Books - युग की माँग प्रतिभा परिष्कार
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नारी जागरण की दूरगामी सम्भावनाएँ
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भावनाशील प्रतिभाओं को खोजना, एक सूत्र में बाँधना और उन्हें मिलजुल कर
सृजन के लिए कुछ करने में जुटाना सतयुग की वापसी का शिलान्यास है। इसी के
उपरान्त नवयुग का, उज्ज्वल भविष्य का भव्य भवन खड़ा हो सकने का विश्वास
किया जा सकता है। इसलिए इसे सम्पन्न करने के लिए इस आड़े समय में किसी
प्राणवान् को निजी कार्यों की व्यस्तता की आड़ लेकर बगलें नहीं झाँकनी
चाहिए। युग धर्म की इस प्रारंभिक माँग को हर कीमत पर पूरा करना ही चाहिए।
इन्हीं दिनों उठने वाला दूसरा चरण है- आद्यशक्ति का अभिनव अवतरण नारी जागरण। आज की स्थिति में नारी- नर की तुलना में कितनी पिछड़ी हुई है, इसे हर कोई हर कहीं नजर पसारकर अपने इर्द- गिर्द ही देख सकता है। उसे रसोईदारिन चौकीदारिन धोबिन और बच्चे जनने की मशीन बनकर अपनी जिन्दगी गुजारनी पड़ती है। दासी की तरह जुटे रहने और अन्न, वस्त्र पाने के अतिरिक्त और भी महत्त्वाकाँक्षा सँजोने के लिए उस पर कड़ा प्रतिबन्ध है। परम्परा निर्वाह के नाम पर उसे बाधित और प्रतिबन्धित रहने के लिए कोई ऐसी भूमिका निभाने की गुंजाइश नहीं है, जिससे उसे एक समग्र मनुष्य कहलाने की स्थिति तक पहुँचने का अवसर मिले।
नारी के रूप में प्राय: आधी जनसंख्या की यही स्थिति है। प्राय: शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि उनमें से कुछ सोने की जंजीरों से जकड़ी हैं, तो कुछ लोहे की जंजीरों से। इनमें से कुछ निश्चिन्त कहलाती और नौकरी प्राप्त कर लेने, धनी घर की वधू बन जाने जैसे स्तर प्राप्त कर लेती हैं, पर उन्हें भी समग्र मनुष्य जैसा स्वावलम्बन कहाँ उपलब्ध है? शेष तो अशिक्षा, अस्वस्थता से ग्रस्त होने के कारण पूरी तरह परावलम्बी ही बनी हुई हैं। आपत्तिकाल आ धमकने पर वे अपने बलबूते अपना और बच्चों का भरण- पोषण कर सकने में असमर्थ हैं।
संसार में आधी जनसंख्या नारी की है। इस वर्ग का पिछड़ी स्थिति में पड़े रहना समूची मनुष्य जाति के लिए एक अभिशाप है। इसे अर्धांग- पक्षाघात पीड़ित जैसी स्थिति भी कहा जा सकता है। एक पहिया टूटा और दूसरा साबुत हो, तो गाड़ी ठीक प्रकार चलने और लक्ष्य तक पहुँचने में कैसे समर्थ हो सकती है? एक हाथ वाले, एक पैर वाले, निर्वाह भर कर पाते हैं। समर्थों की तरह बड़े काम सफलतापूर्वक कर सकना उनसे कहाँ बन पड़ता है? आधी जनसंख्या अनगढ़ स्थिति में रहे और दूसरा आधा भाग उसे गले के पत्थर की तरह लटकाए फिरे, तो ऐसी स्थिति में किसी प्रकार समय तो पूरा किया जा सकेगा, किसी महत्त्वपूर्ण प्रगति की सम्भावना बन पड़ना तो दुष्कर ही रहेगा।
पिछड़े वर्ग को ऊँचा उठाने की इन दिनों प्रबल माँग है। इसके लिए अनुसूचित जातियों- जनजातियों को समर्थ बनाने के प्रयत्न चल रहे हैं। इस औचित्य में एक कड़ी और जुड़नी चाहिए कि हेय स्थिति में पड़ी हुई, दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा जीवन जीने वाली, अनेकानेक प्रतिबन्धों में जकड़ी हुई नारी को भी एकता और समता का लाभ मिले। इस ओर से आँख बन्द किये रहना प्रगति में चट्टान बनकर अड़ा ही रहेगा।
अपंग स्तर का व्यक्ति स्वयं कुछ कर नहीं पाता, दूसरों की अनुकम्पा पर जीता है, पर यदि उनकी स्थिति अन्य समर्थों जैसी हो जाय, तो किसी के अनुग्रह पर रहने की अपेक्षा वह अपने परिकर को अपनी उपलब्धियों से लाद सकता है। जब लेने वाला देने में बदल जाय, तो समझना चाहिए कि खाई पटी और उस स्थान पर ऊँची मीनार खड़ी हो गई। आधी जनसंख्या तक स्वतंत्रता का आलोक पहुँचाना और उसे अपने पैरों खड़ा हो सकने योग्य बनाना उस पुरुष वर्ग का विशेष रूप से कर्तव्य बनता है, जिसने पिछले दिनों अपनी अहमन्यता की पूर्ति की ऐसी विषम परिस्थिति उत्पन्न की। पाप का प्रायश्चित्त तो करना ही चाहिए। खोदी हुई खाई को पाट कर समतल भूमि भी बनानी चाहिए, ताकि उसका उपयुक्त प्रयोग हो सके।
नारी जागरण आन्दोलन इसी पुण्य प्रयास के लिए उभारा गया है। उसके लिए लेटर पैड, साइनबोर्ड मजलिस- भाषण लेखन, उद्घाटन समारोह तो आए दिन होते रहते हैं, पर उस प्रचार प्रक्रिया भर से उतनी गहराई तक नहीं पहुँचा जा सकता, जितनी की इस बड़ी समस्या के समाधान हेतु आवश्यक है। उसके लिए व्यापक जनसम्पर्क साधने और प्रचलित मान्यताओं को बदलने की सर्वप्रथम आवश्यकता है। कारण कि बच्चे से लेकर बूढ़े तक के मन में यह मान्यता गहराई तक जड़ जमा चुकी है कि नारी का स्तर दासी तक ही रहना चाहिए। यही परम्परा है, यही शास्त्र वचन। स्वयं नारी तक ने अपना मानस इसी ढाँचे में ढाल लिया है। चिरकाल तक अँधेरे में रहने वाले कैदियों की तरह उसके मन भी प्रकाश के सम्पर्क में आने का साहस टूट गया है। आवश्यकता प्रस्तुत समूचे वातावरण को बदलने की है; ताकि सुधार प्रक्रिया की लीपा- पोती न करके उसके जड़ तक पहुँचने और वहाँ अभीष्ट परिवर्तन कर सकना सम्भव हो सके।
क्रान्तिकारी कदम बढ़ें- देखा गया है कि नारी उत्थान के नाम पर प्रौढ़ शिक्षा कुटीर उद्योग, शिशु पालन, पाक विद्या, गृह व्यवस्था जैसी जानकारियाँ कराने में इतिश्री मान ली जाती है। यों यह सभी बातें भी आवश्यक हैं और किया इन्हें भी जाना चाहिए, पर मूल प्रश्न उस मान्यता को बदलने का है। जिसके आधार पर नारी को पिछड़ेपन में बँधी रहने वाली व्यापक मान्यता में कारगर परिवर्तन सम्भव हो सके। नारी को भी मनुष्य माना जा सके।
आज तो लड़के लड़की के दृष्टिकोण का असाधारण अन्तर है। लड़की के जन्मते ही परिवार का मुँह लटक जाता है और लड़का होने पर बधाइयाँ बँटने और नगाड़े बजने लगते हैं। लड़का कुल का दीपक और लड़की पराए घर का कूड़ा समझी जाती है। वरपक्ष दहेज की लम्बी चौड़ी माँगें करता है और लड़की के अभिभावक विवशता के आगे सिर झुकाकर लुट जाने के लिए आत्म समर्पण करते हैं। पति के तनिक अप्रसन्न होने पर उन्हें परित्यक्ता बना दिया जाना और रोते कलपते जैसे- तैसे भला बुरा जीवन जीने की घटनाएँ इतनी कम नहीं होती जिनको आजादी दी जा सके। दहेज के लिए यातनाएँ दिये जाने की कुछ घटनाएँ तो अखबारों तक में छप जाती हैं, पर जो भीतर ही भीतर दबा दी जाती हैं, उनकी संख्या छपने वाली घटनाओं से अनेक गुनी अधिक हैं।
पतिव्रत पालन के लिए लौह अंकुश रहता है, पर पत्नीव्रत का कहीं अता- पता नहीं। विधुर प्रसन्नतापूर्वक विवाह करते हैं, पर विधवाओं को ऐसी छूट कहाँ? नारियाँ सती होती हैं, पर नर वैसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते। नारियाँ घूँघट करके रहती हैं। नाक, कान छिदवाकर सज- धज के रहने के लिए उन्हें इसलिए बाधित किया जाता है कि वे अपना रमणी, कामिनी, भोग्या और दासी होने की नियति का स्वेच्छापूर्वक- उत्साहपूर्वक मानस बनाये रख सकें।
लोकमानस का यह लौह आवरण हटे बिना नारी को नर के समतुल्य बनाने और उन्हें अपनी प्रतिभा का परिपूर्ण परिचय देकर प्रगति पथ पर कन्धे से कन्धा मिलाकर चलते रहने का अवसर आखिर कैसे मिल सकता है? आवश्यकता इस लौह आवरण के ऊपर लाखों- करोड़ों छेनी हथौड़े चलाने की है, ताकि निविड़ बन्धनों से जकड़ी आधी जनसंख्या को छुटकारा पाने के लिए उपयुक्त वातावरण बन सके। अपने मिशन का नारी जागरण अभियान इसी गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न कर रहा है। पत्तों पर जमीं धूल को पोंछ कर चिह्न पूजा कर लेने से तो आत्म प्रवंचना और लोक विडम्बना भर बन पड़ती है।
नारी जागरण अभियान के लिए जो महिला मण्डल गठित किये जा रहे हैं। उनका शुभारम्भ श्रीगणेश तो हलके- फुलके कार्यक्रम को हाथ में लेकर ही किया जा रहा है, पर यह नवसृजन का भूमिपूजन मात्र है। वस्तुस्थिति अवगत कराने के लिए उस आन्दोलन को जन्म देना पड़ेगा जो मानवी स्वतंत्रता और समता का लक्ष्य पूरा करके ही विराम ले।
कहा गया है कि अखण्ड ज्योति के परिजन स्वयं पाँच- पाँच के मण्डलों में गठित हों और पाँच से पच्चीस बनकर मण्डल को पूर्णता तक पहुँचाएँ। साथ ही कहा गया है कि वे अपने परिवार तथा सम्पर्क क्षेत्र में से ढूँढ़- खोजकर पाँच प्रतिभाशाली महिलाओं की एक मण्डली बनाएँ। वे भी परस्पर सम्पर्क साधते हुए पाँच से पच्चीस बनने का लक्ष्य प्राप्त करें। साप्ताहिक उनके लिए भी उसी प्रकार अनिवार्य किया गया है जैसा कि पुरुषों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इतना बन पड़ने पर ही यह माना जाएगा कि पुरुषों का एवं नारियों का सतयुग की वापसी के लिए किया जाने वाला प्रयास जड़ें पकड़ लिया है।
पुरुषों को नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्रान्ति की तैयारी करनी है। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की संरचना की भी। व्यक्ति, परिवार और समाज के तीनों ही क्षेत्रों में सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन और कुरीति उन्मूलन की बहुमुखी प्रवृत्तियों को जन्म देना और मार्गदर्शन करना है। इसके लिए कार्यकर्ताओं की योग्यता और परिस्थितियों की आवश्यकता से तालमेल बिठाते हुए अनेक प्रकार के छोटे- बड़े कार्यक्रम हाथ में लिए जाने हैं, जिनके लिए आवश्यकता हो या शान्तिकुञ्ज के साथ विचार विनिमय भी करते रहा जा सकता है।
महिलाओं के लिए साप्ताहिक सत्संगों को सुनिश्चित बनाने के उपरान्त शिक्षा संवर्धन, आर्थिक स्वावलम्बन से सम्बन्धित गृह उद्योग, संगीत अभ्यास से मुखर होने और अभिव्यक्तियों को प्रकट कर सकने का अभ्यास, कुरीति उन्मूलन के लिए छोटे- बड़े आयोजन तथा परिवार निर्माण की समुचित योग्यता प्राप्त करना सभी महिला मण्डलों के लिए समान कार्यक्रम बना है। इससे आगे उन्हें ऐसा कुछ कर दिखाना है जिससे मात्र व्यक्तिगत स्थिति ही न सुधरे, वरन् व्यापक नारी समस्याओं के समाधान के लिये क्षेत्रीय तन्त्र खड़े करने का सरंजाम जुटा सकें। असहाय महिलाओं को समर्थ बनाना और उन्हें लोकसेविका बनाने का कार्यक्रम भी इसी योजना को निकट भविष्य में कार्यान्वित किया जाने वाला बड़ा कदम है, जो अपने समय पर अपने ढंग से निरन्तर उठते रहेंगे, गति पकड़ते रहेंगे।
हर किसी को समझना और समझाया जाना कि नारी आद्यशक्ति है। वही सृष्टि को उत्पन्न करने वाली, अपने स्तर के स्वरूप परिवार का तथा भावी पीढ़ी का सृजन करने में पूरी तरह समर्थ है। इक्कीसवीं सदी में उसी का वर्चस्व प्रधान रहने वाला है। नर ने अपनी कठोर, प्रकृति के आधार पर पराक्रम भले ही कितना क्यों न किया हो? पर उसी की अहंकारी उद्दण्डता ने अनाचार का माहौल बनाया है। स्रष्टा की इच्छा है कि स्नेह, सहयोग, सृजन, करुणा, सेवा और मैत्री जैसी विभूतियों को संसार पर बरसने का अवसर मिले; ताकि युद्ध जैसी अनेकानेक दुष्टताओं का सदा सर्वदा के लिए अन्त हो सके।
इस भवितव्यता को स्वीकार करने के लिए लोकमानस को समझाया और दबाया जाना चाहिए कि वह नारी की समता से नहीं, वरिष्ठता से भी लाभान्वित करे। सतयुग की वापसी का शुभारम्भ करना वर्तमान जन समुदाय का काम है। ढाँचा और तंत्र खड़ा करना, सरंजाम जुटाना और वातावरण जुटाना उसी का काम है। पर उन उत्तरदायित्वों को अगली पीढ़ी के ही कन्धों को ही उठाना होगा। आज जो पौधे लगाए जा रहे हैं, उनके द्वारा विकसित हुए फूलों की शोभा- सुषमा को सुरक्षित रखने का कार्य तो वे ही करेंगे, जो आज भले ही जन्मे हों, जन्मने जा रहे हों, पर आवश्यकता के समय तक प्रौढ़ परिपक्व होकर रहेंगे।
ऐसी समुन्नत पीढ़ी को जन्म दे सकना तथा सुसंस्कृत बनाना उन नारियों के लिए संभव हो सकेगा, जो आज के महान अभ्युदय में भागीदार बनकर नवसृजन की महती भूमिका निभाने में किसी न किसी प्रकार अपनी विशिष्टता का परिचय देगी। आज के नारी जागरण आन्दोलन को भविष्य में अतिशय प्रभावित करने वाला बनाना भी इसका एक महान उद्देश्य है।
इन्हीं दिनों उठने वाला दूसरा चरण है- आद्यशक्ति का अभिनव अवतरण नारी जागरण। आज की स्थिति में नारी- नर की तुलना में कितनी पिछड़ी हुई है, इसे हर कोई हर कहीं नजर पसारकर अपने इर्द- गिर्द ही देख सकता है। उसे रसोईदारिन चौकीदारिन धोबिन और बच्चे जनने की मशीन बनकर अपनी जिन्दगी गुजारनी पड़ती है। दासी की तरह जुटे रहने और अन्न, वस्त्र पाने के अतिरिक्त और भी महत्त्वाकाँक्षा सँजोने के लिए उस पर कड़ा प्रतिबन्ध है। परम्परा निर्वाह के नाम पर उसे बाधित और प्रतिबन्धित रहने के लिए कोई ऐसी भूमिका निभाने की गुंजाइश नहीं है, जिससे उसे एक समग्र मनुष्य कहलाने की स्थिति तक पहुँचने का अवसर मिले।
नारी के रूप में प्राय: आधी जनसंख्या की यही स्थिति है। प्राय: शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि उनमें से कुछ सोने की जंजीरों से जकड़ी हैं, तो कुछ लोहे की जंजीरों से। इनमें से कुछ निश्चिन्त कहलाती और नौकरी प्राप्त कर लेने, धनी घर की वधू बन जाने जैसे स्तर प्राप्त कर लेती हैं, पर उन्हें भी समग्र मनुष्य जैसा स्वावलम्बन कहाँ उपलब्ध है? शेष तो अशिक्षा, अस्वस्थता से ग्रस्त होने के कारण पूरी तरह परावलम्बी ही बनी हुई हैं। आपत्तिकाल आ धमकने पर वे अपने बलबूते अपना और बच्चों का भरण- पोषण कर सकने में असमर्थ हैं।
संसार में आधी जनसंख्या नारी की है। इस वर्ग का पिछड़ी स्थिति में पड़े रहना समूची मनुष्य जाति के लिए एक अभिशाप है। इसे अर्धांग- पक्षाघात पीड़ित जैसी स्थिति भी कहा जा सकता है। एक पहिया टूटा और दूसरा साबुत हो, तो गाड़ी ठीक प्रकार चलने और लक्ष्य तक पहुँचने में कैसे समर्थ हो सकती है? एक हाथ वाले, एक पैर वाले, निर्वाह भर कर पाते हैं। समर्थों की तरह बड़े काम सफलतापूर्वक कर सकना उनसे कहाँ बन पड़ता है? आधी जनसंख्या अनगढ़ स्थिति में रहे और दूसरा आधा भाग उसे गले के पत्थर की तरह लटकाए फिरे, तो ऐसी स्थिति में किसी प्रकार समय तो पूरा किया जा सकेगा, किसी महत्त्वपूर्ण प्रगति की सम्भावना बन पड़ना तो दुष्कर ही रहेगा।
पिछड़े वर्ग को ऊँचा उठाने की इन दिनों प्रबल माँग है। इसके लिए अनुसूचित जातियों- जनजातियों को समर्थ बनाने के प्रयत्न चल रहे हैं। इस औचित्य में एक कड़ी और जुड़नी चाहिए कि हेय स्थिति में पड़ी हुई, दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा जीवन जीने वाली, अनेकानेक प्रतिबन्धों में जकड़ी हुई नारी को भी एकता और समता का लाभ मिले। इस ओर से आँख बन्द किये रहना प्रगति में चट्टान बनकर अड़ा ही रहेगा।
अपंग स्तर का व्यक्ति स्वयं कुछ कर नहीं पाता, दूसरों की अनुकम्पा पर जीता है, पर यदि उनकी स्थिति अन्य समर्थों जैसी हो जाय, तो किसी के अनुग्रह पर रहने की अपेक्षा वह अपने परिकर को अपनी उपलब्धियों से लाद सकता है। जब लेने वाला देने में बदल जाय, तो समझना चाहिए कि खाई पटी और उस स्थान पर ऊँची मीनार खड़ी हो गई। आधी जनसंख्या तक स्वतंत्रता का आलोक पहुँचाना और उसे अपने पैरों खड़ा हो सकने योग्य बनाना उस पुरुष वर्ग का विशेष रूप से कर्तव्य बनता है, जिसने पिछले दिनों अपनी अहमन्यता की पूर्ति की ऐसी विषम परिस्थिति उत्पन्न की। पाप का प्रायश्चित्त तो करना ही चाहिए। खोदी हुई खाई को पाट कर समतल भूमि भी बनानी चाहिए, ताकि उसका उपयुक्त प्रयोग हो सके।
नारी जागरण आन्दोलन इसी पुण्य प्रयास के लिए उभारा गया है। उसके लिए लेटर पैड, साइनबोर्ड मजलिस- भाषण लेखन, उद्घाटन समारोह तो आए दिन होते रहते हैं, पर उस प्रचार प्रक्रिया भर से उतनी गहराई तक नहीं पहुँचा जा सकता, जितनी की इस बड़ी समस्या के समाधान हेतु आवश्यक है। उसके लिए व्यापक जनसम्पर्क साधने और प्रचलित मान्यताओं को बदलने की सर्वप्रथम आवश्यकता है। कारण कि बच्चे से लेकर बूढ़े तक के मन में यह मान्यता गहराई तक जड़ जमा चुकी है कि नारी का स्तर दासी तक ही रहना चाहिए। यही परम्परा है, यही शास्त्र वचन। स्वयं नारी तक ने अपना मानस इसी ढाँचे में ढाल लिया है। चिरकाल तक अँधेरे में रहने वाले कैदियों की तरह उसके मन भी प्रकाश के सम्पर्क में आने का साहस टूट गया है। आवश्यकता प्रस्तुत समूचे वातावरण को बदलने की है; ताकि सुधार प्रक्रिया की लीपा- पोती न करके उसके जड़ तक पहुँचने और वहाँ अभीष्ट परिवर्तन कर सकना सम्भव हो सके।
क्रान्तिकारी कदम बढ़ें- देखा गया है कि नारी उत्थान के नाम पर प्रौढ़ शिक्षा कुटीर उद्योग, शिशु पालन, पाक विद्या, गृह व्यवस्था जैसी जानकारियाँ कराने में इतिश्री मान ली जाती है। यों यह सभी बातें भी आवश्यक हैं और किया इन्हें भी जाना चाहिए, पर मूल प्रश्न उस मान्यता को बदलने का है। जिसके आधार पर नारी को पिछड़ेपन में बँधी रहने वाली व्यापक मान्यता में कारगर परिवर्तन सम्भव हो सके। नारी को भी मनुष्य माना जा सके।
आज तो लड़के लड़की के दृष्टिकोण का असाधारण अन्तर है। लड़की के जन्मते ही परिवार का मुँह लटक जाता है और लड़का होने पर बधाइयाँ बँटने और नगाड़े बजने लगते हैं। लड़का कुल का दीपक और लड़की पराए घर का कूड़ा समझी जाती है। वरपक्ष दहेज की लम्बी चौड़ी माँगें करता है और लड़की के अभिभावक विवशता के आगे सिर झुकाकर लुट जाने के लिए आत्म समर्पण करते हैं। पति के तनिक अप्रसन्न होने पर उन्हें परित्यक्ता बना दिया जाना और रोते कलपते जैसे- तैसे भला बुरा जीवन जीने की घटनाएँ इतनी कम नहीं होती जिनको आजादी दी जा सके। दहेज के लिए यातनाएँ दिये जाने की कुछ घटनाएँ तो अखबारों तक में छप जाती हैं, पर जो भीतर ही भीतर दबा दी जाती हैं, उनकी संख्या छपने वाली घटनाओं से अनेक गुनी अधिक हैं।
पतिव्रत पालन के लिए लौह अंकुश रहता है, पर पत्नीव्रत का कहीं अता- पता नहीं। विधुर प्रसन्नतापूर्वक विवाह करते हैं, पर विधवाओं को ऐसी छूट कहाँ? नारियाँ सती होती हैं, पर नर वैसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते। नारियाँ घूँघट करके रहती हैं। नाक, कान छिदवाकर सज- धज के रहने के लिए उन्हें इसलिए बाधित किया जाता है कि वे अपना रमणी, कामिनी, भोग्या और दासी होने की नियति का स्वेच्छापूर्वक- उत्साहपूर्वक मानस बनाये रख सकें।
लोकमानस का यह लौह आवरण हटे बिना नारी को नर के समतुल्य बनाने और उन्हें अपनी प्रतिभा का परिपूर्ण परिचय देकर प्रगति पथ पर कन्धे से कन्धा मिलाकर चलते रहने का अवसर आखिर कैसे मिल सकता है? आवश्यकता इस लौह आवरण के ऊपर लाखों- करोड़ों छेनी हथौड़े चलाने की है, ताकि निविड़ बन्धनों से जकड़ी आधी जनसंख्या को छुटकारा पाने के लिए उपयुक्त वातावरण बन सके। अपने मिशन का नारी जागरण अभियान इसी गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न कर रहा है। पत्तों पर जमीं धूल को पोंछ कर चिह्न पूजा कर लेने से तो आत्म प्रवंचना और लोक विडम्बना भर बन पड़ती है।
नारी जागरण अभियान के लिए जो महिला मण्डल गठित किये जा रहे हैं। उनका शुभारम्भ श्रीगणेश तो हलके- फुलके कार्यक्रम को हाथ में लेकर ही किया जा रहा है, पर यह नवसृजन का भूमिपूजन मात्र है। वस्तुस्थिति अवगत कराने के लिए उस आन्दोलन को जन्म देना पड़ेगा जो मानवी स्वतंत्रता और समता का लक्ष्य पूरा करके ही विराम ले।
कहा गया है कि अखण्ड ज्योति के परिजन स्वयं पाँच- पाँच के मण्डलों में गठित हों और पाँच से पच्चीस बनकर मण्डल को पूर्णता तक पहुँचाएँ। साथ ही कहा गया है कि वे अपने परिवार तथा सम्पर्क क्षेत्र में से ढूँढ़- खोजकर पाँच प्रतिभाशाली महिलाओं की एक मण्डली बनाएँ। वे भी परस्पर सम्पर्क साधते हुए पाँच से पच्चीस बनने का लक्ष्य प्राप्त करें। साप्ताहिक उनके लिए भी उसी प्रकार अनिवार्य किया गया है जैसा कि पुरुषों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इतना बन पड़ने पर ही यह माना जाएगा कि पुरुषों का एवं नारियों का सतयुग की वापसी के लिए किया जाने वाला प्रयास जड़ें पकड़ लिया है।
पुरुषों को नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्रान्ति की तैयारी करनी है। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की संरचना की भी। व्यक्ति, परिवार और समाज के तीनों ही क्षेत्रों में सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन और कुरीति उन्मूलन की बहुमुखी प्रवृत्तियों को जन्म देना और मार्गदर्शन करना है। इसके लिए कार्यकर्ताओं की योग्यता और परिस्थितियों की आवश्यकता से तालमेल बिठाते हुए अनेक प्रकार के छोटे- बड़े कार्यक्रम हाथ में लिए जाने हैं, जिनके लिए आवश्यकता हो या शान्तिकुञ्ज के साथ विचार विनिमय भी करते रहा जा सकता है।
महिलाओं के लिए साप्ताहिक सत्संगों को सुनिश्चित बनाने के उपरान्त शिक्षा संवर्धन, आर्थिक स्वावलम्बन से सम्बन्धित गृह उद्योग, संगीत अभ्यास से मुखर होने और अभिव्यक्तियों को प्रकट कर सकने का अभ्यास, कुरीति उन्मूलन के लिए छोटे- बड़े आयोजन तथा परिवार निर्माण की समुचित योग्यता प्राप्त करना सभी महिला मण्डलों के लिए समान कार्यक्रम बना है। इससे आगे उन्हें ऐसा कुछ कर दिखाना है जिससे मात्र व्यक्तिगत स्थिति ही न सुधरे, वरन् व्यापक नारी समस्याओं के समाधान के लिये क्षेत्रीय तन्त्र खड़े करने का सरंजाम जुटा सकें। असहाय महिलाओं को समर्थ बनाना और उन्हें लोकसेविका बनाने का कार्यक्रम भी इसी योजना को निकट भविष्य में कार्यान्वित किया जाने वाला बड़ा कदम है, जो अपने समय पर अपने ढंग से निरन्तर उठते रहेंगे, गति पकड़ते रहेंगे।
हर किसी को समझना और समझाया जाना कि नारी आद्यशक्ति है। वही सृष्टि को उत्पन्न करने वाली, अपने स्तर के स्वरूप परिवार का तथा भावी पीढ़ी का सृजन करने में पूरी तरह समर्थ है। इक्कीसवीं सदी में उसी का वर्चस्व प्रधान रहने वाला है। नर ने अपनी कठोर, प्रकृति के आधार पर पराक्रम भले ही कितना क्यों न किया हो? पर उसी की अहंकारी उद्दण्डता ने अनाचार का माहौल बनाया है। स्रष्टा की इच्छा है कि स्नेह, सहयोग, सृजन, करुणा, सेवा और मैत्री जैसी विभूतियों को संसार पर बरसने का अवसर मिले; ताकि युद्ध जैसी अनेकानेक दुष्टताओं का सदा सर्वदा के लिए अन्त हो सके।
इस भवितव्यता को स्वीकार करने के लिए लोकमानस को समझाया और दबाया जाना चाहिए कि वह नारी की समता से नहीं, वरिष्ठता से भी लाभान्वित करे। सतयुग की वापसी का शुभारम्भ करना वर्तमान जन समुदाय का काम है। ढाँचा और तंत्र खड़ा करना, सरंजाम जुटाना और वातावरण जुटाना उसी का काम है। पर उन उत्तरदायित्वों को अगली पीढ़ी के ही कन्धों को ही उठाना होगा। आज जो पौधे लगाए जा रहे हैं, उनके द्वारा विकसित हुए फूलों की शोभा- सुषमा को सुरक्षित रखने का कार्य तो वे ही करेंगे, जो आज भले ही जन्मे हों, जन्मने जा रहे हों, पर आवश्यकता के समय तक प्रौढ़ परिपक्व होकर रहेंगे।
ऐसी समुन्नत पीढ़ी को जन्म दे सकना तथा सुसंस्कृत बनाना उन नारियों के लिए संभव हो सकेगा, जो आज के महान अभ्युदय में भागीदार बनकर नवसृजन की महती भूमिका निभाने में किसी न किसी प्रकार अपनी विशिष्टता का परिचय देगी। आज के नारी जागरण आन्दोलन को भविष्य में अतिशय प्रभावित करने वाला बनाना भी इसका एक महान उद्देश्य है।