Books - युग की माँग प्रतिभा परिष्कार
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प्रतिभा संवर्धन का मूल्य भी चुकाया जाय
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गाँधी युग में जो सत्याग्रही उभरकर आगे आए, वे स्वतंत्रता सेनानी कहलाए, यशस्वी बने। ताम्र पत्र, पेन्शन और आवागमन के मुफ्त पास प्राप्त करने के लाभों से गौरवान्वित हुए। जो-जो उनमें वरिष्ठ और विशिष्ट थे, वे देश का सूत्र संचालन करने वाले मूर्धन्य बने। बापू के संपर्क में रहे नेहरू, पटेल जैसे अनेक रत्न ऐसे हैं, जिनके स्मारकों को नमन किया जाता है। इतिहास के पृष्ठों पर यशोगाथा पढ़कर भाव विभोर हुआ जाता है। यह उनकी प्रचण्ड प्रतिभा का प्रतिफल मात्र है। यदि वे संकीर्ण स्वार्थपरायणों की तरह अपने मतलब से ही मतलब रखते, तो मात्र कुछ सुख-साधनों से, मन बहला पाते, प्रकाश स्तम्भ बनने के सुयोग सौभाग्य से तो उन्हें वंचित ही रहना पड़ता। जो उन दिनों कृपणता धारण किये रहे, वे अग्रगामियों के साथ अपनी तुलना करने पर ‘माया मिली न राम’ वाली अपनी मूर्खता पर पश्चात्ताप ही करते रहते हैं। पर बीता हुआ समय पुन: लौटता कहाँ है?
बुद्ध, गाँधी, दयानंद, विवेकानन्द, बिनोवा जैसों की महान उपलब्धियाँ स्मरण करके हर विचारशील का अन्त:करण उमगता है, कि यदि उन्हें ऐसा ही श्रेय मिल सका होता, तो कितना अच्छा होता। उस अवसर को गँवाकर वे जिस ललक लिप्सा की पूर्ति का दिवा-स्वप्न देखते रहते हैं, उसे भी कौन साकार कर पाता है? तृष्णा मरते समय तक प्रौढ़ ही बनी रहती है। शेख-चिल्लियों का समुदाय कुबेर जैसा धनाढ्य और इन्द्र जैसा प्रतापी बनने के सपने देखता है। पर अब निष्कर्ष की वेला में मात्र इतना ही प्रतीत होता है कि कोल्हू के बैल की तरह पिलते और पिसते हुए समय बीत गया। श्मशान के भूत-पलीत की तरह डरते और डराते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगा।
भाग्यवान् वे हैं, जिनने आदर्शों के साथ रिश्ता जोड़ा, महानता का मार्ग अपनाया और ऐसा कुछ कर दिखाया, जिसका अनुकरण करते हुए असंख्यों का गौरव-गरिमा का लक्ष्य प्रदान करने वाला ऊर्जा भरा प्रकाश उपलब्ध होता रहे। मूर्खता और बुद्धिमत्ता के चयन के लिए इसी चौराहे पर सही निर्णय करने का अवसर है, वैसा सुयोग भी इन्हीं दिनों है, जिसका लाभ भगीरथ और अर्जुन ने अपनी उदात्त साहसिकता के बदले खरीदा था। वरदान अनायास ही किसी को कहाँ से मिलते हैं? देवता कुपात्रों और असमर्थों पर कृपा कहाँ से करते हैं। पात्रता की गहराई रहने पर ही वर्षा का पानी विशाल जलाशय के रूप में लहराता है।
यह युगसन्धि का प्रभात पर्व ऐसा है, जिसमें महाकाल को प्राणवान् प्रतिभाओं की असाधारण आवश्यकता पड़ रही है। दैवी प्रयोजन महामानवों केे माध्यम से ही क्रियान्वित होते हैं। अदृश्य शक्तियाँ तो उनमें प्रेरणा भर भरती है। यह व्यक्ति का निर्धारण होता है कि उन्हें अपनाये या ठुकराये। कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि दुष्ट कौरव तो पहले से ही मरे पड़े हैं। मैंने उनका पहले ही तेज हरण कर लिया। तुझे तो धर्म युद्ध में निरत होकर मात्र श्रेय भर गले में धारण करना है।
वस्तुत: युग की विकृतियों का शमन होना ही है। युग के सृजन का ऐसा महायज्ञ जाज्वल्यमान होना है, जिससे आगामी लम्बे समय तक सुख-शान्ति और प्रगति का वातावरण बना रहे एकता और समता को मान्यता मिले, ध्वंस का स्थान सृजन ग्रहण करे और चेतना तथा भौतिक शक्तियों का नियोजन मात्र सत्प्रयोजनों के निमित्त होता रहे। इसी उज्ज्वल भविष्य को ‘सतयुग की वापसी’ का नाम दिया गया है। अनीति की असुरता का दमन देवताओं की सामूहिक शक्ति - संघशक्ति दुर्गा के अवतरण से सम्भव हुआ था। लगभग उसी पुरातन प्रक्रिया का प्रत्यावर्तन नये सिरे से, नये रूप में इन दिनों सम्पन्न होने जा रहा है। उस प्रवाह में सम्मिलित होने वाले, सामान्य पत्तों की तरह हलके होते हुए भी सरिता की धाराओं पर सवार होकर बिना कुछ प्रयास के महानता के महासमुद्र में जा मिलने में सफल हो सकेंगे।
अपने काम से, किसी से कुछ पाने के लिए कहीं जाना एक बात है और किसी समर्थ सत्ता द्वारा अपने सहायक के रूप में बुलाये जाने पर वहाँ पहुँचना सर्वथा दूसरी। पहली मेें एक पक्ष की दीनता और दूसरे पक्ष की स्वाभाविक उपेक्षा रहती है; पर आमंत्रित अतिथि को लेने, स्टेशन पर माला लेकर पहुँचा और सम्मानपूर्वक ठहराया जाता है। उसके वार्तालाप को भी प्रमुखता दी जाती है और ऐसा आधार खड़ा किया जाता है कि आमंत्रित व्यक्ति में निमंत्रण का उद्देश्य समझने और उनमें सहभागी बनने की प्रतिक्रिया उत्पन्न हो। महाकाल द्वारा प्रज्ञा परिजनों को भेजे गये आमंत्रण को इसी रूप में देखा समझा जाना चाहिए।
राम स्वयं ऋष्यमूक पर्वत पर गए थे और सुग्रीव-हनुमान् को सहयोग हेतु सहमत कर लाये थे। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द के घर जाकर उन्हें देव संस्कृति के पुनरुद्धार में संलग्न होने के लिए सहमत किया था। अर्जुन को स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण समझाने से लेकर धमकाने तक की नीति अपनाकर युद्धरत होने के लिए बाधित किया था। समर्थ और शिवा के, चाणक्य और चन्द्रगुप्त के बीच भी ऐसा ही घटनाक्रम बना था। साथ ही उन्हें आवश्यक शक्ति और सफलता प्रदान करने के लिए उपयुक्त तारतम्य बिठाया था। जिन्हें पारदर्शी दृष्टि प्राप्त है, वे देख सकते हैं कि महाकाल ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए प्राणवानों के सामने गिड़गिड़ाने का उपक्रम नहीं किया है, वरन् सुनिश्चित संभावनाओं में भागीदार बनकर अजस्र सौभाग्य प्रदान करने के लिए चुना है। इस तरह बरसने वाले वरदान की उपेक्षा अवमानना करना किन्हीं अदूरदर्शी हतभागियों से ही बन पड़ेगा। लोभ-मोह के बन्धन तो अनादि और अनन्त हैं। उनके कुचक्र में फँसने और बँधे रहने के लिए तो हीन स्तर के प्राणी भी स्वतन्त्र हैं, पर मनुष्य अपनी गरिमा भरे भविष्य को यदि उसी तुच्छता पर आधारित करने का हठ करे, तो उसे किस प्रकार समझदारों की पंक्ति में बिठाया जा सकेगा?
सरकार मोर्चे पर सैनिकों को लड़ने भेजती है, तो उनके लिए आवश्यक अस्त्रों-उपकरणों की, भोजन-आच्छादन की व्यवस्था भी करती है और उनके घर-परिवार के सदस्यों के निर्वाह हेतु वेतन भी प्रदान करती है। युग सृजन के लिए कटिबद्ध होने वाले को आवश्यक प्रतिभा से लेकर उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध न हों, ऐसा हो ही नहीं सकता। नवसृजन की संभावना तो पूरी होने ही वाली है; क्योंकि उसके न बन पड़ने पर महाप्रलय ही शेष रह जाती है, जो कि स्रष्टा को अभी स्वीकार नहीं।
व्यक्ति और समाज अभी इस कदर गुँथ गए हैं कि दोनों का पारस्परिक तालमेल पानी और मछली जैसा अविच्छिन्न हो गया है। कोई निजी उन्नति से, निजी सुविधा सम्पादन भर से सुखी नहीं रह सकता। सम्बद्ध वातावरण यदि विपन्न है, तो किसी सज्जन की शांति सुरक्षित नहीं रह सकती। गुण्डागर्दी एक जगह पनपेगी, तो समूचे क्षेत्र में विग्रह खड़ा करने का निमित्त कारण बनेगी। बढ़ी हुई जनसंख्या और आधुनिक प्रगति के फलस्वरूप अब निजी जीवन को सही बना भर लेने से काम चलने वाला नहीं। इसलिए जनमानस के गिरे हुए स्तर को उभारना प्रकारान्तर से अपनी और अपने परिष्कार की सुरक्षा करना है। सामूहिक जीवन मनुष्य की नियति है। इन दिनों सामूहिकता और भी अनिवार्य हो गयी है। अपने मतलब से मतलब रखने की नीति अपनाने वाले यह नहीं समझते कि समुन्नत समाज के घटक ही वास्तव में सुखी रह सकते हैं।
युगधर्म अपनाएँ- प्रतिभा सम्पादन के लिए विशेषतया उच्चस्तरीय वातावरण में एक साथ रहना, उत्कृष्ट सोचना और आदर्शवादी क्रियाकलापों में निरत रहना चाहिए। निजी सुधार एवं अभ्युदय भी इसके बिना नहीं हो सकता। अपनी स्थिति लोकसेवी और उदारचेता सद्गुणी रखे बिना किसी को शारीरिक बनावट मात्र से प्रभावशाली होने का अवसर नहीं मिल सकता। सद्गुणों का बाहुल्य एवं अभ्यास ही किसी को इस योग्य बनाता है कि अन्यान्यों का सम्मान एवं सहयोग अर्जित कर सके। इसी सफलता के आधार पर किसी भी प्रतिभा और गरिमा का वास्तविक मूल्यांकन हो सकता है।
आवश्यक है कि संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में ही अपनी समूची क्षमताएँ न खपा दी जायें। इसमें जितना लाभ दिखाई पड़ता हो, उसकी तुलना में घाटा अधिक है। व्यापक स्तर का सर्वजनीन स्वार्थ ही परमार्थ है। परमार्थ परायण अपना निज का हित साधन तो निश्चित रूप से करते ही हैं, साथ ही चन्दन वृक्ष की तरह निकटवर्ती लोगों को भी गरिमा प्रदान करते हैं। प्रतिभा सम्पादन के लिए जिस प्राथमिक कक्षा मेें पढ़े, बिना काम नहीं चलता वह है सेवा-साधना
पिछड़ों और पीड़ितों की प्रत्यक्ष सहायता मात्र से अनेक लोग संतुष्ट हो जाते हैं। वे वह नहीं सोचते कि दृष्टिकोण और चरित्र का घटियापन ही समस्त अभावों और संकटों का प्रमुख कारण है। जिन्हें सेवाधर्म अपनाना हो और वस्तु स्थिति की गहराई तक जाना हो, उन्हें लोकमानस के परिष्कार के, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए अपनी सामर्थ्य भर प्रयास करना चाहिए। ऐसे सेवाभावी जहाँ पुण्य परमार्थ से जुड़ी हुई अनेकानेक उपलब्धियाँ हस्तगत करते हैं, वहाँ सुनिश्चित रूप से प्रतिभा परिवर्धन में भी सफल होते हैं। उच्चस्तरीय सेवा साधना में दो ही प्रमुख तत्त्व हैं-एक सत्प्रवृत्ति संवर्धन, दूसरा दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन। इन दो प्रयासों को अपनाने के लिए अपने समय और साधनों का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहने का महत्त्व समझा जाना चाहिए।
इस योगदान को नित्य कर्म में सम्मिलित करना चाहिए। शारीरिक स्थिरता के लिए भोजन जुटाना और निकलने वाले मलों की सफाई करते रहना आवश्यक है। उसी प्रकार चेतना में उत्कृष्टता भरने के लिए-लोकमंगल का वातावरण बनाने के लिए सदाशयता बढ़ाने और अवांछनीयता हटाने के लिए तत्परता का परिचय देना चाहिए। इसके लिए समयदान और अंशदान की न्यूनतम मर्यादा निश्चित करनी ही चाहिए और जो व्रतधारण किया है, उसका निर्वाह करते रहने में अपनी श्रद्धा-निष्ठा एवं मनस्विता का परिचय देना चाहिए। इसे प्रतिभा संवर्धन की अनिवार्य फीस मानकर चलना चाहिए।
युग की प्रबलतम माँग को देखते हुए प्रारम्भ में दो निर्धारण अपनाए गए हैं, बाद में तो बहुत कुछ करना होगा। प्रथम चरण में उदारचेता सज्जनों को खोजना, उन्हें एक सूत्र में पिरोना, साथ ही उन्हें सत्प्रयोजनों में लगाए रहना। इसी प्रक्रिया को सतयुग की वापसी नाम दिया गया है। प्रचलित अनेकानेक अवांछनीयताओं में से जिसे हटाने की प्राथमिकता दी गई है, उसका नाम है-विवाह विकृतियों का उन्मूलन।
यह दोनों देखने में साधारण प्रतीत होते हैं, पर वस्तुत: इन दोनों के साथ इतनी बड़ी संभावनाएँ जुड़ी हुई हैं कि जिनके फलित होने पर प्रयासरत व्यक्तियों का निजी गौरव ही नहीं बढ़ेगा; वरन् समूचे समाज का अतिशय कल्याण भी होगा। ऐसा कल्याण जिसे युग परिवर्तन अथवा वातावरण का कायाकल्प होने जैसा प्रत्यक्ष देखा जा सके।
बुद्ध, गाँधी, दयानंद, विवेकानन्द, बिनोवा जैसों की महान उपलब्धियाँ स्मरण करके हर विचारशील का अन्त:करण उमगता है, कि यदि उन्हें ऐसा ही श्रेय मिल सका होता, तो कितना अच्छा होता। उस अवसर को गँवाकर वे जिस ललक लिप्सा की पूर्ति का दिवा-स्वप्न देखते रहते हैं, उसे भी कौन साकार कर पाता है? तृष्णा मरते समय तक प्रौढ़ ही बनी रहती है। शेख-चिल्लियों का समुदाय कुबेर जैसा धनाढ्य और इन्द्र जैसा प्रतापी बनने के सपने देखता है। पर अब निष्कर्ष की वेला में मात्र इतना ही प्रतीत होता है कि कोल्हू के बैल की तरह पिलते और पिसते हुए समय बीत गया। श्मशान के भूत-पलीत की तरह डरते और डराते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगा।
भाग्यवान् वे हैं, जिनने आदर्शों के साथ रिश्ता जोड़ा, महानता का मार्ग अपनाया और ऐसा कुछ कर दिखाया, जिसका अनुकरण करते हुए असंख्यों का गौरव-गरिमा का लक्ष्य प्रदान करने वाला ऊर्जा भरा प्रकाश उपलब्ध होता रहे। मूर्खता और बुद्धिमत्ता के चयन के लिए इसी चौराहे पर सही निर्णय करने का अवसर है, वैसा सुयोग भी इन्हीं दिनों है, जिसका लाभ भगीरथ और अर्जुन ने अपनी उदात्त साहसिकता के बदले खरीदा था। वरदान अनायास ही किसी को कहाँ से मिलते हैं? देवता कुपात्रों और असमर्थों पर कृपा कहाँ से करते हैं। पात्रता की गहराई रहने पर ही वर्षा का पानी विशाल जलाशय के रूप में लहराता है।
यह युगसन्धि का प्रभात पर्व ऐसा है, जिसमें महाकाल को प्राणवान् प्रतिभाओं की असाधारण आवश्यकता पड़ रही है। दैवी प्रयोजन महामानवों केे माध्यम से ही क्रियान्वित होते हैं। अदृश्य शक्तियाँ तो उनमें प्रेरणा भर भरती है। यह व्यक्ति का निर्धारण होता है कि उन्हें अपनाये या ठुकराये। कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि दुष्ट कौरव तो पहले से ही मरे पड़े हैं। मैंने उनका पहले ही तेज हरण कर लिया। तुझे तो धर्म युद्ध में निरत होकर मात्र श्रेय भर गले में धारण करना है।
वस्तुत: युग की विकृतियों का शमन होना ही है। युग के सृजन का ऐसा महायज्ञ जाज्वल्यमान होना है, जिससे आगामी लम्बे समय तक सुख-शान्ति और प्रगति का वातावरण बना रहे एकता और समता को मान्यता मिले, ध्वंस का स्थान सृजन ग्रहण करे और चेतना तथा भौतिक शक्तियों का नियोजन मात्र सत्प्रयोजनों के निमित्त होता रहे। इसी उज्ज्वल भविष्य को ‘सतयुग की वापसी’ का नाम दिया गया है। अनीति की असुरता का दमन देवताओं की सामूहिक शक्ति - संघशक्ति दुर्गा के अवतरण से सम्भव हुआ था। लगभग उसी पुरातन प्रक्रिया का प्रत्यावर्तन नये सिरे से, नये रूप में इन दिनों सम्पन्न होने जा रहा है। उस प्रवाह में सम्मिलित होने वाले, सामान्य पत्तों की तरह हलके होते हुए भी सरिता की धाराओं पर सवार होकर बिना कुछ प्रयास के महानता के महासमुद्र में जा मिलने में सफल हो सकेंगे।
अपने काम से, किसी से कुछ पाने के लिए कहीं जाना एक बात है और किसी समर्थ सत्ता द्वारा अपने सहायक के रूप में बुलाये जाने पर वहाँ पहुँचना सर्वथा दूसरी। पहली मेें एक पक्ष की दीनता और दूसरे पक्ष की स्वाभाविक उपेक्षा रहती है; पर आमंत्रित अतिथि को लेने, स्टेशन पर माला लेकर पहुँचा और सम्मानपूर्वक ठहराया जाता है। उसके वार्तालाप को भी प्रमुखता दी जाती है और ऐसा आधार खड़ा किया जाता है कि आमंत्रित व्यक्ति में निमंत्रण का उद्देश्य समझने और उनमें सहभागी बनने की प्रतिक्रिया उत्पन्न हो। महाकाल द्वारा प्रज्ञा परिजनों को भेजे गये आमंत्रण को इसी रूप में देखा समझा जाना चाहिए।
राम स्वयं ऋष्यमूक पर्वत पर गए थे और सुग्रीव-हनुमान् को सहयोग हेतु सहमत कर लाये थे। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द के घर जाकर उन्हें देव संस्कृति के पुनरुद्धार में संलग्न होने के लिए सहमत किया था। अर्जुन को स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण समझाने से लेकर धमकाने तक की नीति अपनाकर युद्धरत होने के लिए बाधित किया था। समर्थ और शिवा के, चाणक्य और चन्द्रगुप्त के बीच भी ऐसा ही घटनाक्रम बना था। साथ ही उन्हें आवश्यक शक्ति और सफलता प्रदान करने के लिए उपयुक्त तारतम्य बिठाया था। जिन्हें पारदर्शी दृष्टि प्राप्त है, वे देख सकते हैं कि महाकाल ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए प्राणवानों के सामने गिड़गिड़ाने का उपक्रम नहीं किया है, वरन् सुनिश्चित संभावनाओं में भागीदार बनकर अजस्र सौभाग्य प्रदान करने के लिए चुना है। इस तरह बरसने वाले वरदान की उपेक्षा अवमानना करना किन्हीं अदूरदर्शी हतभागियों से ही बन पड़ेगा। लोभ-मोह के बन्धन तो अनादि और अनन्त हैं। उनके कुचक्र में फँसने और बँधे रहने के लिए तो हीन स्तर के प्राणी भी स्वतन्त्र हैं, पर मनुष्य अपनी गरिमा भरे भविष्य को यदि उसी तुच्छता पर आधारित करने का हठ करे, तो उसे किस प्रकार समझदारों की पंक्ति में बिठाया जा सकेगा?
सरकार मोर्चे पर सैनिकों को लड़ने भेजती है, तो उनके लिए आवश्यक अस्त्रों-उपकरणों की, भोजन-आच्छादन की व्यवस्था भी करती है और उनके घर-परिवार के सदस्यों के निर्वाह हेतु वेतन भी प्रदान करती है। युग सृजन के लिए कटिबद्ध होने वाले को आवश्यक प्रतिभा से लेकर उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध न हों, ऐसा हो ही नहीं सकता। नवसृजन की संभावना तो पूरी होने ही वाली है; क्योंकि उसके न बन पड़ने पर महाप्रलय ही शेष रह जाती है, जो कि स्रष्टा को अभी स्वीकार नहीं।
व्यक्ति और समाज अभी इस कदर गुँथ गए हैं कि दोनों का पारस्परिक तालमेल पानी और मछली जैसा अविच्छिन्न हो गया है। कोई निजी उन्नति से, निजी सुविधा सम्पादन भर से सुखी नहीं रह सकता। सम्बद्ध वातावरण यदि विपन्न है, तो किसी सज्जन की शांति सुरक्षित नहीं रह सकती। गुण्डागर्दी एक जगह पनपेगी, तो समूचे क्षेत्र में विग्रह खड़ा करने का निमित्त कारण बनेगी। बढ़ी हुई जनसंख्या और आधुनिक प्रगति के फलस्वरूप अब निजी जीवन को सही बना भर लेने से काम चलने वाला नहीं। इसलिए जनमानस के गिरे हुए स्तर को उभारना प्रकारान्तर से अपनी और अपने परिष्कार की सुरक्षा करना है। सामूहिक जीवन मनुष्य की नियति है। इन दिनों सामूहिकता और भी अनिवार्य हो गयी है। अपने मतलब से मतलब रखने की नीति अपनाने वाले यह नहीं समझते कि समुन्नत समाज के घटक ही वास्तव में सुखी रह सकते हैं।
युगधर्म अपनाएँ- प्रतिभा सम्पादन के लिए विशेषतया उच्चस्तरीय वातावरण में एक साथ रहना, उत्कृष्ट सोचना और आदर्शवादी क्रियाकलापों में निरत रहना चाहिए। निजी सुधार एवं अभ्युदय भी इसके बिना नहीं हो सकता। अपनी स्थिति लोकसेवी और उदारचेता सद्गुणी रखे बिना किसी को शारीरिक बनावट मात्र से प्रभावशाली होने का अवसर नहीं मिल सकता। सद्गुणों का बाहुल्य एवं अभ्यास ही किसी को इस योग्य बनाता है कि अन्यान्यों का सम्मान एवं सहयोग अर्जित कर सके। इसी सफलता के आधार पर किसी भी प्रतिभा और गरिमा का वास्तविक मूल्यांकन हो सकता है।
आवश्यक है कि संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में ही अपनी समूची क्षमताएँ न खपा दी जायें। इसमें जितना लाभ दिखाई पड़ता हो, उसकी तुलना में घाटा अधिक है। व्यापक स्तर का सर्वजनीन स्वार्थ ही परमार्थ है। परमार्थ परायण अपना निज का हित साधन तो निश्चित रूप से करते ही हैं, साथ ही चन्दन वृक्ष की तरह निकटवर्ती लोगों को भी गरिमा प्रदान करते हैं। प्रतिभा सम्पादन के लिए जिस प्राथमिक कक्षा मेें पढ़े, बिना काम नहीं चलता वह है सेवा-साधना
पिछड़ों और पीड़ितों की प्रत्यक्ष सहायता मात्र से अनेक लोग संतुष्ट हो जाते हैं। वे वह नहीं सोचते कि दृष्टिकोण और चरित्र का घटियापन ही समस्त अभावों और संकटों का प्रमुख कारण है। जिन्हें सेवाधर्म अपनाना हो और वस्तु स्थिति की गहराई तक जाना हो, उन्हें लोकमानस के परिष्कार के, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए अपनी सामर्थ्य भर प्रयास करना चाहिए। ऐसे सेवाभावी जहाँ पुण्य परमार्थ से जुड़ी हुई अनेकानेक उपलब्धियाँ हस्तगत करते हैं, वहाँ सुनिश्चित रूप से प्रतिभा परिवर्धन में भी सफल होते हैं। उच्चस्तरीय सेवा साधना में दो ही प्रमुख तत्त्व हैं-एक सत्प्रवृत्ति संवर्धन, दूसरा दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन। इन दो प्रयासों को अपनाने के लिए अपने समय और साधनों का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहने का महत्त्व समझा जाना चाहिए।
इस योगदान को नित्य कर्म में सम्मिलित करना चाहिए। शारीरिक स्थिरता के लिए भोजन जुटाना और निकलने वाले मलों की सफाई करते रहना आवश्यक है। उसी प्रकार चेतना में उत्कृष्टता भरने के लिए-लोकमंगल का वातावरण बनाने के लिए सदाशयता बढ़ाने और अवांछनीयता हटाने के लिए तत्परता का परिचय देना चाहिए। इसके लिए समयदान और अंशदान की न्यूनतम मर्यादा निश्चित करनी ही चाहिए और जो व्रतधारण किया है, उसका निर्वाह करते रहने में अपनी श्रद्धा-निष्ठा एवं मनस्विता का परिचय देना चाहिए। इसे प्रतिभा संवर्धन की अनिवार्य फीस मानकर चलना चाहिए।
युग की प्रबलतम माँग को देखते हुए प्रारम्भ में दो निर्धारण अपनाए गए हैं, बाद में तो बहुत कुछ करना होगा। प्रथम चरण में उदारचेता सज्जनों को खोजना, उन्हें एक सूत्र में पिरोना, साथ ही उन्हें सत्प्रयोजनों में लगाए रहना। इसी प्रक्रिया को सतयुग की वापसी नाम दिया गया है। प्रचलित अनेकानेक अवांछनीयताओं में से जिसे हटाने की प्राथमिकता दी गई है, उसका नाम है-विवाह विकृतियों का उन्मूलन।
यह दोनों देखने में साधारण प्रतीत होते हैं, पर वस्तुत: इन दोनों के साथ इतनी बड़ी संभावनाएँ जुड़ी हुई हैं कि जिनके फलित होने पर प्रयासरत व्यक्तियों का निजी गौरव ही नहीं बढ़ेगा; वरन् समूचे समाज का अतिशय कल्याण भी होगा। ऐसा कल्याण जिसे युग परिवर्तन अथवा वातावरण का कायाकल्प होने जैसा प्रत्यक्ष देखा जा सके।