Books - मानवी क्षमता असीम अप्रत्यासित
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Language: HINDI
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शरीर ही नहीं मन को भी स्वस्थ रखिये
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शारीरिक स्वास्थ्य की आवश्यकता समझी जा रही है। उसके लिए उपयोगी आहार-विहार अपनाने की चर्चा भी जोरों पर है। इस प्रयोजन के लिए बलवर्धक रोग निवारक औषधियों का अनुसन्धान एवं निर्माण भी तेजी से चल रहा है। यह प्रसन्नता की बात है। अस्पतालों से शारीरिक रोग निवारण में सहायता मिलती है। सर्जरी के विकास ने अत्यन्त विपन्न स्थिति में पड़े हुए लोगों की प्राण रक्षा कर सकना सम्भव बना दिया है। शरीर रक्षा के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, सन्तुलित आहार, उपयोगी व्यायाम, चिकित्सा उपचार की दृष्टि से जो हो रहा है उससे प्रतीत होता है कि आरोग्य का महत्व समझा जा रहा है और उसके लिए सही गलत कुछ न कुछ प्रयत्न भी किया जा रहा है। प्रयत्नशील को आज नहीं तो कल सही दिशा भी मिलेगी और उत्साहपूर्ण प्रयास देर सवेर में अभीष्ट लक्ष्य को बहुत हद तक प्राप्त कर भी लेंगे, ऐसी आशा की जा सकती है।
दुःख इस बात का है कि शरीर से भी उपयोगी मन के आरोग्य की आवश्यकता नहीं समझी जा रही और उसके लिए कुछ कहने लायक प्रयत्न नहीं किया जा रहा। शरीर की दुर्बलता, रुग्णता एवं अकाल मृत्यु का प्रधान कारण मानसिक विकृतियां होती हैं। उन्हीं से प्रेरित होकर मनुष्य विकृत गतिविधियां अपनाता है और शरीर का अपघात करता है। असंयम बरतने के लिए विकृत मन को ही कुकल्पनाएं—विकृत अभिरुचियां प्रेरणाएं देती हैं और शरीर को विवश होकर वैसा करना पड़ता है जिससे आरोग्य का विनाश सामने आ खड़ा हो। असंयम कुरुचिपूर्ण आहार-विहार अपनाने के लिए शरीर नहीं मन ही उछल-कूद मचाता है और उसका दण्ड, मात्र आज्ञा पालन करके दोषी शरीर को उठाना पड़ता है।
स्वास्थ्य पर जितना असर विचारों का पड़ता है उतना और किसी प्रक्रिया का नहीं। अन्न, जल, वायु की शुद्धि एक ओर और मन की अशुद्धि दूसरी ओर रखी जाय तो प्रतीत होगा कि विकृत मन समस्त शरीर सम्वर्धन की उपयुक्तताओं को धूल में मिलाकर काया को आधि-व्याधियों के गर्त में धकेल सकता है धनी और साधन सम्पन्न लोग निर्धनों की अपेक्षा अधिक रुग्ण पाये जाते हैं इसका एकमात्र कारण यही है कि उनकी मानसिक अव्यवस्था ने शरीर पोषण के बड़े-चढ़े साधनों की उपयोगिता झुठला कर रख दी है। इसके विपरीत वनवासी आदिवासी प्रकृति से घोर संघर्ष करते हुए—कष्ट साध्य और अभावग्रस्त जीवन जीते हुए भी जब निरोग, परिपुष्ट और दीर्घजीवी देखे जाते हैं उसका विवेचन इसी निष्कर्ष पर पहुंचता है कि मानसिक सन्तुलन बनाये रहने वाले—शरीर पोषण की सुविधा न होने पर भी बलिष्ठ रह सकते हैं। समग्र स्वास्थ्य रक्षा में जितना योगदान शरीर सम्बन्धी सुव्यवस्थाओं का है उससे हजार गुना प्रभाव मनःस्थिति का होता है। मनुष्य के सुख-दुख बहुत करके स्वास्थ्य एवं धन वैभव पर टिके हुए नहीं होते वरन् उनकी नींव दृष्टिकोण एवं विचार संस्थान के ऊपर रखी होती है। वैभववान नहीं विचारवान ही सुखी हो सकते हैं। विचार विकृति से बढ़कर और कोई शत्रु नहीं। इस शत्रु की पटकें इतनी भयावह होता है कि व्यक्तित्व को बुरी तरह तोड़-मरोड़ कर रख देती हैं और मनुष्य मनोविकारों की उलझनों से जकड़ा हुआ नारकीय आग में हर घड़ी जलता रहता है।
शरीर दीखता है—मन दीखता नहीं। इसलिए लोग शरीर के लिए बहुत दौड़−धूप करते हैं। समय, ध्यान और धन लगाते हैं। मन दीखता नहीं इसलिए उसे सम्भालने, सुधारने की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। कुसंस्कारी मन, रुग्ण शरीर की अपेक्षा अधिक कष्टकारक है, इस तथ्य को लगता है एक प्रकार से भुला ही दिया गया है। यदि ऐसा न होता तो जनमानस के परिष्कार पर भी ध्यान दिया जाता और आरोग्य रक्षा के जितने प्रयत्न हो रहे हैं उसकी तुलना में उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए मानसिक समस्वरता स्थापित करने के लिए हजार गुने प्रयत्न होते दिखाई पड़ते। पर वैसा कुछ हो नहीं रहा है, उसे देखते हुए लगता है, स्वास्थ्य रक्षा के एक पक्षीय प्रयत्नों में लगा हुआ मनुष्य उसके दूसरे पक्ष को भूल बैठा है और आधि-व्याधि की अनेकानेक यातनाएं सह रहा है।
मनःशास्त्री राबर्ट एस.डी. रोप के अनुसार सुविकसित कहे जाने वाले देशों में क्षय, हृदय रोग, अनिद्रा, मधुमेह और केन्सर इन पांच रोगों की बाढ़ आ रही है; इनसे आक्रांत रोगियों से अस्पताल भरे पड़े ओर निजी डाक्टरों को अहर्निशि व्यस्त रहना पड़ रहा है। यह प्रकट पक्ष। अप्रकट पक्ष मानसिक रोगियों का है। शरीर रोगियों की सम्मिलित संख्या की अपेक्षा मानसिक रोगियों की संख्या कई गुनी अधिक है। मानसिक अस्पतालों का जितना प्रबन्ध हो सका है उसकी तुलना में अभी हजारों गुने अस्पतालों की जरूरत पड़ेगी ताकि विक्षिप्त और अर्धविक्षिप्तों को चिकित्सा का आश्रय मिल सके। ऐसे लोग जो वस्तुतः मानसिक रोगी हैं अपनी आजीविका किसी प्रकार चलाते रहते हैं उनके बारे में कोई ध्यान भी नहीं दिया जाता। इस सबकी गणना की जा सके और उसके द्वारा होने वाली व्यैक्तिक एवं सामाजिक क्षति का अनुमान लगाया जा सके तो प्रतीत होगा कि मानवी प्रगति और सुख-शांति में सबसे बड़ा व्यवधान मानसिक विकृतियों ने ही उत्पन्न किया है। दुख इस बात का है कि संसार की इतनी अहम् समस्या को उपेक्षा के गर्त में डाल दिया गया है और तुलनात्मक दृष्टि से कहीं अधिक कम महत्व की समस्या—शारीरिक स्वास्थ्य को अधिक महत्व मिल गया है। अकेले अमेरिका में 95 लाख मनुष्य मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों से ग्रसित कूते गये हैं। उनमें से अस्पतालों में नियमित उपचार तीन लाख ही करा पाते हैं। शेष या तो इधर-उधर भटकते हैं या फिर अपनी स्थिति की वास्तविकता न समझ कर साथियों पर दोषारोपण करते हुए बकझक करते-मरते-मारते, रोते-कलपते—आवेश उद्वेगों से संतप्त रहते दिन काटते हैं।
ऐसे लोग या तो झगड़ालू, विद्वेषी बन जाते हैं या फिर दुखी, चिन्तित, भयभीत देखे जाते हैं। साधारण मनुष्यों की तरह उन्हें शान्त, सन्तुलित कदाचित ही कभी देखा जायगा। उन्हें हलकी-फुलकी, संतोष, सन्तुलन एवं प्रसन्नता की स्थिति में कभी-कभी ही देखा जा सकता है, अन्यथा वे स्वयं उद्विग्न, संतप्त बने हुए आक्रोश ग्रसित ही बने रहते हैं। अपनी तनिक-सी कठिनाइयों को पहाड़ जैसी बताकर—जिस-तिस से सहानुभूति की याचना करने की भूमिका बनाते हुए देखा जा सकता है। उनकी छुटपुट की बातें ऐसे लोगों के साथ होती हैं जो उनकी सहायता कुछ भी नहीं कर सकते हैं। उपयोगी अनुपयोगी का—अपने पराये का वे ठीक से वर्गीकरण नहीं कर पाते। निरर्थक लोगों से मित्रता जोड़ने और मित्रों से नाता तोड़ने की हरकतें, करते हुए देखा जा सकता है। वस्तुतः उनकी निर्णयात्मक अक्षमता उन्हें इस स्थिति में छोड़ती ही नहीं कि किसी सही निष्कर्ष पर पहुंच सकें। देखने में अच्छे खासे लगते हुए—उद्योग आजीविका चलाते हुए उनकी आन्तरिक स्थिति बहुत ही दयनीय होती है। न चैन से बैठते हैं न साथियों को चैन से बैठने देते हैं। रूठते, रोते या दोष आक्रोश से ग्रस्त उनकी विचित्र मुद्राएं घर के लोगों को भयभीत किये रहती हैं। न जाने कब क्या ‘मूड़’ उठ खड़ा हो और क्या से क्या सोचने लगे उस आशंका से घर के लोग चिन्तित और हैरान बने रहते हैं। मित्र तो उनका कोई होता नहीं। जिन्हें वे मित्र समझते हैं वे भी उस ‘बवाल’ से बचने के लिए कन्नी काटते हैं।
यह कुछ लक्षण कुछ स्थितियों के हैं। इससे न्यूनाधिक—अपने-अपने ढंग की विचित्रतायें और विलक्षणतायें मानसिक रोगियों में पाई जाती हैं। कम समय के लिए सम्पर्क में आने वालों को भी कुछ पता नहीं चलता। आफत उन पर छाई रहती है जो निकट सम्पर्क में रहते हैं। वे दया के पात्र बनकर ही जी पाते हैं। उपेक्षा पूर्वक किसी सराय में दिन काटते उन्हें देखा जा सकता है। उद्विग्नता से उनका शारीरिक स्वास्थ्य जर्जर बन जाता है और पैसे का सही उपयोग न कर पाने के कारण दरिद्रता ग्रसित भी रहती हैं। मित्रों का अभाव-निन्दकों का बाहुल्य उन्हें खीज से कभी उबरने ही नहीं देता।
यह रोग तेजी से बढ़ रहा है। अमेरिका में इसका पूर्ण प्रकोप है। योरोप के धनी देशों की जनता पर भी इस व्यथा के पंजे कसते जा रहे हैं। यह तथ्य इसलिए प्रकट होता है कि वहां इन बातों की खोज-बीन की जाती रहती है। सम्भवतः पिछड़े देशों की स्थिति और भी अधिक दयनीय होगी, क्योंकि वहां की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां अपेक्षाकृत अधिक असुविधाजनक हैं और उनसे उत्तेजना पाकर दुर्बल मनःसंस्थान अधिक विकृत हो सकता है। अपराधों की वृद्धि में द्वेष अथवा लोभ प्रधान कारण नहीं होता। अधिकतर विक्षिप्तता ग्रस्त व्यक्ति ही अपराधी बनते हैं। आवेश ग्रस्त स्थिति उन्हें उच्छृंखलता अपनाने और कुकृत्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है। उसके साथ लालच की कल्पना जुड़ जाने से मन और भी अधिक पक्का हो जाता है।
कुछ समय पूर्व चिन्ताजनक स्थिति तक पहुंचे हुए मानसिक रोगियों के रक्त में से शकर की कमी करके मस्तिष्क को सुस्त बनाया जाता था और उसके लिए ‘इस्सुलीन कोमा’ का प्रयोग होता था अब उसका स्थान सुधरे हुये ‘इलेक्ट्रो कन्वल्सिव’ उपचार ने ले लिया है, घिसी-पिटी दवायें—केसर पाइन, क्लरोरी प्रोमाजाइन—मेट्राजोल—कार्डिया जोल ही अभी तक चल रही हैं। इनसे एक प्रकार की तन्द्रा आती है और ढर्रे की आदत का घूमता हुआ चक्र तोड़ने में सहायता मिलती है। इससे तात्कालिक सहायता के रूप में हलकापन तो दृष्टिगोचर होता है—पर जड़ कटने वाली कारगर सफलता दृष्टिगोचर नहीं होती है।
मनःशास्त्र क्षेत्र में आज के मूर्धन्य विज्ञानी डॉ. विलियम रेले का कथन है—मानसिक रोगों के तात्कालिक उपचार खोजने के साथ-साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि यह विक्षिप्तता की बाढ़ किन कारणों से आ रही है। उन कारणों पर गहराई से विचार करने पर यह तथ्य सामने आते हैं कि आज की सामाजिक परिस्थिति और वैयक्तिक मनःस्थिति में विकृतियों का इतना अधिक समावेश हो गया है कि शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन स्थिर रह नहीं सकता। चिकित्सकों की उपचार पद्धति इसके लिए पर्याप्त नहीं, आवश्यकता इस बात की भी है कि समाज व्यवस्था और व्यक्ति की चरित्र निष्ठा में ऐसे सुधार किये जायें जिनमें शान्ति पूर्ण और हंसी-खुशी का जीवनयापन सम्भव हो सके। मानसिक रोगों से आत्यंतिक मुक्ति उस स्थिति में ही सम्भव बनाई जा सकती है।
शरीर व मन के साथ अनीति न बरतें
सोचने का तरीका विकृत हो जाने पर सामान्य परिस्थितियां भी प्रतिकूल दिखाई पड़ती हैं और उनसे डरा, घबराया हुआ व्यक्ति अपना सन्तुलन गंवा बैठता है। झाड़ी का भूत बन जाना, रस्सी का सर्प दिखाई पड़ना, भ्रम की प्रतिक्रिया को प्रत्यक्ष कर देता है। प्रतिकूलतायें वस्तुतः उतनी होती नहीं जितनी कि समझी जाती है। मनुष्य हर स्थिति में गुजारा कर सकने योग्य शरीर और हर परिस्थिति में मुसकराते रह सकने योग्य मन लेकर जन्मा है। इनकी मूल-संरचना में कोई दोष नहीं है। शरीर ‘व्याधि’ से और मन ‘आधि’ से यदि ग्रसित होता है तो उन विपत्तियों का कारण अपनी ही भूल होती है। असंयम हमें रुग्ण बनाता है और असन्तुलन से हम अर्धविक्षिप्त दिखाई पड़ते हैं। शरीर के साथ अनीति बरती जाय तो वह देर सवेर में रुग्ण होकर रहेगा। कमजोरी और बीमारी उसे धर दबोचेंगी और रोती, कराहती स्थिति में घसीट ले जायेंगी। मस्तिष्क के साथ यदि अनीति बरती गई है उसे कुसंस्कारी चिन्तन का अभ्यासी बनाया गया है तो या तो परिस्थिति पैदा कर लेगा या फिर सामान्य स्थिति में ही विपरीतता का आरोपण करके विक्षुब्ध रहने लगेगा। इस विक्षुब्धता को ही मानसिक रुग्णता कहा जाता है।
इन दिनों शारीरिक रोग भी बेतरह बढ़ रहे हैं। नई-नई किस्म के—नई-नई आकृति-प्रकृति के रोग हर साल उठ खड़े होते हैं और डॉक्टर उनका अता-पता चलाने एवं उपचार खोजने में नित नई परेशानी अनुभव करते हैं। पुराने जमाने के परिचित रोगों की भी अब इतनी अधिक शाखा-प्रशाखायें फूट पड़ी हैं कि उन्हें नये रोग की संज्ञा देने में भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मानसिक रोगों की बढ़ोतरी इससे भी अधिक तेज और भयंकर है। जिस तरह पूर्ण स्वस्थ कहे जा सकने योग्य शरीर कठिनाई से ही ढूंढ़े मिलेंगे, उसी तरह ऐसे मनुष्य कदाचित ही मिलेंगे जिनका मस्तिष्क मानसिक रोगों के कारण विकृत, जर्जर बना हुआ न हो। आज की बढ़ी हुई अनैतिकता एवं असामाजिकता ऐसी समस्यायें उत्पन्न करती हैं जिससे सामान्य मनोबल का व्यक्ति सहज ही विक्षिप्त हो उठता है। घटा, गिरा मनोबल भी इतना अपंग हो चला है कि सीधे-सीधे सरल स्वाभाविक-मनुष्य जीवन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई अनुकूलता, प्रतिकूलताओं को विपत्ति मान बैठता है और रो-धो कर जमीन, आसमान को सिर पर उठा लेता है। कभी सचमुच ही ऐसी घटनाएं घटित होती हैं जिन्हें असाधारण या अप्रत्याशित कहा जा सके। शौर्य-साहस के सहारे इनका सामना किया जा सकता है। जूझने से हर विपत्ति हलकी पड़ती है। यदि कुछ विपत्ति आ ही जाय तो उसे सन्तुलन बनाये रखकर सहा जा सकता है। संकट को हलका मानने से वह बहुत कुछ हलका पड़ जाता है और यदि असह्य मान लिया जाता है तो उसका वजन पर्वत से भी भारी हो जाता है। सामान्य बुद्धि के लोग परिस्थितियों को ही सुख-दुख का कारण मानते हैं और यह भूल जाते हैं कि मान्यताओं की जादुई शक्ति कितनी अद्भुत है। मामूली-सी बात असह्य संकट के रूप में दीखना और सचमुच ही किसी बड़ी विपत्ति का आक्रमण मामूली ही विपरीतता भर लगाना अपने चिन्तन की ही दो चमत्कारी दिशाएं हैं। इनमें से किसी को भी अपनाया जा सकता है और सन्तुलन को बनाये रह सकना या गंवा बैठना सम्भव हो सकता है।
परिस्थितियों के साथ चिन्तन का उपयुक्त तालमेल न बिठा सकने के कारण अब असंख्य व्यक्ति मासिक रोगों से ग्रसित होते चले आ रहे हैं। यह अवांछनीयता महामारी की तरह—आंधी, तूफान की तरह बढ़ रही है और लगता है कि स्वस्थ और सन्तुलित मस्तिष्क वाले व्यक्ति अगले दिनों ढूंढ़ पाना कठिन हो जायगा।
शरीर की तुलना में मन का मूल्य हजारों गुना अधिक है। उसी प्रकार शरीर—रोगों की तुलना में मानसिक रोगों की क्षति अत्यधिक है। शरीर रोगी रहे किन्तु मस्तिष्क स्वस्थ हो तो मनुष्य अनेकों मानसिक पुरुषार्थ कर सकता है किन्तु यदि मस्तिष्क विकृत हो जाय तो शरीर के पूर्ण स्वस्थ होने पर भी सब कुछ निरर्थक बन जायगा।
इन दिनों मानसिक रोगों की बाढ़ जिस तूफानी गति से आ रही है—दावानल की तरह बढ़ती, धधकती चली जा रही है उसे देखते हुए लगता है मनुष्य जीवन से उसका सहज सुलभ आनन्द छिनने ही जा रहा है। यह स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है। सनकी, वहमी, शेखचिल्ली, उद्विग्न, क्रुद्ध, रुष्ट, असन्तुष्ट, आशंकाग्रस्त, चिन्तित, निराश, भयभीत, उदासीन व्यक्ति क्रमशः अपने लिए भार बनते चले जाते हैं। उनके मस्तिष्क में ऐसे चक्रवात उठते रहते हैं जो सोचने की स्वस्थ शैली को बेतरह तोड़-मरोड़कर रख देते हैं। टूटी हुई मनःस्थिति में तथ्य को समझना सम्भव नहीं रहता। कुछ के बदले कुछ समझ सकना और कुछ करने के स्थान पर कुछ करने लगना ऐसी स्थिति विपत्ति है जिसके कारण मनुष्य अर्ध विक्षिप्त स्थिति में चला जाता है। अपने आपके लिए तथा दूसरों के लिये एक समस्या बन जाता है।
बढ़ते हुए मनोरोगों से क्रमशः सारा मनुष्य समाज जकड़ता चला जा रहा है। सन्तोष इतना ही है कि यह विपत्ति पूर्ण उन्माद की स्थिति तक नहीं पहुंची है। मस्तिष्क के छोटे-छोटे हिस्सों पर ही उसने आधिपत्य जमाया है और लोग अर्धविक्षिप्त जैसे ही दिखाई पड़ते हैं। जो सही नहीं सोच सकता, सही निष्कर्ष नहीं निकाल सकता और साधनों का उपयोग करने एवं परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने में समर्थ नहीं है उसे मानसिक दृष्टि से रोगी ही कहा जायगा। ऐसे व्यक्ति दर्द से कराहते भले ही न हों पर उनकी जीवन सम्पदा एक प्रकार से कूड़ा-करकट ही बन जाती है न वे स्वयं चैन से रहते हैं और न साथियों को चैन से रहने देते हैं। इन दिनों कुछ मानसिक रोगों की तो भरमार ही हो चली है।
मनुष्य की अनेकानेक मनोवृत्तियों का विवेचन, विश्लेषण और वर्गीकरण करते हुए मनःशास्त्री प्रो. शेल्डि के अनुसार उनकी मूलतः दो धाराएं बताई हैं एक प्रिय दूसरी अप्रिय। एक सुख दूसरी दुख। इन दोनों का परिस्थितियों से कम और मान्यताओं से अधिक सम्बन्ध होता है। कौन व्यक्ति किस स्थिति में दुख और किस में सुख अनुभव करता है यह उसका अपना इच्छित विषय है। एक व्यक्ति जिस स्थिति में दुखी रहता और उससे अच्छी स्थिति न मिलने के कारण असन्तोष व्यक्त करता है उसी में दूसरे लोग बहुत प्रसन्न रहते हैं। इतना ही नहीं कितनेक व्यक्ति उसे प्राप्त करके आनन्द विभोर हो सकते हैं जिसमें कि असन्तुष्ट व्यक्ति अपने को दुःखी अनुभव कर रहा है। ज्वर, दर्द आदि कष्ट और भूख-प्यास, सर्दी, गर्मी जैसे अभाव प्रायः सभी को दुख देते हैं पर इन दुखों में भी भयंकर विपत्ति अथवा सामयिक समस्या की छोटी-सी झलक मान लेने पर उनका कष्ट हलका और भारी हो सकता है। इस प्रकार की कठिनाइयां थोड़ी ही होती हैं। वस्तुतः अधिकांश सुख और दुख काल्पनिक होते हैं। वे मान्यताओं और इच्छाओं से सम्बन्ध रखते हैं। सोचने का तरीका बदला जा सकता है। और दुख सुख की, प्रसन्नता-अप्रसन्नता की, सन्तोष-असन्तोष की स्थिति में आमूलचूल नहीं तो अत्यधिक परिवर्तन अवश्य ही किया जा सकता है।
एडवर्ड कारपेन्टर का कथन है—‘दुख की मान्यता वस्तुतः मन की पराधीनता प्रकट करती है।’ मन की स्वाधीनता मिलने पर वह सहज ही समाप्त हो जाती है बाहरी व्यक्ति या बाहरी पदार्थ हमें बहुत ही कम सहायता कर सकते हैं या सुख दे सकते हैं। उनके योग दान का न्यून या अधिक मूल्यांकन करके ही हम प्रसन्नता, अप्रसन्नता अनुभव करते हैं; यदि अनुभूति की प्रक्रिया में परिवर्तन कर लिया जाय। अपने सद्गुणों और सत्प्रयत्नों को ही सफलता मान लिया जाय और उतने ही क्षेत्र में प्रसन्नता को केन्द्रित कर लिया जाय तो प्रायः हर स्थिति में प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रहने का अवसर मिल सकता है। मन की स्वाधीनता का यही प्रत्यक्ष प्रतिफल है। व्यक्तियों, वस्तुओं या पदार्थों पर अपनी प्रसन्नता को निर्भर बना देना मानसिक पराधीनता है उस स्थिति में कोई न तो सुखी रह सकता है और न सन्तुष्ट।
दार्शनिक स्पिनीजा भी यही कहा करते थे, उनने अपने दर्शन में इसे मौलिक सत्य माना है कि ‘‘विक्षुब्ध मनःस्थिति, मानसिक पराधीनता की ही अवस्था है स्वावलम्बन की स्थिति में कोई उद्वेग ठहर ही नहीं सकता।
हमें किन किन वस्तुओं का अभाव है, किन-किन व्यक्तियों ने कब-कब, क्या-क्या दुर्व्यवहार किया, अब तक कितनी बार असफलतायें मिलीं और हानियां उठानी पड़ी इसका लेखा-जोखा लेते रहा जाय तो कोई भी मनुष्य अपने आपको दुख दुर्भाग्य से ग्रसित अनुभव करेगा किन्तु यदि वही अपने उपलब्ध साधनों की बहुलता, दूसरों के सहयोग-सद्भाव एवं समय-समय पर मिली सफलताओं की लिस्ट तैयार करने लगे तो प्रतीत होगा कि वह जन्म जात वरदान लेकर सुख और सफलताओं के लिए ही पैदा हुआ है। चिन्तन की विकृति का नाम ही दुख है इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं है।
वियना के पोलोक्लिनिक अस्पताल में मानसिक चिकित्सा के विशेषज्ञ डॉ. विक्टर ई. फ्रेंक्ल ने अपने 50 वर्षों के चिकित्सा अनुभवों का सार बताते हुए लिखा है—‘जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि उसका जीवन निरर्थक है। उसका मन और शरीर कभी स्वस्थ न रहेगा। सार्थकता की अनुभूति न होने पर मनुष्य जिन्दगी को लाश की तरह ढोता है और उस नीरस निरानन्द स्थिति में सचमुच ही जीवन बहुत भारी पड़ता है। उस दबाव से इतनी थकान आती है कि कुछ करते-धरते नहीं बनता। हारा थका आदमी धीरे-धीरे गिरता घुलता जाता है और मरण को निकट बुलाने वाली बीमारियों को निमन्त्रण देकर स्वेच्छा संकल्प के आधार पर कष्ट ग्रसित रहने लगता है।
स्काटलेण्ड के मनोरोग चिकित्सक डा. रोनाल्ड डैकिटलेंज ने मनुष्य के मानसिक रोग ग्रसित होने के कारण और उनके निवारण के उपाय बताने के सन्दर्भ में दो बड़े ग्रन्थ लिखे हैं—(1) दि पालिटिक्स आफ एक्सपिरियन्स और (2) दि पालिटिक्स आफ फैमिली इन दोनों में उसने समाज की वर्तमान परिस्थितियों की भर्त्सना करते हुए कहा इनमें जकड़े रहने पर मनुष्य को मानसिक रोगों का शिकार होते रहना पड़ेगा और सहज स्वाभाविक रीति से व्यक्तित्व का विकास कर सकना उसके लिए सम्भव न होगा सामान्य व्यवहार में वे कूटनीतिक चालबाजी की दुर्गन्ध देखते हैं, और कहते हैं, मनुष्य को दबा, सता कर बाधित नहीं किया जाना चाहिए उसे प्रत्येक क्षेत्र में अपने विवेक को विकसित करने का अवसर मिलना चाहिए।
समर्थ वर्ग को अधिक सुविधा देने वाली और असमर्थ वर्ग को यथा स्थान बने रहने की नीति ने वर्तमान कानूनों एवं परम्पराओं का सृजन किया है। इस असन्तुलन ने एक पक्ष को उद्धत और दूसरे को भौतिक दृष्टि से दीन और आत्मिक दृष्टि से हीन बनाया है। वस्तु दोनों ही पक्षों में अपने-अपने ढंग के मानसिक रोग उत्पन्न हुए हैं। यदि हर किसी को लगभग समान अवसर मिले होते और अनावश्यक बंधन न जकड़े गये होते तो लोग मानसिक दृष्टि से प्रसन्नता एवं सन्तोष अनुभव करते। तदनुसार वे शारीरिक दृष्टि से भी स्वस्थ रहते और आर्थिक पारिवारिक और सामाजिक स्थिति में भी सुसम्पन्नता दृष्टिगोचर होती।
अत्यधिक हताश व्यक्ति कभी एक तरह की, कभी दूसरे तरह की गड़बड़ियां करते रहते हैं। इन हरकतों को प्रेरणा देने वाली मनोवृत्ति को, ‘एजीटेटेड डिप्रेसिव साइकोसिस’ कहा जाता है। न्यूरोटिक डिप्रेशन अथवा साइकोटिक डिप्रेशन उस स्थिति का नाम है जिसमें निराशा छाई रहती है, चित्त उदास और खिन्न रहता है। कुछ नया सोचने या नया करने को जी नहीं करता। चुपचाप बैठे या पड़े रहना, एक ही सीमित विचार में निमग्न रहना इन रोगियों को पसन्द होता है। ये न कुछ चाहते हैं, न कुछ कहते हैं, न करते हैं। किसी प्रकार दिन काटते रहना ही उनके लिए पर्याप्त है।
मेनिक डिप्रेशन और एण्डोजेनिक डिप्रेशन की स्थिति में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं कभी उत्तेजना कभी निष्क्रियता। कुछ दिन या कुछ समय वे सक्रिय दीखते हैं, किन्तु फिर ऐसा कुछ हो जाता है कि जो किया था, या सोचा था उसे जहां का तहां छोड़कर फिर ठप्प हो जाते हैं। आलोड़ित हताश, एजीटेटेड डिप्रेशन, ग्रसित रोगियों की स्थिति एक जैसी नहीं रहती। उनकी चित्र-विचित्र हरकतें अदालती-बदलती रहती हैं, कभी मूड एक तरह का होता है, तो कभी दूसरी तरह का।
बड़ी-बड़ी आशायें बांधने वाले, किन्तु परिस्थितिवश वैसे बन न सकने वाले लोग यदि अधीर और भावुक प्रकृति के हैं तो उन पर उस असन्तोष का गहरा असर पड़ता है। उन्हें अमुक व्यक्तियों या अमुक परिस्थितियों से बहुत शिकायत होती है, जिनके कारण वे अपना खेल बिगड़ा मानते हैं। कभी-कभी तो अपने भाग्य या प्रयत्न को भी वे दोष देते हैं, पर अधिकतर उनकी खीज दूसरों पर रहती है। वे सोचते हैं उनके प्रयत्न पर्याप्त थे, उनकी योग्यता कम नहीं थी, किन्तु दूसरों ने उन्हें गिरा या हरा दिया। इन दूसरों की पंक्ति बहुत लम्बी होती है, इसमें ग्रह नक्षत्र, भाग्य विधान से लेकर दोस्त-दुश्मन, परिचित-अपरिचित सभी आ सकते हैं। वे किसी को भी, किन्हीं को भी, उस असफलता का कारण मान सकते हैं। यह मान्यता आरम्भ में खीज, झुंझलाहट, द्वेष, क्रोध आदि के रूप में प्रकट होती है, पर इससे भी जब कुछ बनता नहीं दीखता, तो वह व्यक्ति अपने को दीन-हीन असहाय और असमर्थ मानकर प्रयत्न छोड़ बैठता है, पूछताछ करने पर शिकायतें करने के अतिरिक्त और उसके पास कुछ नहीं होता। दोषारोपण के विचार मस्तिष्क को इतना आच्छादित कर लेते हैं कि कुछ और सोचने की उसमें गुंजाइश ही नहीं रहती।
दूसरों की तुलना में अपने को हेय या हीन समझने की स्थिति भी कितनों को ही मानसिक रोगों का मरीज बना देती है। कुरूपता, मंदबुद्धि, गरीबी, किसी भूल के कारण स्थायी घृणा, अपमान, छूत रोग, लोकनिन्दा आदि कारणों से कितने ही व्यक्ति अपने को हेय स्थिति में पाते हैं और एम्प्यूटेशन से ग्रसित होकर रुग्ण संज्ञा में गिने जाने योग्य बन जाते हैं। वे कभी विरक्ति की बात सोचते हैं, कभी आत्म-हत्या की। आत्म-हीनता की ग्रन्थि में बंधकर या तो वे घोर दब्बू हो जाते हैं या सिर ‘ऐंजाइटी टेंशन’ उन्हें तोड़-फोड़ करते रहने में लगा देते हैं।
प्रैक्टिस आफ नैचरोपैथी ग्रन्थ के लेखक डॉक्टर लिड लेहर ने कितने ही प्रमाण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि ‘क्षय’ वस्तुतः शारीरिक नहीं मानसिक रोग है। आत्म-ग्लानि की भावनाओं से पीड़ित मनुष्य ही बहुत करके यक्ष्मा के शिकार बनते हैं। उनमें से अधिकांश ऐसे असन्तुष्ट व्यक्ति होते हैं जिन्हें जिन्दगी नीरस और भारी पड़ रही होती है उनकी अन्तःचेतना इस स्थिति से ऊबकर किसी ऐसी विपत्ति को आमन्त्रित करती है जो इस अवांछनीय स्थिति से छुटकारा दिला सके। इस आमन्त्रण को पाकर क्षय जैसे मृत्यु दूत सामने आ खड़े होते हैं।
अन्तरावरोध और अंतर्द्वंद्व बढ़ते-बढ़ते ‘शिजोफ्रेनिया’ बन जाता है। बुद्धि और विवेक के सहारे उचित और अनुचित का भेद करके उसमें से जो उपयुक्त है उसे स्वीकार कर लेना और जो अनुपयुक्त है उसे हटा देना साधारण नियम है। इसी क्रम से सामान्य जीवनचर्या चलती है। किन्तु कभी-कभी दो सर्वथा विपरीत पक्षों को मान्यता देने की स्थिति भी देखी गई है। एक ओर यह विचार उठता है कि इसे करेंगे फिर विपरीत पक्ष उठता है नहीं करेंगे। विवेक कुण्ठित हो जाता है और दोनों प्रतिपक्षी मान्यतायें समान रूप से मस्तिष्क पर हावी रहती हैं। न किसी को जोड़ते बनता है और न अपनाते। दोनों में मल्लयुद्ध होता है और उनका अखाड़ा विचार बुद्धि से आगे बढ़कर अन्तःचेतना के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है यही अन्तरावरोध या अंतर्द्वंद्व है। इस मानसिक विषमता से घिरे मनुष्य की आन्तरिक स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे दो सांड़ों के लड़ने के क्षेत्र में उगे हुए पौधे कुचल कर चकनाचूर हो जाते हैं और ऊबड़-खाबड़ निशान बन जाते हैं।
शिजोफ्रेनिया का रोगी बात-बात में दुटप्पी बात करता है। उसकी नीति दोगली होती है और गतिविधियां दुरंगी। अभी वह एक बात का समर्थन कर रहा था अभी उसी का खण्डन करने लगा। अभी सहमत था, अभी असहमत हो गया। अभी तीव्र इच्छा प्रकट की जा रही थी अभी अनिच्छा घोषित कर दी गई। साथी लोग हैरान रहते हैं कि उसका किस प्रकार विश्वास करें और उससे क्या आशा रखें। ऐसे व्यक्तियों के दैनिक व्यवहार में भी ऐसे विचित्र परिवर्तन होते हैं कि उनका निर्वाह करने से जिनका सम्बन्ध है वे असमंजस में पड़े रहते हैं। नीतियां, रुचियां, योजनाएं बदलते रहने से वे स्वयं किसी प्रयत्न की न तो जड़ जमा पाते हैं और न किसी बात में सफल हो पाते हैं। आधे अधूरे कामों का और विपरीत विचारों का चित्र-विचित्र, लेखा-जोखा देखते हुए उन्हें अस्थिर मति एवं विचित्र व्यक्ति ही कहा जा सकता है। इस स्थिति में वे स्वयं ही लज्जा एवं ग्लानि अनुभव करते हैं, पर विवशता उन्हें उबरने नहीं देती। दूसरों की खीझ और भर्त्सना से वे परिचित होते हैं, पर अंतर्द्वंद्वों में से कोई बुखार की तरह उन पर चढ़ बैठता है और वे किसी बाज के पंखों में फंसे चूहे की तरह कहीं से कहीं उड़ते चले जाते हैं।
केटाटोनिक शिजोफ्रेनिया, सिम्पल शिजोफ्रेनिया आदि इस मनोरोग के कितने ही भेद-प्रभेद हैं। जिनमें मनुष्य का प्रेम और द्वेष ज्वार-भाटे की तरह चढ़ता उतरता है। उत्साह और अपवाद चरम-सीमा पर पहुंचता है। हर्ष-शोक के झूले में झूलते हुए और विपरीत स्तर की बातें सोचते, कहते, करते उसे देखा जा सकता है। इस अस्थिरता के कारण दूसरे लोग उसे ठीक तरह समझ ही नहीं पाते कि आखिर वह क्या है—क्या करना चाहता है।
दुःख इस बात का है कि शरीर से भी उपयोगी मन के आरोग्य की आवश्यकता नहीं समझी जा रही और उसके लिए कुछ कहने लायक प्रयत्न नहीं किया जा रहा। शरीर की दुर्बलता, रुग्णता एवं अकाल मृत्यु का प्रधान कारण मानसिक विकृतियां होती हैं। उन्हीं से प्रेरित होकर मनुष्य विकृत गतिविधियां अपनाता है और शरीर का अपघात करता है। असंयम बरतने के लिए विकृत मन को ही कुकल्पनाएं—विकृत अभिरुचियां प्रेरणाएं देती हैं और शरीर को विवश होकर वैसा करना पड़ता है जिससे आरोग्य का विनाश सामने आ खड़ा हो। असंयम कुरुचिपूर्ण आहार-विहार अपनाने के लिए शरीर नहीं मन ही उछल-कूद मचाता है और उसका दण्ड, मात्र आज्ञा पालन करके दोषी शरीर को उठाना पड़ता है।
स्वास्थ्य पर जितना असर विचारों का पड़ता है उतना और किसी प्रक्रिया का नहीं। अन्न, जल, वायु की शुद्धि एक ओर और मन की अशुद्धि दूसरी ओर रखी जाय तो प्रतीत होगा कि विकृत मन समस्त शरीर सम्वर्धन की उपयुक्तताओं को धूल में मिलाकर काया को आधि-व्याधियों के गर्त में धकेल सकता है धनी और साधन सम्पन्न लोग निर्धनों की अपेक्षा अधिक रुग्ण पाये जाते हैं इसका एकमात्र कारण यही है कि उनकी मानसिक अव्यवस्था ने शरीर पोषण के बड़े-चढ़े साधनों की उपयोगिता झुठला कर रख दी है। इसके विपरीत वनवासी आदिवासी प्रकृति से घोर संघर्ष करते हुए—कष्ट साध्य और अभावग्रस्त जीवन जीते हुए भी जब निरोग, परिपुष्ट और दीर्घजीवी देखे जाते हैं उसका विवेचन इसी निष्कर्ष पर पहुंचता है कि मानसिक सन्तुलन बनाये रहने वाले—शरीर पोषण की सुविधा न होने पर भी बलिष्ठ रह सकते हैं। समग्र स्वास्थ्य रक्षा में जितना योगदान शरीर सम्बन्धी सुव्यवस्थाओं का है उससे हजार गुना प्रभाव मनःस्थिति का होता है। मनुष्य के सुख-दुख बहुत करके स्वास्थ्य एवं धन वैभव पर टिके हुए नहीं होते वरन् उनकी नींव दृष्टिकोण एवं विचार संस्थान के ऊपर रखी होती है। वैभववान नहीं विचारवान ही सुखी हो सकते हैं। विचार विकृति से बढ़कर और कोई शत्रु नहीं। इस शत्रु की पटकें इतनी भयावह होता है कि व्यक्तित्व को बुरी तरह तोड़-मरोड़ कर रख देती हैं और मनुष्य मनोविकारों की उलझनों से जकड़ा हुआ नारकीय आग में हर घड़ी जलता रहता है।
शरीर दीखता है—मन दीखता नहीं। इसलिए लोग शरीर के लिए बहुत दौड़−धूप करते हैं। समय, ध्यान और धन लगाते हैं। मन दीखता नहीं इसलिए उसे सम्भालने, सुधारने की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। कुसंस्कारी मन, रुग्ण शरीर की अपेक्षा अधिक कष्टकारक है, इस तथ्य को लगता है एक प्रकार से भुला ही दिया गया है। यदि ऐसा न होता तो जनमानस के परिष्कार पर भी ध्यान दिया जाता और आरोग्य रक्षा के जितने प्रयत्न हो रहे हैं उसकी तुलना में उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए मानसिक समस्वरता स्थापित करने के लिए हजार गुने प्रयत्न होते दिखाई पड़ते। पर वैसा कुछ हो नहीं रहा है, उसे देखते हुए लगता है, स्वास्थ्य रक्षा के एक पक्षीय प्रयत्नों में लगा हुआ मनुष्य उसके दूसरे पक्ष को भूल बैठा है और आधि-व्याधि की अनेकानेक यातनाएं सह रहा है।
मनःशास्त्री राबर्ट एस.डी. रोप के अनुसार सुविकसित कहे जाने वाले देशों में क्षय, हृदय रोग, अनिद्रा, मधुमेह और केन्सर इन पांच रोगों की बाढ़ आ रही है; इनसे आक्रांत रोगियों से अस्पताल भरे पड़े ओर निजी डाक्टरों को अहर्निशि व्यस्त रहना पड़ रहा है। यह प्रकट पक्ष। अप्रकट पक्ष मानसिक रोगियों का है। शरीर रोगियों की सम्मिलित संख्या की अपेक्षा मानसिक रोगियों की संख्या कई गुनी अधिक है। मानसिक अस्पतालों का जितना प्रबन्ध हो सका है उसकी तुलना में अभी हजारों गुने अस्पतालों की जरूरत पड़ेगी ताकि विक्षिप्त और अर्धविक्षिप्तों को चिकित्सा का आश्रय मिल सके। ऐसे लोग जो वस्तुतः मानसिक रोगी हैं अपनी आजीविका किसी प्रकार चलाते रहते हैं उनके बारे में कोई ध्यान भी नहीं दिया जाता। इस सबकी गणना की जा सके और उसके द्वारा होने वाली व्यैक्तिक एवं सामाजिक क्षति का अनुमान लगाया जा सके तो प्रतीत होगा कि मानवी प्रगति और सुख-शांति में सबसे बड़ा व्यवधान मानसिक विकृतियों ने ही उत्पन्न किया है। दुख इस बात का है कि संसार की इतनी अहम् समस्या को उपेक्षा के गर्त में डाल दिया गया है और तुलनात्मक दृष्टि से कहीं अधिक कम महत्व की समस्या—शारीरिक स्वास्थ्य को अधिक महत्व मिल गया है। अकेले अमेरिका में 95 लाख मनुष्य मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों से ग्रसित कूते गये हैं। उनमें से अस्पतालों में नियमित उपचार तीन लाख ही करा पाते हैं। शेष या तो इधर-उधर भटकते हैं या फिर अपनी स्थिति की वास्तविकता न समझ कर साथियों पर दोषारोपण करते हुए बकझक करते-मरते-मारते, रोते-कलपते—आवेश उद्वेगों से संतप्त रहते दिन काटते हैं।
ऐसे लोग या तो झगड़ालू, विद्वेषी बन जाते हैं या फिर दुखी, चिन्तित, भयभीत देखे जाते हैं। साधारण मनुष्यों की तरह उन्हें शान्त, सन्तुलित कदाचित ही कभी देखा जायगा। उन्हें हलकी-फुलकी, संतोष, सन्तुलन एवं प्रसन्नता की स्थिति में कभी-कभी ही देखा जा सकता है, अन्यथा वे स्वयं उद्विग्न, संतप्त बने हुए आक्रोश ग्रसित ही बने रहते हैं। अपनी तनिक-सी कठिनाइयों को पहाड़ जैसी बताकर—जिस-तिस से सहानुभूति की याचना करने की भूमिका बनाते हुए देखा जा सकता है। उनकी छुटपुट की बातें ऐसे लोगों के साथ होती हैं जो उनकी सहायता कुछ भी नहीं कर सकते हैं। उपयोगी अनुपयोगी का—अपने पराये का वे ठीक से वर्गीकरण नहीं कर पाते। निरर्थक लोगों से मित्रता जोड़ने और मित्रों से नाता तोड़ने की हरकतें, करते हुए देखा जा सकता है। वस्तुतः उनकी निर्णयात्मक अक्षमता उन्हें इस स्थिति में छोड़ती ही नहीं कि किसी सही निष्कर्ष पर पहुंच सकें। देखने में अच्छे खासे लगते हुए—उद्योग आजीविका चलाते हुए उनकी आन्तरिक स्थिति बहुत ही दयनीय होती है। न चैन से बैठते हैं न साथियों को चैन से बैठने देते हैं। रूठते, रोते या दोष आक्रोश से ग्रस्त उनकी विचित्र मुद्राएं घर के लोगों को भयभीत किये रहती हैं। न जाने कब क्या ‘मूड़’ उठ खड़ा हो और क्या से क्या सोचने लगे उस आशंका से घर के लोग चिन्तित और हैरान बने रहते हैं। मित्र तो उनका कोई होता नहीं। जिन्हें वे मित्र समझते हैं वे भी उस ‘बवाल’ से बचने के लिए कन्नी काटते हैं।
यह कुछ लक्षण कुछ स्थितियों के हैं। इससे न्यूनाधिक—अपने-अपने ढंग की विचित्रतायें और विलक्षणतायें मानसिक रोगियों में पाई जाती हैं। कम समय के लिए सम्पर्क में आने वालों को भी कुछ पता नहीं चलता। आफत उन पर छाई रहती है जो निकट सम्पर्क में रहते हैं। वे दया के पात्र बनकर ही जी पाते हैं। उपेक्षा पूर्वक किसी सराय में दिन काटते उन्हें देखा जा सकता है। उद्विग्नता से उनका शारीरिक स्वास्थ्य जर्जर बन जाता है और पैसे का सही उपयोग न कर पाने के कारण दरिद्रता ग्रसित भी रहती हैं। मित्रों का अभाव-निन्दकों का बाहुल्य उन्हें खीज से कभी उबरने ही नहीं देता।
यह रोग तेजी से बढ़ रहा है। अमेरिका में इसका पूर्ण प्रकोप है। योरोप के धनी देशों की जनता पर भी इस व्यथा के पंजे कसते जा रहे हैं। यह तथ्य इसलिए प्रकट होता है कि वहां इन बातों की खोज-बीन की जाती रहती है। सम्भवतः पिछड़े देशों की स्थिति और भी अधिक दयनीय होगी, क्योंकि वहां की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां अपेक्षाकृत अधिक असुविधाजनक हैं और उनसे उत्तेजना पाकर दुर्बल मनःसंस्थान अधिक विकृत हो सकता है। अपराधों की वृद्धि में द्वेष अथवा लोभ प्रधान कारण नहीं होता। अधिकतर विक्षिप्तता ग्रस्त व्यक्ति ही अपराधी बनते हैं। आवेश ग्रस्त स्थिति उन्हें उच्छृंखलता अपनाने और कुकृत्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है। उसके साथ लालच की कल्पना जुड़ जाने से मन और भी अधिक पक्का हो जाता है।
कुछ समय पूर्व चिन्ताजनक स्थिति तक पहुंचे हुए मानसिक रोगियों के रक्त में से शकर की कमी करके मस्तिष्क को सुस्त बनाया जाता था और उसके लिए ‘इस्सुलीन कोमा’ का प्रयोग होता था अब उसका स्थान सुधरे हुये ‘इलेक्ट्रो कन्वल्सिव’ उपचार ने ले लिया है, घिसी-पिटी दवायें—केसर पाइन, क्लरोरी प्रोमाजाइन—मेट्राजोल—कार्डिया जोल ही अभी तक चल रही हैं। इनसे एक प्रकार की तन्द्रा आती है और ढर्रे की आदत का घूमता हुआ चक्र तोड़ने में सहायता मिलती है। इससे तात्कालिक सहायता के रूप में हलकापन तो दृष्टिगोचर होता है—पर जड़ कटने वाली कारगर सफलता दृष्टिगोचर नहीं होती है।
मनःशास्त्र क्षेत्र में आज के मूर्धन्य विज्ञानी डॉ. विलियम रेले का कथन है—मानसिक रोगों के तात्कालिक उपचार खोजने के साथ-साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि यह विक्षिप्तता की बाढ़ किन कारणों से आ रही है। उन कारणों पर गहराई से विचार करने पर यह तथ्य सामने आते हैं कि आज की सामाजिक परिस्थिति और वैयक्तिक मनःस्थिति में विकृतियों का इतना अधिक समावेश हो गया है कि शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन स्थिर रह नहीं सकता। चिकित्सकों की उपचार पद्धति इसके लिए पर्याप्त नहीं, आवश्यकता इस बात की भी है कि समाज व्यवस्था और व्यक्ति की चरित्र निष्ठा में ऐसे सुधार किये जायें जिनमें शान्ति पूर्ण और हंसी-खुशी का जीवनयापन सम्भव हो सके। मानसिक रोगों से आत्यंतिक मुक्ति उस स्थिति में ही सम्भव बनाई जा सकती है।
शरीर व मन के साथ अनीति न बरतें
सोचने का तरीका विकृत हो जाने पर सामान्य परिस्थितियां भी प्रतिकूल दिखाई पड़ती हैं और उनसे डरा, घबराया हुआ व्यक्ति अपना सन्तुलन गंवा बैठता है। झाड़ी का भूत बन जाना, रस्सी का सर्प दिखाई पड़ना, भ्रम की प्रतिक्रिया को प्रत्यक्ष कर देता है। प्रतिकूलतायें वस्तुतः उतनी होती नहीं जितनी कि समझी जाती है। मनुष्य हर स्थिति में गुजारा कर सकने योग्य शरीर और हर परिस्थिति में मुसकराते रह सकने योग्य मन लेकर जन्मा है। इनकी मूल-संरचना में कोई दोष नहीं है। शरीर ‘व्याधि’ से और मन ‘आधि’ से यदि ग्रसित होता है तो उन विपत्तियों का कारण अपनी ही भूल होती है। असंयम हमें रुग्ण बनाता है और असन्तुलन से हम अर्धविक्षिप्त दिखाई पड़ते हैं। शरीर के साथ अनीति बरती जाय तो वह देर सवेर में रुग्ण होकर रहेगा। कमजोरी और बीमारी उसे धर दबोचेंगी और रोती, कराहती स्थिति में घसीट ले जायेंगी। मस्तिष्क के साथ यदि अनीति बरती गई है उसे कुसंस्कारी चिन्तन का अभ्यासी बनाया गया है तो या तो परिस्थिति पैदा कर लेगा या फिर सामान्य स्थिति में ही विपरीतता का आरोपण करके विक्षुब्ध रहने लगेगा। इस विक्षुब्धता को ही मानसिक रुग्णता कहा जाता है।
इन दिनों शारीरिक रोग भी बेतरह बढ़ रहे हैं। नई-नई किस्म के—नई-नई आकृति-प्रकृति के रोग हर साल उठ खड़े होते हैं और डॉक्टर उनका अता-पता चलाने एवं उपचार खोजने में नित नई परेशानी अनुभव करते हैं। पुराने जमाने के परिचित रोगों की भी अब इतनी अधिक शाखा-प्रशाखायें फूट पड़ी हैं कि उन्हें नये रोग की संज्ञा देने में भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मानसिक रोगों की बढ़ोतरी इससे भी अधिक तेज और भयंकर है। जिस तरह पूर्ण स्वस्थ कहे जा सकने योग्य शरीर कठिनाई से ही ढूंढ़े मिलेंगे, उसी तरह ऐसे मनुष्य कदाचित ही मिलेंगे जिनका मस्तिष्क मानसिक रोगों के कारण विकृत, जर्जर बना हुआ न हो। आज की बढ़ी हुई अनैतिकता एवं असामाजिकता ऐसी समस्यायें उत्पन्न करती हैं जिससे सामान्य मनोबल का व्यक्ति सहज ही विक्षिप्त हो उठता है। घटा, गिरा मनोबल भी इतना अपंग हो चला है कि सीधे-सीधे सरल स्वाभाविक-मनुष्य जीवन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई अनुकूलता, प्रतिकूलताओं को विपत्ति मान बैठता है और रो-धो कर जमीन, आसमान को सिर पर उठा लेता है। कभी सचमुच ही ऐसी घटनाएं घटित होती हैं जिन्हें असाधारण या अप्रत्याशित कहा जा सके। शौर्य-साहस के सहारे इनका सामना किया जा सकता है। जूझने से हर विपत्ति हलकी पड़ती है। यदि कुछ विपत्ति आ ही जाय तो उसे सन्तुलन बनाये रखकर सहा जा सकता है। संकट को हलका मानने से वह बहुत कुछ हलका पड़ जाता है और यदि असह्य मान लिया जाता है तो उसका वजन पर्वत से भी भारी हो जाता है। सामान्य बुद्धि के लोग परिस्थितियों को ही सुख-दुख का कारण मानते हैं और यह भूल जाते हैं कि मान्यताओं की जादुई शक्ति कितनी अद्भुत है। मामूली-सी बात असह्य संकट के रूप में दीखना और सचमुच ही किसी बड़ी विपत्ति का आक्रमण मामूली ही विपरीतता भर लगाना अपने चिन्तन की ही दो चमत्कारी दिशाएं हैं। इनमें से किसी को भी अपनाया जा सकता है और सन्तुलन को बनाये रह सकना या गंवा बैठना सम्भव हो सकता है।
परिस्थितियों के साथ चिन्तन का उपयुक्त तालमेल न बिठा सकने के कारण अब असंख्य व्यक्ति मासिक रोगों से ग्रसित होते चले आ रहे हैं। यह अवांछनीयता महामारी की तरह—आंधी, तूफान की तरह बढ़ रही है और लगता है कि स्वस्थ और सन्तुलित मस्तिष्क वाले व्यक्ति अगले दिनों ढूंढ़ पाना कठिन हो जायगा।
शरीर की तुलना में मन का मूल्य हजारों गुना अधिक है। उसी प्रकार शरीर—रोगों की तुलना में मानसिक रोगों की क्षति अत्यधिक है। शरीर रोगी रहे किन्तु मस्तिष्क स्वस्थ हो तो मनुष्य अनेकों मानसिक पुरुषार्थ कर सकता है किन्तु यदि मस्तिष्क विकृत हो जाय तो शरीर के पूर्ण स्वस्थ होने पर भी सब कुछ निरर्थक बन जायगा।
इन दिनों मानसिक रोगों की बाढ़ जिस तूफानी गति से आ रही है—दावानल की तरह बढ़ती, धधकती चली जा रही है उसे देखते हुए लगता है मनुष्य जीवन से उसका सहज सुलभ आनन्द छिनने ही जा रहा है। यह स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है। सनकी, वहमी, शेखचिल्ली, उद्विग्न, क्रुद्ध, रुष्ट, असन्तुष्ट, आशंकाग्रस्त, चिन्तित, निराश, भयभीत, उदासीन व्यक्ति क्रमशः अपने लिए भार बनते चले जाते हैं। उनके मस्तिष्क में ऐसे चक्रवात उठते रहते हैं जो सोचने की स्वस्थ शैली को बेतरह तोड़-मरोड़कर रख देते हैं। टूटी हुई मनःस्थिति में तथ्य को समझना सम्भव नहीं रहता। कुछ के बदले कुछ समझ सकना और कुछ करने के स्थान पर कुछ करने लगना ऐसी स्थिति विपत्ति है जिसके कारण मनुष्य अर्ध विक्षिप्त स्थिति में चला जाता है। अपने आपके लिए तथा दूसरों के लिये एक समस्या बन जाता है।
बढ़ते हुए मनोरोगों से क्रमशः सारा मनुष्य समाज जकड़ता चला जा रहा है। सन्तोष इतना ही है कि यह विपत्ति पूर्ण उन्माद की स्थिति तक नहीं पहुंची है। मस्तिष्क के छोटे-छोटे हिस्सों पर ही उसने आधिपत्य जमाया है और लोग अर्धविक्षिप्त जैसे ही दिखाई पड़ते हैं। जो सही नहीं सोच सकता, सही निष्कर्ष नहीं निकाल सकता और साधनों का उपयोग करने एवं परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने में समर्थ नहीं है उसे मानसिक दृष्टि से रोगी ही कहा जायगा। ऐसे व्यक्ति दर्द से कराहते भले ही न हों पर उनकी जीवन सम्पदा एक प्रकार से कूड़ा-करकट ही बन जाती है न वे स्वयं चैन से रहते हैं और न साथियों को चैन से रहने देते हैं। इन दिनों कुछ मानसिक रोगों की तो भरमार ही हो चली है।
मनुष्य की अनेकानेक मनोवृत्तियों का विवेचन, विश्लेषण और वर्गीकरण करते हुए मनःशास्त्री प्रो. शेल्डि के अनुसार उनकी मूलतः दो धाराएं बताई हैं एक प्रिय दूसरी अप्रिय। एक सुख दूसरी दुख। इन दोनों का परिस्थितियों से कम और मान्यताओं से अधिक सम्बन्ध होता है। कौन व्यक्ति किस स्थिति में दुख और किस में सुख अनुभव करता है यह उसका अपना इच्छित विषय है। एक व्यक्ति जिस स्थिति में दुखी रहता और उससे अच्छी स्थिति न मिलने के कारण असन्तोष व्यक्त करता है उसी में दूसरे लोग बहुत प्रसन्न रहते हैं। इतना ही नहीं कितनेक व्यक्ति उसे प्राप्त करके आनन्द विभोर हो सकते हैं जिसमें कि असन्तुष्ट व्यक्ति अपने को दुःखी अनुभव कर रहा है। ज्वर, दर्द आदि कष्ट और भूख-प्यास, सर्दी, गर्मी जैसे अभाव प्रायः सभी को दुख देते हैं पर इन दुखों में भी भयंकर विपत्ति अथवा सामयिक समस्या की छोटी-सी झलक मान लेने पर उनका कष्ट हलका और भारी हो सकता है। इस प्रकार की कठिनाइयां थोड़ी ही होती हैं। वस्तुतः अधिकांश सुख और दुख काल्पनिक होते हैं। वे मान्यताओं और इच्छाओं से सम्बन्ध रखते हैं। सोचने का तरीका बदला जा सकता है। और दुख सुख की, प्रसन्नता-अप्रसन्नता की, सन्तोष-असन्तोष की स्थिति में आमूलचूल नहीं तो अत्यधिक परिवर्तन अवश्य ही किया जा सकता है।
एडवर्ड कारपेन्टर का कथन है—‘दुख की मान्यता वस्तुतः मन की पराधीनता प्रकट करती है।’ मन की स्वाधीनता मिलने पर वह सहज ही समाप्त हो जाती है बाहरी व्यक्ति या बाहरी पदार्थ हमें बहुत ही कम सहायता कर सकते हैं या सुख दे सकते हैं। उनके योग दान का न्यून या अधिक मूल्यांकन करके ही हम प्रसन्नता, अप्रसन्नता अनुभव करते हैं; यदि अनुभूति की प्रक्रिया में परिवर्तन कर लिया जाय। अपने सद्गुणों और सत्प्रयत्नों को ही सफलता मान लिया जाय और उतने ही क्षेत्र में प्रसन्नता को केन्द्रित कर लिया जाय तो प्रायः हर स्थिति में प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रहने का अवसर मिल सकता है। मन की स्वाधीनता का यही प्रत्यक्ष प्रतिफल है। व्यक्तियों, वस्तुओं या पदार्थों पर अपनी प्रसन्नता को निर्भर बना देना मानसिक पराधीनता है उस स्थिति में कोई न तो सुखी रह सकता है और न सन्तुष्ट।
दार्शनिक स्पिनीजा भी यही कहा करते थे, उनने अपने दर्शन में इसे मौलिक सत्य माना है कि ‘‘विक्षुब्ध मनःस्थिति, मानसिक पराधीनता की ही अवस्था है स्वावलम्बन की स्थिति में कोई उद्वेग ठहर ही नहीं सकता।
हमें किन किन वस्तुओं का अभाव है, किन-किन व्यक्तियों ने कब-कब, क्या-क्या दुर्व्यवहार किया, अब तक कितनी बार असफलतायें मिलीं और हानियां उठानी पड़ी इसका लेखा-जोखा लेते रहा जाय तो कोई भी मनुष्य अपने आपको दुख दुर्भाग्य से ग्रसित अनुभव करेगा किन्तु यदि वही अपने उपलब्ध साधनों की बहुलता, दूसरों के सहयोग-सद्भाव एवं समय-समय पर मिली सफलताओं की लिस्ट तैयार करने लगे तो प्रतीत होगा कि वह जन्म जात वरदान लेकर सुख और सफलताओं के लिए ही पैदा हुआ है। चिन्तन की विकृति का नाम ही दुख है इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं है।
वियना के पोलोक्लिनिक अस्पताल में मानसिक चिकित्सा के विशेषज्ञ डॉ. विक्टर ई. फ्रेंक्ल ने अपने 50 वर्षों के चिकित्सा अनुभवों का सार बताते हुए लिखा है—‘जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि उसका जीवन निरर्थक है। उसका मन और शरीर कभी स्वस्थ न रहेगा। सार्थकता की अनुभूति न होने पर मनुष्य जिन्दगी को लाश की तरह ढोता है और उस नीरस निरानन्द स्थिति में सचमुच ही जीवन बहुत भारी पड़ता है। उस दबाव से इतनी थकान आती है कि कुछ करते-धरते नहीं बनता। हारा थका आदमी धीरे-धीरे गिरता घुलता जाता है और मरण को निकट बुलाने वाली बीमारियों को निमन्त्रण देकर स्वेच्छा संकल्प के आधार पर कष्ट ग्रसित रहने लगता है।
स्काटलेण्ड के मनोरोग चिकित्सक डा. रोनाल्ड डैकिटलेंज ने मनुष्य के मानसिक रोग ग्रसित होने के कारण और उनके निवारण के उपाय बताने के सन्दर्भ में दो बड़े ग्रन्थ लिखे हैं—(1) दि पालिटिक्स आफ एक्सपिरियन्स और (2) दि पालिटिक्स आफ फैमिली इन दोनों में उसने समाज की वर्तमान परिस्थितियों की भर्त्सना करते हुए कहा इनमें जकड़े रहने पर मनुष्य को मानसिक रोगों का शिकार होते रहना पड़ेगा और सहज स्वाभाविक रीति से व्यक्तित्व का विकास कर सकना उसके लिए सम्भव न होगा सामान्य व्यवहार में वे कूटनीतिक चालबाजी की दुर्गन्ध देखते हैं, और कहते हैं, मनुष्य को दबा, सता कर बाधित नहीं किया जाना चाहिए उसे प्रत्येक क्षेत्र में अपने विवेक को विकसित करने का अवसर मिलना चाहिए।
समर्थ वर्ग को अधिक सुविधा देने वाली और असमर्थ वर्ग को यथा स्थान बने रहने की नीति ने वर्तमान कानूनों एवं परम्पराओं का सृजन किया है। इस असन्तुलन ने एक पक्ष को उद्धत और दूसरे को भौतिक दृष्टि से दीन और आत्मिक दृष्टि से हीन बनाया है। वस्तु दोनों ही पक्षों में अपने-अपने ढंग के मानसिक रोग उत्पन्न हुए हैं। यदि हर किसी को लगभग समान अवसर मिले होते और अनावश्यक बंधन न जकड़े गये होते तो लोग मानसिक दृष्टि से प्रसन्नता एवं सन्तोष अनुभव करते। तदनुसार वे शारीरिक दृष्टि से भी स्वस्थ रहते और आर्थिक पारिवारिक और सामाजिक स्थिति में भी सुसम्पन्नता दृष्टिगोचर होती।
अत्यधिक हताश व्यक्ति कभी एक तरह की, कभी दूसरे तरह की गड़बड़ियां करते रहते हैं। इन हरकतों को प्रेरणा देने वाली मनोवृत्ति को, ‘एजीटेटेड डिप्रेसिव साइकोसिस’ कहा जाता है। न्यूरोटिक डिप्रेशन अथवा साइकोटिक डिप्रेशन उस स्थिति का नाम है जिसमें निराशा छाई रहती है, चित्त उदास और खिन्न रहता है। कुछ नया सोचने या नया करने को जी नहीं करता। चुपचाप बैठे या पड़े रहना, एक ही सीमित विचार में निमग्न रहना इन रोगियों को पसन्द होता है। ये न कुछ चाहते हैं, न कुछ कहते हैं, न करते हैं। किसी प्रकार दिन काटते रहना ही उनके लिए पर्याप्त है।
मेनिक डिप्रेशन और एण्डोजेनिक डिप्रेशन की स्थिति में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं कभी उत्तेजना कभी निष्क्रियता। कुछ दिन या कुछ समय वे सक्रिय दीखते हैं, किन्तु फिर ऐसा कुछ हो जाता है कि जो किया था, या सोचा था उसे जहां का तहां छोड़कर फिर ठप्प हो जाते हैं। आलोड़ित हताश, एजीटेटेड डिप्रेशन, ग्रसित रोगियों की स्थिति एक जैसी नहीं रहती। उनकी चित्र-विचित्र हरकतें अदालती-बदलती रहती हैं, कभी मूड एक तरह का होता है, तो कभी दूसरी तरह का।
बड़ी-बड़ी आशायें बांधने वाले, किन्तु परिस्थितिवश वैसे बन न सकने वाले लोग यदि अधीर और भावुक प्रकृति के हैं तो उन पर उस असन्तोष का गहरा असर पड़ता है। उन्हें अमुक व्यक्तियों या अमुक परिस्थितियों से बहुत शिकायत होती है, जिनके कारण वे अपना खेल बिगड़ा मानते हैं। कभी-कभी तो अपने भाग्य या प्रयत्न को भी वे दोष देते हैं, पर अधिकतर उनकी खीज दूसरों पर रहती है। वे सोचते हैं उनके प्रयत्न पर्याप्त थे, उनकी योग्यता कम नहीं थी, किन्तु दूसरों ने उन्हें गिरा या हरा दिया। इन दूसरों की पंक्ति बहुत लम्बी होती है, इसमें ग्रह नक्षत्र, भाग्य विधान से लेकर दोस्त-दुश्मन, परिचित-अपरिचित सभी आ सकते हैं। वे किसी को भी, किन्हीं को भी, उस असफलता का कारण मान सकते हैं। यह मान्यता आरम्भ में खीज, झुंझलाहट, द्वेष, क्रोध आदि के रूप में प्रकट होती है, पर इससे भी जब कुछ बनता नहीं दीखता, तो वह व्यक्ति अपने को दीन-हीन असहाय और असमर्थ मानकर प्रयत्न छोड़ बैठता है, पूछताछ करने पर शिकायतें करने के अतिरिक्त और उसके पास कुछ नहीं होता। दोषारोपण के विचार मस्तिष्क को इतना आच्छादित कर लेते हैं कि कुछ और सोचने की उसमें गुंजाइश ही नहीं रहती।
दूसरों की तुलना में अपने को हेय या हीन समझने की स्थिति भी कितनों को ही मानसिक रोगों का मरीज बना देती है। कुरूपता, मंदबुद्धि, गरीबी, किसी भूल के कारण स्थायी घृणा, अपमान, छूत रोग, लोकनिन्दा आदि कारणों से कितने ही व्यक्ति अपने को हेय स्थिति में पाते हैं और एम्प्यूटेशन से ग्रसित होकर रुग्ण संज्ञा में गिने जाने योग्य बन जाते हैं। वे कभी विरक्ति की बात सोचते हैं, कभी आत्म-हत्या की। आत्म-हीनता की ग्रन्थि में बंधकर या तो वे घोर दब्बू हो जाते हैं या सिर ‘ऐंजाइटी टेंशन’ उन्हें तोड़-फोड़ करते रहने में लगा देते हैं।
प्रैक्टिस आफ नैचरोपैथी ग्रन्थ के लेखक डॉक्टर लिड लेहर ने कितने ही प्रमाण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि ‘क्षय’ वस्तुतः शारीरिक नहीं मानसिक रोग है। आत्म-ग्लानि की भावनाओं से पीड़ित मनुष्य ही बहुत करके यक्ष्मा के शिकार बनते हैं। उनमें से अधिकांश ऐसे असन्तुष्ट व्यक्ति होते हैं जिन्हें जिन्दगी नीरस और भारी पड़ रही होती है उनकी अन्तःचेतना इस स्थिति से ऊबकर किसी ऐसी विपत्ति को आमन्त्रित करती है जो इस अवांछनीय स्थिति से छुटकारा दिला सके। इस आमन्त्रण को पाकर क्षय जैसे मृत्यु दूत सामने आ खड़े होते हैं।
अन्तरावरोध और अंतर्द्वंद्व बढ़ते-बढ़ते ‘शिजोफ्रेनिया’ बन जाता है। बुद्धि और विवेक के सहारे उचित और अनुचित का भेद करके उसमें से जो उपयुक्त है उसे स्वीकार कर लेना और जो अनुपयुक्त है उसे हटा देना साधारण नियम है। इसी क्रम से सामान्य जीवनचर्या चलती है। किन्तु कभी-कभी दो सर्वथा विपरीत पक्षों को मान्यता देने की स्थिति भी देखी गई है। एक ओर यह विचार उठता है कि इसे करेंगे फिर विपरीत पक्ष उठता है नहीं करेंगे। विवेक कुण्ठित हो जाता है और दोनों प्रतिपक्षी मान्यतायें समान रूप से मस्तिष्क पर हावी रहती हैं। न किसी को जोड़ते बनता है और न अपनाते। दोनों में मल्लयुद्ध होता है और उनका अखाड़ा विचार बुद्धि से आगे बढ़कर अन्तःचेतना के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है यही अन्तरावरोध या अंतर्द्वंद्व है। इस मानसिक विषमता से घिरे मनुष्य की आन्तरिक स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे दो सांड़ों के लड़ने के क्षेत्र में उगे हुए पौधे कुचल कर चकनाचूर हो जाते हैं और ऊबड़-खाबड़ निशान बन जाते हैं।
शिजोफ्रेनिया का रोगी बात-बात में दुटप्पी बात करता है। उसकी नीति दोगली होती है और गतिविधियां दुरंगी। अभी वह एक बात का समर्थन कर रहा था अभी उसी का खण्डन करने लगा। अभी सहमत था, अभी असहमत हो गया। अभी तीव्र इच्छा प्रकट की जा रही थी अभी अनिच्छा घोषित कर दी गई। साथी लोग हैरान रहते हैं कि उसका किस प्रकार विश्वास करें और उससे क्या आशा रखें। ऐसे व्यक्तियों के दैनिक व्यवहार में भी ऐसे विचित्र परिवर्तन होते हैं कि उनका निर्वाह करने से जिनका सम्बन्ध है वे असमंजस में पड़े रहते हैं। नीतियां, रुचियां, योजनाएं बदलते रहने से वे स्वयं किसी प्रयत्न की न तो जड़ जमा पाते हैं और न किसी बात में सफल हो पाते हैं। आधे अधूरे कामों का और विपरीत विचारों का चित्र-विचित्र, लेखा-जोखा देखते हुए उन्हें अस्थिर मति एवं विचित्र व्यक्ति ही कहा जा सकता है। इस स्थिति में वे स्वयं ही लज्जा एवं ग्लानि अनुभव करते हैं, पर विवशता उन्हें उबरने नहीं देती। दूसरों की खीझ और भर्त्सना से वे परिचित होते हैं, पर अंतर्द्वंद्वों में से कोई बुखार की तरह उन पर चढ़ बैठता है और वे किसी बाज के पंखों में फंसे चूहे की तरह कहीं से कहीं उड़ते चले जाते हैं।
केटाटोनिक शिजोफ्रेनिया, सिम्पल शिजोफ्रेनिया आदि इस मनोरोग के कितने ही भेद-प्रभेद हैं। जिनमें मनुष्य का प्रेम और द्वेष ज्वार-भाटे की तरह चढ़ता उतरता है। उत्साह और अपवाद चरम-सीमा पर पहुंचता है। हर्ष-शोक के झूले में झूलते हुए और विपरीत स्तर की बातें सोचते, कहते, करते उसे देखा जा सकता है। इस अस्थिरता के कारण दूसरे लोग उसे ठीक तरह समझ ही नहीं पाते कि आखिर वह क्या है—क्या करना चाहता है।