Books - समग्र स्वास्थ्य संवर्धन कैसे हो ?
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Language: HINDI
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स्वास्थ्य गंवा बैठने में कोई समझदारी नहीं
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स्वस्थ रहने पर ही कोई अपना और दूसरों का भला कर सकता है, जिसे दुर्बलता और रुग्णता घेरे हुए होगी वह निर्वाह के योग्य भी उत्पादन न कर सकेगा, दूसरों पर आश्रित रहेगा। परावलम्बन एक प्रकार से अपमानजनक स्थिति है। भारभूत होकर जीने वाले न कहीं सम्मान पाते हैं और न किसी की सहायता कर सकने में समर्थ होते हैं। जिससे अपना बोझ ही सही प्रकार से उठ नहीं पाता वह दूसरों के लिए किस प्रकार, कितना उपयोगी हो सकता है?
मनुष्य जन्म अगणित विशेषताओं और विभूतियों से भरा-पूरा है। किसी को भी यह छूट है कि उतना ऊंचा उठे जितना कि अब तक कोई महामानव उत्कर्ष कर सका है, पर यह सम्भव तभी है कि शरीर और मन पूर्णतया स्वस्थ हो। जो जितनों के लिए जितना उपयोगी और सहायक सिद्ध होता है उसे उसी अनुपात में सम्मान और सहयोग मिलता है, अपने और दूसरों के अभ्युदय में योगदान करना उसी से बन पड़ता है और स्वस्थ-समर्थ रहने की स्थिति बनाये रहता है।
अपंग-अविकसित तो असहाय, दीन-दरिद्र दीखते हैं, पर इस पंक्ति में वे लोग भी सम्मिलित होते हैं जो दुर्बलता या रुग्णता से ग्रसित हैं। इसलिए अनेक दुःखद, दुर्भाग्यों और अभिशापों में प्रथम अस्वस्थता को ही माना गया है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि वैसी स्थिति न उत्पन्न होने पाये। यदि किसी कारण इस चपेट में आना भी पड़े तो वह दुर्दिन अधिक समय ठहरने न पाये। सच्चे अर्थों में जीवन उतने ही समय का माना जाता है जितना कि स्वस्थ रहकर जिया जा सका। कुछ अपवादों को छोड़कर अस्वस्थता अपना निज का उपार्जन है, भले ही वह अनजाने में, भ्रमवश या दूसरों की देखादेखी न्योंत बुलाया गया है। सृष्टि के सभी प्राणी जीवन भर निरोग रहते हैं। मरणकाल आने पर जाना तो सभी को पड़ता है, यह नियति की व्यवस्था है। इसमें किसी का चारा नहीं, पर निरोग रहना हर जीवधारी का जन्म सिद्ध अधिकार है। जिन प्राणियों को किसी के बन्धनों में बंधे रहने की विवशता नहीं होती, वे सभी जन्म से लेकर मरण पर्यन्त निरोग रहते हैं। स्वछन्द जीवन जीने वाले पशु-पक्षियों में कभी किसी को बीमार नहीं पाया जाता, कोई दुर्घटनाग्रसित हो जाय तो बात दूसरी है।
मनुष्य की उच्छृंखल आदतें ही उसे बीमार बनाती हैं। जीभ का चटोरापन अतिशय मात्रा में अखाद्य खाने के लिए बाधित करता रहता है। जो जितना भार उठा नहीं सकता, उतना लादने पर किसी का भी कचूमर निकल सकता है। पेट पर अपच भी इसी कारण चढ़ दौड़ता है, बिना पचा सड़ता है और सड़न को रक्त प्रवाह में मिल जाने से जहां भी अवसर मिलता है, रोग का लक्षण उभर पड़ता है। कामुकता की कुटेव जीवनी शक्ति को बुरी तरह क्षरण करती है और मस्तिष्क की तीक्ष्णता का हरण कर लेती है। अस्वच्छता, पूरी नींद न लेना, कड़े परिश्रम से जी चुराना, नशेबाजी जैसी कुटेवें भी स्वास्थ्य जो जर्जर बनाने का निमित्त कारण बनती हैं। खुली हवा और रोशनी से बचना, घुटन भरे वातावरण में रहना भी रुग्णता का एक बड़ा कारण है। भय या आक्रोश जैसे उतार-चढ़ाव भरे ज्वार-भाटे भी मनोविकार बनते हैं और व्यक्ति को सनकी, कमजोर एवं बीमार बनाकर रहते हैं। हंसती-हंसाती जिन्दगी जीने वाले प्रायः स्वस्थ ही रहते हैं और लम्बी जिन्दगी जीते हैं।
अपने ऊपर औचित्य का अंकुश लगाये रहा जाय तो दुर्बल पड़ने या बीमार रहने का अवसर ही न आये। उच्छृंखलता सर्वत्र अराजकता स्तर की अव्यवस्था को जन्म देती है, इस कुमार्ग पर चलने वाले ही रोगग्रस्त बनते या रहते देखे गये हैं। इस अनाचार का परित्याग कर देने पर कोई भी अपने खोये स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त कर सकता है। प्रकृति उद्दण्डता का दण्ड भी हाथोंहाथ देने में निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह व्यवहार करती है किन्तु साथ ही इतनी दयालु भी है कि गलती मान लेने, आदत सुधार लेने और रास्ता बदल लेने पर क्षमा भी कर देती है। कितने ही स्वास्थ्य गंवा बैठने वाले लोग अपनी आदतें सुधार लेने के उपरान्त पुनः स्वस्थ और समर्थ बनते देखे गये हैं, यह रास्ता सभी के लिए खुला है।
दण्ड के प्रतिफल की उपेक्षा करते रहने वाले ही बहुधा कुमार्ग पर चलने और कुकर्म करने पर उतारू होते हैं। यदि यह समय रहते समझा जा सके कि अस्वस्थता अपने लिए, अपने साथियों के लिए कितनी कष्ट कर होती है तो सम्भव है लोग आग में हाथ डाल कर उस महत्वपूर्ण अंग को गंवा बैठने जैसी भूल न करें। दुर्बल शरीर इतना परिश्रम-पुरुषार्थ भी नहीं कर सकता कि निर्वाह की आवश्यकताओं को अपने बलबूते पूरा कर सके, बीमारों का कष्ट चाबुक से पिटने या हथौड़े से कूटने के समान कष्ट कर होता है। परिचर्या में जिन साथियों को लगना पड़ता है उनका समय नष्ट होता है, इलाज का खर्च भी कम महंगा नहीं पड़ता। घर में पूर्व संचय न होने पर कर्ज लेने से लेकर कपड़े बेचने तक की नौबत आ जाती है। कितनों को ही खर्चीला उपचार न जुटा पाने पर अकाल मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। सहानुभूति का शिष्टाचार तो स्वजन सम्बन्धी निभाते ही हैं, पर मन से उन्हें भी रोगी भारभूत लगता है और उनसे अच्छा न हो सके तो बुरा हो जाने की कामना मन ही मन करने लगते हैं। स्वयं को भी ऐसे जीवन में कोई रस नहीं रह जाता, ज्यों-त्यों करके ही मौत के दिन पूरे करने पड़ते हैं। प्रगति की बात तो सोचते भी नहीं बनती, जब जीवित लाश की तरह जिन्दगी ढोई जा रही हो तो फिर अभ्युदय की योजना किस बलबूते बने? उज्ज्वल भविष्य के सपने किस आधार पर देखे जायें? यह सब दुःखद संभावनायें मात्र एक ही कारण से अवरोध बनकर खड़ी होती हैं कि शरीर के साथ मन भी अस्वस्थ रहने लगता है। दोनों एक साथ जुड़े जो हैं। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय कहा गया है। जिस प्रकार बीमार व्यक्ति की सभी इंद्रियां असमर्थता अनुभव करती हैं उसी प्रकार शारीरिक अस्वस्थता की स्थिति में मन भी अस्वस्थ, अस्तव्यस्त एवं विकृत होने लगता है। बीमारों में प्रायः चिड़चिड़ापन देखा जाता है, वे आक्रमण करने की स्थिति में तो होते नहीं, अपना क्रोध, आवेश, खिन्न-उद्विग्न रहकर ही व्यक्त करते हैं। शरीर और मन के सहयोग से ही हमारे समस्त क्रिया-कलाप सही रूप से चल सकने की स्थिति में रहते हैं। शरीर गड़बड़ाता है तो मन को भी अपनी चपेट में ले लेता है और चिन्तन भी गड़बड़ाने लगता है, फलतः रोगी व्यक्ति किसी प्रकार शान्त रहने और रहने देने की स्थिति में भी नहीं रहता। दूसरों के सत्परामर्श न उसे सुहाते हैं और न अपना मानसिक स्तर इस योग्य रहता है कि किसी को कोई उपयुक्त एवं व्यावहारिक परामर्श दे सकें, यह दुहरी हानि है। शरीरगत अशक्तता, रुग्णता, बेचैनी तो स्वयं ही सहन करनी पड़ती है, पर मानसिक अस्त-व्यस्तता का नया दौर चल पड़ने पर एक नया उपद्रव सामने आता है और स्थिति अर्धविक्षिप्त जैसी बन जाती है। मनुष्य शारीरिक और मानसिक रूप से रोगी रहने लगता है, इसके कारण उन्हें दुहरा दबाव सहना पड़ता है। सही चिन्तन के अभाव में इर्द-गिर्द के व्यक्ति और वातावरण पर ही सारे दोष थोपने का प्रवाह चलता है। अपनी गलतियां समझने और सुधारने का तो मानस ही नहीं रहता है। फलतः अपने को खिन्नता का और दूसरों को निराशा का सामना करना पड़ता है, रुग्णता के कष्ट में इस अतिरिक्त भार से त्रास और भी अधिक बढ़ता है- साथियों की हैरानी बढ़ जाती है सो अलग।
पीड़ित स्थिति में कुछ महत्वपूर्ण कार्य एवं उपार्जन तो बन नहीं पड़ता, साथ ही चिकित्सा-पथ्य आदि का अतिरिक्त व्यय भार और बढ़ जाने पर सामान्य स्तर के लोगों के सामने आर्थिक कठिनाई भी दिन-दिन बढ़ती जाती है। जमा पूंजी चुक जाने पर चिकित्सा के अतिरिक्त पारिवारिक निर्वाह में भी अड़चन खड़ी हो जाती है, इससे न केवल रोगी वरन् उसका परिवार परिकर भी एक नई विपत्ति में फंस जाता है। सहानुभूति दिखाने वाले, पूछताछ करने वाले आते हैं तो उनका अतिथि सत्कार भी करना पड़ता है। इस महंगाई के दिनों में वह भी कम वजन नहीं डालता। बीमारी से छुटकारा पाने के बाद भी इतनी शक्ति बहुत दिनों में आ पाती है कि परिश्रमपूर्वक उपार्जन करके पहले की तरह फिर अपना साधारण क्रम चलाया जा सके। बीमारी के दिनों में हुई आर्थिक क्षति एवं अस्त-व्यस्तता के कारण उत्पन्न हुई गड़बड़ियों की क्षतिपूर्ति की जा सके। सामाजिक या राष्ट्रीय दृष्टि से हर रोगी समुदाय को क्षति पहुंचाने वाला अपराधी है, भले ही उसे दण्ड देने का कोई प्रावधान न हो। भले ही निर्दोष, दया, सहानुभूति या सेवा का पात्र समझा जाता हो। कारण कि रुग्णता प्रकारान्तर से समूचे समाज पर अनावश्यक भार डालती है। चिकित्सकों का प्रशिक्षण, अस्पताल का भारी भरकम ढांचा, औषधियों की शोध, उनका निर्माण-वितरण यह सब मिलाकर इतना बोझिल होता है कि उसमें ढेरों धन, शक्ति और जनशक्ति खपती है। यदि इसे सरकार जुटाती है तो भी उसे उसका संतुलन जनता पर टैक्स लगाकर ही पूरा करना पड़ता है। यह राशि यदि बच सकी होती तो शिक्षा संवर्धन, उद्योगों के संवर्धन जैसे उपयोगी कामों में लगती और सार्वजनिक प्रगति में सहायक होती। उन सब में कटौती करके ही रोगियों के लिए उपचार के साधन जुटाये जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति निजी साधनों से चिकित्सा करता है तो भी चिकित्सकों के प्रशिक्षण और औषधि निर्माण का जो ढांचा खड़ा किया गया है उसमें प्रकारान्तर से जन साधनों का नियोजन हुआ तो देखा ही जा सकता है।
यह प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप से राष्ट्रीय हित में हुई कटौती ही समझी जा सकती है। काम में, उत्पादन में कमी पड़ना जहां व्यक्ति की निजी हानि है वहां उसके कारण राष्ट्र की समृद्धि एवं प्रगति को भी हानि पहुंचती है। रोगी की छूत दूसरों को भी लगती है, उसके श्वास में, मल-मूत्र में जो अतिरिक्त गन्दगी-विषाक्तता रहती है वह घूम-फिर कर अन्य अनेक लोगों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करती है। इस प्रकार उस चपेट में सूखे के साथ गीला भी जलता है। जो लोग अपने स्वास्थ्य को साज-संभालकर रखे हुए थे वे इस रोग प्रदूषण से कहीं न कहीं प्रभावित हो सकते हैं। इसे जनसाधारण की क्षति ही मानना पड़ेगा, भले ही वह साधारण जैसी दीख पड़ती क्यों न हो। समर्थ-स्वस्थ व्यक्तियों के आधार पर समस्त राष्ट्र समर्थ बनता है और प्रगति करता है, वहीं रोगियों की संख्या बढ़ने से अवनति का, अवगति का प्रवाह चल पड़ता है। जो शक्ति दीवार उठाने में लगनी चाहिए थी वह खाई पाटने में खप जाती है। इस घाटे से देश का हर नागरिक न्यूनाधिक मात्रा में प्रभावित ही होता है इसलिए वैयक्तिक रुग्णता भी सामाजिक क्षति के रूप में फलित होती है सामुदायिक प्रगति में जो जितनी बाधायें डालता है, जो जितनी उपेक्षा-असमर्थता प्रकट करता है, उसके असहयोग से समस्त समाज को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हानि ही हानि उठानी पड़ती है। ऐसी दशा में यदि उसे अपराधी स्तर का माना जाय तो इसमें कुछ भी अनुचित न होगा। राजदण्ड भले ही न मिले तो भी प्रकृति उसे उस भूल का दण्ड देने में कोई कोर-कसर नहीं रखती। रुग्णता आखिर कोई दैवी विपत्ति या आकस्मिक दुर्घटना तो है नहीं, उन्हें मनुष्य ही प्रकृति मर्यादाओं का उल्लंघन करके स्वयं ही न्योंत बुलाता है। ऐसी दशा में कोई रोगी अपने को निर्दोष नहीं कह सकता, भले ही उसे अपनी भूल के बदले में साथी-सहयोगियों की सेवा-सहानुभूति मिलती रहे, पर इतने भर से उसकी निर्दोषता सिद्ध नहीं हो जाती है।
रुग्णता की बहुमुखी हानियों पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जा सके तो यह सहज ही समझा जा सकता है कि इस विपत्ति से बचना-बचाना ही उपयुक्त प्रतीत होगा। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए जिस आहार-विहार के संयम को अपनाने भर से काम चल सकता है, उसकी उपेक्षा करना किसी भी बुद्धिमान के लिए भार न प्रतीत होगा। संयमित जीवन में हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। हानि केवल इतनी है कि उच्छृंखलता, अव्यवस्था, चटोरेपन की ललक जैसी अवांछनीयताओं पर अंकुश लगाने का साहस करना पड़ता है। रोग से लड़ने में जितनी शक्ति खर्च होती है उतनी को यदि संयम बरतने, जीवनचर्या में सुव्यवस्था का समावेश करने में लगाया जा सके तो इतने भर से समग्र स्वास्थ्य रक्षा की गारण्टी मिल सकती है। इस आधार पर उस शास्त्र वचन के अनुरूप लाभ उठाया जा सकता है, जिसमें ‘आरोग्य’ को धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष का मूल साधन माना गया है।
मनुष्य जन्म अगणित विशेषताओं और विभूतियों से भरा-पूरा है। किसी को भी यह छूट है कि उतना ऊंचा उठे जितना कि अब तक कोई महामानव उत्कर्ष कर सका है, पर यह सम्भव तभी है कि शरीर और मन पूर्णतया स्वस्थ हो। जो जितनों के लिए जितना उपयोगी और सहायक सिद्ध होता है उसे उसी अनुपात में सम्मान और सहयोग मिलता है, अपने और दूसरों के अभ्युदय में योगदान करना उसी से बन पड़ता है और स्वस्थ-समर्थ रहने की स्थिति बनाये रहता है।
अपंग-अविकसित तो असहाय, दीन-दरिद्र दीखते हैं, पर इस पंक्ति में वे लोग भी सम्मिलित होते हैं जो दुर्बलता या रुग्णता से ग्रसित हैं। इसलिए अनेक दुःखद, दुर्भाग्यों और अभिशापों में प्रथम अस्वस्थता को ही माना गया है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि वैसी स्थिति न उत्पन्न होने पाये। यदि किसी कारण इस चपेट में आना भी पड़े तो वह दुर्दिन अधिक समय ठहरने न पाये। सच्चे अर्थों में जीवन उतने ही समय का माना जाता है जितना कि स्वस्थ रहकर जिया जा सका। कुछ अपवादों को छोड़कर अस्वस्थता अपना निज का उपार्जन है, भले ही वह अनजाने में, भ्रमवश या दूसरों की देखादेखी न्योंत बुलाया गया है। सृष्टि के सभी प्राणी जीवन भर निरोग रहते हैं। मरणकाल आने पर जाना तो सभी को पड़ता है, यह नियति की व्यवस्था है। इसमें किसी का चारा नहीं, पर निरोग रहना हर जीवधारी का जन्म सिद्ध अधिकार है। जिन प्राणियों को किसी के बन्धनों में बंधे रहने की विवशता नहीं होती, वे सभी जन्म से लेकर मरण पर्यन्त निरोग रहते हैं। स्वछन्द जीवन जीने वाले पशु-पक्षियों में कभी किसी को बीमार नहीं पाया जाता, कोई दुर्घटनाग्रसित हो जाय तो बात दूसरी है।
मनुष्य की उच्छृंखल आदतें ही उसे बीमार बनाती हैं। जीभ का चटोरापन अतिशय मात्रा में अखाद्य खाने के लिए बाधित करता रहता है। जो जितना भार उठा नहीं सकता, उतना लादने पर किसी का भी कचूमर निकल सकता है। पेट पर अपच भी इसी कारण चढ़ दौड़ता है, बिना पचा सड़ता है और सड़न को रक्त प्रवाह में मिल जाने से जहां भी अवसर मिलता है, रोग का लक्षण उभर पड़ता है। कामुकता की कुटेव जीवनी शक्ति को बुरी तरह क्षरण करती है और मस्तिष्क की तीक्ष्णता का हरण कर लेती है। अस्वच्छता, पूरी नींद न लेना, कड़े परिश्रम से जी चुराना, नशेबाजी जैसी कुटेवें भी स्वास्थ्य जो जर्जर बनाने का निमित्त कारण बनती हैं। खुली हवा और रोशनी से बचना, घुटन भरे वातावरण में रहना भी रुग्णता का एक बड़ा कारण है। भय या आक्रोश जैसे उतार-चढ़ाव भरे ज्वार-भाटे भी मनोविकार बनते हैं और व्यक्ति को सनकी, कमजोर एवं बीमार बनाकर रहते हैं। हंसती-हंसाती जिन्दगी जीने वाले प्रायः स्वस्थ ही रहते हैं और लम्बी जिन्दगी जीते हैं।
अपने ऊपर औचित्य का अंकुश लगाये रहा जाय तो दुर्बल पड़ने या बीमार रहने का अवसर ही न आये। उच्छृंखलता सर्वत्र अराजकता स्तर की अव्यवस्था को जन्म देती है, इस कुमार्ग पर चलने वाले ही रोगग्रस्त बनते या रहते देखे गये हैं। इस अनाचार का परित्याग कर देने पर कोई भी अपने खोये स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त कर सकता है। प्रकृति उद्दण्डता का दण्ड भी हाथोंहाथ देने में निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह व्यवहार करती है किन्तु साथ ही इतनी दयालु भी है कि गलती मान लेने, आदत सुधार लेने और रास्ता बदल लेने पर क्षमा भी कर देती है। कितने ही स्वास्थ्य गंवा बैठने वाले लोग अपनी आदतें सुधार लेने के उपरान्त पुनः स्वस्थ और समर्थ बनते देखे गये हैं, यह रास्ता सभी के लिए खुला है।
दण्ड के प्रतिफल की उपेक्षा करते रहने वाले ही बहुधा कुमार्ग पर चलने और कुकर्म करने पर उतारू होते हैं। यदि यह समय रहते समझा जा सके कि अस्वस्थता अपने लिए, अपने साथियों के लिए कितनी कष्ट कर होती है तो सम्भव है लोग आग में हाथ डाल कर उस महत्वपूर्ण अंग को गंवा बैठने जैसी भूल न करें। दुर्बल शरीर इतना परिश्रम-पुरुषार्थ भी नहीं कर सकता कि निर्वाह की आवश्यकताओं को अपने बलबूते पूरा कर सके, बीमारों का कष्ट चाबुक से पिटने या हथौड़े से कूटने के समान कष्ट कर होता है। परिचर्या में जिन साथियों को लगना पड़ता है उनका समय नष्ट होता है, इलाज का खर्च भी कम महंगा नहीं पड़ता। घर में पूर्व संचय न होने पर कर्ज लेने से लेकर कपड़े बेचने तक की नौबत आ जाती है। कितनों को ही खर्चीला उपचार न जुटा पाने पर अकाल मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। सहानुभूति का शिष्टाचार तो स्वजन सम्बन्धी निभाते ही हैं, पर मन से उन्हें भी रोगी भारभूत लगता है और उनसे अच्छा न हो सके तो बुरा हो जाने की कामना मन ही मन करने लगते हैं। स्वयं को भी ऐसे जीवन में कोई रस नहीं रह जाता, ज्यों-त्यों करके ही मौत के दिन पूरे करने पड़ते हैं। प्रगति की बात तो सोचते भी नहीं बनती, जब जीवित लाश की तरह जिन्दगी ढोई जा रही हो तो फिर अभ्युदय की योजना किस बलबूते बने? उज्ज्वल भविष्य के सपने किस आधार पर देखे जायें? यह सब दुःखद संभावनायें मात्र एक ही कारण से अवरोध बनकर खड़ी होती हैं कि शरीर के साथ मन भी अस्वस्थ रहने लगता है। दोनों एक साथ जुड़े जो हैं। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय कहा गया है। जिस प्रकार बीमार व्यक्ति की सभी इंद्रियां असमर्थता अनुभव करती हैं उसी प्रकार शारीरिक अस्वस्थता की स्थिति में मन भी अस्वस्थ, अस्तव्यस्त एवं विकृत होने लगता है। बीमारों में प्रायः चिड़चिड़ापन देखा जाता है, वे आक्रमण करने की स्थिति में तो होते नहीं, अपना क्रोध, आवेश, खिन्न-उद्विग्न रहकर ही व्यक्त करते हैं। शरीर और मन के सहयोग से ही हमारे समस्त क्रिया-कलाप सही रूप से चल सकने की स्थिति में रहते हैं। शरीर गड़बड़ाता है तो मन को भी अपनी चपेट में ले लेता है और चिन्तन भी गड़बड़ाने लगता है, फलतः रोगी व्यक्ति किसी प्रकार शान्त रहने और रहने देने की स्थिति में भी नहीं रहता। दूसरों के सत्परामर्श न उसे सुहाते हैं और न अपना मानसिक स्तर इस योग्य रहता है कि किसी को कोई उपयुक्त एवं व्यावहारिक परामर्श दे सकें, यह दुहरी हानि है। शरीरगत अशक्तता, रुग्णता, बेचैनी तो स्वयं ही सहन करनी पड़ती है, पर मानसिक अस्त-व्यस्तता का नया दौर चल पड़ने पर एक नया उपद्रव सामने आता है और स्थिति अर्धविक्षिप्त जैसी बन जाती है। मनुष्य शारीरिक और मानसिक रूप से रोगी रहने लगता है, इसके कारण उन्हें दुहरा दबाव सहना पड़ता है। सही चिन्तन के अभाव में इर्द-गिर्द के व्यक्ति और वातावरण पर ही सारे दोष थोपने का प्रवाह चलता है। अपनी गलतियां समझने और सुधारने का तो मानस ही नहीं रहता है। फलतः अपने को खिन्नता का और दूसरों को निराशा का सामना करना पड़ता है, रुग्णता के कष्ट में इस अतिरिक्त भार से त्रास और भी अधिक बढ़ता है- साथियों की हैरानी बढ़ जाती है सो अलग।
पीड़ित स्थिति में कुछ महत्वपूर्ण कार्य एवं उपार्जन तो बन नहीं पड़ता, साथ ही चिकित्सा-पथ्य आदि का अतिरिक्त व्यय भार और बढ़ जाने पर सामान्य स्तर के लोगों के सामने आर्थिक कठिनाई भी दिन-दिन बढ़ती जाती है। जमा पूंजी चुक जाने पर चिकित्सा के अतिरिक्त पारिवारिक निर्वाह में भी अड़चन खड़ी हो जाती है, इससे न केवल रोगी वरन् उसका परिवार परिकर भी एक नई विपत्ति में फंस जाता है। सहानुभूति दिखाने वाले, पूछताछ करने वाले आते हैं तो उनका अतिथि सत्कार भी करना पड़ता है। इस महंगाई के दिनों में वह भी कम वजन नहीं डालता। बीमारी से छुटकारा पाने के बाद भी इतनी शक्ति बहुत दिनों में आ पाती है कि परिश्रमपूर्वक उपार्जन करके पहले की तरह फिर अपना साधारण क्रम चलाया जा सके। बीमारी के दिनों में हुई आर्थिक क्षति एवं अस्त-व्यस्तता के कारण उत्पन्न हुई गड़बड़ियों की क्षतिपूर्ति की जा सके। सामाजिक या राष्ट्रीय दृष्टि से हर रोगी समुदाय को क्षति पहुंचाने वाला अपराधी है, भले ही उसे दण्ड देने का कोई प्रावधान न हो। भले ही निर्दोष, दया, सहानुभूति या सेवा का पात्र समझा जाता हो। कारण कि रुग्णता प्रकारान्तर से समूचे समाज पर अनावश्यक भार डालती है। चिकित्सकों का प्रशिक्षण, अस्पताल का भारी भरकम ढांचा, औषधियों की शोध, उनका निर्माण-वितरण यह सब मिलाकर इतना बोझिल होता है कि उसमें ढेरों धन, शक्ति और जनशक्ति खपती है। यदि इसे सरकार जुटाती है तो भी उसे उसका संतुलन जनता पर टैक्स लगाकर ही पूरा करना पड़ता है। यह राशि यदि बच सकी होती तो शिक्षा संवर्धन, उद्योगों के संवर्धन जैसे उपयोगी कामों में लगती और सार्वजनिक प्रगति में सहायक होती। उन सब में कटौती करके ही रोगियों के लिए उपचार के साधन जुटाये जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति निजी साधनों से चिकित्सा करता है तो भी चिकित्सकों के प्रशिक्षण और औषधि निर्माण का जो ढांचा खड़ा किया गया है उसमें प्रकारान्तर से जन साधनों का नियोजन हुआ तो देखा ही जा सकता है।
यह प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप से राष्ट्रीय हित में हुई कटौती ही समझी जा सकती है। काम में, उत्पादन में कमी पड़ना जहां व्यक्ति की निजी हानि है वहां उसके कारण राष्ट्र की समृद्धि एवं प्रगति को भी हानि पहुंचती है। रोगी की छूत दूसरों को भी लगती है, उसके श्वास में, मल-मूत्र में जो अतिरिक्त गन्दगी-विषाक्तता रहती है वह घूम-फिर कर अन्य अनेक लोगों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करती है। इस प्रकार उस चपेट में सूखे के साथ गीला भी जलता है। जो लोग अपने स्वास्थ्य को साज-संभालकर रखे हुए थे वे इस रोग प्रदूषण से कहीं न कहीं प्रभावित हो सकते हैं। इसे जनसाधारण की क्षति ही मानना पड़ेगा, भले ही वह साधारण जैसी दीख पड़ती क्यों न हो। समर्थ-स्वस्थ व्यक्तियों के आधार पर समस्त राष्ट्र समर्थ बनता है और प्रगति करता है, वहीं रोगियों की संख्या बढ़ने से अवनति का, अवगति का प्रवाह चल पड़ता है। जो शक्ति दीवार उठाने में लगनी चाहिए थी वह खाई पाटने में खप जाती है। इस घाटे से देश का हर नागरिक न्यूनाधिक मात्रा में प्रभावित ही होता है इसलिए वैयक्तिक रुग्णता भी सामाजिक क्षति के रूप में फलित होती है सामुदायिक प्रगति में जो जितनी बाधायें डालता है, जो जितनी उपेक्षा-असमर्थता प्रकट करता है, उसके असहयोग से समस्त समाज को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हानि ही हानि उठानी पड़ती है। ऐसी दशा में यदि उसे अपराधी स्तर का माना जाय तो इसमें कुछ भी अनुचित न होगा। राजदण्ड भले ही न मिले तो भी प्रकृति उसे उस भूल का दण्ड देने में कोई कोर-कसर नहीं रखती। रुग्णता आखिर कोई दैवी विपत्ति या आकस्मिक दुर्घटना तो है नहीं, उन्हें मनुष्य ही प्रकृति मर्यादाओं का उल्लंघन करके स्वयं ही न्योंत बुलाता है। ऐसी दशा में कोई रोगी अपने को निर्दोष नहीं कह सकता, भले ही उसे अपनी भूल के बदले में साथी-सहयोगियों की सेवा-सहानुभूति मिलती रहे, पर इतने भर से उसकी निर्दोषता सिद्ध नहीं हो जाती है।
रुग्णता की बहुमुखी हानियों पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जा सके तो यह सहज ही समझा जा सकता है कि इस विपत्ति से बचना-बचाना ही उपयुक्त प्रतीत होगा। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए जिस आहार-विहार के संयम को अपनाने भर से काम चल सकता है, उसकी उपेक्षा करना किसी भी बुद्धिमान के लिए भार न प्रतीत होगा। संयमित जीवन में हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। हानि केवल इतनी है कि उच्छृंखलता, अव्यवस्था, चटोरेपन की ललक जैसी अवांछनीयताओं पर अंकुश लगाने का साहस करना पड़ता है। रोग से लड़ने में जितनी शक्ति खर्च होती है उतनी को यदि संयम बरतने, जीवनचर्या में सुव्यवस्था का समावेश करने में लगाया जा सके तो इतने भर से समग्र स्वास्थ्य रक्षा की गारण्टी मिल सकती है। इस आधार पर उस शास्त्र वचन के अनुरूप लाभ उठाया जा सकता है, जिसमें ‘आरोग्य’ को धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष का मूल साधन माना गया है।