Books - युग की माँग प्रतिभा परिष्कार
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ये मानसून जल थल एक करेंगे
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नर्सरियों में उन्नत किस्म की पौधें लगाई जाती हैं। कलम लगाने का कौशल ऐसे पेड़ उत्पन्न करते हैं, जो मूल उत्पादन से भिन्न होते हैं। पशु फर्मों में नस्लें सुधारी जाती हैं। खरादी अनगढ़ पत्थरों को तराश कर बहुमूल्य हीरे का रूप देते हैं। कीमियागर साधारण धातुओं को जला-गला कर संजीवनी रसायनों में परिणत करते हैं। फैक्ट्रियों मेें कच्चे माल को उपयोगी शक्ल देकर आकर्षक एवं उपयोगी बनाया जाता है। इन्हीं प्रयासों में शान्तिकुञ्ज का क्रियाकलाप भी सम्मिलित किया जा सकता है। वह अपने ढंग का एक ऐसा महाविद्यालय है, जहाँ सामान्यजन कुछ पाने की इच्छा से तो आते हैं और लौटने पर वरिष्ठ स्तर का व्यक्तित्व साथ लेकर जाते हैं। युगसन्धि की आवश्यकता पूरी कर सकने योग्य प्रतिभाओं को खोजा, ढाला और प्रखर प्रामाणिक बनाकर लौटाया जाता है। लम्बे समय से यही एक प्रक्रिया अपने विभिन्न क्रिया-कलापों के साथ गतिशील रही है और सराहने योग्य सफलता उपलब्ध करती रही है।
स्थानीय गतिविधि को बारीकी से निरीक्षण परीक्षण करने पर प्रतीत होता है कि चाहे अनुसंधान हो, चाहे युगशिल्पी प्रशिक्षण, चाहे स्वावलम्बन विद्यालय, चाहे जड़ी-बूटी अनुसंधान हो, सबके पीछे एक ही उद्देश्य समाहित है कि परिष्कृत स्तर की ऐसी प्रतिभाएँ ढाली जायें, जो अपने को गौरवान्वित करें, लोकनायकों जैसी विशिष्टता सम्पन्न करें और बदलते युग के अनुरूप अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत करने के लिए कुछ साहस भरे कदम उठा सकें। इस प्रयोजन के लिए समग्र स्वास्थ्य संवर्धन, दीपयज्ञों द्वारा देश भर में नवचेतना उत्पन्न करने वाले आयोजन, विचार क्रान्ति के लिए आवश्यक साहित्य सृजन जैसे अनेक छोटी-बड़ी गतिविधियों को सहज कार्यान्वित होते देखा जा सकता है। जनमानस का अन्तराल लहराने के लिए संगीत शिक्षा को प्रमुखता दी गई है। स्काउटिंग-अनुशासन अनिवार्य हैं। गृहस्थ कार्यकर्ताओं के परिवार जिस रीति-नीति को अपनाकर काम करते हैं, उसे ब्राह्मण परम्परा का पुनर्जीवन कहा जा सकता है।
इस बहुमुखी प्रशिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत समर्थ व्यक्तियों का सृजन और कार्यक्रमों आयोजनों का तारतम्य, आपस में गूँथकर एक ऐसा व्यापक वातावरण तैयार कर रहे हैं, जिसके प्रभाव से नवयुग के अनुुरूप, आरंभिक क्रियाकलापों को आवश्यक गति मिल सके। उच्चस्तरीय व्यक्तित्व, इस तन्त्र के साथ इतनी अधिक संख्या में जुड़े हुए हैं कि उनके परामर्श आवागमन हेतु आवास और भोजन की सुविस्तृत व्यवस्था करनी पड़ती है। भोजनालय में प्राय: एक हजार से भी अधिक व्यक्तियों का सहभोज सम्पन्न होता रहता है। पत्र व्यवहार का अपना विभाग है, जिसके अन्तर्गत हर महीने हजारों-लाखों को घर बैठे आवश्यक प्रकाश परामर्श प्राप्त करते रहने की सुविधा उपलब्ध रहती है। जन जागरण के लिए प्रचार टोलियाँ विभिन्न क्षेत्रों में पहुँचती और नवजीवन को उभारने के लिए युग चेतना का प्रकाश वितरण करती हैं।
व्यक्ति और समाज के, राष्ट्र और विश्व के सम्मुख उपस्थित अनेकानेक समस्याओं, विपन्नताओं का एक मात्र कारण है चिन्तन और चरित्र में निकृष्टता का स्तर असाधारण रूप से बढ़ जाना। इसका एक मात्र हल और निराकरण आदर्शवाद की पक्षधर विचार क्रान्ति से ही सम्भव हो सकता है। इस प्रकार के सुनियोजित प्रयत्न दूसरी जगह से हुए हैं या नहीं। यह तो नहीं कहा जा सकता, पर यह निश्चय है कि शान्तिकुञ्ज ने तथ्यों के अनुरूप सुधार-परिष्कार की व्यवस्थित योजना बनाई ही नहीं; बल्कि कार्यान्वित भी की है। इस प्रयोजन में प्रमुख भूमिका मिशन की मासिक पत्रिकाओं ने निभाई है। उनके लेख पाठकों के अन्तराल को छूते और नवसृजन के प्रयास में सम्मिलित होने के लिए उल्लसित करते रहे हैं। पाठकों के साथ जुड़ने वाली घनिष्टता का ही प्रतिफल है कि उनकी ग्राहक संख्या उसी अवधि में पाँच सौ गुनी हो गई और अगले ही दिनों हजार गुनी होने जा रही है। यह एक अनोखा कीर्तिमान है।
प्रचार प्रयोजनों में पाँच सौ से अधिक संख्या में छपे युग साहित्य का योगदान है। जिनके अनेक संस्करण छपे हैं, अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। इसके अतिरिक्त दीपयज्ञ जैसे नितान्त सस्ते और सर्वसुलभ आयोजनों ने देश के कोने-कोने में युग चेतना का व्यापक विस्तार किया है। स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर, झोला पुस्तकालय, आदर्श वाक्य लेखन, स्टीकर आदि ने भी जनमानस को झकझोरने में कम योगदान नहीं दिया है। इन सभी प्रयत्नों को आगे भी इसी उत्साह के साथ जारी रखा जा रहा है; ताकि इस युग चेतना का आलोक और भी बड़े क्षेत्र में विस्तृत हो सके।
इन दिनों शान्तिकुञ्ज के तत्त्वावधान में दो महान आन्दोलनों को उभारा गया है, जो देखने में छोटे, किन्तु परिणाम में दूरगामी प्रतिक्रिया उत्पन्न करने वाले समझे जा सकते हैं। वे गति पकड़ रहे हैं और मत्स्यावतार की तरह अपना कलेवर बढ़ा रहे हैं, तूफान की तरह प्रचण्ड गतिशीलता अपना रहे हैं। चक्रवातों की तरह तिनकों और पत्तों को जमीन से उछालकर आकाश तक पहुँचाने की क्षमता उनमें है। अगले दिनों देखा जा सकेगा कि इन दोनों ने हिमालय से निकलने वाली गंगा यमुना की तरह सूखी मरुभूमि को शस्य श्यामला बनाया कि नहीं? जहाँ करो या मरो का लक्ष्य हो, जहाँ दृष्टि सदा ऊँचे आसमान पर ही जमीं रहती हो, वहाँ असफलता का कोई कारण नहीं, कारण वश थोड़ा विलम्ब भले लग जाय।
सुसंस्कारियों का संगठन और सृजन कृत्यों का संकल्परत होना ही सतयुग की वापसी के नाम से जाना जाने वाला प्रथम आन्दोलन है। पाँच से पच्चीस बनने की नीति इन्हें सुसज्जित गुलदस्ते का रूप दे रही है। प्रज्ञा मण्डल और महिला मण्डल इसी के दो पक्ष हैं। दोनों को मिलाकर संगठन की शक्ति, दुर्दान्त दिखने वाली आसुरी शक्तियों की तुलना में तगड़ी पड़ती है नहीं? इस सम्बन्ध मे फैले हुए भ्रम का अगले दिनों निराकरण हो सकेगा। सत्य जीतता है, पराक्रम जीतता है, ब्रह्मवर्चस् जीतता है, इस संकल्प के सार्थक होने की विश्वासपूर्वक प्रतीक्षा की जा सकती है।
आद्यशक्ति का पुनर्जागरण नाम से नारी जागरण आन्दोलन की लाल मशाल प्रज्वलित की गई है। इसके संगठनात्मक-रचनात्मक पक्षों की जानकारी तो लोगों को पहले भी थी, पर अब उनमें एक संघर्षपरक तथ्य और जोड़ा गया है-दहेज जेवर और धूम-धाम रहित विवाहों का प्रचलन। कहना न होगा कि खर्चीली शादियों ने हमें दरिद्र और बेईमान बनाया है। उत्पादन बढ़ने पर भी दरिद्रता से पीछा नहीं छूटा, इसका एक बड़ा कारण विवाहोन्माद ही है। इसकी खुमारी में, गरीब लोग भी अमीरों जैसा स्वाँग बनाते और घर फूँक तमाशा देखते हैं।
आन्दोलन ने प्रज्ञा परिवार से सम्बन्धित हर विचारशील को बाध्य किया है कि वे नितान्त सादगी के साथ शादियाँ करने की प्रतिज्ञा करें। अभिभावक अपने लड़के-लड़कियों पर दहेज न लेने और जेवर न चढ़ाने की प्रतिज्ञा करें। विवाह योग्य किशोर और किशोरियाँ प्रण करें, कि वे इस उन्माद के कुचक्र से कोसों दूर रहेंगे। लालची और प्रतिगामी परिवार वाले यदि दबाव डालेंगे, तो अविवाहित रहना स्वीकार करेंगे, पर इस अनीति के आगे सिर न झुकायेंगे, जिसने अपने समाज को अविवेकी मूढ़जनों का झुण्ड मात्र बनाकर रख दिया है। जिसने परिवारों की सुख शान्ति हराम कर दी है। जो अपने देश की आर्थिक बर्बादी का कारण है। ऐसे दहेज दानवों की भेंट चढ़ने की अपेक्षा अविवाहित रह कर जिन्दगी गुजारना हजार गुना अच्छा है।
यह बाते कहा-सुनी में, पिछले दिनों में चर्चा का विषय ही रही हैं; पर उसे अब कार्य रूप में परिणत किया जायेगा। प्रज्ञा परिवार का कोई सदस्य इस अनाचार मेें भागीदार न बनेगा। अपने प्रभाव क्षेत्र पर इस हेतु दबाव डालेगा और जो न मानेंगे, उसके यहाँ ऐसे उत्सवों में सम्मिलित होने के लिए नहीं ही जायेगा। ढुलमुल नीति अपनाने पर किसी की सिद्धान्तवादिता तो खरी तो नहीं उतरती। अखण्ड ज्योति परिवार के पाँच लाख और उनसे सम्बन्धित पच्चीस लाख व्यक्ति, यदि इस परिवार में इस आन्दोलन को शुरू करें, तो कोई कारण नहीं कि अन्यत्र भी इसका प्रभाव न पड़े और इस प्रकार के अन्यान्य कुप्रचलनों पर भी कुठाराघात का सिलसिला न चल पड़े। जाति-पाँति पर आधारित ऊँच-नीच मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय आदि और भी अनेक कुप्रचलन हैं, जिन्हें अगले ही दिनों दहेज के दानव की तरह परास्त करना होगा। गाँधी जी का छोटा दिखने वाला नमक सत्याग्रह करो या मरो के रूप में विकराल हुआ था और अनाचार का विस्तर गोल करके ही रुका था। नारी जागरण आन्दोलन की पूर्णता विवाहोन्माद के समापन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। इसी के कारण तो नारी को हेय समझा और नर को श्रेय दिया जाता है। दहेज के रहते नारी जागरण की बात सोचना एक दिवास्वप्न जैसा मखौल ही बना रहेगा।
सतयुग की वापसी आन्दोलन के साथ दो तथ्य जुड़ते हैं। एक विचारशीलों का संगठन एवं दूसरा है प्रगतिशीलता के पक्षधर वातावरण का प्रचण्ड वातावरण निर्माण। इसके लिए लोगों में दूरदर्शी विवेकशीलता उभारने के लिए प्रचार प्रक्रिया को तेज करना पड़ेगा। लेखनी, वाणी, संगीत, अभिनय, साहित्य, काव्य, चिन्तन आयोजन, समारोह आदि की जितनी विधि-व्यवस्थाएँ जहाँ जिस प्रकार बन पड़े, वहाँ उन्हें परिस्थितियों के अनुरूप अपनाया और व्यापक बनाया जाना चाहिए। इन प्रचलनों के सहारे वातावरण झकझोरा और प्रगतिशीलता का पक्षधर बनाया जा सकता है।
अभी दोनों आन्दोलनों का आरम्भ अखण्ड ज्योति परिवार के परिजनों से हो रहा है, पर वह इतनी छोटी परिधि में सीमित होकर रहने वाला नहीं है। प्रज्ञा परिजनों द्वारा की जा रही यह उछल-कूद कुछ ही दिनों में देश की अस्सी करोड़* जनता, विश्व के पाँच सौ करोड़ मनुष्यों के सिर पर जादू की तरह चढ़कर बोलेगी। यह विद्या अपनाने के लिए लोगों को बाधित करेगी। जिसके सहारे विनाश की तमिस्रा हटे और उषाकाल का अरुणोदय, बदलते संसार का सन्देश लेकर मुसकराये।
प्रतिभाएँ संसार के हर क्षेत्र में मौजूद हैं। धनाढ्यों, शासन अध्यक्षों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और मनीषियों को अपने-अपने ढंग से काम करते हुए देखा जा सकता है। उनकी प्रखरता और प्रचण्डता ने जो कुछ भी भला-बुरा बन पड़ा है, उसे आश्चर्यजनक सफलता के साथ सम्पन्न किया है। इन वर्गों को युग चेतना अछूता नहीं छोड़ेगा, उसे झकझोरने और समय के अनुरूप बदलने के लिए बाधित करेगी। अब तक भले ही स्वार्थपरता और प्रमाद को प्रोत्साहित करते रहे हों, पर आगे उन्हें अपनी क्षमता को मोड़ना-मरोड़ना और सृजन प्रयोजनों के लिए नियोजित करना होगा।
तूफानों, भूकम्पों, विस्फोटों, आन्दोलनों का उद्गम कहीं भी क्यों ना रहा हो? जब वे गति पकड़ते हैं, तो व्यापक बनते चले जाते हैं। राजक्रान्तियों का सिलसिला इसी प्रकार चला था और असंख्य राजमुकुट अनायास ही धराशायी होते चले गये। सृजन की भी अपनी लहर है। सतयुग में ऐसा ही प्रभावोत्पादक मानसून उठा होगा, उसने धरती पर मखमली फर्श बिछाते हुए स्वर्ग जैसा वातावरण बनाकर विनिर्मित कर दिया होगा।
रात्रि की तमिस्रा सदा नहीं रहती। दिन को भी प्रकट होने का अवसर मिलता है। तब छोटे पक्षी ही नहीं, गजराज भी अपनी चिंघाड़ और वनराज अपनी दहाड़ से दिशाओं को गुंजित करते दिखाई देते हैं। ऐसा न समझा जाना चाहिए कि अखण्ड ज्योति परिवार ही अपने सृजन प्रयासों तक सीमित रह जायेगा। उमगता युग प्रवाह उन बड़ी प्रतिभाओं को भी अपने साथ लेकर चलेगा, जो पिछले दिनों विनाश के जाल जंजाल रचती रही हैं।
स्थानीय गतिविधि को बारीकी से निरीक्षण परीक्षण करने पर प्रतीत होता है कि चाहे अनुसंधान हो, चाहे युगशिल्पी प्रशिक्षण, चाहे स्वावलम्बन विद्यालय, चाहे जड़ी-बूटी अनुसंधान हो, सबके पीछे एक ही उद्देश्य समाहित है कि परिष्कृत स्तर की ऐसी प्रतिभाएँ ढाली जायें, जो अपने को गौरवान्वित करें, लोकनायकों जैसी विशिष्टता सम्पन्न करें और बदलते युग के अनुरूप अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत करने के लिए कुछ साहस भरे कदम उठा सकें। इस प्रयोजन के लिए समग्र स्वास्थ्य संवर्धन, दीपयज्ञों द्वारा देश भर में नवचेतना उत्पन्न करने वाले आयोजन, विचार क्रान्ति के लिए आवश्यक साहित्य सृजन जैसे अनेक छोटी-बड़ी गतिविधियों को सहज कार्यान्वित होते देखा जा सकता है। जनमानस का अन्तराल लहराने के लिए संगीत शिक्षा को प्रमुखता दी गई है। स्काउटिंग-अनुशासन अनिवार्य हैं। गृहस्थ कार्यकर्ताओं के परिवार जिस रीति-नीति को अपनाकर काम करते हैं, उसे ब्राह्मण परम्परा का पुनर्जीवन कहा जा सकता है।
इस बहुमुखी प्रशिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत समर्थ व्यक्तियों का सृजन और कार्यक्रमों आयोजनों का तारतम्य, आपस में गूँथकर एक ऐसा व्यापक वातावरण तैयार कर रहे हैं, जिसके प्रभाव से नवयुग के अनुुरूप, आरंभिक क्रियाकलापों को आवश्यक गति मिल सके। उच्चस्तरीय व्यक्तित्व, इस तन्त्र के साथ इतनी अधिक संख्या में जुड़े हुए हैं कि उनके परामर्श आवागमन हेतु आवास और भोजन की सुविस्तृत व्यवस्था करनी पड़ती है। भोजनालय में प्राय: एक हजार से भी अधिक व्यक्तियों का सहभोज सम्पन्न होता रहता है। पत्र व्यवहार का अपना विभाग है, जिसके अन्तर्गत हर महीने हजारों-लाखों को घर बैठे आवश्यक प्रकाश परामर्श प्राप्त करते रहने की सुविधा उपलब्ध रहती है। जन जागरण के लिए प्रचार टोलियाँ विभिन्न क्षेत्रों में पहुँचती और नवजीवन को उभारने के लिए युग चेतना का प्रकाश वितरण करती हैं।
व्यक्ति और समाज के, राष्ट्र और विश्व के सम्मुख उपस्थित अनेकानेक समस्याओं, विपन्नताओं का एक मात्र कारण है चिन्तन और चरित्र में निकृष्टता का स्तर असाधारण रूप से बढ़ जाना। इसका एक मात्र हल और निराकरण आदर्शवाद की पक्षधर विचार क्रान्ति से ही सम्भव हो सकता है। इस प्रकार के सुनियोजित प्रयत्न दूसरी जगह से हुए हैं या नहीं। यह तो नहीं कहा जा सकता, पर यह निश्चय है कि शान्तिकुञ्ज ने तथ्यों के अनुरूप सुधार-परिष्कार की व्यवस्थित योजना बनाई ही नहीं; बल्कि कार्यान्वित भी की है। इस प्रयोजन में प्रमुख भूमिका मिशन की मासिक पत्रिकाओं ने निभाई है। उनके लेख पाठकों के अन्तराल को छूते और नवसृजन के प्रयास में सम्मिलित होने के लिए उल्लसित करते रहे हैं। पाठकों के साथ जुड़ने वाली घनिष्टता का ही प्रतिफल है कि उनकी ग्राहक संख्या उसी अवधि में पाँच सौ गुनी हो गई और अगले ही दिनों हजार गुनी होने जा रही है। यह एक अनोखा कीर्तिमान है।
प्रचार प्रयोजनों में पाँच सौ से अधिक संख्या में छपे युग साहित्य का योगदान है। जिनके अनेक संस्करण छपे हैं, अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। इसके अतिरिक्त दीपयज्ञ जैसे नितान्त सस्ते और सर्वसुलभ आयोजनों ने देश के कोने-कोने में युग चेतना का व्यापक विस्तार किया है। स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर, झोला पुस्तकालय, आदर्श वाक्य लेखन, स्टीकर आदि ने भी जनमानस को झकझोरने में कम योगदान नहीं दिया है। इन सभी प्रयत्नों को आगे भी इसी उत्साह के साथ जारी रखा जा रहा है; ताकि इस युग चेतना का आलोक और भी बड़े क्षेत्र में विस्तृत हो सके।
इन दिनों शान्तिकुञ्ज के तत्त्वावधान में दो महान आन्दोलनों को उभारा गया है, जो देखने में छोटे, किन्तु परिणाम में दूरगामी प्रतिक्रिया उत्पन्न करने वाले समझे जा सकते हैं। वे गति पकड़ रहे हैं और मत्स्यावतार की तरह अपना कलेवर बढ़ा रहे हैं, तूफान की तरह प्रचण्ड गतिशीलता अपना रहे हैं। चक्रवातों की तरह तिनकों और पत्तों को जमीन से उछालकर आकाश तक पहुँचाने की क्षमता उनमें है। अगले दिनों देखा जा सकेगा कि इन दोनों ने हिमालय से निकलने वाली गंगा यमुना की तरह सूखी मरुभूमि को शस्य श्यामला बनाया कि नहीं? जहाँ करो या मरो का लक्ष्य हो, जहाँ दृष्टि सदा ऊँचे आसमान पर ही जमीं रहती हो, वहाँ असफलता का कोई कारण नहीं, कारण वश थोड़ा विलम्ब भले लग जाय।
सुसंस्कारियों का संगठन और सृजन कृत्यों का संकल्परत होना ही सतयुग की वापसी के नाम से जाना जाने वाला प्रथम आन्दोलन है। पाँच से पच्चीस बनने की नीति इन्हें सुसज्जित गुलदस्ते का रूप दे रही है। प्रज्ञा मण्डल और महिला मण्डल इसी के दो पक्ष हैं। दोनों को मिलाकर संगठन की शक्ति, दुर्दान्त दिखने वाली आसुरी शक्तियों की तुलना में तगड़ी पड़ती है नहीं? इस सम्बन्ध मे फैले हुए भ्रम का अगले दिनों निराकरण हो सकेगा। सत्य जीतता है, पराक्रम जीतता है, ब्रह्मवर्चस् जीतता है, इस संकल्प के सार्थक होने की विश्वासपूर्वक प्रतीक्षा की जा सकती है।
आद्यशक्ति का पुनर्जागरण नाम से नारी जागरण आन्दोलन की लाल मशाल प्रज्वलित की गई है। इसके संगठनात्मक-रचनात्मक पक्षों की जानकारी तो लोगों को पहले भी थी, पर अब उनमें एक संघर्षपरक तथ्य और जोड़ा गया है-दहेज जेवर और धूम-धाम रहित विवाहों का प्रचलन। कहना न होगा कि खर्चीली शादियों ने हमें दरिद्र और बेईमान बनाया है। उत्पादन बढ़ने पर भी दरिद्रता से पीछा नहीं छूटा, इसका एक बड़ा कारण विवाहोन्माद ही है। इसकी खुमारी में, गरीब लोग भी अमीरों जैसा स्वाँग बनाते और घर फूँक तमाशा देखते हैं।
आन्दोलन ने प्रज्ञा परिवार से सम्बन्धित हर विचारशील को बाध्य किया है कि वे नितान्त सादगी के साथ शादियाँ करने की प्रतिज्ञा करें। अभिभावक अपने लड़के-लड़कियों पर दहेज न लेने और जेवर न चढ़ाने की प्रतिज्ञा करें। विवाह योग्य किशोर और किशोरियाँ प्रण करें, कि वे इस उन्माद के कुचक्र से कोसों दूर रहेंगे। लालची और प्रतिगामी परिवार वाले यदि दबाव डालेंगे, तो अविवाहित रहना स्वीकार करेंगे, पर इस अनीति के आगे सिर न झुकायेंगे, जिसने अपने समाज को अविवेकी मूढ़जनों का झुण्ड मात्र बनाकर रख दिया है। जिसने परिवारों की सुख शान्ति हराम कर दी है। जो अपने देश की आर्थिक बर्बादी का कारण है। ऐसे दहेज दानवों की भेंट चढ़ने की अपेक्षा अविवाहित रह कर जिन्दगी गुजारना हजार गुना अच्छा है।
यह बाते कहा-सुनी में, पिछले दिनों में चर्चा का विषय ही रही हैं; पर उसे अब कार्य रूप में परिणत किया जायेगा। प्रज्ञा परिवार का कोई सदस्य इस अनाचार मेें भागीदार न बनेगा। अपने प्रभाव क्षेत्र पर इस हेतु दबाव डालेगा और जो न मानेंगे, उसके यहाँ ऐसे उत्सवों में सम्मिलित होने के लिए नहीं ही जायेगा। ढुलमुल नीति अपनाने पर किसी की सिद्धान्तवादिता तो खरी तो नहीं उतरती। अखण्ड ज्योति परिवार के पाँच लाख और उनसे सम्बन्धित पच्चीस लाख व्यक्ति, यदि इस परिवार में इस आन्दोलन को शुरू करें, तो कोई कारण नहीं कि अन्यत्र भी इसका प्रभाव न पड़े और इस प्रकार के अन्यान्य कुप्रचलनों पर भी कुठाराघात का सिलसिला न चल पड़े। जाति-पाँति पर आधारित ऊँच-नीच मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय आदि और भी अनेक कुप्रचलन हैं, जिन्हें अगले ही दिनों दहेज के दानव की तरह परास्त करना होगा। गाँधी जी का छोटा दिखने वाला नमक सत्याग्रह करो या मरो के रूप में विकराल हुआ था और अनाचार का विस्तर गोल करके ही रुका था। नारी जागरण आन्दोलन की पूर्णता विवाहोन्माद के समापन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। इसी के कारण तो नारी को हेय समझा और नर को श्रेय दिया जाता है। दहेज के रहते नारी जागरण की बात सोचना एक दिवास्वप्न जैसा मखौल ही बना रहेगा।
सतयुग की वापसी आन्दोलन के साथ दो तथ्य जुड़ते हैं। एक विचारशीलों का संगठन एवं दूसरा है प्रगतिशीलता के पक्षधर वातावरण का प्रचण्ड वातावरण निर्माण। इसके लिए लोगों में दूरदर्शी विवेकशीलता उभारने के लिए प्रचार प्रक्रिया को तेज करना पड़ेगा। लेखनी, वाणी, संगीत, अभिनय, साहित्य, काव्य, चिन्तन आयोजन, समारोह आदि की जितनी विधि-व्यवस्थाएँ जहाँ जिस प्रकार बन पड़े, वहाँ उन्हें परिस्थितियों के अनुरूप अपनाया और व्यापक बनाया जाना चाहिए। इन प्रचलनों के सहारे वातावरण झकझोरा और प्रगतिशीलता का पक्षधर बनाया जा सकता है।
अभी दोनों आन्दोलनों का आरम्भ अखण्ड ज्योति परिवार के परिजनों से हो रहा है, पर वह इतनी छोटी परिधि में सीमित होकर रहने वाला नहीं है। प्रज्ञा परिजनों द्वारा की जा रही यह उछल-कूद कुछ ही दिनों में देश की अस्सी करोड़* जनता, विश्व के पाँच सौ करोड़ मनुष्यों के सिर पर जादू की तरह चढ़कर बोलेगी। यह विद्या अपनाने के लिए लोगों को बाधित करेगी। जिसके सहारे विनाश की तमिस्रा हटे और उषाकाल का अरुणोदय, बदलते संसार का सन्देश लेकर मुसकराये।
प्रतिभाएँ संसार के हर क्षेत्र में मौजूद हैं। धनाढ्यों, शासन अध्यक्षों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और मनीषियों को अपने-अपने ढंग से काम करते हुए देखा जा सकता है। उनकी प्रखरता और प्रचण्डता ने जो कुछ भी भला-बुरा बन पड़ा है, उसे आश्चर्यजनक सफलता के साथ सम्पन्न किया है। इन वर्गों को युग चेतना अछूता नहीं छोड़ेगा, उसे झकझोरने और समय के अनुरूप बदलने के लिए बाधित करेगी। अब तक भले ही स्वार्थपरता और प्रमाद को प्रोत्साहित करते रहे हों, पर आगे उन्हें अपनी क्षमता को मोड़ना-मरोड़ना और सृजन प्रयोजनों के लिए नियोजित करना होगा।
तूफानों, भूकम्पों, विस्फोटों, आन्दोलनों का उद्गम कहीं भी क्यों ना रहा हो? जब वे गति पकड़ते हैं, तो व्यापक बनते चले जाते हैं। राजक्रान्तियों का सिलसिला इसी प्रकार चला था और असंख्य राजमुकुट अनायास ही धराशायी होते चले गये। सृजन की भी अपनी लहर है। सतयुग में ऐसा ही प्रभावोत्पादक मानसून उठा होगा, उसने धरती पर मखमली फर्श बिछाते हुए स्वर्ग जैसा वातावरण बनाकर विनिर्मित कर दिया होगा।
रात्रि की तमिस्रा सदा नहीं रहती। दिन को भी प्रकट होने का अवसर मिलता है। तब छोटे पक्षी ही नहीं, गजराज भी अपनी चिंघाड़ और वनराज अपनी दहाड़ से दिशाओं को गुंजित करते दिखाई देते हैं। ऐसा न समझा जाना चाहिए कि अखण्ड ज्योति परिवार ही अपने सृजन प्रयासों तक सीमित रह जायेगा। उमगता युग प्रवाह उन बड़ी प्रतिभाओं को भी अपने साथ लेकर चलेगा, जो पिछले दिनों विनाश के जाल जंजाल रचती रही हैं।