Books - युग की माँग प्रतिभा परिष्कार
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सुसंस्कारिता संवर्धन के दस उपक्रम
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ईर्ष्या-द्वेष, प्रतिशोध, आक्रमण, अपहरण जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ, संचित कुसंस्कारों की सहायता से सुदृढ़ और चिरस्थाई बनी रहती हैं। वे अपना हठ पूरा करती भी देखी गईं; किन्तु आदर्शवादी सत्संकल्पों के बारे में ऐसी बात नहीं है। उनका उत्पादन मानसरोवर में उत्पन्न होने वाले मोतियों की तरह जब-जब ही प्रकट होता है। तथाकथित स्वजन सम्बन्धियों मित्र, परिजनों का समर्थन न मिलने पर, सामान्य लोग पानी के अभाव में सूखने वाले पौधों की तरह सिर झुकाकर हार मान लेते हैं। एकाकी चल पड़ने का साहस दिखाना भी हर किसी के बलबूते का नहीं होता। उस प्रकार के उच्चस्तरीय उदाहरण न मिलने पर, असफल रहने की निराशा पनपती है। प्रेरणा के किसी अजस्र स्रोत के साथ भी तो प्रवाह का तारतम्य जुड़ा नहीं होता। ऐसे अनेक कारण हैं जिनमें सदुद्देश्य के लिए उभरी भावनाएँ पानी के बुलबुले की तरह कुछ ही समय हलचल में रहती हैं और फिर उदासीनता के गर्त में समा जाती हैं। देखा गया है कि आदर्शवादी उत्साह प्रायः उसी प्रकार ठण्डा पड़ता और समाप्त होता रहता है। इस दयनीय स्थिति से छुटकारा पाए बिना किसी से ऐसे श्रेष्ठ काम कदाचित् ही बन पड़ते हों, जिन्हें आदरणीय कह कर सराहा जा सके।
उसका उपचार है किसी समर्थ सत्ता से जुड़ना, उच्चस्तरीय प्रकाश और मार्गदर्शन निरन्तर मिलते रहने का तारतम्य बिठाना और ऐसे वातावरण में सम्मिलित होना जहाँ उच्चस्तरीय गतिविधियों के सूत्र संचालन का उपक्रम स्वाभाविक रूप से सदा बना रहता हो। वातावरण की तरह, श्रद्धा को नए सिरे से जगाने वाले धार्मिक कर्मकाण्डों का भी अपना महत्त्व है। धरती पर जिस तिस रूप से वर्षा का जल ही भरा पड़ा है, पर घर के पानी, गंगोत्री-उद्गम और त्रिवेणी संगम के गंगाजल की अपनी विशेष महत्ता है। स्थान की विलक्षणता और असंख्यों की श्रद्धा का अभिवर्धन मिलकर चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न करता है। पवित्रता, विशिष्टता और भाव प्रेरणा से भरे पूरे स्थानों की अपनी विशेषता एवं दिव्यता है। तीर्थयात्रा का, तीर्थसेवन का प्रचलन इसी आधार पर कार्यान्वित हुआ है।
प्रतिज्ञा संस्कारों की अपनी गरिमा है। विवाह यदि बिना देव साक्षी के, जन-उपस्थिति के, बिना कर्मकाण्ड के गुप-चुप कर लिया जाय, तो स्थिरता संदिग्ध ही रहेगी। उपनयन संस्कार दूसरा जन्म है, उसको भी सांस्कृतिक परिवेश में मान्यता मिली हुई है। वानप्रस्थ, संन्यास आदि ऊँचे कदम उठाने वाले भी उस परिवर्तन काल में शास्त्रोक्त कृत्याकृत्य सम्पन्न करते हैं। प्रतिज्ञाओं को संस्कार भाव भरे वातारण में सम्पन्न किया जाय, तो उनके निभने की आशा बहुत अधिक बढ़ जाती है। वे कृत्य यदि जीवन्त तीर्थ में और ज्वलन्त प्राण ऊर्जा के सान्निध्य में किये जायें, तो इस व्रतधारिता की दृढ़ता और असफलता असंदिग्ध रहती है। इस तत्थ को ध्यान में रखते हुए भी सुनिश्चित मनोभूमि होने पर कुछ सत्साहस को निश्चय में उतारा जा सकता है। पर यदि मानसिक दुर्बलता और वातावरण की हीनता दृष्टिगोचर हो, तो यह अच्छा है कि इसके लिए तीर्थ भूमि में, प्रखरता भरे वातावरण में शास्त्रीय अनुशासन में उसे सम्पन्न किया जाय। इसके लिए शान्तिकुञ्ज आश्रम हर कसौटी पर खरा उतरा है। सतयुग की वापसी और आद्यशक्ति अवतरण के योग्य अपना व्यक्तित्व ढालने और प्रयासों को प्रखर करने हेतु कभी पाँच दिन के लिए हरिद्वार आना चाहिए और यहाँ रहकर कुछ व्रत साधना करते हुए वह निश्चय करना चाहिए, जिससे अगले दिनों महत्त्वपूर्ण कदम उठें और उसके लिए अपने प्रसुप्त शक्ति स्रोत उभरें।
इस सन्दर्भ में अब कई प्रयोजनों के लिए व्रतधारण संस्कार निरन्तर चलते हैं, इसकी व्यवस्था की गई है; ताकि तदनुरूप उत्साह वर्धक वातावरण बना रहे और व्रतधारी अपने में कुछ विशिष्ट परिवर्तन अनुभव करते हुए लौटें।
भारतीय देव संस्कृति में पारिवारिक उत्सवों के रूप में संस्कारों और सामूहिक समाज प्रशिक्षण के लिये पर्व-त्योहारों का विशेष स्थान है। प्राचीनकाल में लोकशिक्षण की महान प्रक्रिया में इन दोनों का प्रमुख स्थान था। भाव भरे वातावरण तथा देव साक्षी के सम्मुख हुए ये आयोजन, न केवल सम्बन्धित व्यक्ति पर, वरन् परिजनों-उपस्थित जनों को उस सन्दर्भ में उद्वेलित करते थे। सुसंस्कारिता अभिवर्धन के लिये सुझाए गए मार्गदर्शन को वे सभी हृदयगंम करते थे और जिसे माध्यम बनाकर यह सब किया गया, उसे सफल बनाने में योगदान देने में तत्परता अपनाते थे। इन आयोजनों का स्वरूप ऐसा बन पड़ता था कि उससे भावनाएँ उभारने एवं उन्हें सन्मार्ग में लगाने का प्रयोजन असाधारण रूप से सिद्ध होता था।
आज उस गरिमा का स्मरण करना भी कठिन पड़ रहा है; क्योंकि अब संस्कारों, पर्वों की चिह्नपूजा भर होती है। निहित स्वार्थ उनके बहाने दक्षिणा तथा वस्तु सामग्री बटोरने का प्रयत्न करते हैं। पौरोहित्य करने वालों का न तो वैसा स्तर होता है और न विधान के भावना पक्ष का साङ्गोपाङ्ग ज्ञान। सामूहिक आयोजन की भी आवश्यकता नहीं समझी जाती। ऐसी दशा में वे उपेक्षा और उपहास के निमित्त कारण बन गए तो आश्चर्य ही क्या है? नवयुग में उस सार्वभौम, सर्वजनीन भाव उन्नयन प्रक्रिया का पुनर्जीवन संभव किया जा रहा है। सतयुग की वापसी के साथ उसे जोड़ा गया है।शान्तिकुञ्ज में जिन व्रतधारी संस्कारों को नए सिरे से आरंभ किया गया है। वे इस प्रकार हैं -
(१) जन्मदिवसोत्सव - मनुष्य जन्म की महान महिमा अनुभव करना उसके सदुपयोग की बात सोचना। शेष जीवन की सुनिश्चित विधि व्यवस्था बनाकर हर वर्ष नए जीवन को अधिक ऊँचा निर्धारण करना।
(२) बालसंस्कार - बच्चों के नामकरण, अन्नप्राशन, विद्यारम्भ आदि संस्कारों के अवसर पर, अभिभावकों को हर परिवार वालों को यह बोध कराना कि नए अभ्यागतों को हर दृष्टि से श्रेष्ठ, समुन्नत बनाने के लिए, सम्बन्धित व्यक्तियों के क्या कर्त्तव्य हैं? इन्हें पूरा करने के लिए समुचित ध्यान दिलाना।
(३) पुंसवन संस्कारः- गर्भावस्था के आरम्भिक दिनों में ही पति-पत्नी तथा सम्बन्धित परिवार के लोगों को बोध कराना कि नवजात शिशु के लिए उसके आगमन से पूर्व किन तैयारियों में जुटना और आगन्तुक को एक श्रेष्ठ विश्व नागरिक के रूप में कैसे विकसित करना?
(४) उपनयन- पशु प्रवृत्तियों से ऊँचे उठकर देव जीवन में प्रवेश करने का अनुबंध। दूसरे जन्म की अवधारणा का क्रियान्वयन। उपनयन के साथ जुड़े हुए नौ सूत्रों का, नौ मानवीय गुणों की अवधारणा के लिये अनवरत प्रयास को प्रोत्साहन।
(५) विवाह दिवसोत्सव- विवाह के समय अनुबंध का हर वर्ष नवीनीकरण। विवाह के साथ जुड़े हुए उच्चस्तरीय सिद्धान्तों का पुनः स्मरण। अब तक प्रमाद किया गया है, तो उसे विस्मृत करते हुए इस प्रकार का दाम्पत्य जीवन निर्धारण, जो हर किसी के लिये हर प्रकार श्रेयस्कर बन सके।
(६) श्राद्ध तर्पण- वंशधर पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन। संसार के दिवंगत महामानवों का अनुयायी बनने के लिए अभिनव स्फुरण। उन्हें प्रतिदिन प्रदान करने के दायित्व का स्मरण और उसे चरितार्थ करने के लिए साहस का सँजोना। पूर्वजों की कीर्ति स्मरण करते हुए उसे अक्षुण्ण रखने के लिए वृक्षारोपण जैसे कुछ नियम निर्धारण। उनकी छोड़ी जिम्मेदारियों को पूरा करना। उनकी तृप्ति के लिए परमार्थ परक उदारता का प्रदर्शन।
उपर्युक्त छः संस्कार व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन को प्रभावित करते हैं। समाज पर भी उनका उपयोगी प्रभाव पड़ता है। इससे आगे के शेष चार संस्कार वे हैं, जिनका सतयुग की वापसी और नारी जागरण से सीधा सम्बन्ध है।
(७) व्रतधारी प्रज्ञा मंडल के नव निर्माता पाँच सदस्यों को कर्त्तव्य और संकल्प की दृढ़ता बनाए रखने के लिए व्रत धारण। यही निर्धारण नव गठित महिला मंडलों पर भी लागू होता है। इस प्रयास में संलग्न होने वाली महिलाएँ भी अपने भावी कदम नियमित रूप से उठाते रहने का संकल्प लें। इस संकल्प के आधार पर ही वे व्रतधारी कहलाते हैं। इस प्रकार की शपथ लेने पर आदर्शवाद की ओर बढ़ने का हौसला बढ़ता है।
(८) आदर्श विवाह संस्कार- देखा गया है कि इन दिनों विवाह संस्कारों में धूमधाम, प्रीतिभोज, जेवर-दहेज का समावेश न रहने से पड़ोसी सम्बन्धी उपहास उड़ाते और अड़ंगा लगाते हैं। उनका जो लोग सामना नहीं कर सकते, वे दोनों पक्ष के पाँच-पाँच परिजन एवं वयस्क वर-वधू को लेकर शान्तिकुञ्ज चले आएँ। उनके विवाह संस्कार यहाँ बिना किसी प्रकार का सरंजाम जुटाए, अत्यन्त सादगी के साथ सम्पन्न हो जाते हैं।
(९) प्रायश्चित्त संस्कार- कर्मों का फल भोगना एक अनिवार्यता है। संचित दुष्कर्म यदि चेतना पर जमें रहें, तो हर प्रकार की प्रगति में वे बाधक बनते हैं और शरीरगत मनोरोग उत्पन्न करते रहते हैं। उनका परिशोधन इसी प्रकार हो सकता है कि खोदी गई खाँई को पाटा जाय। दुष्कार्यों को बदलने के लिये नये सिरे से सत्कार्यों का आयोजन करके, उस संचित कुसंस्कारों से मुक्त हुआ जाय। यह अन्तःक्षेत्र की एक बड़ी बाधा का महत्त्वपूर्ण निराकरण है।
(१०) वानप्रस्थ- पारिवारिक उत्तरदायित्व हलका होने पर मनुष्य को शेष शक्ति सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए नियोजित करके विश्व समस्याओं के समाधान में अनुकरणीय भूमिका निभानी चाहिए। नव निर्माण के उपयुक्त वातावरण बनाने के लिए अपने को खपाना चाहिए।
ये दस वे संस्कार हैं, जिन्हें करने कराने वाले हर भावनाशील को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह उपक्रम स्थानीय व्यवस्था में न बन पड़ते हों, तो इस हेतु शान्तिकुञ्ज आते रहने की तैयारी करनी चाहिए और उपर्युक्त संस्कारों में से हर संस्कार यहाँ कराए जाने पर उतना प्रभावी बन पड़ता है कि घर-गाँव में वैसा बन पड़ना शायद ही संभव हो सके।
इस अभिनव व्यवस्था के लिए शान्तिकुञ्ज में नए सिरे से नई तैयारी की गई है और सभी परिजनों को एक बार इन प्रयोजनों हेतु हरिद्वार आने की तैयारी करने के लिए कहा गया है।
इन संस्कार आयोजनों के साथ व्रतधारी प्रज्ञापुत्र बनने की परिपक्वता, सतयुग की वापसी के लिए युगान्तरीय चेतना का विस्तार, आद्यशक्ति के अवतरण हेतु नारी पुनरुत्थान का प्राणवान् आन्दोलन, खर्चीली शादियों का समग्र उन्मूलन जैसे चार महान प्रयोजन जुड़ते हैं। इन्हें अपने जीवन में, परिवार में कार्यान्वित करने के लिए उन प्रखर प्रेरणाओं की पौध शान्तिकुञ्ज से ले जाई जाय, तो उसके अधिक फलित होने की संभावना रहेगी। जिनका यहाँ तक आ सकना संभव न हो, वे इन्हीं कदमों को अपने यहाँ भी उठा सकते हैं। स्पष्ट है कि इन आयोजनों में से किसी जाति-सम्प्रदाय का, नर-नारी का कोई भेदभाव नहीं रखा गया है। अभ्युदय तो हर किसी का होना चाहिए। प्रतिभा की प्रखरता तो हर किसी में प्रकट होनी चाहिए।
सामूहिक रूप से जन-जागरण, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के रचनात्मक क्रिया-कलाप आरम्भ करने के लिए पर्व त्योहारों को समारोह पूर्वक मनाए जाने का अपना महत्त्व है। यदि सही रूप में, सही रीति से, उन्हें एक जुट होकर मनाया जा सके, तो उस प्रयास से भी युग सृजन का समन्वय चमत्कार उपस्थित कर सकता है।
कठिनाइयाँ यह हैं कि विभिन्न क्षेत्रों, वर्गों, सम्प्रदायों, देशों में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न त्योहारों की परम्परा प्रचलित है। यदि सभी वर्गों के प्रमुख त्योहारों को लेकर एक सर्वजनीन व्यवस्था हो सके, तो उस आधार पर भी एकता और समता की स्थापना में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी जुड़ सकती है। ध्यान में यह तथ्य भी रहना चाहिए।
जहाँ तक भारतीय संस्कृति का सम्बन्ध है, उसमें अनेकानेक त्योहार बिखरे मिलते हैं। यदि इन्हें समवेत करना संभव हो, तो इसके लिए प्रभावशाली लोगों को वैसी योजना बनानी चाहिए।
उत्तर भारत के अनेक त्योहारों में से प्रमुख छाँटे जा सकते हैं। वे हैं- १. दीपावली- अर्थ व्यवस्था के लिए २. वसन्त पंचमी- शिक्षा सम्वर्धन के लिए, ३. होली- स्वच्छता के लिए, ४. गुरुपूर्णिमा- अनुशासन के लिए, ५. श्रावणी-स्नेह सहकार के लिए, ६. विजय दशमी- शक्ति सम्वर्धन के लिए हो सकते हैं। इन्हें कैसे मनाया जाय? इसका शान्तिकुञ्ज का अपना निर्धारण है। संपर्क में आने वाले देख लें और सुधार के लिए सुझाव दें।
पिछले दिनों किए हुए दुष्कर्म कुसंस्कार बनकर मानस पर छाए रहते हैं और अनेक रोग-शोक उत्पन्न करते रहते हैं। उन्हीं अवरोधों के कारण न तो प्रतिभा परिष्कृत होती है न व्यक्ति निखरता है और न भविष्य उज्ज्वल बनता है। इसलिए आत्मबल बढ़ने के लिए संचित पापों का परिमार्जन करना आवश्यक हो जाता है। यही प्रायश्चित्त विधान है। तपश्चर्या या संयम साधना भी इसी को कहते हैं। इसका विधान है कि जितनी खाई खोदी है, उतनी मिट्टी डालकर बराबर करना। पापों के अनुरूप पुण्य कृत्यों को कर गुजरने के लिए सहायक कदम उठाया जाना।
प्रतिभा परिष्कार- इस माध्यम से सशक्त सत्ता के साथ जुड़ना, तादात्म्य स्थापित करना, एकीभूत होना होता है। ईंधन समर्पण के माध्यम से अग्नि बन जाता है। नाले का विलय उसे गंगा के समतुल्य बना देता है विशाल टंकी के साथ जुड़ा हुआ नल सदा भरपूर पानी देता रहता है, पावर हाऊस का सम्पर्क घर के साथ जुड़ने पर पंखे एवं बल्ब बराबर जलते रहते हैं। आत्मदृष्टि के साथ अपने को घनिष्टतापूर्वक जोड़ लेना दीक्षा कहलाती है। इस आलोक के आधार पर पारस को छूकर लोहा सोना बनने का उदाहरण प्रस्तुत करता है। चन्दन के समीपवर्ती झाड़ झंखाड़ भी सुगंधित बन जाते हैं। स्वाती की बूँद धारण करने से सीप में मोती उत्पन्न होता है। श्रद्धा और विश्वास की साधना के साथ जो दीक्षा ग्रहण की जाती है, वह प्राण प्रत्यावर्तन जैसे नव जीवन का चमत्कार उत्पन्न करती है। प्रायश्चित्त और दीक्षा के विधानों को सम्पन्न कर लेना आत्मिक परिष्कार का प्रमुख आधार है।
इन दोनों उपक्रमों के लिए पिछले घटना क्रम-वर्तमान के स्वरूप और भावी निर्धारण के साथ ताल मेल बिठाते हुए किस प्रकार क्या किया जाना है? इस सम्बन्ध में किसी प्रामाणिक* एवम् अनुभवी महापुरुषों से आवश्यक परामर्श कर लेना चाहिए। शान्तिकुञ्ज को भी ऐसे विचार-विनिमय में साझीदार बनाया जा सकता है।
[युगऋषि ने जिस ईश्वरीय योजना ‘युग निर्माण योजना’ को मूर्त रूप देने का अभियान चलाया है। उसे किसी एक संस्था या संगठन तक सीमित नहीं रखा जा सकता। उसमें तो इस युग में कार्यरत हर प्रतिभावान् एवं प्रत्येक सृजनशील-सुधारवादी संगठन की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिकाएँ रहेंगी। देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार युग निर्माण के सूत्र-सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने का क्रम चलता रहेगा। अतः इस हेतु सभी प्रतिभाओं को अपनी-अपनी भूमिका चुनने के लिए प्रेरित किया गया है। शांतिकुंज का परामर्श सहयोग उन सबके लिए खुला रहेगा। ]