Books - समग्र स्वास्थ्य संवर्धन कैसे हो ?
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Language: HINDI
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समग्र स्वास्थ्य का शुभारम्भ आत्म-निर्माण से
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शरीर और मन स्वस्थ रहे तो अभीष्ट समर्थता प्राप्त हो सकती है। चिन्तन और चरित्र सही हो तो फिर सज्जनोचित व्यवहार भी बन पड़ता है, शिष्टाचार और मित्रता का सहयोगी क्षेत्र सुविस्तृत होता है—यह बड़ी उपलब्धियां हैं। ‘हम सुधरे तो जग सुधरे’ की उक्ति छोटी होते हुए भी अत्यन्त मार्मिक और सारगर्भित है। दूसरों की सेवा-सहायता करने में आरम्भिक किन्तु अत्यन्त प्रभावी तरीका यह है कि जैसा दूसरों को देखना चाहते हैं वैसा स्वयं बनकर दिखायें। दूसरे अपनी इच्छानुसार बने या न बने, चले या न चले—यह संदिग्ध है, क्योंकि सभी पर अपना प्रभाव, अधिकार कहां है? पर अपना आपा तो पूर्णतया अपने अधिकार क्षेत्र में है। जब शरीर को इच्छानुसार चलाया जा सकता है जब अपने पैसे को इच्छानुरूप खर्च किया जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि अपने स्वभाव और क्रिया-कलापों को इस ढांचे में न ढाला जा सके, जिसे शालीनता का प्रतीक-प्रतिनिधि कहा जा सके। श्रेष्ठ शुभारम्भ अपने घर से ही किया जाना चाहिए। घर का दीपक जलता है तो आंगन से लेकर पड़ौस तक में प्रकाश फैलता है। दूसरों को प्रभावित करने, बदलने से पहले यदि उसी इच्छित स्तर का अपने भर को बना लिया जाय तो निश्चित रूप से आधी समस्या हल हो जाती है। अपनी ओर से आंखें बन्द रखी जायें और दूसरों को सुधारने-समझाने के लिए निकल पड़ा जाय तो बात बनती नहीं, अभीष्ट सफलता मिलती नहीं। विफलता की ऐसी निराशा भरी घड़ी आने से पूर्व अच्छा यह है कि कम से कम अपने को तो उस स्तर का बना ही लिया जाय, जैसा कि अन्यान्य लोगों को देखना चाहते हैं।
समाज सुधार एक आवश्यक और महत्वपूर्ण प्रश्न है। जिस समुदाय में हम रहते हैं उसकी मान्यताओं और गतिविधियों को ध्यानपूर्वक देखा जाय तो प्रतीत होगा कि उनमें अधिकतर अवांछनीयतायें ही भरी पड़ी हैं। आस्थाओं, मान्यताओं, आकांक्षाओं में मानवी गरिमा के प्रतिकूल अनाचार का ही बाहुल्य है। लोभ, मोह और अहंकार के आवेश में लोग प्रायः निरर्थक और अनर्थ भरी रीति-नीति अपनाये हुए दिग्भ्रान्तों की तरह भूल-भुलैयों में भटकते देखे जाते हैं। मानव जीवन जैसे अलभ्य अवसर का प्रायः दुरुपयोग ही होता रहता है, ऐसा कुछ बन नहीं पड़ता जिस पर सन्तोष और आनन्द से भरा-पूरा गर्व किया जा सके, जिससे दूसरे कोई उपयोगी प्रेरणा या प्रकाश ग्रहण करें—इस अभाव का नाम ही भ्रष्टता और दुष्टता है। मान्यतायें और आकांक्षायें भी बुद्धि को प्रभावित करती हैं, उसी के समर्थन के लिए सहमत होती और तद्नुरूप ताने-बाने बुनती देखी गई हैं, इसलिए मात्र बौद्धिक समाधान कुछ विशेष काम नहीं आते। भाषणों और प्रवचनों की शक्ति सीमित है, लेखनी भी एक सीमा तक ही काम कर पाती है, क्योंकि पूर्वाग्रस्त विचारधारा स्वभाव का अंग बन चुकी होती है और वह अभ्यस्त हठवादिता को छोड़ने के लिए सहज तैयार नहीं होती। व्यक्ति या समाज के सुधार के लिए परामर्श प्रतिपादनों से अन्तःकरण की गहराई तक पहुंचना चाहिए ऐसी प्रखर प्रतिभा का उत्पादन उत्कृष्ट व्यक्तियों से ही उग सकना संभव होता है। प्राथमिकता और प्रमुखता देने योग्य क्षेत्र यही है, विशेषतया उनके लिए जो दूसरों को, समुदायों को सुधारने की आशा-अपेक्षा करते हैं और उसके लिए आतुर भी दीखते हैं। यह भावना एवं चेष्टा सराहनीय है, पर उसे प्रभावशाली बनाने के लिए यही सर्वसुलभ है कि आरम्भ अपने आप से किया जाय। यही वह बीजारोपण है जो आगे चलकर अंकुर, पौधा-वृक्ष बनते हुए फूल-फलों से लदता है, उसकी छत्रछाया में बैठकर अनेकों को राहत पाने का अवसर मिलता है।
यह ठीक है कि समाज से व्यक्ति प्रभावित होता है। वातावरण का प्रभाव एवं दबाव ऐसा है कि हलके-फुलके व्यक्तित्वों को अपने प्रवाह में बहा ले जाता है। अन्धड़ के साथ तिनके-पत्ते उड़ते देखे गये हैं। सामूहिक प्रथा-प्रचलनों का प्रभाव भी ऐसा ही है, वह दुर्बल मानस वाले अधिकांश लोगों पर प्रचलनों का अनुसरण करने के लिए दबाव डालता है। देखा भी यही जाता है कि विनिर्मित वातावरण में रहने वाले लोगों का चिन्तन, चरित्र, स्वभाव, अभ्यास भी उसी स्तर का बन जाता है। इसलिए समाज विज्ञानी इस बात पर अधिक जोर देते हैं कि सामूहिक वातावरण को, सार्वजनीन प्रचलन को सुधारने के लिए प्रबल प्रयत्नों का आश्रय लिया जाय। धुंआधार प्रचार से लेकर आन्दोलन करने, लोक मानस बदलने का प्रयत्न किया जाय। यथासम्भव असहयोग, विरोध या संघर्ष का भी आश्रय लिया जाय। आवश्यकतानुरूप शासन की शक्ति का भी इसके लिए उपयोग किया जाय, बन पड़े तो बहिष्कार, सत्याग्रह जैसे आयुधों का भी प्रयोग किया जाय। यह सभी प्रतिपादन-परामर्श अपनी जगह सही हैं, उन्हें आजमाया और क्रियान्वित भी किया जाय। इन उपायों से वातावरण को बदलने में किसी कदर सहायता मिलती भी है।
यह सब कुछ आवश्यक होते हुए भी पर्याप्त नहीं है। प्रचार कभी भी चिरस्थाई नहीं होते, वह अपने समय में अपनी प्रचण्डता का प्रदर्शन करके थोड़े ही समय में शान्त हो जाते हैं और प्रचार प्रभाव से उत्पन्न हुआ आवेश कुछ ही देर में पानी के बबूले की तरह उछल-कूद कर समाप्त हो जाता है। स्थायित्व अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करने में है, यदि प्रचारकों का निजी व्यक्तित्व घटिया हो तो फिर यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि मात्र वाचालता के सहारे किन्हीं को अभ्यस्त कुसंस्कारों का परित्याग करने और आदर्शपालन की व्रतशीलता को धारण करने के लिए सहमत किया जा सकेगा। जले दीपक ही नये दीपकों को अपनी प्रज्वलित लौ के सम्पर्क में लाकर उन्हें भी प्रकाशवान् बनाते हैं। जो स्वयं बुझे पड़े हैं वे नये दीपकों को प्रज्ज्वलित कर सकेंगे—इसकी आशा नहीं ही करनी चाहिए। कीचड़ से कीचड़ कैसे धोई जा सकेगी? जिसने अपने प्रतिपादनों से अपने आपको सहमत करने में सफलता नहीं पाई, वह दूसरों को सुधार के सन्मार्ग पर चला सकेगा, ऐसी आशा किस प्रकार फलित हो? जो अपने तक को नहीं सुधार सका वह अपने अनुकरण का निमन्त्रण किसी को दे नहीं सकता। उसके वाक्जाल में लोग देर तक फंसे नहीं रह सकते, यथार्थता आज नहीं तो कल उजागर होकर रहती है। जब वस्तुस्थिति में, कथनी और करनी में भिन्नता देखी जाती है तो उन सभी का विश्वास डगमगा जाता है जिन्हें परामर्शों की झड़ी लगाकर प्रभावित-सहमत करने में तात्कालिक सफलता दीख पड़ने लगी थी। ऐसों का आदर्शवादी उत्साह देखते-देखते ठण्डा पड़ जाता है।
कहने को कोई कुछ भी कहता रहे, पर लोगों की जमी हुई मान्यता यह है कि इन दिनों आदर्शों का परिपालन सम्भव नहीं है। उन्हें कहने-सुनने का मनोविनोद भर समझा जा सकता है। कथा श्रवण से स्वर्ग-मिलन जैसी मूढ़मान्यताओं से ग्रसित तो कितने ही लोग होते हैं, पर उन भक्त-श्रोताओं में से कदाचित ही कोई ऐसे निकलते हैं जो आदर्शों को व्यवहार में उतारने के लिए आवश्यक साहस दिखा सकें। जब उदाहरण ही दीख नहीं पड़ते तो कोई कैसे माने कि आदर्श का परिपालन व्यावहारिक एवं सम्भव भी है। यही एक चट्टान इतनी बड़ी है जिससे टकरा कर सतह पर बहते हुए अनेकों जलते दीपक बुझ जाते हैं। छोटी डोंगियां भी इन्हीं अवरोधों से टकराकर प्रायः डूबती देखी जाती हैं। प्रामाणिक उदाहरणों के बिना लोगों को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना इन दिनों इसी लिए विशेष रूप से कठिन हो गया है कि निजी जीवन में उत्कृष्टता की कसौटी पर खरे सिद्ध होने वाले उपदेष्टा ढूंढ़े नहीं मिलते। यदि उनका ऐसा अकाल न पड़ा होता तो प्राचीनकाल के धर्म-प्रचारकों की तरह इन दिनों भी समाज का उच्चस्तरीय निर्माण कर सकना संभव रहा होता, तब सतयुगी वातावरण सर्वत्र दिखाई देता। उत्कृष्टता की पक्षधर भाव-चेतना भी एक प्रकार के कृषि कार्य एवं उद्यान आरोपण की तरह हैं। उसके लिए सिंचाई तथा रखवाली की सुव्यवस्था रखने वाला जागरूक संरक्षक चाहिए। किसान या माली का स्वेद रिसन चल पाये बिना कोई फसल कभी फलती-फूलती और कोठे भरने में समर्थ नहीं होती। प्राचीनकाल में लोकमानस का स्तर ऊंचा उठाये रहने में चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में शालीनता का गहरा पुट लगाये रहने में, धर्म प्रचारकों का जो पुरोहित वर्ग निरन्तर कार्य-संलग्न रहता था उसका अब कहीं अता-पता भी नहीं दीख पड़ता। ऐसी दशा में खेत-उद्यानों को चौपट हुआ देखा जाता है तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
पानी का स्वभाव नीचे की ओर बहने का है। वस्तुयें सहज ही ऊपर से हटाने पर नीचे आ गिरती है। लोग चिन्तन और प्रचलन के सम्बन्ध में भी यही बात है। यदि उन्हें उत्कृष्टता की दिशा में उछालने वाला तन्त्र न हो तो पतन-पराभव के गर्त में उनका गिरते चले जाना सहज स्वाभाविक है। इन दिनों यही घटनाक्रम घटित हो रहा है। व्यक्तियों के समूह का नाम ही समाज है। व्यक्तियों का निजी स्तर जैसा भी भला-बुरा होता है, समाज भी ठीक उसी प्रकार का बन जाता है। व्यक्तित्वों में निकृष्टता भरती-बढ़ती चले और समाज-राष्ट्र का स्तर ऊंचा बना रहे—यह तो हो नहीं सकता। इसलिए देश, धर्म, समाज, संस्कृति की वास्तविक सेवा करने के इच्छुकों में से प्रत्येक को अपने प्रभाव क्षेत्र में व्यक्तित्वों का स्तर ऊंचा उठाने के लिए सच्चे अर्थों में ठोस प्रयत्न करने पड़ते हैं। इसके लिए सर्वप्रथम अपने को, अपने निजी परिकर को वैसा बनाना पड़ता है जैसा कि अन्यान्यों को सुधारने के सम्बन्ध में सोचा जाता है। आत्म निर्माण ही विकसित होकर समाज निर्माण या विश्व निर्माण जैसे महान् प्रयोजन में कुछ कहने लायक योगदान दे पाता है। ठोस प्रयत्न के लिए बनी सही योजना ही लक्ष्य तक पहुंचती और अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करती है। समाज सुधार के क्षेत्र में जिनने भी कुछ कारगर उपलब्धियां प्राप्त की है उन सभी को सर्वप्रथम आत्म निर्माण का कार्य हाथ में लेना पड़ा है। वही सनातन उपचार आज की परिस्थितियों में भी उतना ही सही और कारगर है।
प्रचलित और अभ्यस्त अवांछनीयता के घेरे को तोड़कर उत्कृष्टता के क्षेत्र में प्रवेश करना एक साहसिक कार्य है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को तोड़कर अन्तरिक्ष में प्रवेश करने वाले राकेटों की तरह इसके लिए अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए। वह यदि समाज के शुभेच्छुओं के जीवन में नहीं है, तो उन्हें प्रचण्ड संकल्प को उभारकर अपने में उत्पन्न करनी चाहिए। एकाकी निश्चय करने और उस पर चल पड़ने के लिए अपना ही शौर्य-पराक्रम काम देता है, इसके लिए तथाकथित स्वजन-सम्बन्धियों से प्रोत्साहन या सहयोग प्राप्त करने की आशा व्यर्थ है। सभी को ढर्रा पसन्द है, सभी सुविधा संवर्धन चाहते हैं, सभी आदर्शों की उपेक्षा करते हैं। अपवाद तो इस क्षेत्र में कहीं-कहीं ही दीख पड़ते हैं, ऐसी दशा में लोगों का मुंह ताकने या अन्यों का प्रयोग करने एवं उनके आगे आने की घटना देखने के लिए प्रतीक्षा में बैठे रहना व्यर्थ है। इतिहास के पृष्ठों पर जिन महामानवों की गुण गाथायें विद्यमान हैं उन्हीं को मार्गदर्शन करने एवं प्रकाश प्रेरणा देने के लिए पर्याप्त मान लिया जाना चाहिए।
प्रचलित अवांछनीयताओं से अपने को मुक्त करना चाहिए। अभीष्ट सत्प्रवृत्तियों को अपने स्वभाव एवं अभ्यास में उतारना चाहिए, इतना बन पड़ने पर लोगों को यह कहने में हिचक लगेगी कि आदर्शवादिता का परिपालन असम्भव या अव्यावहारिक है। अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए पस्त-हिम्मत लोगों में नये उत्साह का संचार किया जा सकता है।
समाज सुधार एक आवश्यक और महत्वपूर्ण प्रश्न है। जिस समुदाय में हम रहते हैं उसकी मान्यताओं और गतिविधियों को ध्यानपूर्वक देखा जाय तो प्रतीत होगा कि उनमें अधिकतर अवांछनीयतायें ही भरी पड़ी हैं। आस्थाओं, मान्यताओं, आकांक्षाओं में मानवी गरिमा के प्रतिकूल अनाचार का ही बाहुल्य है। लोभ, मोह और अहंकार के आवेश में लोग प्रायः निरर्थक और अनर्थ भरी रीति-नीति अपनाये हुए दिग्भ्रान्तों की तरह भूल-भुलैयों में भटकते देखे जाते हैं। मानव जीवन जैसे अलभ्य अवसर का प्रायः दुरुपयोग ही होता रहता है, ऐसा कुछ बन नहीं पड़ता जिस पर सन्तोष और आनन्द से भरा-पूरा गर्व किया जा सके, जिससे दूसरे कोई उपयोगी प्रेरणा या प्रकाश ग्रहण करें—इस अभाव का नाम ही भ्रष्टता और दुष्टता है। मान्यतायें और आकांक्षायें भी बुद्धि को प्रभावित करती हैं, उसी के समर्थन के लिए सहमत होती और तद्नुरूप ताने-बाने बुनती देखी गई हैं, इसलिए मात्र बौद्धिक समाधान कुछ विशेष काम नहीं आते। भाषणों और प्रवचनों की शक्ति सीमित है, लेखनी भी एक सीमा तक ही काम कर पाती है, क्योंकि पूर्वाग्रस्त विचारधारा स्वभाव का अंग बन चुकी होती है और वह अभ्यस्त हठवादिता को छोड़ने के लिए सहज तैयार नहीं होती। व्यक्ति या समाज के सुधार के लिए परामर्श प्रतिपादनों से अन्तःकरण की गहराई तक पहुंचना चाहिए ऐसी प्रखर प्रतिभा का उत्पादन उत्कृष्ट व्यक्तियों से ही उग सकना संभव होता है। प्राथमिकता और प्रमुखता देने योग्य क्षेत्र यही है, विशेषतया उनके लिए जो दूसरों को, समुदायों को सुधारने की आशा-अपेक्षा करते हैं और उसके लिए आतुर भी दीखते हैं। यह भावना एवं चेष्टा सराहनीय है, पर उसे प्रभावशाली बनाने के लिए यही सर्वसुलभ है कि आरम्भ अपने आप से किया जाय। यही वह बीजारोपण है जो आगे चलकर अंकुर, पौधा-वृक्ष बनते हुए फूल-फलों से लदता है, उसकी छत्रछाया में बैठकर अनेकों को राहत पाने का अवसर मिलता है।
यह ठीक है कि समाज से व्यक्ति प्रभावित होता है। वातावरण का प्रभाव एवं दबाव ऐसा है कि हलके-फुलके व्यक्तित्वों को अपने प्रवाह में बहा ले जाता है। अन्धड़ के साथ तिनके-पत्ते उड़ते देखे गये हैं। सामूहिक प्रथा-प्रचलनों का प्रभाव भी ऐसा ही है, वह दुर्बल मानस वाले अधिकांश लोगों पर प्रचलनों का अनुसरण करने के लिए दबाव डालता है। देखा भी यही जाता है कि विनिर्मित वातावरण में रहने वाले लोगों का चिन्तन, चरित्र, स्वभाव, अभ्यास भी उसी स्तर का बन जाता है। इसलिए समाज विज्ञानी इस बात पर अधिक जोर देते हैं कि सामूहिक वातावरण को, सार्वजनीन प्रचलन को सुधारने के लिए प्रबल प्रयत्नों का आश्रय लिया जाय। धुंआधार प्रचार से लेकर आन्दोलन करने, लोक मानस बदलने का प्रयत्न किया जाय। यथासम्भव असहयोग, विरोध या संघर्ष का भी आश्रय लिया जाय। आवश्यकतानुरूप शासन की शक्ति का भी इसके लिए उपयोग किया जाय, बन पड़े तो बहिष्कार, सत्याग्रह जैसे आयुधों का भी प्रयोग किया जाय। यह सभी प्रतिपादन-परामर्श अपनी जगह सही हैं, उन्हें आजमाया और क्रियान्वित भी किया जाय। इन उपायों से वातावरण को बदलने में किसी कदर सहायता मिलती भी है।
यह सब कुछ आवश्यक होते हुए भी पर्याप्त नहीं है। प्रचार कभी भी चिरस्थाई नहीं होते, वह अपने समय में अपनी प्रचण्डता का प्रदर्शन करके थोड़े ही समय में शान्त हो जाते हैं और प्रचार प्रभाव से उत्पन्न हुआ आवेश कुछ ही देर में पानी के बबूले की तरह उछल-कूद कर समाप्त हो जाता है। स्थायित्व अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करने में है, यदि प्रचारकों का निजी व्यक्तित्व घटिया हो तो फिर यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि मात्र वाचालता के सहारे किन्हीं को अभ्यस्त कुसंस्कारों का परित्याग करने और आदर्शपालन की व्रतशीलता को धारण करने के लिए सहमत किया जा सकेगा। जले दीपक ही नये दीपकों को अपनी प्रज्वलित लौ के सम्पर्क में लाकर उन्हें भी प्रकाशवान् बनाते हैं। जो स्वयं बुझे पड़े हैं वे नये दीपकों को प्रज्ज्वलित कर सकेंगे—इसकी आशा नहीं ही करनी चाहिए। कीचड़ से कीचड़ कैसे धोई जा सकेगी? जिसने अपने प्रतिपादनों से अपने आपको सहमत करने में सफलता नहीं पाई, वह दूसरों को सुधार के सन्मार्ग पर चला सकेगा, ऐसी आशा किस प्रकार फलित हो? जो अपने तक को नहीं सुधार सका वह अपने अनुकरण का निमन्त्रण किसी को दे नहीं सकता। उसके वाक्जाल में लोग देर तक फंसे नहीं रह सकते, यथार्थता आज नहीं तो कल उजागर होकर रहती है। जब वस्तुस्थिति में, कथनी और करनी में भिन्नता देखी जाती है तो उन सभी का विश्वास डगमगा जाता है जिन्हें परामर्शों की झड़ी लगाकर प्रभावित-सहमत करने में तात्कालिक सफलता दीख पड़ने लगी थी। ऐसों का आदर्शवादी उत्साह देखते-देखते ठण्डा पड़ जाता है।
कहने को कोई कुछ भी कहता रहे, पर लोगों की जमी हुई मान्यता यह है कि इन दिनों आदर्शों का परिपालन सम्भव नहीं है। उन्हें कहने-सुनने का मनोविनोद भर समझा जा सकता है। कथा श्रवण से स्वर्ग-मिलन जैसी मूढ़मान्यताओं से ग्रसित तो कितने ही लोग होते हैं, पर उन भक्त-श्रोताओं में से कदाचित ही कोई ऐसे निकलते हैं जो आदर्शों को व्यवहार में उतारने के लिए आवश्यक साहस दिखा सकें। जब उदाहरण ही दीख नहीं पड़ते तो कोई कैसे माने कि आदर्श का परिपालन व्यावहारिक एवं सम्भव भी है। यही एक चट्टान इतनी बड़ी है जिससे टकरा कर सतह पर बहते हुए अनेकों जलते दीपक बुझ जाते हैं। छोटी डोंगियां भी इन्हीं अवरोधों से टकराकर प्रायः डूबती देखी जाती हैं। प्रामाणिक उदाहरणों के बिना लोगों को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना इन दिनों इसी लिए विशेष रूप से कठिन हो गया है कि निजी जीवन में उत्कृष्टता की कसौटी पर खरे सिद्ध होने वाले उपदेष्टा ढूंढ़े नहीं मिलते। यदि उनका ऐसा अकाल न पड़ा होता तो प्राचीनकाल के धर्म-प्रचारकों की तरह इन दिनों भी समाज का उच्चस्तरीय निर्माण कर सकना संभव रहा होता, तब सतयुगी वातावरण सर्वत्र दिखाई देता। उत्कृष्टता की पक्षधर भाव-चेतना भी एक प्रकार के कृषि कार्य एवं उद्यान आरोपण की तरह हैं। उसके लिए सिंचाई तथा रखवाली की सुव्यवस्था रखने वाला जागरूक संरक्षक चाहिए। किसान या माली का स्वेद रिसन चल पाये बिना कोई फसल कभी फलती-फूलती और कोठे भरने में समर्थ नहीं होती। प्राचीनकाल में लोकमानस का स्तर ऊंचा उठाये रहने में चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में शालीनता का गहरा पुट लगाये रहने में, धर्म प्रचारकों का जो पुरोहित वर्ग निरन्तर कार्य-संलग्न रहता था उसका अब कहीं अता-पता भी नहीं दीख पड़ता। ऐसी दशा में खेत-उद्यानों को चौपट हुआ देखा जाता है तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
पानी का स्वभाव नीचे की ओर बहने का है। वस्तुयें सहज ही ऊपर से हटाने पर नीचे आ गिरती है। लोग चिन्तन और प्रचलन के सम्बन्ध में भी यही बात है। यदि उन्हें उत्कृष्टता की दिशा में उछालने वाला तन्त्र न हो तो पतन-पराभव के गर्त में उनका गिरते चले जाना सहज स्वाभाविक है। इन दिनों यही घटनाक्रम घटित हो रहा है। व्यक्तियों के समूह का नाम ही समाज है। व्यक्तियों का निजी स्तर जैसा भी भला-बुरा होता है, समाज भी ठीक उसी प्रकार का बन जाता है। व्यक्तित्वों में निकृष्टता भरती-बढ़ती चले और समाज-राष्ट्र का स्तर ऊंचा बना रहे—यह तो हो नहीं सकता। इसलिए देश, धर्म, समाज, संस्कृति की वास्तविक सेवा करने के इच्छुकों में से प्रत्येक को अपने प्रभाव क्षेत्र में व्यक्तित्वों का स्तर ऊंचा उठाने के लिए सच्चे अर्थों में ठोस प्रयत्न करने पड़ते हैं। इसके लिए सर्वप्रथम अपने को, अपने निजी परिकर को वैसा बनाना पड़ता है जैसा कि अन्यान्यों को सुधारने के सम्बन्ध में सोचा जाता है। आत्म निर्माण ही विकसित होकर समाज निर्माण या विश्व निर्माण जैसे महान् प्रयोजन में कुछ कहने लायक योगदान दे पाता है। ठोस प्रयत्न के लिए बनी सही योजना ही लक्ष्य तक पहुंचती और अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करती है। समाज सुधार के क्षेत्र में जिनने भी कुछ कारगर उपलब्धियां प्राप्त की है उन सभी को सर्वप्रथम आत्म निर्माण का कार्य हाथ में लेना पड़ा है। वही सनातन उपचार आज की परिस्थितियों में भी उतना ही सही और कारगर है।
प्रचलित और अभ्यस्त अवांछनीयता के घेरे को तोड़कर उत्कृष्टता के क्षेत्र में प्रवेश करना एक साहसिक कार्य है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को तोड़कर अन्तरिक्ष में प्रवेश करने वाले राकेटों की तरह इसके लिए अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए। वह यदि समाज के शुभेच्छुओं के जीवन में नहीं है, तो उन्हें प्रचण्ड संकल्प को उभारकर अपने में उत्पन्न करनी चाहिए। एकाकी निश्चय करने और उस पर चल पड़ने के लिए अपना ही शौर्य-पराक्रम काम देता है, इसके लिए तथाकथित स्वजन-सम्बन्धियों से प्रोत्साहन या सहयोग प्राप्त करने की आशा व्यर्थ है। सभी को ढर्रा पसन्द है, सभी सुविधा संवर्धन चाहते हैं, सभी आदर्शों की उपेक्षा करते हैं। अपवाद तो इस क्षेत्र में कहीं-कहीं ही दीख पड़ते हैं, ऐसी दशा में लोगों का मुंह ताकने या अन्यों का प्रयोग करने एवं उनके आगे आने की घटना देखने के लिए प्रतीक्षा में बैठे रहना व्यर्थ है। इतिहास के पृष्ठों पर जिन महामानवों की गुण गाथायें विद्यमान हैं उन्हीं को मार्गदर्शन करने एवं प्रकाश प्रेरणा देने के लिए पर्याप्त मान लिया जाना चाहिए।
प्रचलित अवांछनीयताओं से अपने को मुक्त करना चाहिए। अभीष्ट सत्प्रवृत्तियों को अपने स्वभाव एवं अभ्यास में उतारना चाहिए, इतना बन पड़ने पर लोगों को यह कहने में हिचक लगेगी कि आदर्शवादिता का परिपालन असम्भव या अव्यावहारिक है। अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए पस्त-हिम्मत लोगों में नये उत्साह का संचार किया जा सकता है।