिन रहे और योग-विद्या का गहन अन्वेषण किया उन्होंने गोविन्द स्वामी नामक एक दक्षिणी योगी के सम्बन्ध में लिखा है—‘‘पानी से भरे हुए घड़े को वह दूर बैठकर अपनी मानसिक या दैवी शक्ति से आगे पीछे और ऊपर हवा में उठा देता था। उसके आदेश पर जल से भरा हुआ घड़ा भी अधर लटक जाता हुआ मैंने देखा है। भारतीय योगियों के इन विलक्षण करतबों को कई लोग मनोरंजन की दृष्टि से देखते हैं पर मुझे उस कौतूहल के पीछे किसी बड़े रहस्य की अनुभूति होती है ऐसा लगता है मनुष्य के मन में वह शक्तियां हैं, जिनका विकास यदि किया जा सके तो मनुष्य जीवन के अनेक दार्शनिक सत्यों का रहस्य जान सकता है।’’
वैज्ञानिक और डॉक्टर भी यह मानते हैं कि शरीर में इन्द्रियों की चेतना भी अस्थायी महत्व की है स्थायी रूप से दृष्टि श्रवण, घ्राण प्रेरक और सम्वेदन सभी क्षमतायें मस्तिष्क में विद्यमान हैं। थैलामस नामक एक पिंडली (गैंग्लियन) भीतरी मस्तिष्क में होती है और जो सिर के केन्द्र में अवस्थित है, यही स्थान सभी तन्मात्राओं के ठहरने का स्थान (स्टेशन) है, यहीं से पीनियल ग्रन्थि निकलती है जो देखने का काम करती है। पीनियल ग्लैण्ड को तीसरा नेत्र भी कहते हैं। पिचूट्री ग्लैण्डस और सुषुम्ना शीर्षक (मेडुला आफ लोंगलेटा) जो शरीर के सम्पूर्ण अवयवों का नियन्त्रण करती हैं, वे सब भी मन से ही सम्बन्धित हैं मस्तिष्क का यदि यह केन्द्र काट दिया जाये तो शरीर के अन्य सब संस्थान बेकार हो जायेंगे।
विज्ञान और शरीर रचना शास्त्र (एनाटामी) की उपरोक्त आधुनिक जानकारियों का यद्यपि काफी विस्तार हो चुका है, किन्तु योग पद्धति और भारतीय तत्त्व-दर्शन की जानकारी की तुलना में यह उपलब्धियां समुद्र में एक बूंद की तरह हैं। भारतीय तत्त्व-वेत्ताओं ने मन को सर्व शक्तिमय इन्द्रियातीत ज्ञान का आधार और अनन्त परब्रह्म का ही लघुरूप माना है। मन की शक्तियों को ही ब्रह्म में तादात्म्य कर देने से हाड़-मांस का मनुष्य भगवान् हो जाता है। उसकी शक्तियों का आश्चर्यजनक और चमत्कारिक विकास इसी अवस्था पर होता है।
5 अक्टूबर 1950 को लन्दन में एक भारतीय महिला शकुन्तला देवी, जिन्हें गणित की जादूगरनी (विजार्ड आफ मैथेमेटिक) कहा जाता है, टेलीविजन पर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही थीं। तभी एक सज्जन ने उन्हें एक गणित का प्रश्न हल करने को कहा। बिना एक क्षण का विलम्ब किये हुये उन्होंने कहा यह प्रश्न गलत है। यह प्रश्न ब्रिटेन के बड़े-बड़े गणिताचार्यों ने तैयार किया था, इसलिए सब लोग एकदम आश्चर्य में डूब गये—प्रश्न गलत कैसे हो सकता है? बी.बी.सी. कार्यक्रम के आयोजन कर्त्ता ने प्रश्न की जांच कराई तो वह विस्मित रह गया कि प्रश्न सचमुच गलत है। उसने भी यह माना कि—‘‘हम जितना समझ पाये हैं, मन की शक्ति और सामर्थ्य उससे बहुत अधिक है।’’
बौद्धिक क्षमताओं का भण्डार
सन् 1722 में जापान में मुसाशी प्रान्त में एक बालक ने जन्म लिया। नाम रखा गया हनावा होकीची। दुर्भाग्य वश यह बालक जबकि वह कुल सात वर्ष का ही था अन्धा हो गया। फिर भी उसने पढ़ा, सुनकर पढ़ा और अपनी प्रतिभा का इतना अधिक विकास किया कि वह संसार के प्रमुख विद्वानों की श्रेणी में जा पहुंचा। उसकी स्मरण शक्ति को दैवी स्मरण शक्ति की उपमा दी जाती है और 94 वर्ष की आयु तक अध्यापन करने वाले इस महापंडित के बारे में कहा जाता है कि वह 400000 हस्तलिपि की सूची तैयार करा सकता था। इन सूची पत्रों से जिन्हें उसे केवल एकबार ही पढ़कर सुनाया गया था, उसने मुंशी रिन्जू नामक एक 2820 खण्ड की पुस्तक तैयार की। 1910 में इस पुस्तक का दूसरा संस्करण छपा था। जापान के लोगों ने बड़े सम्मान के साथ अपने घरों में इसे रखा है।
ग्रीक में ऐसा ही एक व्यक्ति हुआ है। पारेसन—उसने मिल्टन की सारी कृतियों को रट लिया था और उन्हें न केवल पेज नम्बर एक से लेकर दो तीन चार को सुनाता जा सकता था वरन् पीछे से अर्थात् पेज नम्बर सौ से निन्यानवे, अट्ठानवे, सत्तानवे की ओर—भी सुनाता चला जा सकता था। विलक्षण स्मृति का एक उदाहरण है—गम्बेटा जो श्रीमती रुथ की पुस्तक का एक-एक शब्द पीछे से सुना सकता था। विक्टर ह्यूगो और साहित्यकार ओसियन की पुस्तकें भी केवल एकबार पढ़कर उसने दुबारा पीछे बोलकर सुनादी। लोग आश्चर्य किया करते थे और कहते थे कि गम्बेटा के मस्तिष्क में टेप की तरह कोई एलेक्ट्रो मेग्नेटिक पट्टी है जिसमें उसका पढ़ा हुआ एक-एक अक्षर रिकार्ड हो जाता है वह भी केवल एक बार पढ़ने से जबकि साधारण व्यक्ति के लिए पुस्तक का एक-एक अनुच्छेद ही कण्ठस्थ करना कठिन हो जाता है।
म्यूनिच की राष्ट्रीय लाइब्रेरी के संचालक जोसेफ बनहार्ड डकन अपनी सहायता के लिये विभिन्न भाषाओं के सचिव रखते थे। सभी नौ सचिवों को एक साथ बैठाकर नौ भाषाओं पर 9 विभिन्न विषयों पर आफिसियल कार्यवाही या और जो कुछ भी नोट कराना होता था नोट कराते चले जाते थे। इतना ही नहीं बाइबिल उन्हें पूर्णतया कण्ठाग्र थी और आगे पीछे कहीं से भी कोई भी पेज खोल कर उनसे पूछा जाता तो वहां से आगे का अंश धड़ल्ले से बोलने लगते थे। भाषा और ज्ञान की तौल होती तो उनके मस्तिष्क का वजन करना कठिन हो जाता ऐसा लोग कहा करते थे। इतनी बड़ी लाइब्रेरी की करोड़ों पुस्तकें उनके मस्तिष्क में थीं यहां तक कि रखने का स्थान तक उन्हें मालूम रहता था।
1767 में जन्में प्रसिद्ध जर्मनी कवि लेखक और राजनीतिज्ञ नवाब कार्ल बिल्हेम वान हम्बोल्ट का विवाह 38 वर्ष की अवस्था में एक बहुत ही गुणवान स्त्री कैरोलिन वान डैक्रोडेन के साथ हुआ। विवाह के बाद से ही उसने अपनी प्रिय पत्नी के—सम्मान में प्रतिदिन 100 पंक्तियों की कविता लिखना प्रारम्भ किया और यह क्रम पूरे 44 वर्ष जब तक वह जिया जारी रखा। 6 वर्ष का जीवन हम्बोल्ट ने विधुर का बिताया इस बीच वह प्रतिदिन अपनी स्त्री के मजार पर जाता और 100 पंक्तियां लिखने का क्रम जारी किये रहा। तमाम जीवन में उसने 1606000 पंक्तियां लिखीं। इतनी कविताओं की पंक्तियां यदि—छपाई जाये तो अखण्ड-ज्योति साइज के 5577 फर्मे अर्थात् 44616 पेज के बराबर मोटी पुस्तक बैठेगी। इस मोटाई का अनुमान लगाना हो तो अखण्ड-ज्योति के 58 वर्ष 1 माह के समस्त अंकों को एक के ऊपर एक को चुनना होगा यह ऊंचाई लगभग 25 फुट बैठेगी। जबकि कविताओं में कोई भी पंक्ति दुबारा उपयोग में नहीं लाई गई।
एक बार फ्रांस की एक अदालत में एक मुकदमा पेश हुआ। अपराधी के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी तथापि उसकी पैरवी करने वालों ने सुप्रसिद्ध एटार्नी लुईस बर्नार्ड को अपना वकील चुनकर मुकदमा लड़ा। सैनिक अदालत से उसे सजा हो गई। एटार्नी ने अदालत से याचना की कि उसे मुकदमा राजा के सामने ले जाना है अतएव सजा 5 दिन के लिए रोक दी जाये क्योंकि राजा 6 दिन के लिये बाहर थे। अदालत ने यह बात अस्वीकार करदी। एटार्नी ने उस पर तर्क जूरी के सामने लगातार 120 घण्टे तक अर्थात् पूरे 5 दिन 5 रात तक राजी रखा इस बीच उसने कानून शास्त्र के दुनिया भर के पन्ने जबानी अदालत के सामने रखकर अपनी आश्चर्यजनक बौद्धिक क्षमता का सिक्का जमा दिया। सम्भव है वह और भी बोलता पर इसी बीच राजा साहब आ गये और इस प्रकार उन्हें महाराज के सामने पेश होने का समय भी मिल गया और इसी बिना पर क्षमादान भी।
कहते हैं स्वामी रामतीर्थ अमेरिका जा रहे थे तब तक एक दिन जहाज में दो अंगरेजों से झगड़ा हो गया। उनका मुकदमा पेश हुआ और गवाह मांगा गया तो दोनों ने इन साधु की उपस्थिति की बात कही। उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा—मुझे यह तो मालूम नहीं कि गलती किसकी है पर उन्होंने अपनी-अपनी भाषा में जो कुछ कहा था वह उन्होंने हूबहू वही अक्षर उसी टोन में सुना दिया।
परमा (इटली) में इसी प्रकार सन् 1464 में फ्रांसिस्को मैरिया ग्रापाल्डो नामक व्यक्ति पैदा हुआ इस व्यक्ति की विचित्र विशेषता यह थी कि वह एक ही समय में अपने हाथों से एक कापी के दोनों ओर के पेजों पर अलग-अगल कविताएं लिखता हुआ चला जाता था। लोग कहते थे कि ग्रापाल्डो के दो मस्तिष्क हैं अब तो विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है मस्तिष्क दायें बायें दो भागों में विभक्त है दोनों अलग-अलग काम करते रहने में सक्षम हैं इतने पर भी इस रहस्य पर पर्दा ज्यों का त्यों बना हुआ है कि मस्तिष्क की यह विलक्षण विशेषतायें क्या केवल मात्र स्वाध्याय, शिक्षण और अभ्यास का ही परिणाम हैं अथवा मस्तिष्क में निवास करने वाले किसी अलौकिक आध्यात्मिक तत्व की यह विशेषताएं हैं।
इसका उत्तर खोजने के लिए किसी सैद्धान्तिक विवेचन के पूर्व कुछ उदाहरण जान लेना आवश्यक है। (1) 1724 में स्काटलैण्ड में डंकन मैक इन्टायर नामक व्यक्ति जन्मा वह स्काटलैण्ड का इतना बड़ा कवि माना जाता था जितना भारत में सूर और तुलसी। इतना होते हुए भी वह न तो लिख सकता था और न ही पढ़ा क्योंकि उसने कहीं से भी शैक्षणिक योग्यता प्राप्त नहीं की थी।
(2) होमर और सुकरात न केवल सन्त थे वरन् कबीर की तरह कवि और साहित्यकार भी थे। कबीर ने कलम और कागज नहीं छुआ था और उनकी लिखी उलटबांसियां तथा पद आज एम.ए., बी.ए. की पुस्तकों में पढ़ाये जाते हैं। अपना मस्तिष्कीय सृजन वे मस्तिष्क में ही लिख कर रखते थे कागज कलम से तो उसे औरों ने लिखा। कैन्टरवरी के प्रधान पादरी टामस फ्रेमर ने 3 महीने में पूरी बाइबिल पढ़कर कंठस्थ करली थी पर होमर और सुकरात ने तो न कभी पढ़ा था और न लिखा था, यह इस बात का प्रमाण है कि बौद्धिक क्षमताओं का आधार शैक्षणिक ज्ञान नहीं वरन् कोई मस्तिष्कीय आध्यात्म का प्रतिफल है उस शक्ति का विकास केवल आध्यात्मिक साधनाओं में क्रियाओं पर आधारित है मात्र अक्षर अभ्यास पर नहीं।
भारतीय योगदर्शन जिस ऋतम्भरा प्रज्ञा की बात कहता है और बताता है कि मनुष्य ब्रह्मचर्य और विभिन्न योग साधनाओं द्वारा अपनी बौद्धिक सक्षमता और सूक्ष्मता इतनी अधिक बढ़ा सकता है कि वह न केवल ऊपर जैसी विलक्षण क्षमताओं और सिद्धियों का सहज ही स्वामी बन सकता है वरन् वह हर किसी के मन की बात जान सकता है भूत और भविष्य को इस प्रकार जान सकता है मानो वह वर्तमान में आंखों के सम्मुख घटित हो रहा हो।
कम्प्यूटर मशीन (संगणक) को आज बड़ी आश्चर्य की दृष्टि में देखा जाता है किन्तु मन की शक्ति की तुलना में उनका मूल्य और महत्त्व एक कौड़ी से अधिक नहीं है। यह लोगों ने तब जाना, जब श्रीमती शकुन्तला देवी से एक सज्जन ने पूछा—‘‘8 फरवरी 1936 को रविवार था या शनिवार’’ कोई और व्यक्ति होता तो इतनी गणना (कैलकुलेशन) करने में उसे पूरे दो घण्टे लगते, कम्प्यूटर भी 10-15 सेकिण्ड तो लेता ही, किन्तु शकुन्तला जी को बताते एक सेकिण्ड समय भी नहीं लगा होगा। शकुन्तला देवी बेंगलोर के एक प्रतिष्ठित परिवार में जन्मी। अन्नामलाई विश्वविद्यालय के उपकुलपति श्री बी.एस. शास्त्री ने उन्हें ‘‘जीते जागते आश्चर्य’’ का विशेषण दिया है। सिडनी (आस्ट्रेलिया) स्थित न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में उनकी प्रतिद्वंद्विता 20 हजार पौण्ड मूल्य के संगणक (कम्प्यूटर) से हुई। यह कम्प्यूटर विद्युत चालित था और उसका आपरेशन प्रसिद्ध गणितज्ञ श्री आ.जी. स्मार्ट और वेरी थार्नटन कर रहे थे, किन्तु जब भी कोई प्रश्न पूछा जाता था शकुन्तला उसका उत्तर तुरन्त दे देती थीं, जबकि मशीन के उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। शकुन्तला के उत्तर शत-प्रतिशत (सेन्ट-पर-सेन्ट) सही पाकर वे सब चौक पड़े और कहने लगे—‘‘सचमुच मन में ऐसी कोई विलक्षण क्षमता है, जिसका विकास भारतीय योग पद्धति से करके मनुष्य सर्वज्ञ बन सकता है।’’ शकुन्तला जी अब तक 42 अंकों की संख्याओं का 20 वां रूट (वर्गमूल) तक निकालने में सफल हुई हैं। यह गणित जगत् के लिये लोहा मनवाने जैसी बात है। किन्तु शकुन्तला जी की मान्यता है कि यह विकेन्द्रित मन की साधारण-सी शक्ति है मन की नाप-तोल करना कठिन है वह एक सर्वसमर्थ तत्त्व जैसा कुछ है।
इन्हीं बातों को देखकर ही वैज्ञानिक शरीर में आत्मा जैसी किसी सर्वव्यापक शक्ति के अस्तित्व की बात स्वीकार करने लगे हों भले ही अभी उसका विस्तृत अध्ययन वे लोग न कर पाये हों। अमेरिका के एक दिल बदल विशेषज्ञ डा. एम. डी. कुले ने चारलोट्सविल (वर्जीनियां) में डाक्टरी का अध्ययन करने वाले सैकड़ों छात्रों के सामने बोलते हुए बताया कि ‘‘मनुष्य की आत्मा का वास मस्तिष्क में है।’’उन्होंने मृत्यु के सम्बन्ध में अपना स्पष्टीकरण देते हुए बताया कि ‘‘मृत्यु एक अकेली घटना नहीं बल्कि वह एक प्रक्रिया है और वह मस्तिष्क के मरने के बाद आरम्भ होती है, शरीर के कई अंग जैसे दिल तो मृत्यु के कई मिनट बाद तक जीवित रह सकता है, किन्तु मस्तिष्क के अणुओं की चेतना समाप्त होते ही मनुष्य का जीवन समाप्त हो जाता है।
इस बात को हमारे पितामह ऋषि और योगी काफी समय पूर्व जान गये थे। समाधि अवस्था में आत्म-चेतना को ब्रह्मांड (खोपड़ी) में चढ़ाकर बिना सांस लिये हुए कहीं भी दबे पड़े रहने के अनेक प्रयोग भारत में हुए हैं, उनका कहीं अन्यत्र वर्णन करेंगे। यहां डा. एम.डी. कुले की बात का समर्थन करते हुए यदि यह कहा जाये कि मनुष्य शरीर के प्रत्येक सेल के अन्दर जो चेतना है, उस सामूहिक प्रक्रिया का ही नाम मन या जीवन है और उसमें सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता जैसे विलक्षण गुण भी विद्यमान हैं। फ्रैंक रेन्स दुनिया की भाषाओं से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं, किन्तु आप दुनिया की कोई भाषा किसी भी लहजे में बोलें—बिना एक सेकिंड का अन्तर किये हुए वही शब्द उसी लहजे में आपके साथ बोलते चले जायेंगे। ओठों की फड़कर देखकर भी कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता कि यह व्यक्ति क्या बोलेगा, फिर यदि उस भाषा का ज्ञान न हो जिसमें वक्ता बोले तब तो वह कहेगा, इसका बिल्कुल भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता पर आप चाहे पीठ फेर कर खड़े हो जायें या बीच में पर्दा लगाकर फ्रैंक रेन्स आपके साथ ही उन शब्दों को होहराते हुए (कोन्सीडेन्स) चले जायेंगे। देखने में ऐसा लगेगा जैसा एक ही ग्रामोफोन से दो लाउडस्पीकरों का सम्बन्ध हो। टेलिविजन के कुछ कार्यक्रमों में वक्ता बोलने के साथ गाने भी लगे तो श्री फ्रैंक रेन्स ने उसी तान और स्वर में गाभा दिया। एक बार विख्यात हास्य अभिनेता जेरी ल्यूविस ने एक कार्यक्रम संचालित किया, उसमें लोलो ब्रिगिडा ने भी भाग लिया। उक्त महिला कई भाषायें बोल सकती थी। फ्रैंक रेन्स उन सब भाषाओं को दोहराते गये। लोलोब्रिगिडा के कुछ बनावटी शब्द जिनका न तो कुछ अर्थ हो न किसी भाषा के हों—बोलना प्रारम्भ किया तो लोग आश्चर्यचकित रह गये कि फ्रेंन्स रेन्स वह शब्द भी उसी तरह स्वर मिलाकर बोलता चला जा रहा है।
दूसरा अमुक शब्द बोलेगा इसकी इन्द्रियातीत जानकारी फ्रैन्स को क्यों हो जाती है। भाषा न जानने पर भी वह अनजाने शब्द किस तरह बोल लेता है यह दो विलक्षण आश्चर्य हैं, जिनकी व्याख्या करने में डॉक्टर वैज्ञानिक और अनेक विशेषज्ञ भी असफल रहे हैं। फ्रैंक रेन्स कहते हैं, मैं स्वयं भी नहीं जानता कि इस विलक्षण शक्ति का स्रोत क्या है पर यह भारतीय तत्व-वेत्ताओं और सिद्ध पुरुषों के लिए बहुत छोटी-सी बात है। मन की एक धारा का विकास इस सामर्थ्य का आधार है और कुछ हो या न हो पर इससे इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि मनमें कोई ऐसी अज्ञात शक्ति है अवश्य जो दूसरों के मन में जो कुछ है और जो कुछ नहीं भी है, वह सब जान सकती है। मन में ऐसी-ऐसी असंख्य सामर्थ्यों का भण्डार छुपा हुआ है, मन ही सब सिद्धियों का साधन है, मन ही भगवान है, मन का पूर्ण विकास ही एक दिन मनुष्य को अनन्त सिद्धियों सामर्थ्यों का स्वामी बना देता है पर इसके लिये गहन संयम, साधना और तपश्चर्या के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। मन की शक्ति अव्याख्येय पदार्थ को शक्ति के रूप में अब मान्यता मिल चुकी है और यह विज्ञान के प्रारम्भिक विद्यार्थियों को तो नहीं पर मूर्धन्य स्तर पर यह स्वीकार्य है कि यह विश्व एक शक्ति की दो धाराएं मानी जाती रहती हैं उसी परम्परा के अनुसार एक को भौतिक और दूसरी को प्राणिज माना गया है। दोनों आपस में पूरी तरह गुंथी हुई हैं इसलिये जड़ में चेतन का और चेतन में जड़ का आभास होता है। वस्तुतः वे दोनों ज्वारभाटे की तरह लहरों के मूल और ऊर्ध्व में निचाई-ऊंचाई का अन्तर दीखने की तरह हैं और एक अविच्छिन्न युग्म बनाती हैं। यद्यपि उन दोनों की व्याख्या अलग-अलग रूपों में भी की जा सकती है और उनके गुण, धर्म पृथक बताये जा सकते हैं। एक को जड़ दूसरी को चेतन कहा जा सकता है। इसी विभेद की चर्चा अध्यात्म ग्रन्थों में परा अपरा प्रकृति के रूप में मिलती है।
मस्तिष्कीय विद्या के—मनोविज्ञान के आचार्य-न्यूरोलॉजी, मैटाफिजिक्स, साइकोलॉजी आदि के सन्दर्भ में मस्तिष्कीय कोशों और केन्द्रों की दिलचस्प चर्चा करते हैं। उनकी दृष्टि में कोश ही अपने आप में पूर्ण हैं। यदि यही ठीक होता तो मृत्यु के उपरांत भी उन कोशों की क्षमता उसी रूप में या अन्य किसी रूप में बनी रहनी चाहिए थी। पर वैसा होता नहीं। इससे प्रकट है कि इन कोशों में मनः तत्व भरा हुआ है जीवित अवस्था में वह इन कोशों के साथ अतीव सघनता के साथ घुला रहता है। अब इन दोनों का अलगाव हो जाता है तो उस मृत्यु की स्थिति में मस्तिष्क के चमत्कारी कोश सड़ी-गली श्लेष्मा भर बनकर रह जाते हैं।
मनःशास्त्र के यशस्वी शोधकर्त्ता कार्ल गुस्तायजुंग ने लिखा है—मनुष्य के चेतन और अचेतन के बीच की शृंखला बहुत दुर्बल हो गई है। यदि दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित किया जा सके तो प्रतीत होगा व्यक्ति की परिधि छोटे से शरीर तक सीमित नहीं है वरन् वह अत्यधिक विस्तृत है। हम हवा के सुविस्तृत आयाम में सांस लेते और छोड़ते हैं उसी प्रकार विश्व-व्यापी चेतन और अचेतन की संयुक्त सत्ता के समुद्र में ही हम अपना व्यक्तित्व पानी के बुलबुले की तरह बनाते, बिगाड़ते रहते हैं। जैसे हमारी अपनी कुछ रुचियां, प्रवृत्तियां और आकांक्षाएं हैं, उसी प्रकार विश्व-व्यापी चेतना की धाराएं भी किन्हीं उद्देश्यपूर्ण दिशाओं में प्रवाहित हो रही हैं।
गैरल्ड हार्ड ने आइसोटोप ट्रेलर्स के सम्बन्ध में हुई नवीनतम शोध-कार्य की चर्चा करते हुए कहा है कि जीव विज्ञान अब हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि शरीर की कोशिकाओं पर परमाणुओं पर मनःशक्ति का असाधारण नियन्त्रण है। चेतन और अचेतन के रूप में जिन दो धाराओं की विवेचना की जाती है वस्तुतः वे दोनों मिलकर एक पूर्ण मनःशक्ति का निर्माण करती हैं। यह मनः चेतना सहज ही नहीं मरती वरन् एक ओर तो वंशानुक्रम विधि के अनुसार गतिशील रहती है दूसरी ओर मरणोत्तर जीवन के साथ होने वाले परिवर्तनों के रूप में उसका अस्तित्व अग्रगामी होता है। मनःचेतना का पूर्ण मरण पिछले दिनों सम्भव माना जाता रहा है अब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचने ही वाले हैं कि चेतना अमर है और उसका पूर्ण विनाश उसी तरह सम्भव नहीं जिस प्रकार कि परमाणुओं से बने पदार्थों का।
भौतिक विज्ञान के नोबुल पुरस्कार विजेता श्री पियरे दि काम्ते टु नाऊ ने विज्ञान और व्यक्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए लिखा है—अब हमें यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये कि मनुष्य में अपनी ऐसी चेतना का अस्तित्व मौजूद है जिसे आत्मा कहा जा सके। यह आत्मा विश्वात्मा के साथ पूरी तरह सम्बद्ध है। उसे पोषण इस विश्वात्मा से ही मिलता है। चूंकि विश्व चेतना अमर है इसलिये उसकी इकाई आत्मा को भी अमर ही होना चाहिए।
‘ह्यूमन डेस्टिनी’ ग्रन्थ में लेखक ‘लेकोम्ते टू नाउ’ ने जीव सत्ता की स्वतन्त्रता व्याख्या अगले कुछ ही दिनों में प्रचलित विज्ञान मान्यताओं के आधार पर ही की जा सकने की संभावना व्यक्त की है और कहा है कि हम इस दिशा में क्रमशः अधिक द्रुतगति से बढ़ रहे हैं।
प्राणि का अहम् उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का सृजन करता है और जब तक वह बना रहता है तब तक उसकी अन्तिम मृत्यु नहीं हो सकती। स्वरूप एवं स्थिति का परिवर्तन होता रह सकता है। इस अहम् ईगो—सत्ता का स्वरूप निर्धारण अब इलेक्ट्रो डायनैमिक सिद्धांतों के अन्तर्गत प्रमाणित किया जाने लगा है। इस व्याख्या के अनुसार यह मानने में कठिनाई नहीं होती कि जीव सत्ता जन्म-मरण के चक्र में घूमती हुई भी अपनी आकृति-प्रकृति में हेर-फेर करती रहकर भी—अपनी मूल सत्ता को अक्षुण्ण बनाये रह सकती है।
‘दि सूट्स आफ कोइंसिडेन्स’ ग्रन्थ के लेखक महा मनीषी आर्थर कोइंसिडेन्स ने जीव सत्ता के आयाम को स्वीकार किया है और कहा है कि प्राणी सत्ता विशेषता को सर्वथा आणविक या रासायनिक नहीं ठहराया जा सकता।
‘यू डू टेक इट विद यू’ के लेखक भी डिविट मिलर इस बात से सहमत हैं कि मस्तिष्कीय कोशों को प्रभावित करने वाली एक अतिरिक्त चेतना का उसी क्षेत्र में घुला मिला किन्तु स्वतन्त्र अस्तित्व है।
मृत्यु के उपरान्त प्राणी की चेतना शक्ति उसी प्रकार बची रह सकती है जैसे कि अणु गुच्छक एक पदार्थ से टूट बिखर कर किसी अन्य रूप में परिणित होते रहते हैं। शक्ति के समुद्र इस विश्व में प्राणियों की सत्ता बुलबुलों की तरह अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाती हैं—विकसित करती हैं और समयानुसार अपने मूल उद्गम में लीन हो जाती हैं। जड़-चेतन मिश्रित इस शक्ति सागर को कहा जा सकता है। यदि इन्हें अलग से कहना आवश्यक हो तो एक को ‘प्रकृति’ और दूसरे को ‘पुरुष’ कह सकते हैं।
अपने समय के मूर्धन्य खगोलवेत्ता डा. गुस्ताफ स्ट्रोमवर्ग की पुस्तक ‘दि सोल आफ युनिवर्स’ में जीवन क्या है? विशेषतया मनुष्य क्या है? इस प्रश्न पर प्रस्तुत वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मार्मिक समीक्षा की है। वे विज्ञान से पूछते हैं—क्या मनुष्य ब्रह्मांड की कुछ धूलि का ताप और रासायनिक घटकों को औंधी-सीधी क्रिया-प्रक्रिया मात्र है? क्या वह प्रकृति के किसी अनिच्छित क्रिया के अवशेष उच्छिष्ट से बना खिलौना मात्र है? क्या वस्तुतः लक्ष्य हीन, अर्थहीन बेतुका राग मात्र है? क्या उसकी सत्ता आणविक और रासायनिक हलचलों के बनने बिगड़ने वाले संयोगों की परिधि तक ही सीमित है? अथवा वह इससे आगे भी कुछ है?
इन प्रश्नों के सही उत्तर प्राप्त करने के लिये स्ट्रोमबर्ग ने तत्कालीन विज्ञान की दार्शनिक विवेचना करने वाले मनीषियों से भी परामर्श किया। उन्होंने इस सम्बन्ध में एफ.आर. मोस्टन, वास्टर आडम्स, आर्थर एडिंगटन, थामस हैट मार्गन, जान वूदिन, कारेलहूजर, ओ. एल. स्पोसलर आदि प्रख्यात मनीषियों के सामने अपना अंतर्द्वंद्व रखा और जानना चाहा कि विज्ञान सम्मत दर्शन द्वारा क्या मानव चेतना की इतनी ही व्याख्या हो सकती है जितनी कि वह अब तक की गई है। अथवा उससे आगे भी कुछ सोचा जा सकता है।
अपनी जिज्ञासा, तुष्टि, कठिनाई, समीक्षा और विवेचना का एक विचारणीय स्वरूप स्ट्रोमवर्ग के ‘दि सोल आफ युनिवर्स’ ग्रन्थ में है। इस पुस्तिका की भूमिका लिखते हुए आइन्स्टीन ने प्रस्तुत जिज्ञासा की युग चिन्तकों के सामने अति महत्वपूर्ण चुनौती माना है और कहा है हमें किन्हीं पूर्वाग्रहों से प्रभावित हुए बिना सम्भावित सत्य के आधार पर ही इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए।
फ्रायड ने प्रेरणाओं का प्रधान स्रोत ‘काम’ को माना था और उसकी व्याख्या ‘सेक्स’ के रूप में की थी। इसके बाद उन्होंने अपने ही जीवन में उसे यौन लिप्सा से आगे बढ़ाकर कामना इच्छा तथा वासना तक पहुंचा दिया। इसके बाद जुंग और एडलर ने उस काम वृत्ति की व्याख्या कामाध्यात्म के रूप में की और उसे आनन्द, उल्लास सहज सुलभ प्रवृत्ति के साथ जोड़ दिया।
जुंग का कथन है कि आत्मा की अमरता को यद्यपि अभी भी प्रयोगशालाओं में सिद्ध नहीं किया जा सका फिर भी ऐसी अगणित अनुभूतियां मौजूद हैं जो यह बताती हैं कि आदमी मरणधर्मा नहीं है वह मौत के बाद भी जीवित रहता है।
मनःशास्त्र का विकास क्रमिक गति से आगे बढ़ा है। आरम्भ में विज्ञान ने एक जागृत चेतन मन को स्वीकारा था। पीछे अचेतन की खोज की गई। इस अचेतन की भी कई शाखा प्रशाखाएं खोजी गईं। सब कान्शस—अर्ध चेतन और रैशियल अनकान्शस—जातीय अचेतन; इसकी प्रमुख धाराएं इन दिनों सर्वविदित हैं। फ्राइड की कल्पना पर सुपरईगो—उच्चतर अहं और सेन्सर—अंकुश तथ्य छाये रहे। उन्होंने इसे परिधि में मनः शास्त्र की संरचना की है। तब से अब तक पानी बहुत आगे बह गया और मनोविज्ञान ने कितने ही नये-नये रहस्यों का उद्घाटन किया।
जर्मनी के मनःशास्त्री हेन्सावेन्डर ने अतीन्द्रिय क्षमता के अनेकों प्रमाण संग्रह करके यह सिद्ध किया है कि मनुष्य की सूक्ष्म सत्ता उससे कहीं अधिक सम्भावनाओं से भरी पूरी है जैसी कि अब तक जानी जा सकी है। टेलीपैथी के शोधकर्त्ता रेने वार्कोलियर ने मनःचेतना को ज्ञात भौतिकी से ऊपर वाले सिद्धान्तों पर आधारित बताया है। वे कहते हैं—‘‘मन की व्याख्या पदार्थ विज्ञान के प्रचलित सिद्धान्तों के सहारे नहीं हो सकती।’’
विश्व विख्यात लेखक एस.जी. वेल्स ने अपनी पुस्तक ‘‘इन दि डेज आफ दि क्रामेट’’ में यह सम्भावना व्यक्त की है कि निकट भविष्य में मनुष्य का मन और दृष्टिकोण अधिकाधिक परिष्कृत होता चला जायगा। तब मनुष्य में सहृदयता, सहयोग-भावना तथा दूरदर्शिता बढ़ती जायगी। फलस्वरूप समाज का ढांचा और मानवी आचार उपयोगी बन जायगा जिसे अब की अपेक्षा काया-कल्प जैसा कहा जा सके। तब कोई युद्ध का समर्थन न करेगा और चिन्तन की दिशा सहयोग पूर्वक शान्ति एवं प्रगति के लिये प्रयुक्त हो सकने वाले आधारों को ढूंढ़ने के लिये प्रयुक्त होगी।
शंकराचार्य कहते थे स्व और पर का भेद भ्रांति है। हम सब भिन्न दीखते भर हैं वस्तुतः सब एक के सघन सूत्र में पिरोये हुए मनकों की तरह हैं। ईसा कहते थे—‘अपने पड़ौसी को प्यार करो ताकि तुम्हारा विकसित प्यार तुम्हें निहाल कर दे।’ बुद्ध ने कहा था—‘करुणा से बढ़कर मनुष्य के पास और कोई दिव्य सम्पदा नहीं। जो ममता और करुणा से भरा है वही दिव्य है।’
जीव चेतना का लक्ष्य और विकास क्रम का पूर्णत्व इसी स्तर पर विज्ञान को भी पहुंचा देगा जो ऋषियों और तत्वदर्शियों ने बताया था। यदि विज्ञान का उद्देश्य सत्य की खोज है तो उसे आत्मा की वर्तमान स्वीकृति को परमात्मा स्तर प्राप्त करने तक भी पहुंचना होगा। इसके लिये कल न सही परसों सही की प्रतीक्षा की जा सकती है।
रूसी ‘मास्कोवास्काया’ समाचार पत्र ने इस महिला की गहरी ध्यान-शक्ति पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ‘‘मनुष्य के मन में वस्तुतः विज्ञान से परे विलक्षण शक्तियां विद्यमान हैं। उनका विकास करके वर्तमान वैज्ञानिक उपकरणों को ही नहीं पछाड़ा जा सकता मानव से सम्बन्धित गहन आध्यात्मिक तथ्यों का भी पता लगाया जा सकता है।’’ प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान् लुई जकालियट जो भारतवर्ष में बहुत दिन रहे और योग-विद्या का गहन अन्वेषण किया उन्होंने गोविन्द स्वामी नामक एक दक्षिणी योगी के सम्बन्ध में लिखा है—‘‘पानी से भरे हुए घड़े को वह दूर बैठकर अपनी मानसिक या दैवी शक्ति से आगे पीछे और ऊपर हवा में उठा देता था। उसके आदेश पर जल से भरा हुआ घड़ा भी अधर लटक जाता हुआ मैंने देखा है। भारतीय योगियों के इन विलक्षण करतबों को कई लोग मनोरंजन की दृष्टि से देखते हैं पर मुझे उस कौतूहल के पीछे किसी बड़े रहस्य की अनुभूति होती है ऐसा लगता है मनुष्य के मन में वह शक्तियां हैं, जिनका विकास यदि किया जा सके तो मनुष्य जीवन के अनेक दार्शनिक सत्यों का रहस्य जान सकता है।’’
वैज्ञानिक और डॉक्टर भी यह मानते हैं कि शरीर में इन्द्रियों की चेतना भी अस्थायी महत्व की है स्थायी रूप से दृष्टि श्रवण, घ्राण प्रेरक और सम्वेदन सभी क्षमतायें मस्तिष्क में विद्यमान हैं। थैलामस नामक एक पिंडली (गैंग्लियन) भीतरी मस्तिष्क में होती है और जो सिर के केन्द्र में अवस्थित है, यही स्थान सभी तन्मात्राओं के ठहरने का स्थान (स्टेशन) है, यहीं से पीनियल ग्रन्थि निकलती है जो देखने का काम करती है। पीनियल ग्लैण्ड को तीसरा नेत्र भी कहते हैं। पिचूट्री ग्लैण्डस और सुषुम्ना शीर्षक (मेडुला आफ लोंगलेटा) जो शरीर के सम्पूर्ण अवयवों का नियन्त्रण करती हैं, वे सब भी मन से ही सम्बन्धित हैं मस्तिष्क का यदि यह केन्द्र काट दिया जाये तो शरीर के अन्य सब संस्थान बेकार हो जायेंगे।
विज्ञान और शरीर रचना शास्त्र (एनाटामी) की उपरोक्त आधुनिक जानकारियों का यद्यपि काफी विस्तार हो चुका है, किन्तु योग पद्धति और भारतीय तत्त्व-दर्शन की जानकारी की तुलना में यह उपलब्धियां समुद्र में एक बूंद की तरह हैं। भारतीय तत्त्व-वेत्ताओं ने मन को सर्व शक्तिमय इन्द्रियातीत ज्ञान का आधार और अनन्त परब्रह्म का ही लघुरूप माना है। मन की शक्तियों को ही ब्रह्म में तादात्म्य कर देने से हाड़-मांस का मनुष्य भगवान् हो जाता है। उसकी शक्तियों का आश्चर्यजनक और चमत्कारिक विकास इसी अवस्था पर होता है।
5 अक्टूबर 1950 को लन्दन में एक भारतीय महिला शकुन्तला देवी, जिन्हें गणित की जादूगरनी (विजार्ड आफ मैथेमेटिक) कहा जाता है, टेलीविजन पर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही थीं। तभी एक सज्जन ने उन्हें एक गणित का प्रश्न हल करने को कहा। बिना एक क्षण का विलम्ब किये हुये उन्होंने कहा यह प्रश्न गलत है। यह प्रश्न ब्रिटेन के बड़े-बड़े गणिताचार्यों ने तैयार किया था, इसलिए सब लोग एकदम आश्चर्य में डूब गये—प्रश्न गलत कैसे हो सकता है? बी.बी.सी. कार्यक्रम के आयोजन कर्त्ता ने प्रश्न की जांच कराई तो वह विस्मित रह गया कि प्रश्न सचमुच गलत है। उसने भी यह माना कि—‘‘हम जितना समझ पाये हैं, मन की शक्ति और सामर्थ्य उससे बहुत अधिक है।’’
बौद्धिक क्षमताओं का भण्डार
सन् 1722 में जापान में मुसाशी प्रान्त में एक बालक ने जन्म लिया। नाम रखा गया हनावा होकीची। दुर्भाग्य वश यह बालक जबकि वह कुल सात वर्ष का ही था अन्धा हो गया। फिर भी उसने पढ़ा, सुनकर पढ़ा और अपनी प्रतिभा का इतना अधिक विकास किया कि वह संसार के प्रमुख विद्वानों की श्रेणी में जा पहुंचा। उसकी स्मरण शक्ति को दैवी स्मरण शक्ति की उपमा दी जाती है और 94 वर्ष की आयु तक अध्यापन करने वाले इस महापंडित के बारे में कहा जाता है कि वह 400000 हस्तलिपि की सूची तैयार करा सकता था। इन सूची पत्रों से जिन्हें उसे केवल एकबार ही पढ़कर सुनाया गया था, उसने मुंशी रिन्जू नामक एक 2820 खण्ड की पुस्तक तैयार की। 1910 में इस पुस्तक का दूसरा संस्करण छपा था। जापान के लोगों ने बड़े सम्मान के साथ अपने घरों में इसे रखा है।
ग्रीक में ऐसा ही एक व्यक्ति हुआ है। पारेसन—उसने मिल्टन की सारी कृतियों को रट लिया था और उन्हें न केवल पेज नम्बर एक से लेकर दो तीन चार को सुनाता जा सकता था वरन् पीछे से अर्थात् पेज नम्बर सौ से निन्यानवे, अट्ठानवे, सत्तानवे की ओर—भी सुनाता चला जा सकता था। विलक्षण स्मृति का एक उदाहरण है—गम्बेटा जो श्रीमती रुथ की पुस्तक का एक-एक शब्द पीछे से सुना सकता था। विक्टर ह्यूगो और साहित्यकार ओसियन की पुस्तकें भी केवल एकबार पढ़कर उसने दुबारा पीछे बोलकर सुनादी। लोग आश्चर्य किया करते थे और कहते थे कि गम्बेटा के मस्तिष्क में टेप की तरह कोई एलेक्ट्रो मेग्नेटिक पट्टी है जिसमें उसका पढ़ा हुआ एक-एक अक्षर रिकार्ड हो जाता है वह भी केवल एक बार पढ़ने से जबकि साधारण व्यक्ति के लिए पुस्तक का एक-एक अनुच्छेद ही कण्ठस्थ करना कठिन हो जाता है।
म्यूनिच की राष्ट्रीय लाइब्रेरी के संचालक जोसेफ बनहार्ड डकन अपनी सहायता के लिये विभिन्न भाषाओं के सचिव रखते थे। सभी नौ सचिवों को एक साथ बैठाकर नौ भाषाओं पर 9 विभिन्न विषयों पर आफिसियल कार्यवाही या और जो कुछ भी नोट कराना होता था नोट कराते चले जाते थे। इतना ही नहीं बाइबिल उन्हें पूर्णतया कण्ठाग्र थी और आगे पीछे कहीं से भी कोई भी पेज खोल कर उनसे पूछा जाता तो वहां से आगे का अंश धड़ल्ले से बोलने लगते थे। भाषा और ज्ञान की तौल होती तो उनके मस्तिष्क का वजन करना कठिन हो जाता ऐसा लोग कहा करते थे। इतनी बड़ी लाइब्रेरी की करोड़ों पुस्तकें उनके मस्तिष्क में थीं यहां तक कि रखने का स्थान तक उन्हें मालूम रहता था।
1767 में जन्में प्रसिद्ध जर्मनी कवि लेखक और राजनीतिज्ञ नवाब कार्ल बिल्हेम वान हम्बोल्ट का विवाह 38 वर्ष की अवस्था में एक बहुत ही गुणवान स्त्री कैरोलिन वान डैक्रोडेन के साथ हुआ। विवाह के बाद से ही उसने अपनी प्रिय पत्नी के—सम्मान में प्रतिदिन 100 पंक्तियों की कविता लिखना प्रारम्भ किया और यह क्रम पूरे 44 वर्ष जब तक वह जिया जारी रखा। 6 वर्ष का जीवन हम्बोल्ट ने विधुर का बिताया इस बीच वह प्रतिदिन अपनी स्त्री के मजार पर जाता और 100 पंक्तियां लिखने का क्रम जारी किये रहा। तमाम जीवन में उसने 1606000 पंक्तियां लिखीं। इतनी कविताओं की पंक्तियां यदि—छपाई जाये तो अखण्ड-ज्योति साइज के 5577 फर्मे अर्थात् 44616 पेज के बराबर मोटी पुस्तक बैठेगी। इस मोटाई का अनुमान लगाना हो तो अखण्ड-ज्योति के 58 वर्ष 1 माह के समस्त अंकों को एक के ऊपर एक को चुनना होगा यह ऊंचाई लगभग 25 फुट बैठेगी। जबकि कविताओं में कोई भी पंक्ति दुबारा उपयोग में नहीं लाई गई।
एक बार फ्रांस की एक अदालत में एक मुकदमा पेश हुआ। अपराधी के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी तथापि उसकी पैरवी करने वालों ने सुप्रसिद्ध एटार्नी लुईस बर्नार्ड को अपना वकील चुनकर मुकदमा लड़ा। सैनिक अदालत से उसे सजा हो गई। एटार्नी ने अदालत से याचना की कि उसे मुकदमा राजा के सामने ले जाना है अतएव सजा 5 दिन के लिए रोक दी जाये क्योंकि राजा 6 दिन के लिये बाहर थे। अदालत ने यह बात अस्वीकार करदी। एटार्नी ने उस पर तर्क जूरी के सामने लगातार 120 घण्टे तक अर्थात् पूरे 5 दिन 5 रात तक राजी रखा इस बीच उसने कानून शास्त्र के दुनिया भर के पन्ने जबानी अदालत के सामने रखकर अपनी आश्चर्यजनक बौद्धिक क्षमता का सिक्का जमा दिया। सम्भव है वह और भी बोलता पर इसी बीच राजा साहब आ गये और इस प्रकार उन्हें महाराज के सामने पेश होने का समय भी मिल गया और इसी बिना पर क्षमादान भी।
कहते हैं स्वामी रामतीर्थ अमेरिका जा रहे थे तब तक एक दिन जहाज में दो अंगरेजों से झगड़ा हो गया। उनका मुकदमा पेश हुआ और गवाह मांगा गया तो दोनों ने इन साधु की उपस्थिति की बात कही। उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा—मुझे यह तो मालूम नहीं कि गलती किसकी है पर उन्होंने अपनी-अपनी भाषा में जो कुछ कहा था वह उन्होंने हूबहू वही अक्षर उसी टोन में सुना दिया।
परमा (इटली) में इसी प्रकार सन् 1464 में फ्रांसिस्को मैरिया ग्रापाल्डो नामक व्यक्ति पैदा हुआ इस व्यक्ति की विचित्र विशेषता यह थी कि वह एक ही समय में अपने हाथों से एक कापी के दोनों ओर के पेजों पर अलग-अगल कविताएं लिखता हुआ चला जाता था। लोग कहते थे कि ग्रापाल्डो के दो मस्तिष्क हैं अब तो विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है मस्तिष्क दायें बायें दो भागों में विभक्त है दोनों अलग-अलग काम करते रहने में सक्षम हैं इतने पर भी इस रहस्य पर पर्दा ज्यों का त्यों बना हुआ है कि मस्तिष्क की यह विलक्षण विशेषतायें क्या केवल मात्र स्वाध्याय, शिक्षण और अभ्यास का ही परिणाम हैं अथवा मस्तिष्क में निवास करने वाले किसी अलौकिक आध्यात्मिक तत्व की यह विशेषताएं हैं।
इसका उत्तर खोजने के लिए किसी सैद्धान्तिक विवेचन के पूर्व कुछ उदाहरण जान लेना आवश्यक है। (1) 1724 में स्काटलैण्ड में डंकन मैक इन्टायर नामक व्यक्ति जन्मा वह स्काटलैण्ड का इतना बड़ा कवि माना जाता था जितना भारत में सूर और तुलसी। इतना होते हुए भी वह न तो लिख सकता था और न ही पढ़ा क्योंकि उसने कहीं से भी शैक्षणिक योग्यता प्राप्त नहीं की थी।
(2) होमर और सुकरात न केवल सन्त थे वरन् कबीर की तरह कवि और साहित्यकार भी थे। कबीर ने कलम और कागज नहीं छुआ था और उनकी लिखी उलटबांसियां तथा पद आज एम.ए., बी.ए. की पुस्तकों में पढ़ाये जाते हैं। अपना मस्तिष्कीय सृजन वे मस्तिष्क में ही लिख कर रखते थे कागज कलम से तो उसे औरों ने लिखा। कैन्टरवरी के प्रधान पादरी टामस फ्रेमर ने 3 महीने में पूरी बाइबिल पढ़कर कंठस्थ करली थी पर होमर और सुकरात ने तो न कभी पढ़ा था और न लिखा था, यह इस बात का प्रमाण है कि बौद्धिक क्षमताओं का आधार शैक्षणिक ज्ञान नहीं वरन् कोई मस्तिष्कीय आध्यात्म का प्रतिफल है उस शक्ति का विकास केवल आध्यात्मिक साधनाओं में क्रियाओं पर आधारित है मात्र अक्षर अभ्यास पर नहीं।
भारतीय योगदर्शन जिस ऋतम्भरा प्रज्ञा की बात कहता है और बताता है कि मनुष्य ब्रह्मचर्य और विभिन्न योग साधनाओं द्वारा अपनी बौद्धिक सक्षमता और सूक्ष्मता इतनी अधिक बढ़ा सकता है कि वह न केवल ऊपर जैसी विलक्षण क्षमताओं और सिद्धियों का सहज ही स्वामी बन सकता है वरन् वह हर किसी के मन की बात जान सकता है भूत और भविष्य को इस प्रकार जान सकता है मानो वह वर्तमान में आंखों के सम्मुख घटित हो रहा हो।
कम्प्यूटर मशीन (संगणक) को आज बड़ी आश्चर्य की दृष्टि में देखा जाता है किन्तु मन की शक्ति की तुलना में उनका मूल्य और महत्त्व एक कौड़ी से अधिक नहीं है। यह लोगों ने तब जाना, जब श्रीमती शकुन्तला देवी से एक सज्जन ने पूछा—‘‘8 फरवरी 1936 को रविवार था या शनिवार’’ कोई और व्यक्ति होता तो इतनी गणना (कैलकुलेशन) करने में उसे पूरे दो घण्टे लगते, कम्प्यूटर भी 10-15 सेकिण्ड तो लेता ही, किन्तु शकुन्तला जी को बताते एक सेकिण्ड समय भी नहीं लगा होगा। शकुन्तला देवी बेंगलोर के एक प्रतिष्ठित परिवार में जन्मी। अन्नामलाई विश्वविद्यालय के उपकुलपति श्री बी.एस. शास्त्री ने उन्हें ‘‘जीते जागते आश्चर्य’’ का विशेषण दिया है। सिडनी (आस्ट्रेलिया) स्थित न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में उनकी प्रतिद्वंद्विता 20 हजार पौण्ड मूल्य के संगणक (कम्प्यूटर) से हुई। यह कम्प्यूटर विद्युत चालित था और उसका आपरेशन प्रसिद्ध गणितज्ञ श्री आ.जी. स्मार्ट और वेरी थार्नटन कर रहे थे, किन्तु जब भी कोई प्रश्न पूछा जाता था शकुन्तला उसका उत्तर तुरन्त दे देती थीं, जबकि मशीन के उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। शकुन्तला के उत्तर शत-प्रतिशत (सेन्ट-पर-सेन्ट) सही पाकर वे सब चौक पड़े और कहने लगे—‘‘सचमुच मन में ऐसी कोई विलक्षण क्षमता है, जिसका विकास भारतीय योग पद्धति से करके मनुष्य सर्वज्ञ बन सकता है।’’ शकुन्तला जी अब तक 42 अंकों की संख्याओं का 20 वां रूट (वर्गमूल) तक निकालने में सफल हुई हैं। यह गणित जगत् के लिये लोहा मनवाने जैसी बात है। किन्तु शकुन्तला जी की मान्यता है कि यह विकेन्द्रित मन की साधारण-सी शक्ति है मन की नाप-तोल करना कठिन है वह एक सर्वसमर्थ तत्त्व जैसा कुछ है।
इन्हीं बातों को देखकर ही वैज्ञानिक शरीर में आत्मा जैसी किसी सर्वव्यापक शक्ति के अस्तित्व की बात स्वीकार करने लगे हों भले ही अभी उसका विस्तृत अध्ययन वे लोग न कर पाये हों। अमेरिका के एक दिल बदल विशेषज्ञ डा. एम. डी. कुले ने चारलोट्सविल (वर्जीनियां) में डाक्टरी का अध्ययन करने वाले सैकड़ों छात्रों के सामने बोलते हुए बताया कि ‘‘मनुष्य की आत्मा का वास मस्तिष्क में है।’’उन्होंने मृत्यु के सम्बन्ध में अपना स्पष्टीकरण देते हुए बताया कि ‘‘मृत्यु एक अकेली घटना नहीं बल्कि वह एक प्रक्रिया है और वह मस्तिष्क के मरने के बाद आरम्भ होती है, शरीर के कई अंग जैसे दिल तो मृत्यु के कई मिनट बाद तक जीवित रह सकता है, किन्तु मस्तिष्क के अणुओं की चेतना समाप्त होते ही मनुष्य का जीवन समाप्त हो जाता है।
इस बात को हमारे पितामह ऋषि और योगी काफी समय पूर्व जान गये थे। समाधि अवस्था में आत्म-चेतना को ब्रह्मांड (खोपड़ी) में चढ़ाकर बिना सांस लिये हुए कहीं भी दबे पड़े रहने के अनेक प्रयोग भारत में हुए हैं, उनका कहीं अन्यत्र वर्णन करेंगे। यहां डा. एम.डी. कुले की बात का समर्थन करते हुए यदि यह कहा जाये कि मनुष्य शरीर के प्रत्येक सेल के अन्दर जो चेतना है, उस सामूहिक प्रक्रिया का ही नाम मन या जीवन है और उसमें सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता जैसे विलक्षण गुण भी विद्यमान हैं। फ्रैंक रेन्स दुनिया की भाषाओं से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं, किन्तु आप दुनिया की कोई भाषा किसी भी लहजे में बोलें—बिना एक सेकिंड का अन्तर किये हुए वही शब्द उसी लहजे में आपके साथ बोलते चले जायेंगे। ओठों की फड़कर देखकर भी कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता कि यह व्यक्ति क्या बोलेगा, फिर यदि उस भाषा का ज्ञान न हो जिसमें वक्ता बोले तब तो वह कहेगा, इसका बिल्कुल भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता पर आप चाहे पीठ फेर कर खड़े हो जायें या बीच में पर्दा लगाकर फ्रैंक रेन्स आपके साथ ही उन शब्दों को होहराते हुए (कोन्सीडेन्स) चले जायेंगे। देखने में ऐसा लगेगा जैसा एक ही ग्रामोफोन से दो लाउडस्पीकरों का सम्बन्ध हो। टेलिविजन के कुछ कार्यक्रमों में वक्ता बोलने के साथ गाने भी लगे तो श्री फ्रैंक रेन्स ने उसी तान और स्वर में गाभा दिया। एक बार विख्यात हास्य अभिनेता जेरी ल्यूविस ने एक कार्यक्रम संचालित किया, उसमें लोलो ब्रिगिडा ने भी भाग लिया। उक्त महिला कई भाषायें बोल सकती थी। फ्रैंक रेन्स उन सब भाषाओं को दोहराते गये। लोलोब्रिगिडा के कुछ बनावटी शब्द जिनका न तो कुछ अर्थ हो न किसी भाषा के हों—बोलना प्रारम्भ किया तो लोग आश्चर्यचकित रह गये कि फ्रेंन्स रेन्स वह शब्द भी उसी तरह स्वर मिलाकर बोलता चला जा रहा है।
दूसरा अमुक शब्द बोलेगा इसकी इन्द्रियातीत जानकारी फ्रैन्स को क्यों हो जाती है। भाषा न जानने पर भी वह अनजाने शब्द किस तरह बोल लेता है यह दो विलक्षण आश्चर्य हैं, जिनकी व्याख्या करने में डॉक्टर वैज्ञानिक और अनेक विशेषज्ञ भी असफल रहे हैं। फ्रैंक रेन्स कहते हैं, मैं स्वयं भी नहीं जानता कि इस विलक्षण शक्ति का स्रोत क्या है पर यह भारतीय तत्व-वेत्ताओं और सिद्ध पुरुषों के लिए बहुत छोटी-सी बात है। मन की एक धारा का विकास इस सामर्थ्य का आधार है और कुछ हो या न हो पर इससे इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि मनमें कोई ऐसी अज्ञात शक्ति है अवश्य जो दूसरों के मन में जो कुछ है और जो कुछ नहीं भी है, वह सब जान सकती है। मन में ऐसी-ऐसी असंख्य सामर्थ्यों का भण्डार छुपा हुआ है, मन ही सब सिद्धियों का साधन है, मन ही भगवान है, मन का पूर्ण विकास ही एक दिन मनुष्य को अनन्त सिद्धियों सामर्थ्यों का स्वामी बना देता है पर इसके लिये गहन संयम, साधना और तपश्चर्या के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। मन की शक्ति अव्याख्येय पदार्थ को शक्ति के रूप में अब मान्यता मिल चुकी है और यह विज्ञान के प्रारम्भिक विद्यार्थियों को तो नहीं पर मूर्धन्य स्तर पर यह स्वीकार्य है कि यह विश्व एक शक्ति की दो धाराएं मानी जाती रहती हैं उसी परम्परा के अनुसार एक को भौतिक और दूसरी को प्राणिज माना गया है। दोनों आपस में पूरी तरह गुंथी हुई हैं इसलिये जड़ में चेतन का और चेतन में जड़ का आभास होता है। वस्तुतः वे दोनों ज्वारभाटे की तरह लहरों के मूल और ऊर्ध्व में निचाई-ऊंचाई का अन्तर दीखने की तरह हैं और एक अविच्छिन्न युग्म बनाती हैं। यद्यपि उन दोनों की व्याख्या अलग-अलग रूपों में भी की जा सकती है और उनके गुण, धर्म पृथक बताये जा सकते हैं। एक को जड़ दूसरी को चेतन कहा जा सकता है। इसी विभेद की चर्चा अध्यात्म ग्रन्थों में परा अपरा प्रकृति के रूप में मिलती है।
मस्तिष्कीय विद्या के—मनोविज्ञान के आचार्य-न्यूरोलॉजी, मैटाफिजिक्स, साइकोलॉजी आदि के सन्दर्भ में मस्तिष्कीय कोशों और केन्द्रों की दिलचस्प चर्चा करते हैं। उनकी दृष्टि में कोश ही अपने आप में पूर्ण हैं। यदि यही ठीक होता तो मृत्यु के उपरांत भी उन कोशों की क्षमता उसी रूप में या अन्य किसी रूप में बनी रहनी चाहिए थी। पर वैसा होता नहीं। इससे प्रकट है कि इन कोशों में मनः तत्व भरा हुआ है जीवित अवस्था में वह इन कोशों के साथ अतीव सघनता के साथ घुला रहता है। अब इन दोनों का अलगाव हो जाता है तो उस मृत्यु की स्थिति में मस्तिष्क के चमत्कारी कोश सड़ी-गली श्लेष्मा भर बनकर रह जाते हैं।
मनःशास्त्र के यशस्वी शोधकर्त्ता कार्ल गुस्तायजुंग ने लिखा है—मनुष्य के चेतन और अचेतन के बीच की शृंखला बहुत दुर्बल हो गई है। यदि दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित किया जा सके तो प्रतीत होगा व्यक्ति की परिधि छोटे से शरीर तक सीमित नहीं है वरन् वह अत्यधिक विस्तृत है। हम हवा के सुविस्तृत आयाम में सांस लेते और छोड़ते हैं उसी प्रकार विश्व-व्यापी चेतन और अचेतन की संयुक्त सत्ता के समुद्र में ही हम अपना व्यक्तित्व पानी के बुलबुले की तरह बनाते, बिगाड़ते रहते हैं। जैसे हमारी अपनी कुछ रुचियां, प्रवृत्तियां और आकांक्षाएं हैं, उसी प्रकार विश्व-व्यापी चेतना की धाराएं भी किन्हीं उद्देश्यपूर्ण दिशाओं में प्रवाहित हो रही हैं।
गैरल्ड हार्ड ने आइसोटोप ट्रेलर्स के सम्बन्ध में हुई नवीनतम शोध-कार्य की चर्चा करते हुए कहा है कि जीव विज्ञान अब हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि शरीर की कोशिकाओं पर परमाणुओं पर मनःशक्ति का असाधारण नियन्त्रण है। चेतन और अचेतन के रूप में जिन दो धाराओं की विवेचना की जाती है वस्तुतः वे दोनों मिलकर एक पूर्ण मनःशक्ति का निर्माण करती हैं। यह मनः चेतना सहज ही नहीं मरती वरन् एक ओर तो वंशानुक्रम विधि के अनुसार गतिशील रहती है दूसरी ओर मरणोत्तर जीवन के साथ होने वाले परिवर्तनों के रूप में उसका अस्तित्व अग्रगामी होता है। मनःचेतना का पूर्ण मरण पिछले दिनों सम्भव माना जाता रहा है अब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचने ही वाले हैं कि चेतना अमर है और उसका पूर्ण विनाश उसी तरह सम्भव नहीं जिस प्रकार कि परमाणुओं से बने पदार्थों का।
भौतिक विज्ञान के नोबुल पुरस्कार विजेता श्री पियरे दि काम्ते टु नाऊ ने विज्ञान और व्यक्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए लिखा है—अब हमें यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये कि मनुष्य में अपनी ऐसी चेतना का अस्तित्व मौजूद है जिसे आत्मा कहा जा सके। यह आत्मा विश्वात्मा के साथ पूरी तरह सम्बद्ध है। उसे पोषण इस विश्वात्मा से ही मिलता है। चूंकि विश्व चेतना अमर है इसलिये उसकी इकाई आत्मा को भी अमर ही होना चाहिए।
‘ह्यूमन डेस्टिनी’ ग्रन्थ में लेखक ‘लेकोम्ते टू नाउ’ ने जीव सत्ता की स्वतन्त्रता व्याख्या अगले कुछ ही दिनों में प्रचलित विज्ञान मान्यताओं के आधार पर ही की जा सकने की संभावना व्यक्त की है और कहा है कि हम इस दिशा में क्रमशः अधिक द्रुतगति से बढ़ रहे हैं।
प्राणि का अहम् उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का सृजन करता है और जब तक वह बना रहता है तब तक उसकी अन्तिम मृत्यु नहीं हो सकती। स्वरूप एवं स्थिति का परिवर्तन होता रह सकता है। इस अहम् ईगो—सत्ता का स्वरूप निर्धारण अब इलेक्ट्रो डायनैमिक सिद्धांतों के अन्तर्गत प्रमाणित किया जाने लगा है। इस व्याख्या के अनुसार यह मानने में कठिनाई नहीं होती कि जीव सत्ता जन्म-मरण के चक्र में घूमती हुई भी अपनी आकृति-प्रकृति में हेर-फेर करती रहकर भी—अपनी मूल सत्ता को अक्षुण्ण बनाये रह सकती है।
‘दि सूट्स आफ कोइंसिडेन्स’ ग्रन्थ के लेखक महा मनीषी आर्थर कोइंसिडेन्स ने जीव सत्ता के आयाम को स्वीकार किया है और कहा है कि प्राणी सत्ता विशेषता को सर्वथा आणविक या रासायनिक नहीं ठहराया जा सकता।
‘यू डू टेक इट विद यू’ के लेखक भी डिविट मिलर इस बात से सहमत हैं कि मस्तिष्कीय कोशों को प्रभावित करने वाली एक अतिरिक्त चेतना का उसी क्षेत्र में घुला मिला किन्तु स्वतन्त्र अस्तित्व है।
मृत्यु के उपरान्त प्राणी की चेतना शक्ति उसी प्रकार बची रह सकती है जैसे कि अणु गुच्छक एक पदार्थ से टूट बिखर कर किसी अन्य रूप में परिणित होते रहते हैं। शक्ति के समुद्र इस विश्व में प्राणियों की सत्ता बुलबुलों की तरह अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाती हैं—विकसित करती हैं और समयानुसार अपने मूल उद्गम में लीन हो जाती हैं। जड़-चेतन मिश्रित इस शक्ति सागर को कहा जा सकता है। यदि इन्हें अलग से कहना आवश्यक हो तो एक को ‘प्रकृति’ और दूसरे को ‘पुरुष’ कह सकते हैं।
अपने समय के मूर्धन्य खगोलवेत्ता डा. गुस्ताफ स्ट्रोमवर्ग की पुस्तक ‘दि सोल आफ युनिवर्स’ में जीवन क्या है? विशेषतया मनुष्य क्या है? इस प्रश्न पर प्रस्तुत वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मार्मिक समीक्षा की है। वे विज्ञान से पूछते हैं—क्या मनुष्य ब्रह्मांड की कुछ धूलि का ताप और रासायनिक घटकों को औंधी-सीधी क्रिया-प्रक्रिया मात्र है? क्या वह प्रकृति के किसी अनिच्छित क्रिया के अवशेष उच्छिष्ट से बना खिलौना मात्र है? क्या वस्तुतः लक्ष्य हीन, अर्थहीन बेतुका राग मात्र है? क्या उसकी सत्ता आणविक और रासायनिक हलचलों के बनने बिगड़ने वाले संयोगों की परिधि तक ही सीमित है? अथवा वह इससे आगे भी कुछ है?
इन प्रश्नों के सही उत्तर प्राप्त करने के लिये स्ट्रोमबर्ग ने तत्कालीन विज्ञान की दार्शनिक विवेचना करने वाले मनीषियों से भी परामर्श किया। उन्होंने इस सम्बन्ध में एफ.आर. मोस्टन, वास्टर आडम्स, आर्थर एडिंगटन, थामस हैट मार्गन, जान वूदिन, कारेलहूजर, ओ. एल. स्पोसलर आदि प्रख्यात मनीषियों के सामने अपना अंतर्द्वंद्व रखा और जानना चाहा कि विज्ञान सम्मत दर्शन द्वारा क्या मानव चेतना की इतनी ही व्याख्या हो सकती है जितनी कि वह अब तक की गई है। अथवा उससे आगे भी कुछ सोचा जा सकता है।
अपनी जिज्ञासा, तुष्टि, कठिनाई, समीक्षा और विवेचना का एक विचारणीय स्वरूप स्ट्रोमवर्ग के ‘दि सोल आफ युनिवर्स’ ग्रन्थ में है। इस पुस्तिका की भूमिका लिखते हुए आइन्स्टीन ने प्रस्तुत जिज्ञासा की युग चिन्तकों के सामने अति महत्वपूर्ण चुनौती माना है और कहा है हमें किन्हीं पूर्वाग्रहों से प्रभावित हुए बिना सम्भावित सत्य के आधार पर ही इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए।
फ्रायड ने प्रेरणाओं का प्रधान स्रोत ‘काम’ को माना था और उसकी व्याख्या ‘सेक्स’ के रूप में की थी। इसके बाद उन्होंने अपने ही जीवन में उसे यौन लिप्सा से आगे बढ़ाकर कामना इच्छा तथा वासना तक पहुंचा दिया। इसके बाद जुंग और एडलर ने उस काम वृत्ति की व्याख्या कामाध्यात्म के रूप में की और उसे आनन्द, उल्लास सहज सुलभ प्रवृत्ति के साथ जोड़ दिया।
जुंग का कथन है कि आत्मा की अमरता को यद्यपि अभी भी प्रयोगशालाओं में सिद्ध नहीं किया जा सका फिर भी ऐसी अगणित अनुभूतियां मौजूद हैं जो यह बताती हैं कि आदमी मरणधर्मा नहीं है वह मौत के बाद भी जीवित रहता है।
मनःशास्त्र का विकास क्रमिक गति से आगे बढ़ा है। आरम्भ में विज्ञान ने एक जागृत चेतन मन को स्वीकारा था। पीछे अचेतन की खोज की गई। इस अचेतन की भी कई शाखा प्रशाखाएं खोजी गईं। सब कान्शस—अर्ध चेतन और रैशियल अनकान्शस—जातीय अचेतन; इसकी प्रमुख धाराएं इन दिनों सर्वविदित हैं। फ्राइड की कल्पना पर सुपरईगो—उच्चतर अहं और सेन्सर—अंकुश तथ्य छाये रहे। उन्होंने इसे परिधि में मनः शास्त्र की संरचना की है। तब से अब तक पानी बहुत आगे बह गया और मनोविज्ञान ने कितने ही नये-नये रहस्यों का उद्घाटन किया।
जर्मनी के मनःशास्त्री हेन्सावेन्डर ने अतीन्द्रिय क्षमता के अनेकों प्रमाण संग्रह करके यह सिद्ध किया है कि मनुष्य की सूक्ष्म सत्ता उससे कहीं अधिक सम्भावनाओं से भरी पूरी है जैसी कि अब तक जानी जा सकी है। टेलीपैथी के शोधकर्त्ता रेने वार्कोलियर ने मनःचेतना को ज्ञात भौतिकी से ऊपर वाले सिद्धान्तों पर आधारित बताया है। वे कहते हैं—‘‘मन की व्याख्या पदार्थ विज्ञान के प्रचलित सिद्धान्तों के सहारे नहीं हो सकती।’’
विश्व विख्यात लेखक एस.जी. वेल्स ने अपनी पुस्तक ‘‘इन दि डेज आफ दि क्रामेट’’ में यह सम्भावना व्यक्त की है कि निकट भविष्य में मनुष्य का मन और दृष्टिकोण अधिकाधिक परिष्कृत होता चला जायगा। तब मनुष्य में सहृदयता, सहयोग-भावना तथा दूरदर्शिता बढ़ती जायगी। फलस्वरूप समाज का ढांचा और मानवी आचार उपयोगी बन जायगा जिसे अब की अपेक्षा काया-कल्प जैसा कहा जा सके। तब कोई युद्ध का समर्थन न करेगा और चिन्तन की दिशा सहयोग पूर्वक शान्ति एवं प्रगति के लिये प्रयुक्त हो सकने वाले आधारों को ढूंढ़ने के लिये प्रयुक्त होगी।
शंकराचार्य कहते थे स्व और पर का भेद भ्रांति है। हम सब भिन्न दीखते भर हैं वस्तुतः सब एक के सघन सूत्र में पिरोये हुए मनकों की तरह हैं। ईसा कहते थे—‘अपने पड़ौसी को प्यार करो ताकि तुम्हारा विकसित प्यार तुम्हें निहाल कर दे।’ बुद्ध ने कहा था—‘करुणा से बढ़कर मनुष्य के पास और कोई दिव्य सम्पदा नहीं। जो ममता और करुणा से भरा है वही दिव्य है।’
जीव चेतना का लक्ष्य और विकास क्रम का पूर्णत्व इसी स्तर पर विज्ञान को भी पहुंचा देगा जो ऋषियों और तत्वदर्शियों ने बताया था। यदि विज्ञान का उद्देश्य सत्य की खोज है तो उसे आत्मा की वर्तमान स्वीकृति को परमात्मा स्तर प्राप्त करने तक भी पहुंचना होगा। इसके लिये कल न सही परसों सही की प्रतीक्षा की जा सकती है।