Books - युग की माँग प्रतिभा परिष्कार
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नारी जागरण की दूरगामी सम्भावनाएँ
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क्रान्तिकारी कदम बढ़ें- देखा गया है कि नारी उत्थान के नाम पर प्रौढ़ शिक्षा कुटीर उद्योग, शिशु पालन, पाक विद्या, गृह व्यवस्था जैसी जानकारियाँ कराने में इतिश्री मान ली जाती है। यों यह सभी बातें भी आवश्यक हैं और किया इन्हें भी जाना चाहिए, पर मूल प्रश्र उस मान्यता को बदलने का है। जिसके आधार पर नारी को पिछड़ेपन में बँधी रहने वाली व्यापक मान्यता में कारगर परिवर्तन सम्भव हो सके। नारी को भी मनुष्य माना जा सके।
आज तो लड़के लड़की के दृष्टिकोण का असाधारण अन्तर है। लड़की के जन्मते ही परिवार का मुँह लटक जाता है और लड़का होने पर बधाइयाँ बँटने और नगाड़े बजने लगते हैं। लड़का कुल का दीपक और लड़की पराए घर का कूड़ा समझी जाती है। वरपक्ष दहेज की लम्बी चौड़ी माँगें करता है और लड़की के अभिभावक विवशता के आगे सिर झुकाकर लुट जाने के लिए आत्म समर्पण करते हैं। पति के तनिक अप्रसन्न होने पर उन्हें परित्यक्ता बना दिया जाना और रोते कलपते जैसे-तैसे भला बुरा जीवन जीने की घटनाएँ इतनी कम नहीं होती जिनको आजादी दी जा सके। दहेज के लिए यातनाएँ दिये जाने की कुछ घटनाएँ तो अखबारों तक में छप जाती हैं, पर जो भीतर ही भीतर दबा दी जाती हैं, उनकी संख्या छपने वाली घटनाओं से अनेक गुनी अधिक हैं।
पतिव्रत पालन के लिए लौह अंकुश रहता है, पर पत्नीव्रत का कहीं अता-पता नहीं। विधुर प्रसन्नतापूर्वक विवाह करते हैं, पर विधवाओं को ऐसी छूट कहाँ? नारियाँ सती होती हैं, पर नर वैसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते। नारियाँ घूँघट करके रहती हैं। नाक, कान, छिदवाकर सज- धज के रहने के लिए उन्हें इसलिए बाधित किया जाता है कि वे अपना रमणी, कामिनी, भोग्या और दासी होने की नियति का स्वेच्छापूर्वक-उत्साहपूर्वक मानस बनाये रख सकें।
लोकमानस का यह लौह आवरण हटे बिना नारी को नर के समतुल्य बनाने और उन्हें अपनी प्रतिभा का परिपूर्ण परिचय देकर प्रगति पथ पर कन्धे से कन्धा मिलाकर चलते रहने का अवसर आखिर कैसे मिल सकता है? आवश्यकता इस लौह आवरण के ऊपर लाखों-करोड़ों छेनी हथौड़े चलाने की है, ताकि निविड़ बन्धनों से जकड़ी आधी जनसंख्या को छुटकारा पाने के लिए उपयुक्त वातावरण बन सके। अपने मिशन का नारी जागरण अभियान इसी गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न कर रहा है। पत्तों पर जमीं धूल को पोछ कर चिह्न पूजा कर लेने से तो आत्म प्रवंचना और लोक विडम्बना भर बन पड़ती है।
नारी जागरण अभियान के लिए जो महिला मण्डल गठित किये जा रहे हैं। उनका शुभारम्भ श्रीगणेश तो हलके-फुलके कार्यक्रम को हाथ में लेकर ही किया जा रहा है, पर यह नवसृजन का भूमिपूजन मात्र है। वस्तुस्थिति अवगत कराने के लिए उस आन्दोलन को जन्म देना पड़ेगा जो मानवी स्वतंत्रता और समता का लक्ष्य पूरा करके ही विराम ले।
कहा गया है कि अखण्ड ज्योति के परिजन स्वयं पाँच-पाँच के मण्डलों में गठित हों और पाँच से पच्चीस बनकर मण्डल को पूर्णता तक पहुँचाएँ। साथ ही कहा गया है कि वे अपने परिवार तथा सम्पर्क क्षेत्र में से ढूँढ़-खोजकर पाँच प्रतिभाशाली महिलाओं की एक मण्डली बनाएँ। वे भी परस्पर सम्पर्क साधते हुए पाँच से पच्चीस बनने का लक्ष्य प्राप्त करें। साप्ताहिक उनके लिए भी उसी प्रकार अनिवार्य किया गया है जैसा कि पुरुषों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इतना बन पड़ने पर ही यह माना जाएगा कि पुरुषों का एवं नारियों का सतयुग की वापसी के लिए किया जाने वाला प्रयास जड़ें पकड़ लिया है।
पुरुषों को नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्रान्ति की तैयारी करनी है। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की संरचना की भी। व्यक्ति, परिवार और समाज के तीनों ही क्षेत्रों में सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन और कुरीति उन्मूलन की बहुमुखी प्रवृत्तियों को जन्म देना और मार्गदर्शन करना है। इसके लिए कार्यकर्त्ताओं की योग्यता और परिस्थतियों की आवश्यकता से तालमेल बिठाते हुए अनेक प्रकार के छोटे-बड़े कार्यक्रम हाथ में लिए जाने हैं, जिनके लिए आवश्यकता हो या शान्तिकुंज के साथ विचार विनिमय भी करते रहा जा सकता है।
महिलाओं के लिए साप्ताहिक सत्संगों को सुनिश्चित बनाने के उपरान्त शिक्षा संवर्धन, आर्थिक स्वावलम्बन से सम्बन्धित गृह उद्योग, संगीत अभ्यास से मुखर होने और अभिव्यक्तियों को प्रकट कर सकने का अभ्यास, कुरीति उन्मूलन के लिए छोटे-बड़े आयोजन तथा परिवार निर्माण की समुचित योग्यता प्राप्त करना सभी महिला मण्डलों के लिए समान कार्यक्रम बना है। इससे आगे उन्हें ऐसा कुछ कर दिखाना है जिससे मात्र व्यक्तिगत स्थिति ही न सुधरे, वरन् व्यापक नारी समस्याओं के समाधान के लिये क्षेत्रीय तन्त्र खड़े करने का सरंजाम जुटा सकें। असहाय महिलाओं को समर्थ बनाना और उन्हें लोकसेविका बनाने का कार्यक्रम भी इसी योजना को निकट भविष्य में कार्यान्वित किया जाने वाला बड़ा कदम है, जो अपने समय पर अपने ढंग से निरन्तर उठते रहेंगे, गति पकड़ते रहेंगे।
हर किसी को समझना और समझाया जाना कि नारी आद्यशक्ति है। वही सृष्टि को उत्पन्न करने वाली, अपने स्तर के स्वरूप परिवार का तथा भावी पीढ़ी का सृजन करने में पूरी तरह समर्थ है। इक्कीसवीं सदी में उसी का वर्चस्व प्रधान रहने वाला है। नर ने अपनी कठोर, प्रकृति के आधार पर पराक्रम भले ही कितना क्यों न किया हो? पर उसी की अहंकारी उद्दण्डता ने अनाचार का माहौल बनाया है। स्रष्टा की इच्छा है कि स्नेह, सहयोग, सृजन, करुणा, सेवा और मैत्री जैसी विभूतियों को संसार पर बरसने का अवसर मिले; ताकि युद्ध जैसी अनेकानेक दुष्टताओं का सदा सर्वदा के लिए अन्त हो सके।
इस भवितव्यता को स्वीकार करने के लिए लोकमानस को समझाया और दबाया जाना चाहिए कि वह नारी की समता से नहीं, वरिष्ठता से भी लाभान्वित करे। सतयुग की वापसी का शुभारम्भ करना वर्तमान जन समुदाय का काम है। ढाँचा और तंत्र खड़ा करना, सरंजाम जुटाना और वातावरण जुटाना उसी का काम है। पर उन उत्तरदायित्वों को अगली पीढ़ी के ही कन्धों को ही उठाना होगा। आज जो पौधे लगाए जा रहे हैं, उनके द्वारा विकसित हुए फूलों की शोभा-सुषमा को सुरक्षित रखने का कार्य तो वे ही करेंगे, जो आज भले ही जन्मे हों, जन्मने जा रहे हों, पर आवश्यकता के समय तक प्रौढ़ परिपक्व होकर रहेंगे।
ऐसी समुन्नत पीढ़ी को जन्म दे सकना तथा सुसंस्कृत बनाना उन नारियों के लिए संभव हो सकेगा, जो आज के महान अभ्युदय में भागीदार बनकर नवसृजन की महती भूमिका निभाने में किसी न किसी प्रकार अपनी विशिष्टता का परिचय देगी। आज के नारी जागरण आन्दोलन को भविष्य में अतिशय प्रभावित करने वाला बनाना भी इसका एक महान उद्देश्य है।