Books - युग की माँग प्रतिभा परिष्कार
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प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य एवं सिद्धान्त
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जन साधारण के बीच प्रतिभाशाली अलग से चमकते हैं, जैसे पत्तों व काँटों के बीच फूल, तारों के बीच चन्द्रमा। यह जन्मजात उपलब्धि नहीं है और न किसी का दिया हुआ वरदान। इसे भाग्यवश मिला हुआ आकस्मिक संयोग, सुयोग भी नहीं कहा जा सकता। वह स्व-उपार्जित सम्पदा है। इस कार्य में दूसरे कुछ सहायक तो हो सकते हैं, पर प्रधानता अपने ही प्रबल प्रयास की रहती है।
धन आता और चला जाता है। रूप-यौवन भी सामयिक है। उसका सम्बन्ध चढ़ते खून से है। किशोर और तरुण ही सुन्दर दिखते हैं। इसके बाद ढलान आरंभ होते ही अवयवों में कठोरता और चेहरे पर रुक्षता की हवाइयाँ उड़ने लगती हैं। विद्या उतनी ही स्मरण रहती है, जितनी कि व्यवहार में काम आती है। मित्र, सहयोगी, सम्बन्धी, सहायकों के मन बदलते रहते हैं। आवश्यक नहीं कि घनिष्टता सदा एक-सी बनी रहे। अधिकार भी चिरस्थाई नहीं हैं। समर्थन घटते ही वे दूसरों के हाथों चले जाते हैं। वयोवृद्धों के उत्पादन की, परिश्रम की क्षमता घट जाती है। आयु वृद्धि के साथ-साथ स्मरण शक्ति और स्फूर्ति भी जवाब देने लगती है। ऐसी दशा में तब कोई बड़ी योजना बनाना और उसे चलाना भी वश से बाहर हो जाता है। यह सब मरण के ही लक्षण हैं। जीवनी शक्ति का भण्डार धीरे-धीरे चुकता है और फिर वह अन्ततः जबाब दे जाता है।
विकासोन्मुख शरीर, चढ़ते खून और परिपक्व व्यक्तित्व वाले दिनों में ही रहता है। उसे भले ही कोई आलस्य-प्रमाद में गुजारे, भले ही कोई लिप्सा-लालसा की वेदी पर विसर्जित कर दे। कोई-कोई तो उन दिनों भी अतिवादी उद्दण्डता दिखाने से भी नहीं चूकते। यह सब शक्तियों और सम्भावनाओं के भण्डार मनुष्य जीवन के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। दूरदर्शी वे हैं, जो विभूतियों में सर्वश्रेष्ठ ‘प्रतिभा’ को मानते हैं और उसके सम्पादन हेतु प्राणप्रण से प्रयत्न करते हैं। क्योंकि वही हर स्थिति में साथ रहती है, अपनी तथा दूसरों की गुत्थियाँ सुलझाती है और जन्म जन्मान्तरों तक साथ रहकर, क्रमशः अधिकाधिक ऊँचे स्तर वाली परिस्थितियों का निर्माण करती रहती है। इस उपार्जन के लिए किये गये प्रयत्नों को ही हर दृष्टि से सराहा और स्वर्ण सम्पदा ही तरह किसी भी बाजार में भुनाया जा सकता है। भौतिक प्रगति में भी उसी के चमत्कार दीखते हैं और आदर्शवादी परमार्थ अपनाने वाली महानता को भी उसी के सहारे विकसित परिष्कृत होते हुए देखा जा सकता है।
प्रतिभा पष्किार के यही मुख्य मूलभूत सिद्धान्त हैं। इन्हें उन सभी को हृदयंगम करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो समुन्नत सुसंस्कृत एवं यशस्वी सफल जीवन जीने के लिए उत्सुक हैं।
प्रथम सिद्धान्त अथवा आधार है-क्षमताओं का अभिवर्धन उनके लिए निरन्तर तत्परता का, तन्मयता का सुनियोजन। आलस्य-प्रमाद से बचकर सदा जागरूक और स्फूर्तिवान् बने रहना। एक-एक क्षण को बहुमूल्य मानकर उन्हें सदुद्देश्यों के लिए सुनियोजन रखने के लिए योजनाबद्ध आँकलन। यही है वह मनःस्थिति जिसे ‘महाजागरण’ कहते हैं। आमतौर से लोग अर्धतंद्रा की स्थिति में जिन्दगी को दर्द की तरह जीते हैं। निर्वाह साधन पा लेने भर से उन्हें संतोष हो जाता है। वे भाव तरंगें उठती ही नहीं, जो आज की तुलना में कल को अधिक परिष्कृत बनाने के लिए लालायित रहती और प्रयत्नरत होती हैं। प्रतिभा के उपासक इस दलदल से उबरते हैं और अपनी बिखरती क्षमताओं को बचाकर, उन्हें मूल्यवान् पूँजी की तरह एकत्रित करते हैं। जो हस्तगत है, उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करते हैं। यही है कल्पवृक्ष का उत्पादन एवं उसका उद्देश्यपूर्ण सदुपयोग क्रियान्वयन।
दूसरा चरण है- अपने व्यक्तित्व को चुम्बकीय, आकर्षक एवं विश्वस्त स्तर का विकसित करना। यह मनुष्यता के साथ जुड़ने वाला प्राथमिक गुण है। इसके लिए अपना रहन-सहन ऐसा बनाना पड़ता है, जैसा जागरूक, जिम्मेदार और सज्जनता-सम्पन्नों का होना चाहिए। शरीर और मन की स्वच्छता साथ ही शिष्टाचार का निर्वाह और वाणी में मधुरता का गहरा पुट लगाए रहना भी आवश्यक है। इसके लिए अपनी नम्रता का परिचय देना और दूसरों को सम्मान देना आवश्यक है। उसे वे ही कर पाते हैं, जो दूसरों के गुण देखकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करते रहते हैं। साथ ही अपनी त्रुटियों को खोजते एवं उनके निष्कासन-परिष्कार में लगे रहते हैं। ओछे व्यक्ति अपनी शेखी बघारते और दूसरों के दोष गिनाते रहते हैं। उसी जंजाल में उनका चिन्तन और वर्चस्व घटता और समाप्त होता रहता है।प्रतिभावानों के होठों पर मंद मुस्कान देखी जाती है। इसी आधार पर यह जाना जाता है कि वे अपने आप में सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं। दूसरे भी ऐसे ही लोगों का सहारा ताकते और साथ देते हैं। खीजते और खिजाते रहने वालों को दूर से ही नमस्कार करने को जी करता है। जिन्हें अपना सही मूल्यांकन करना है, वे इस प्रकार की भूलें नहीं करते। यदि वे आदत में सम्मिलित हो गई हों, तो उन्हें बुहार फेंकने की मुस्तैदी दिखाते हैं।
तीसरा चरण है-सुव्यवस्था। अस्त-व्यस्त स्थिति में ही प्रचुर साधन रहते हुए भी लोग असफल रहते और उपहासास्पद बनते हैं। प्रतिमाएँ क्षण-क्षण में अपने कार्यों और नियोजनों की समीक्षा करती रहती हैं और उन्हें सही बनाने के लिए जो हेर-फेर करना आवश्यक होता है, उसे बिना हिचक तत्परतापूर्वक करती हैं। जड़ता, हठवादिता के शिकंजे में जकड़ने का उन्हें तनिक भी आग्रह नहीं होता है। वे जानते हैं कि प्रगतिशीलों को सदा परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति बनानी और चलते ढर्रे में आवश्यक सुधार लाने की चेष्टा करनी पड़ती है। व्यवस्था इसी प्रकार बन पड़ती है, जो अपने समय का, श्रम का, साधनों का, विचारों का और परिवार परिकर का सुनियोजन कर सकता है तथा उन्हें सही दिशा दे सकने में समर्थ हो सकता है, उसे ही इस योग्य समझा जाता है कि वह कोई बड़ी या अतिरिक्त जिम्मेदारी को वहन कर सके। किन्हीं बढ़ी-चढ़ी महत्त्वाकांक्षाओं को सँजोने से पूर्व यह प्रमाण देना पड़ता है कि व्यक्तित्व, परिकर एवं क्रियाकलापों में किस सीमा तक व्यवस्था बुद्धि का उपयोग किया गया और उन्हें कितना सफल-समुन्नत बनाकर दिखाया गया।
चौथा व अन्तिम सूत्र है-अग्रगमन नेतृत्व। यह उत्साह साहस और आत्मविश्वास का प्रतीक है। साधारण जन आत्महीनता से ग्रसित झिझक, संकोच, अनिश्चय एवं साहसहीनता की मनःस्थिति में पड़े पाये जाते हैं। वे उचित कार्यों के लिए भी कदम बढ़ाने का साहस नहीं कर पाते। अधिक से अधिक इतना ही सोचते हैं कि कोई आगे बढ़े, तो उसके पीछे चलने लगें। ऐसे लोग उचित निष्कर्ष निकाल लेने पर भी उस मार्ग का अवलम्बन नहीं कर पाते। अपनी स्थिति को अनुपयुक्त मानते हुए भी एक परिधि से एक कदम भी आगे नहीं रख पाते। ऐसों के बीच उन्हीं को मनस्वी माना जाता है कि उचित के प्रति अटूट आस्था रखें और जो करना चाहिए उसे अन्यों का समर्थन-सहमति न मिलने पर भी एकाकी कर दिखाएँ। इसे दूध गरम करते ही मलाई के तैरकर ऊपर आ जाने के समकक्ष समझा जा सकता है।
प्रतिभाएँ एकाकी बढ़कर अपने अग्रगमन की क्षमता का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। फिर सर्वत्र उनकी मनस्विता का लोहा माना जाने लगता है। दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करते हैं। जिनकी जिम्मेदारियाँ भारी हैं, वे ही ऐसे लोगों को तलाश करते रहते हैं। प्रामाणिकता की परख होने पर सब ओर से एक से बढ़कर एक भारी भरकम जिम्मेदारियाँ उनके ऊपर आग्रहपूर्वक डाली जाने लगती हैं। वे उन्हें स्वीकार करते और जो कार्य लिया गया है, उसे सर्वांगपूर्ण ढंग से सम्पन्न कर दिखाते हैं।
रेल का इंजन एकाकी चलता है। स्वयं दौड़ता है और अपने साथ भार-भरे डिब्बों की लम्बी शृंखला को घसीटते हुए निर्धारित लक्ष्य की दिशा में पटरी पर दौड़ता चला जाता है। सर्वविदित है कि डिब्बों की तुलना में इंजन को अधिक महत्त्व मिलता है, अधिक मूल्यांकन होता है। यह और कुछ नहीं, साहस भरी व्यवस्था का परिचय देने वाली ऊर्जा की ही परिणति है। प्रतिभाओं में यह सद्गुण उनके द्वारा स्व-उपार्जित स्तर का बड़ी मात्रा में पाया जाना है। वे औरों का मुँह ताकते हुए नहीं बैठे रहते, वरन् आगे बढ़कर औरों को अपने चुम्बकत्व के कारण जोड़ते और साथ चलने के लिए बाधित करते हैं। सफलताओं का यही स्रोत है।
यों प्रतिभा का दुरुपयोग भी हो सकता है। धन का, बल का सौन्दर्य का और कौशल का नियोजन यदि भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण में किया जाय, तो वैसा भी हो सकता है। आतंकवादी, अनाचारी, उच्छ्रंखल, उद्धत लोग प्रायः वैसा करते भी हैं। इतने पर भी यह निश्चित है कि कोई इस आधार पर न तो स्थायी प्रगति कर सकता है और न कोई ऐसी परम्परा पीछे छोड़ सकता है, जिसे सराहा जा सके। आज नहीं, तो कल-परसों ऐसे लोग आत्मप्रताड़ना, लोकभर्त्सना से लेकर राजदण्ड और दैवी प्रकोप के भाजन बनते ही हैं। लालच और घृणा तो भीतर-बाहर से उन पर निरन्तर बरसती ही रहती है।
दूरदर्शी विवेकवान् अपनी श्रेष्ठता को विकसित करते हैं और अपने आदर्शवादी क्रियाकलापों के आधार पर प्रामाणिक माने जाते और विश्वस्त बनते हैं। जिनने उच्चस्तरीय सफलताएँ पाई, उनका अनुकरण करते और सहयोग देते असंख्यों देखे जाते हैं। इसलिए ‘प्रतिभा महासिद्धि’ की साधना करने वाले अपने चरित्र की प्रामाणिकता को हर हालत में बनाये रहते हैं, भले ही इसके लिए अभाव ग्रस्त स्थिति में रहना पड़े और तात्कालिक मिल सकने वाली सफलता से वंचित रहना पड़े।
प्रतिभा तत्सम्बन्धी सिद्धान्तों का मनन-चिन्तन करते रहने भर से हस्तगत नहीं होती। उससे स्वभाव का अंग बनाना पड़ता है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उसे भली प्रकार समाविष्ट करना पड़ता है। यह कार्य प्रत्यक्ष क्रियान्वयन के बिना संभव नहीं होता। विचार वे ही प्रौढ़ एवं प्रखर होते हैं, जो क्रिया में उतरते रहते हैं। डायनेमो घूमता है, तो बैट्री चार्ज होती है। विचारों और कार्यों के समन्वय से ही व्यक्तित्व का स्तर बनता है। उसी आधार पर सफलता के क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण गौरव हस्तगत होता है। यही वह हुण्डी है, जिसे किसी भी क्षेत्र में हाथों-हाथ भुनाया जा सकता है। बड़े काम कर गुजरने वाली जन्मजात विभूतियाँ साथ लेकर कदाचित् ही कोई आते हैं। हर किसी को यह उपलब्धि अपने मनोयोग और प्रचण्ड प्रयास के आधार पर ही हस्तगत करनी होती है। सांसारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाले बड़े कार्य भी ऐसे ही लोगों ने सम्पन्न किए हैं। बहुमुखी सफलताओं का श्रेय उन्हीं पर बरसा है। ऐसे ही लोग समाज को स्थिरता देते और अवाँछनीय उलटे प्रचलनों को उलट कर ठीक कर दिखाते हैं। समय का कायाकल्प करके वातावरण में नवजीवन का प्राण प्रवाह भरते ऐसे ही लोगों को देखा जाता है।
प्रतिभा परिवर्धन का प्रशिक्षण करने वाले कोई स्कूल, कालेज कहीं नहीं हैं। उनके लिए निर्धारित सिद्धान्तों को व्यवहार में उतारने के लिए अवसर और वातावरण स्वयं तलाशना पड़ता है। उस प्रकार के अवसर और वातावरण कहीं एक जगह एकत्रित नहीं मिलते। उन्हें दाने-बीनने वाले की तरह झोली में भरना पड़ता है। पर इन दिनों एक ऐसा सुयोग सामने है। जिसके साथ सम्बन्ध सूत्र जोड़ने पर हर किसी को वह सुयोग हस्तगत हो सकता है। जिसके सहारे प्रतिभा सम्पादन का सौभाग्य अनायास ही हस्तगत हो सके। ऐसे सुयोग कभी-कभी ही सामने आते हैं। और उन्हें कोई विरले ही पहचान कर लाभ उठा पाते हैं। हनुमान् ने समय को पहचाना और वे थोड़े ही समय में समुद्र लाँघने, पर्वत उखाड़ने और लंका को मटियामेट बनाने का श्रेय प्राप्त कर सके। इसे समय की पहचान ही कहना चाहिए। यदि उस सुयोग का लाभ उनसे न बन पड़ता, तो सुग्रीव के सेवक रहकर ही उन्हें दिन गुजारने पड़ते।
धन आता और चला जाता है। रूप-यौवन भी सामयिक है। उसका सम्बन्ध चढ़ते खून से है। किशोर और तरुण ही सुन्दर दिखते हैं। इसके बाद ढलान आरंभ होते ही अवयवों में कठोरता और चेहरे पर रुक्षता की हवाइयाँ उड़ने लगती हैं। विद्या उतनी ही स्मरण रहती है, जितनी कि व्यवहार में काम आती है। मित्र, सहयोगी, सम्बन्धी, सहायकों के मन बदलते रहते हैं। आवश्यक नहीं कि घनिष्टता सदा एक-सी बनी रहे। अधिकार भी चिरस्थाई नहीं हैं। समर्थन घटते ही वे दूसरों के हाथों चले जाते हैं। वयोवृद्धों के उत्पादन की, परिश्रम की क्षमता घट जाती है। आयु वृद्धि के साथ-साथ स्मरण शक्ति और स्फूर्ति भी जवाब देने लगती है। ऐसी दशा में तब कोई बड़ी योजना बनाना और उसे चलाना भी वश से बाहर हो जाता है। यह सब मरण के ही लक्षण हैं। जीवनी शक्ति का भण्डार धीरे-धीरे चुकता है और फिर वह अन्ततः जबाब दे जाता है।
विकासोन्मुख शरीर, चढ़ते खून और परिपक्व व्यक्तित्व वाले दिनों में ही रहता है। उसे भले ही कोई आलस्य-प्रमाद में गुजारे, भले ही कोई लिप्सा-लालसा की वेदी पर विसर्जित कर दे। कोई-कोई तो उन दिनों भी अतिवादी उद्दण्डता दिखाने से भी नहीं चूकते। यह सब शक्तियों और सम्भावनाओं के भण्डार मनुष्य जीवन के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। दूरदर्शी वे हैं, जो विभूतियों में सर्वश्रेष्ठ ‘प्रतिभा’ को मानते हैं और उसके सम्पादन हेतु प्राणप्रण से प्रयत्न करते हैं। क्योंकि वही हर स्थिति में साथ रहती है, अपनी तथा दूसरों की गुत्थियाँ सुलझाती है और जन्म जन्मान्तरों तक साथ रहकर, क्रमशः अधिकाधिक ऊँचे स्तर वाली परिस्थितियों का निर्माण करती रहती है। इस उपार्जन के लिए किये गये प्रयत्नों को ही हर दृष्टि से सराहा और स्वर्ण सम्पदा ही तरह किसी भी बाजार में भुनाया जा सकता है। भौतिक प्रगति में भी उसी के चमत्कार दीखते हैं और आदर्शवादी परमार्थ अपनाने वाली महानता को भी उसी के सहारे विकसित परिष्कृत होते हुए देखा जा सकता है।
प्रतिभा पष्किार के यही मुख्य मूलभूत सिद्धान्त हैं। इन्हें उन सभी को हृदयंगम करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो समुन्नत सुसंस्कृत एवं यशस्वी सफल जीवन जीने के लिए उत्सुक हैं।
प्रथम सिद्धान्त अथवा आधार है-क्षमताओं का अभिवर्धन उनके लिए निरन्तर तत्परता का, तन्मयता का सुनियोजन। आलस्य-प्रमाद से बचकर सदा जागरूक और स्फूर्तिवान् बने रहना। एक-एक क्षण को बहुमूल्य मानकर उन्हें सदुद्देश्यों के लिए सुनियोजन रखने के लिए योजनाबद्ध आँकलन। यही है वह मनःस्थिति जिसे ‘महाजागरण’ कहते हैं। आमतौर से लोग अर्धतंद्रा की स्थिति में जिन्दगी को दर्द की तरह जीते हैं। निर्वाह साधन पा लेने भर से उन्हें संतोष हो जाता है। वे भाव तरंगें उठती ही नहीं, जो आज की तुलना में कल को अधिक परिष्कृत बनाने के लिए लालायित रहती और प्रयत्नरत होती हैं। प्रतिभा के उपासक इस दलदल से उबरते हैं और अपनी बिखरती क्षमताओं को बचाकर, उन्हें मूल्यवान् पूँजी की तरह एकत्रित करते हैं। जो हस्तगत है, उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करते हैं। यही है कल्पवृक्ष का उत्पादन एवं उसका उद्देश्यपूर्ण सदुपयोग क्रियान्वयन।
दूसरा चरण है- अपने व्यक्तित्व को चुम्बकीय, आकर्षक एवं विश्वस्त स्तर का विकसित करना। यह मनुष्यता के साथ जुड़ने वाला प्राथमिक गुण है। इसके लिए अपना रहन-सहन ऐसा बनाना पड़ता है, जैसा जागरूक, जिम्मेदार और सज्जनता-सम्पन्नों का होना चाहिए। शरीर और मन की स्वच्छता साथ ही शिष्टाचार का निर्वाह और वाणी में मधुरता का गहरा पुट लगाए रहना भी आवश्यक है। इसके लिए अपनी नम्रता का परिचय देना और दूसरों को सम्मान देना आवश्यक है। उसे वे ही कर पाते हैं, जो दूसरों के गुण देखकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करते रहते हैं। साथ ही अपनी त्रुटियों को खोजते एवं उनके निष्कासन-परिष्कार में लगे रहते हैं। ओछे व्यक्ति अपनी शेखी बघारते और दूसरों के दोष गिनाते रहते हैं। उसी जंजाल में उनका चिन्तन और वर्चस्व घटता और समाप्त होता रहता है।प्रतिभावानों के होठों पर मंद मुस्कान देखी जाती है। इसी आधार पर यह जाना जाता है कि वे अपने आप में सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं। दूसरे भी ऐसे ही लोगों का सहारा ताकते और साथ देते हैं। खीजते और खिजाते रहने वालों को दूर से ही नमस्कार करने को जी करता है। जिन्हें अपना सही मूल्यांकन करना है, वे इस प्रकार की भूलें नहीं करते। यदि वे आदत में सम्मिलित हो गई हों, तो उन्हें बुहार फेंकने की मुस्तैदी दिखाते हैं।
तीसरा चरण है-सुव्यवस्था। अस्त-व्यस्त स्थिति में ही प्रचुर साधन रहते हुए भी लोग असफल रहते और उपहासास्पद बनते हैं। प्रतिमाएँ क्षण-क्षण में अपने कार्यों और नियोजनों की समीक्षा करती रहती हैं और उन्हें सही बनाने के लिए जो हेर-फेर करना आवश्यक होता है, उसे बिना हिचक तत्परतापूर्वक करती हैं। जड़ता, हठवादिता के शिकंजे में जकड़ने का उन्हें तनिक भी आग्रह नहीं होता है। वे जानते हैं कि प्रगतिशीलों को सदा परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति बनानी और चलते ढर्रे में आवश्यक सुधार लाने की चेष्टा करनी पड़ती है। व्यवस्था इसी प्रकार बन पड़ती है, जो अपने समय का, श्रम का, साधनों का, विचारों का और परिवार परिकर का सुनियोजन कर सकता है तथा उन्हें सही दिशा दे सकने में समर्थ हो सकता है, उसे ही इस योग्य समझा जाता है कि वह कोई बड़ी या अतिरिक्त जिम्मेदारी को वहन कर सके। किन्हीं बढ़ी-चढ़ी महत्त्वाकांक्षाओं को सँजोने से पूर्व यह प्रमाण देना पड़ता है कि व्यक्तित्व, परिकर एवं क्रियाकलापों में किस सीमा तक व्यवस्था बुद्धि का उपयोग किया गया और उन्हें कितना सफल-समुन्नत बनाकर दिखाया गया।
चौथा व अन्तिम सूत्र है-अग्रगमन नेतृत्व। यह उत्साह साहस और आत्मविश्वास का प्रतीक है। साधारण जन आत्महीनता से ग्रसित झिझक, संकोच, अनिश्चय एवं साहसहीनता की मनःस्थिति में पड़े पाये जाते हैं। वे उचित कार्यों के लिए भी कदम बढ़ाने का साहस नहीं कर पाते। अधिक से अधिक इतना ही सोचते हैं कि कोई आगे बढ़े, तो उसके पीछे चलने लगें। ऐसे लोग उचित निष्कर्ष निकाल लेने पर भी उस मार्ग का अवलम्बन नहीं कर पाते। अपनी स्थिति को अनुपयुक्त मानते हुए भी एक परिधि से एक कदम भी आगे नहीं रख पाते। ऐसों के बीच उन्हीं को मनस्वी माना जाता है कि उचित के प्रति अटूट आस्था रखें और जो करना चाहिए उसे अन्यों का समर्थन-सहमति न मिलने पर भी एकाकी कर दिखाएँ। इसे दूध गरम करते ही मलाई के तैरकर ऊपर आ जाने के समकक्ष समझा जा सकता है।
प्रतिभाएँ एकाकी बढ़कर अपने अग्रगमन की क्षमता का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। फिर सर्वत्र उनकी मनस्विता का लोहा माना जाने लगता है। दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करते हैं। जिनकी जिम्मेदारियाँ भारी हैं, वे ही ऐसे लोगों को तलाश करते रहते हैं। प्रामाणिकता की परख होने पर सब ओर से एक से बढ़कर एक भारी भरकम जिम्मेदारियाँ उनके ऊपर आग्रहपूर्वक डाली जाने लगती हैं। वे उन्हें स्वीकार करते और जो कार्य लिया गया है, उसे सर्वांगपूर्ण ढंग से सम्पन्न कर दिखाते हैं।
रेल का इंजन एकाकी चलता है। स्वयं दौड़ता है और अपने साथ भार-भरे डिब्बों की लम्बी शृंखला को घसीटते हुए निर्धारित लक्ष्य की दिशा में पटरी पर दौड़ता चला जाता है। सर्वविदित है कि डिब्बों की तुलना में इंजन को अधिक महत्त्व मिलता है, अधिक मूल्यांकन होता है। यह और कुछ नहीं, साहस भरी व्यवस्था का परिचय देने वाली ऊर्जा की ही परिणति है। प्रतिभाओं में यह सद्गुण उनके द्वारा स्व-उपार्जित स्तर का बड़ी मात्रा में पाया जाना है। वे औरों का मुँह ताकते हुए नहीं बैठे रहते, वरन् आगे बढ़कर औरों को अपने चुम्बकत्व के कारण जोड़ते और साथ चलने के लिए बाधित करते हैं। सफलताओं का यही स्रोत है।
यों प्रतिभा का दुरुपयोग भी हो सकता है। धन का, बल का सौन्दर्य का और कौशल का नियोजन यदि भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण में किया जाय, तो वैसा भी हो सकता है। आतंकवादी, अनाचारी, उच्छ्रंखल, उद्धत लोग प्रायः वैसा करते भी हैं। इतने पर भी यह निश्चित है कि कोई इस आधार पर न तो स्थायी प्रगति कर सकता है और न कोई ऐसी परम्परा पीछे छोड़ सकता है, जिसे सराहा जा सके। आज नहीं, तो कल-परसों ऐसे लोग आत्मप्रताड़ना, लोकभर्त्सना से लेकर राजदण्ड और दैवी प्रकोप के भाजन बनते ही हैं। लालच और घृणा तो भीतर-बाहर से उन पर निरन्तर बरसती ही रहती है।
दूरदर्शी विवेकवान् अपनी श्रेष्ठता को विकसित करते हैं और अपने आदर्शवादी क्रियाकलापों के आधार पर प्रामाणिक माने जाते और विश्वस्त बनते हैं। जिनने उच्चस्तरीय सफलताएँ पाई, उनका अनुकरण करते और सहयोग देते असंख्यों देखे जाते हैं। इसलिए ‘प्रतिभा महासिद्धि’ की साधना करने वाले अपने चरित्र की प्रामाणिकता को हर हालत में बनाये रहते हैं, भले ही इसके लिए अभाव ग्रस्त स्थिति में रहना पड़े और तात्कालिक मिल सकने वाली सफलता से वंचित रहना पड़े।
प्रतिभा तत्सम्बन्धी सिद्धान्तों का मनन-चिन्तन करते रहने भर से हस्तगत नहीं होती। उससे स्वभाव का अंग बनाना पड़ता है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उसे भली प्रकार समाविष्ट करना पड़ता है। यह कार्य प्रत्यक्ष क्रियान्वयन के बिना संभव नहीं होता। विचार वे ही प्रौढ़ एवं प्रखर होते हैं, जो क्रिया में उतरते रहते हैं। डायनेमो घूमता है, तो बैट्री चार्ज होती है। विचारों और कार्यों के समन्वय से ही व्यक्तित्व का स्तर बनता है। उसी आधार पर सफलता के क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण गौरव हस्तगत होता है। यही वह हुण्डी है, जिसे किसी भी क्षेत्र में हाथों-हाथ भुनाया जा सकता है। बड़े काम कर गुजरने वाली जन्मजात विभूतियाँ साथ लेकर कदाचित् ही कोई आते हैं। हर किसी को यह उपलब्धि अपने मनोयोग और प्रचण्ड प्रयास के आधार पर ही हस्तगत करनी होती है। सांसारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाले बड़े कार्य भी ऐसे ही लोगों ने सम्पन्न किए हैं। बहुमुखी सफलताओं का श्रेय उन्हीं पर बरसा है। ऐसे ही लोग समाज को स्थिरता देते और अवाँछनीय उलटे प्रचलनों को उलट कर ठीक कर दिखाते हैं। समय का कायाकल्प करके वातावरण में नवजीवन का प्राण प्रवाह भरते ऐसे ही लोगों को देखा जाता है।
प्रतिभा परिवर्धन का प्रशिक्षण करने वाले कोई स्कूल, कालेज कहीं नहीं हैं। उनके लिए निर्धारित सिद्धान्तों को व्यवहार में उतारने के लिए अवसर और वातावरण स्वयं तलाशना पड़ता है। उस प्रकार के अवसर और वातावरण कहीं एक जगह एकत्रित नहीं मिलते। उन्हें दाने-बीनने वाले की तरह झोली में भरना पड़ता है। पर इन दिनों एक ऐसा सुयोग सामने है। जिसके साथ सम्बन्ध सूत्र जोड़ने पर हर किसी को वह सुयोग हस्तगत हो सकता है। जिसके सहारे प्रतिभा सम्पादन का सौभाग्य अनायास ही हस्तगत हो सके। ऐसे सुयोग कभी-कभी ही सामने आते हैं। और उन्हें कोई विरले ही पहचान कर लाभ उठा पाते हैं। हनुमान् ने समय को पहचाना और वे थोड़े ही समय में समुद्र लाँघने, पर्वत उखाड़ने और लंका को मटियामेट बनाने का श्रेय प्राप्त कर सके। इसे समय की पहचान ही कहना चाहिए। यदि उस सुयोग का लाभ उनसे न बन पड़ता, तो सुग्रीव के सेवक रहकर ही उन्हें दिन गुजारने पड़ते।