Books - समग्र स्वास्थ्य संवर्धन कैसे हो ?
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समर्थ प्रगतिशीलता कैसे अर्जित हो?
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जन्मतः मनुष्य कोरे कागज की तरह होता है। सम्पर्क में आने वाले वातावरण द्वारा उसका स्वभाव या सम्मान गढ़ा जाता है। प्रचण्ड गर्मी के दिनों में स्रोत सूख जाते हैं और घात-पात के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं, पर वर्षा आने पर वह बात नहीं रहती। देखते-देखते उमस का माहौल बदलता है और सर्वत्र जल भरा दीखता है। जमीन पर हरी मखमल का फर्श बिछ जाता है, यह परस्पर विरोधी चमत्कार वातावरण के परिवर्तन से ही बन पड़ते हैं। ऋतुयें अपने प्रभाव से हर किसी को अपने-अपने ढंग से प्रभावित करती हैं। युद्ध, उपद्रव, आतंक से प्रत्यक्ष प्रभावित भले ही सीमित लोग ही होते हों, पर उनके कारण भयभीत, अस्त-व्यस्त अधिकांश लोगों का मानस बनता है। बसन्त ऋतु हर किसी को उल्लास और सौन्दर्य की अनुभूति कराती है। पर्व-त्यौहारों और हर्षोत्सवों के दिनों सर्वसाधारण का मन हुलसने लगता है। समुन्नत-सुसंस्कृत वातावरण में साधारण जनों को भी सभ्यता का स्वरूप जानने और उस ढांचे में ढलने का अनायास ही सुयोग मिलता है। इसके विपरीत दुष्ट, दुर्जनों, अनाचारी, व्यभिचारी, दुर्व्यसनी लोगों के बीच रहते हुए अच्छे-भले भी उसी प्रवाह में बहने लगते हैं। व्यक्तिगत प्रयास और साहस का मूल्य समझते हुए भी देखने में यही आता है कि वातावरण का प्रभाव-दबाव भी कम सशक्त नहीं है, वह भी बहुत कुछ कर गुजरने में समर्थ होता है। जर्मनी में नाजीवाद, रूस में साम्यवाद जनता की निजी उपलब्धि रही थी, वहां लोकमानस को शासन तन्त्र ने अपने अनुरूप ढालने में सफलता पाई थी। सतयुग भी सीमित संख्या वाले ऋषि-मनीषियों की ही अनुकृति थी। समाज सुधारकों और राष्ट्र-निर्माताओं ने भी योजनाबद्ध रूप से सुसंगठित प्रयास किये हैं और जन समुदाय को अपना अनुयायी आदर्श अपनाने के लिए तैयार किया है। ऐसे लोगों में गांधी, बुद्ध, ईसा आदि मनस्वी लोक निर्माताओं का उदाहरण सर्वसाधारण की आंखों के सामने तैरता है।
आज के अनौचित्य भरे चिन्तन, स्वभाव एवं क्रिया-कलाप उन लोगों की देन हैं जिनने लोकमानस को प्रभावित करने की शक्ति को उभारा और उसके मनचाहे प्रयत्न से लोक प्रचलन को अनुपयुक्त मार्ग पर धकेला। इसमें साहित्यकारों, कलाकारों, अभिनेताओं, प्रचारकों, नेताओं को विशेष रूप से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। टी.वी. सिनेमा, रेडियो जैसे तन्त्र शिक्षित-अशिक्षित सभी को अपने प्रभाव से प्रभावित करते हैं। शासन या समाज द्वारा जिन लोगों का, जिन कृत्यों का समर्थन किया जाता है, प्रोत्साहन मिलता है उसी प्रकार का लाभ प्राप्त करने के लिए असंख्यों का मन मचलता है। समारोहों, जुलूस-प्रदर्शनों के माध्यम से उत्पन्न किये जाने वाले वातावरण भी उन लोगों तक को अपने प्रवाह में घसीट ले जाते हैं, जिनको प्रत्यक्षतः इससे कुछ लेना देना नहीं है। वातावरण के प्रभाव से बच निकलना या उससे विपरीत दिशा में स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर चल सकना किन्हीं विरलों के लिए ही सम्भव होता है।
व्यक्ति निर्माण से लेकर समाज निर्माण तक के लिए, देश को ऊंचा उठाने एवं आगे बढ़ाने के लिए जहां व्यक्तिगत जीवन को आदर्शवादिता के सहारे प्रखर प्रतिभावान् बनाने की आवश्यकता है, वहीं यह भी उचित है कि ऐसा वातावरण बनाने का प्रयत्न किया जाय जिसमें शालीनता को पनपने का अवसर मिल सके, जिस में जन विरोध के कारण अवांछनीयताओं को बेमौत मरना पड़े। जितना आवश्यक अपना उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत करना है उतना ही यह प्रयास भी महत्वपूर्ण है कि अनौचित्य भरे वातावरण को उलटने और शालीनता का पक्षधर माहौल बनाने के लिए सुविस्तृत क्षेत्र में सुनियोजित ढंग से व्यापक प्रयत्न किये जायें।
व्यक्तिगत सेवा-सहायता भी सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप सराहनीय हो सकती है। पीड़ितों-पिछड़ों के लिए, अपंग-असमर्थों के लिए उनकी आवश्यक सहायता उदारचेताओं द्वारा जुटाई ही जानी चाहिए। वह सहृदयता का, उदारता का परिपोषण करने के लिए आवश्यक भी है। उदारचेता इन अभिव्यक्तियों को समय-समय पर चरितार्थ करते रहे हैं। दुर्भाग्यग्रस्त लोगों की व्यथाओं को निष्ठुर मन से देखते रहना, सेवा-सहायता के लिए हाथ न बढ़ाना, आत्म-धिक्कार और लोक अपयश का कारण बनता है। इस सन्दर्भ में सभी को आवश्यक ध्यान रखना चाहिए।
इतने पर भी यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि दरिद्रों की आर्थिक सहायता या पीड़ितों के प्रति सेवा करने से ही कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है। सार्वजनीन हित, कामना और अभ्युदय की योजना बनाते समय यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि निकृष्टता भरा मानस और आचरण ही समस्त विपत्तियों का प्रधान कारण है, कारगर उपाय भी एक ही है—अवांछनीयताओं के दलदल से मानवी सत्ता को उबारने के लिए असाधारण स्तर का ऐसा प्रबल प्रयास किया जाय जो प्रचलन को ही उलट सके, उल्टे को उलट कर सीधा कर सके।
मनुष्य सीखने वाला प्राणी है, परिस्थितियों के अनुरूप वह बुराइयों को अपनाने के लिए भी चल पड़ता है और यदि प्रेरक वातावरण के साथ रहने को जुट सके तो वह कुछ से कुछ भी बन सकता है। पारस छूकर लोहा से सोना बनने की उपमा इसी सन्दर्भ में दी जाती है। संसार के महामानवों ने अन्तःप्रेरणा के अतिरिक्त प्रेरणाप्रद सम्पर्क सान्निध्य से भी बहुत कुछ पाया था। बुद्ध-गांधी आदि के प्रखर व्यक्तित्वों ने ऐसा वातावरण विनिर्मित किया था, जिसके चुम्बकत्व वाले दबाव से खिंचकर असंख्य छोटे-बड़े उनके बताये मार्ग पर चल पड़ने के लिए कटिबद्ध हुए। जब युद्धोन्माद उत्पन्न करके धन-जन का विशाल समुच्चय उस ज्वाला में होमा जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि प्रेरणाप्रद वातावरण बनाकर असंख्य जन समुदाय को उत्कृष्ट आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्रोत्साहित न किया जा सके।
प्राचीनकाल में मनीषायें-प्रतिभायें इस प्रयोजन को व्यक्तिगत रूप से मिल-जुलकर पूरा कर लिया करती थीं, पर आज तो परिस्थितियां ही दूसरी हैं। समर्थ प्रचारतन्त्र ही अभीष्ट वातावरण बनाने में समर्थ हो सकता है। उदाहरण के लिए ईसाई धर्म और साम्यवाद के द्रुतगति से अग्रगामी होने के प्रत्यक्ष प्रभाव सामने प्रस्तुत हैं। इन दोनों ने आंधी-तूफान की तरह बढ़-चढ़कर जन-समुदाय को, सामान्य मस्तिष्कों को अपने ढांचे में ढाल लेने में अप्रत्याशित सफलता पाई है। प्राचीनकाल के अनेकानेक धर्म सम्प्रदाय, दर्शन और संगठन ऐसे ही सामूहिक प्रयासों के प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुए और क्रमशः चक्रवृद्धि रीति-नीति अपनाकर आगे बढ़ते चले गये। इन दिनों भी वह यथार्थता यथास्थान अवस्थित है। समाचार पत्र, साहित्य, सिनेमा, टी.वी. जैसे कुछेक समर्थ तन्त्रों ने सामान्य जनमानस को अपने ढांचे में ढाल लेने में असाधारण सफलतायें पाई हैं। तानाशाही राजतन्त्र भी इसी अस्त्र के सहारे इच्छा या अनिच्छा से असंख्यों को अपने आदेशों का परिपालन करने के लिए बाधित करते रहे हैं। तथ्य बताते हैं कि जो भूमिका किसी समय में अवतारों, देवदूतों, विशिष्ट प्रतिभाओं द्वारा सम्पन्न की जाती रही है, वे आज उनका अभाव होने पर भी समर्थ प्रचार एवं प्रभाव तन्त्र के सहारे सम्पन्न की जा सकती हैं। समय को देखते हुए यही उपयुक्त भी है। युग मनीषियों को इस सामयिक आवश्यकता पर पूरी गम्भीरतापूर्वक विचार करना और उसका ढांचा खड़ा करने में जुट जाना चाहिए।
अपने समाज में इन दिनों अनेकों अवांछनीयतायें, अनैतिकतायें, मूढ़ मान्यतायें, अन्ध परम्परायें, कुरीतियां प्रचलित हैं। बाल विवाह, कन्या विक्रय, वर विक्रय, मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय, जातिगत ऊंच-नीच, पर्दा प्रथा आदि कुप्रचलनों की परिणतियों ने दूरगामी दुष्परिणाम उत्पन्न करने वाली समस्याओं के बवण्डर खड़े किये हुए हैं। आलस्य और प्रमाद के कारण मनुष्य की आधी उत्पादक शक्ति नष्ट होती रहती है। शिक्षितों की बेरोजगारी का एक बड़ा कारण यह है कि कुर्सी-मेज पर बैठकर काम करने की ही उनकी मांग रहती है, श्रमसाध्य कार्यों की ओर से अरुचि दिखाई जाती है। शिक्षा के साधनों में भी बड़ी कठिनाई यह है कि लोगों को शिक्षा का महत्व समझने और उसके लिए उत्सुकता प्रकट करने का मानस नहीं है अन्यथा सरकारी प्रौढ़ शिक्षा आन्दोलन से लेकर सेवाभावियों द्वारा किये जाने वाले शिक्षा सम्वर्धन के प्रयास असफल न होते। स्कूली शिक्षा के साथ जुड़े हुए पाठ्यक्रम भी ऐसे हैं जिनमें व्यावहारिक जीवन के साथ जुड़ी समस्याओं के समाधानों का अभाव ही रहता है। निजी उत्पादनों और व्यवसायों का प्रशिक्षण भी उसमें नहीं के बराबर ही पाया जाता है। नारी का पिछड़ापन, आधी जनसंख्या को पक्षाघात, पीड़ितों की तरह अपंग बनाये हुए हैं। यदि उसे पुरुषों की तरह ही सुयोग्य और उत्पादक कार्यों में निरत रहने का अवसर मिला होता तो उतने भर से देश की समृद्धि और प्रगति दूनी हो गई होती।
भाग्यवाद, भूत-पलीत, ग्रह-नक्षत्र, शकुन, मुहूर्त, टोना-टोटका, जादू चमत्कार जैसी अनेकानेक भ्रांतियों ने अपने समाज में गहरी जड़ जमा रखी हैं। पुराने लोग स्वर्ग-मुक्ति, सिद्धि, देवदर्शन आदि के फेर में पड़े रहते हैं, नई पीढ़ी के लोग वासना, तृष्णा और अहंता के लिए समूची तत्परता नियोजित किये रहते हैं। दोनों पीढ़ियों का ही आत्मचिंतन व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरता पर केन्द्रित है। आत्मशोधन का पुण्य और लोकमंगल का परमार्थ रास नहीं आता, उसे तो आत्म विज्ञापन के निमित्त ढिंढोरा पीटने जैसे प्रयोजनों में काम लिया जाता है, उसके आधार पर लोक सम्मान अर्जित करने और उसका प्रकारान्तर से लाभ उठाने की ललक उनकी रहती है। यह अहंता का परिशोधन जितना बढ़ा-चढ़ा होगा उसी अनुपात में समाज की आवश्यकताओं में कटौती होगी और चित्र-विचित्र अनाचारों के उभरने की संभावना बढ़ती रहेगी। खाद्य पदार्थों में मिलावट से लेकर रिश्वतखोरी तक के अनेकानेक अवांछनीय प्रचलन इसी कारण बढ़ रहे हैं, विलगाव की प्रवृत्ति इसी कारण बढ़ती है। सहकारिता का, उदार आत्मीयता का वातावरण इसी कारण नहीं बन पड़ता, सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन में जन सहयोग इसी लिए नहीं मिल पाता है कि जन-जन की व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरता हथकड़ी-बेड़ी बनकर मनुष्य को जकड़े रहती है और उसके लिए देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए कुछ करने की उमंग ही प्रायः मृत हो जाती है। संक्षेप में यही है समाजगत मान्यताओं और प्रथा-प्रचलनों का सर्वविदित स्वरूप। दूर-दूर तक फैली विषवृक्ष की इन्हीं जड़ों पर लम्बे समय तक कुठाराघात करने की आवश्यकता है, साथ ही नन्दन वन जैसे, चन्दन वन जैसे सत्प्रवृत्तियों के अभिनव उद्यानों का आरोपण, अभिवर्धन भी उतना ही आवश्यक है।
इन सबके लिए समुद्र का सेतु बांधने जैसे प्रयत्न उदारचेता दूरदर्शियों को मिल-जुलकर करने होंगे। किन्हीं कार्यक्रमों को आरम्भ करने से पूर्व ऐसा वातावरण बनाना होगा जिससे नवसृजन के लिए जो कुछ किया जाना है उसे जन समर्थन और सहयोग अभीष्ट मात्रा में मिल सके। जो करने की योजना बनाई है उसका सही व्यक्तियों द्वारा सही तरीके से सदुपयोग कर सकना सम्भव हो सके।
अभीष्ट वातावरण बनाने के लिए ऐसे प्रचारात्मक योजनाओं को छोटे या बड़े रूप में कार्यान्वित करना होगा जो लोक चिंतन को व्यक्तिवादी स्वार्थपरता से उबारकर लोक कल्याण के समुदायवाद की दिशा में उलट सके। प्रवाह को चीरते हुए इच्छित दिशा में साहसपूर्वक दौड़ पड़ने वाली मछली की तरह अपना मार्ग, अपने पौरुष के आधार पर स्वयं विनिर्मित कर सके। भले-बुरे प्रचार में साहित्य का, कला का, वाणी का, सम्पर्क-परामर्श का, प्रेरक प्रदर्शनी का सरंजाम जुटाना पड़ता है। यही सब मनीषियों के संगठनों को भी प्रचण्ड पुरुषार्थ के साथ इस प्रकार करना होगा कि वह भाषाओं, सम्प्रदाओं, देशों की परिधि से सीमाबद्ध बने हुए जन समुदाय को युगधर्म पहचानने के लिए समस्त प्रतिबन्धों को तोड़ते हुए सहमत किया जा सके।
इस प्रयोजन के लिए एक छोटा प्रयत्न शांतिकुंज द्वारा किया जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि समर्थ व्यक्ति इन्हीं प्रयासों को अपने ढंग से बड़े रूप में कार्यान्वित करने के लिए कटिबद्ध हों। स्मरण रहे; इतना बड़ा कार्य कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता, उसके लिए प्राणवान् प्रतिभाओं के उच्चस्तरीय प्रयासों, संगठनों और योजना को हाथ में लिए जाने की आवश्यकता है। इमारत को गिराने में थोड़े से ही प्रयत्नों से काम चल जाता है, पर यदि उसे नये सिरे से विनिर्मित करना हो तो अत्यधिक साधनों की, कुशल श्रमिकों और इंजीनियरों की आवश्यकता होती है। परिस्थितियों को जिन लोगों ने दुर्दशाग्रस्त बनाया है, प्रयत्न तो उनको भी करने पड़े हैं, जिन्हें सदाशयता सृजन संवर्धन अभीष्ट है उन्हें मिल-जुलकर ऐसे प्रबल प्रयत्न करने पड़ेंगे जो वातावरण के उलटे प्रवाह को उलट कर सीधा कर सकें।
आज के अनौचित्य भरे चिन्तन, स्वभाव एवं क्रिया-कलाप उन लोगों की देन हैं जिनने लोकमानस को प्रभावित करने की शक्ति को उभारा और उसके मनचाहे प्रयत्न से लोक प्रचलन को अनुपयुक्त मार्ग पर धकेला। इसमें साहित्यकारों, कलाकारों, अभिनेताओं, प्रचारकों, नेताओं को विशेष रूप से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। टी.वी. सिनेमा, रेडियो जैसे तन्त्र शिक्षित-अशिक्षित सभी को अपने प्रभाव से प्रभावित करते हैं। शासन या समाज द्वारा जिन लोगों का, जिन कृत्यों का समर्थन किया जाता है, प्रोत्साहन मिलता है उसी प्रकार का लाभ प्राप्त करने के लिए असंख्यों का मन मचलता है। समारोहों, जुलूस-प्रदर्शनों के माध्यम से उत्पन्न किये जाने वाले वातावरण भी उन लोगों तक को अपने प्रवाह में घसीट ले जाते हैं, जिनको प्रत्यक्षतः इससे कुछ लेना देना नहीं है। वातावरण के प्रभाव से बच निकलना या उससे विपरीत दिशा में स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर चल सकना किन्हीं विरलों के लिए ही सम्भव होता है।
व्यक्ति निर्माण से लेकर समाज निर्माण तक के लिए, देश को ऊंचा उठाने एवं आगे बढ़ाने के लिए जहां व्यक्तिगत जीवन को आदर्शवादिता के सहारे प्रखर प्रतिभावान् बनाने की आवश्यकता है, वहीं यह भी उचित है कि ऐसा वातावरण बनाने का प्रयत्न किया जाय जिसमें शालीनता को पनपने का अवसर मिल सके, जिस में जन विरोध के कारण अवांछनीयताओं को बेमौत मरना पड़े। जितना आवश्यक अपना उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत करना है उतना ही यह प्रयास भी महत्वपूर्ण है कि अनौचित्य भरे वातावरण को उलटने और शालीनता का पक्षधर माहौल बनाने के लिए सुविस्तृत क्षेत्र में सुनियोजित ढंग से व्यापक प्रयत्न किये जायें।
व्यक्तिगत सेवा-सहायता भी सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप सराहनीय हो सकती है। पीड़ितों-पिछड़ों के लिए, अपंग-असमर्थों के लिए उनकी आवश्यक सहायता उदारचेताओं द्वारा जुटाई ही जानी चाहिए। वह सहृदयता का, उदारता का परिपोषण करने के लिए आवश्यक भी है। उदारचेता इन अभिव्यक्तियों को समय-समय पर चरितार्थ करते रहे हैं। दुर्भाग्यग्रस्त लोगों की व्यथाओं को निष्ठुर मन से देखते रहना, सेवा-सहायता के लिए हाथ न बढ़ाना, आत्म-धिक्कार और लोक अपयश का कारण बनता है। इस सन्दर्भ में सभी को आवश्यक ध्यान रखना चाहिए।
इतने पर भी यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि दरिद्रों की आर्थिक सहायता या पीड़ितों के प्रति सेवा करने से ही कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है। सार्वजनीन हित, कामना और अभ्युदय की योजना बनाते समय यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि निकृष्टता भरा मानस और आचरण ही समस्त विपत्तियों का प्रधान कारण है, कारगर उपाय भी एक ही है—अवांछनीयताओं के दलदल से मानवी सत्ता को उबारने के लिए असाधारण स्तर का ऐसा प्रबल प्रयास किया जाय जो प्रचलन को ही उलट सके, उल्टे को उलट कर सीधा कर सके।
मनुष्य सीखने वाला प्राणी है, परिस्थितियों के अनुरूप वह बुराइयों को अपनाने के लिए भी चल पड़ता है और यदि प्रेरक वातावरण के साथ रहने को जुट सके तो वह कुछ से कुछ भी बन सकता है। पारस छूकर लोहा से सोना बनने की उपमा इसी सन्दर्भ में दी जाती है। संसार के महामानवों ने अन्तःप्रेरणा के अतिरिक्त प्रेरणाप्रद सम्पर्क सान्निध्य से भी बहुत कुछ पाया था। बुद्ध-गांधी आदि के प्रखर व्यक्तित्वों ने ऐसा वातावरण विनिर्मित किया था, जिसके चुम्बकत्व वाले दबाव से खिंचकर असंख्य छोटे-बड़े उनके बताये मार्ग पर चल पड़ने के लिए कटिबद्ध हुए। जब युद्धोन्माद उत्पन्न करके धन-जन का विशाल समुच्चय उस ज्वाला में होमा जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि प्रेरणाप्रद वातावरण बनाकर असंख्य जन समुदाय को उत्कृष्ट आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्रोत्साहित न किया जा सके।
प्राचीनकाल में मनीषायें-प्रतिभायें इस प्रयोजन को व्यक्तिगत रूप से मिल-जुलकर पूरा कर लिया करती थीं, पर आज तो परिस्थितियां ही दूसरी हैं। समर्थ प्रचारतन्त्र ही अभीष्ट वातावरण बनाने में समर्थ हो सकता है। उदाहरण के लिए ईसाई धर्म और साम्यवाद के द्रुतगति से अग्रगामी होने के प्रत्यक्ष प्रभाव सामने प्रस्तुत हैं। इन दोनों ने आंधी-तूफान की तरह बढ़-चढ़कर जन-समुदाय को, सामान्य मस्तिष्कों को अपने ढांचे में ढाल लेने में अप्रत्याशित सफलता पाई है। प्राचीनकाल के अनेकानेक धर्म सम्प्रदाय, दर्शन और संगठन ऐसे ही सामूहिक प्रयासों के प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुए और क्रमशः चक्रवृद्धि रीति-नीति अपनाकर आगे बढ़ते चले गये। इन दिनों भी वह यथार्थता यथास्थान अवस्थित है। समाचार पत्र, साहित्य, सिनेमा, टी.वी. जैसे कुछेक समर्थ तन्त्रों ने सामान्य जनमानस को अपने ढांचे में ढाल लेने में असाधारण सफलतायें पाई हैं। तानाशाही राजतन्त्र भी इसी अस्त्र के सहारे इच्छा या अनिच्छा से असंख्यों को अपने आदेशों का परिपालन करने के लिए बाधित करते रहे हैं। तथ्य बताते हैं कि जो भूमिका किसी समय में अवतारों, देवदूतों, विशिष्ट प्रतिभाओं द्वारा सम्पन्न की जाती रही है, वे आज उनका अभाव होने पर भी समर्थ प्रचार एवं प्रभाव तन्त्र के सहारे सम्पन्न की जा सकती हैं। समय को देखते हुए यही उपयुक्त भी है। युग मनीषियों को इस सामयिक आवश्यकता पर पूरी गम्भीरतापूर्वक विचार करना और उसका ढांचा खड़ा करने में जुट जाना चाहिए।
अपने समाज में इन दिनों अनेकों अवांछनीयतायें, अनैतिकतायें, मूढ़ मान्यतायें, अन्ध परम्परायें, कुरीतियां प्रचलित हैं। बाल विवाह, कन्या विक्रय, वर विक्रय, मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय, जातिगत ऊंच-नीच, पर्दा प्रथा आदि कुप्रचलनों की परिणतियों ने दूरगामी दुष्परिणाम उत्पन्न करने वाली समस्याओं के बवण्डर खड़े किये हुए हैं। आलस्य और प्रमाद के कारण मनुष्य की आधी उत्पादक शक्ति नष्ट होती रहती है। शिक्षितों की बेरोजगारी का एक बड़ा कारण यह है कि कुर्सी-मेज पर बैठकर काम करने की ही उनकी मांग रहती है, श्रमसाध्य कार्यों की ओर से अरुचि दिखाई जाती है। शिक्षा के साधनों में भी बड़ी कठिनाई यह है कि लोगों को शिक्षा का महत्व समझने और उसके लिए उत्सुकता प्रकट करने का मानस नहीं है अन्यथा सरकारी प्रौढ़ शिक्षा आन्दोलन से लेकर सेवाभावियों द्वारा किये जाने वाले शिक्षा सम्वर्धन के प्रयास असफल न होते। स्कूली शिक्षा के साथ जुड़े हुए पाठ्यक्रम भी ऐसे हैं जिनमें व्यावहारिक जीवन के साथ जुड़ी समस्याओं के समाधानों का अभाव ही रहता है। निजी उत्पादनों और व्यवसायों का प्रशिक्षण भी उसमें नहीं के बराबर ही पाया जाता है। नारी का पिछड़ापन, आधी जनसंख्या को पक्षाघात, पीड़ितों की तरह अपंग बनाये हुए हैं। यदि उसे पुरुषों की तरह ही सुयोग्य और उत्पादक कार्यों में निरत रहने का अवसर मिला होता तो उतने भर से देश की समृद्धि और प्रगति दूनी हो गई होती।
भाग्यवाद, भूत-पलीत, ग्रह-नक्षत्र, शकुन, मुहूर्त, टोना-टोटका, जादू चमत्कार जैसी अनेकानेक भ्रांतियों ने अपने समाज में गहरी जड़ जमा रखी हैं। पुराने लोग स्वर्ग-मुक्ति, सिद्धि, देवदर्शन आदि के फेर में पड़े रहते हैं, नई पीढ़ी के लोग वासना, तृष्णा और अहंता के लिए समूची तत्परता नियोजित किये रहते हैं। दोनों पीढ़ियों का ही आत्मचिंतन व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरता पर केन्द्रित है। आत्मशोधन का पुण्य और लोकमंगल का परमार्थ रास नहीं आता, उसे तो आत्म विज्ञापन के निमित्त ढिंढोरा पीटने जैसे प्रयोजनों में काम लिया जाता है, उसके आधार पर लोक सम्मान अर्जित करने और उसका प्रकारान्तर से लाभ उठाने की ललक उनकी रहती है। यह अहंता का परिशोधन जितना बढ़ा-चढ़ा होगा उसी अनुपात में समाज की आवश्यकताओं में कटौती होगी और चित्र-विचित्र अनाचारों के उभरने की संभावना बढ़ती रहेगी। खाद्य पदार्थों में मिलावट से लेकर रिश्वतखोरी तक के अनेकानेक अवांछनीय प्रचलन इसी कारण बढ़ रहे हैं, विलगाव की प्रवृत्ति इसी कारण बढ़ती है। सहकारिता का, उदार आत्मीयता का वातावरण इसी कारण नहीं बन पड़ता, सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन में जन सहयोग इसी लिए नहीं मिल पाता है कि जन-जन की व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरता हथकड़ी-बेड़ी बनकर मनुष्य को जकड़े रहती है और उसके लिए देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए कुछ करने की उमंग ही प्रायः मृत हो जाती है। संक्षेप में यही है समाजगत मान्यताओं और प्रथा-प्रचलनों का सर्वविदित स्वरूप। दूर-दूर तक फैली विषवृक्ष की इन्हीं जड़ों पर लम्बे समय तक कुठाराघात करने की आवश्यकता है, साथ ही नन्दन वन जैसे, चन्दन वन जैसे सत्प्रवृत्तियों के अभिनव उद्यानों का आरोपण, अभिवर्धन भी उतना ही आवश्यक है।
इन सबके लिए समुद्र का सेतु बांधने जैसे प्रयत्न उदारचेता दूरदर्शियों को मिल-जुलकर करने होंगे। किन्हीं कार्यक्रमों को आरम्भ करने से पूर्व ऐसा वातावरण बनाना होगा जिससे नवसृजन के लिए जो कुछ किया जाना है उसे जन समर्थन और सहयोग अभीष्ट मात्रा में मिल सके। जो करने की योजना बनाई है उसका सही व्यक्तियों द्वारा सही तरीके से सदुपयोग कर सकना सम्भव हो सके।
अभीष्ट वातावरण बनाने के लिए ऐसे प्रचारात्मक योजनाओं को छोटे या बड़े रूप में कार्यान्वित करना होगा जो लोक चिंतन को व्यक्तिवादी स्वार्थपरता से उबारकर लोक कल्याण के समुदायवाद की दिशा में उलट सके। प्रवाह को चीरते हुए इच्छित दिशा में साहसपूर्वक दौड़ पड़ने वाली मछली की तरह अपना मार्ग, अपने पौरुष के आधार पर स्वयं विनिर्मित कर सके। भले-बुरे प्रचार में साहित्य का, कला का, वाणी का, सम्पर्क-परामर्श का, प्रेरक प्रदर्शनी का सरंजाम जुटाना पड़ता है। यही सब मनीषियों के संगठनों को भी प्रचण्ड पुरुषार्थ के साथ इस प्रकार करना होगा कि वह भाषाओं, सम्प्रदाओं, देशों की परिधि से सीमाबद्ध बने हुए जन समुदाय को युगधर्म पहचानने के लिए समस्त प्रतिबन्धों को तोड़ते हुए सहमत किया जा सके।
इस प्रयोजन के लिए एक छोटा प्रयत्न शांतिकुंज द्वारा किया जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि समर्थ व्यक्ति इन्हीं प्रयासों को अपने ढंग से बड़े रूप में कार्यान्वित करने के लिए कटिबद्ध हों। स्मरण रहे; इतना बड़ा कार्य कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता, उसके लिए प्राणवान् प्रतिभाओं के उच्चस्तरीय प्रयासों, संगठनों और योजना को हाथ में लिए जाने की आवश्यकता है। इमारत को गिराने में थोड़े से ही प्रयत्नों से काम चल जाता है, पर यदि उसे नये सिरे से विनिर्मित करना हो तो अत्यधिक साधनों की, कुशल श्रमिकों और इंजीनियरों की आवश्यकता होती है। परिस्थितियों को जिन लोगों ने दुर्दशाग्रस्त बनाया है, प्रयत्न तो उनको भी करने पड़े हैं, जिन्हें सदाशयता सृजन संवर्धन अभीष्ट है उन्हें मिल-जुलकर ऐसे प्रबल प्रयत्न करने पड़ेंगे जो वातावरण के उलटे प्रवाह को उलट कर सीधा कर सकें।