Books - शिष्टाचार और सहयोग
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Language: HINDI
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सहयोग की आवश्यकता
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शिष्टाचार और सद्व्यवहार के तत्व को समझने के लिए आवश्यक है कि पहले हम मानव जीवन में सहयोग की भावना की उपादेयता को समझें । मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण अपने आप पूर्ण नहीं है । मेंढक का बच्चा जन्म लेने के बाद अपने आप, अपने बाहुबल से अपना जीवन यापन कर लेता है, परंतु मनुष्य का बच्चा बिना दूसरे की सहायता के एक दिन भी जीवित नहीं रह सकता । उसे माता-पिता की, वस्त्रों की, मकान की, चिकित्सा की आवश्यकता होती है । यह चीजें दूसरों की सहायता पर निर्भर हैं । बड़े होने पर भी उसे भोजन, वस्त्र, व्यापार, शिक्षा, मनोरंजन आदि की जिन वस्तुओं की जरूरत पड़ती है वे उसे दूसरों की सहायता से ही प्राप्त होती हैं । यही कारण है कि मनुष्य सदा ही दूसरों के सहयोग का भिखारी रहता है । यह सहयोग उसे प्राप्त न हो तो उसका जीवन निर्वाह होना कठिन है ।
अपना अस्तित्व स्थिर रखने के लिए मानव प्राणी (जो कि अन्य प्राणियों की अपेक्षा बहुत कमजोर है) दूसरों का सहयोग लेता है और उन्हें अपना सहयोग देता है । रुपए को माध्यम बनाकर इस सहयोग का आदान-प्रदान समाज में प्रचलित है । एक आदमी अपने एक दिन के समय एवं श्रम से बीस सेर लकड़ी जमा करता है दूसरा मनुष्य एक दिन के समय एवं श्रम से मिट्टी के चार घड़े बनाता है । अब घडे़ वाले को लकड़ी की जरूरत है और लकड़ी वाला घड़े चाहता है तो लकडी वाला आधी लकड़ी घड़े वाले को दे देता है और घड़े वाला दो घड़े लकड़ी वाले को दे देता है । दूसरे शब्दों में इस परिवर्तन को यों कह सकते हैं कि आधे-आधे दिन का समय एक ने दूसरे से बदल लिया । चीजों को यहाँ से वहाँ ले जाने की कठिनाई के कारण श्रम या समय को रुपयों में परिवर्तित किया जाने लगा । इससे लोगों को सुविधा हुई । बीस सेर लकड़ी को एक रुपये में बेच दिया अर्थात एक दिन के श्रम को एक रुपये से बदल लिया । यह: एक रुपया एक मनुष्य के एक दिन का श्रम है । दूसरे मनुष्यों का श्रम भी इसी प्रकार रुपयों में परिवर्तित होता है और फिर इन रुपयों से जो चीजें खरीदी जाती हैं वह चीजें भी समय का ही मूल्य होती हैं । इस प्रकार (१) श्रम (२) वस्तु (३) रुपया । यह तीनों चीज तीन रूपों में दिखाई देते हुए भी वस्तुत: एक ही पदार्थ हैं ।
दुनिया में रुपए से मनोवांछित सामग्री मिल सकती है । इसका अर्थ यह है कि हम अपना श्रम दूसरों को देते हैं और दूसरे अपना श्रम हमें देते हैं । इस लेन-देने से ही दुनिया का कारोबार चल रहा है । अर्थात यों कहिए कि एक-दूसरे के सहयोग के सुदृढ़ आधार पर संसार की समस्त प्रणाली टिकी हुई है । यदि यह प्रणाली टूट जाए तो मनुष्य को फिर आदिम युग में लौटना पड़ेगा । गुफाओं में नंग- धड़ंग रह कर कंदमूल फलों पर निर्वाह करना पड़ेगा । इस समय तक हुई वर्तमान प्रगति का लोप हो जाएगा ।
धन अथवा श्रम का परिवर्तन-सहयोग अब भली-भांति प्रचलित हो गया है । वह हमारे जीवन का एक अंग बन गया है । अपने श्रम एवं धन के बदले में हम विद्वानों, डॉक्टरों, वकीलों, वक्ताओं, इंजीनियरों, कलाकारों, मजदूरों का सहयोग जितने समय तक चाहें उतने समय तक ले सकते हैं । इसी प्रकार इच्छित वस्तुएँ मनचाही मात्रा में ले सकते हैं । यह सहयोग प्रणाली व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर चलती है । इस प्रणाली से हम सब अपना जीवन धारण किए हुए हैं और सांसारिक कार्य चला रहे हैं ।
अपना अस्तित्व स्थिर रखने के लिए मानव प्राणी (जो कि अन्य प्राणियों की अपेक्षा बहुत कमजोर है) दूसरों का सहयोग लेता है और उन्हें अपना सहयोग देता है । रुपए को माध्यम बनाकर इस सहयोग का आदान-प्रदान समाज में प्रचलित है । एक आदमी अपने एक दिन के समय एवं श्रम से बीस सेर लकड़ी जमा करता है दूसरा मनुष्य एक दिन के समय एवं श्रम से मिट्टी के चार घड़े बनाता है । अब घडे़ वाले को लकड़ी की जरूरत है और लकड़ी वाला घड़े चाहता है तो लकडी वाला आधी लकड़ी घड़े वाले को दे देता है और घड़े वाला दो घड़े लकड़ी वाले को दे देता है । दूसरे शब्दों में इस परिवर्तन को यों कह सकते हैं कि आधे-आधे दिन का समय एक ने दूसरे से बदल लिया । चीजों को यहाँ से वहाँ ले जाने की कठिनाई के कारण श्रम या समय को रुपयों में परिवर्तित किया जाने लगा । इससे लोगों को सुविधा हुई । बीस सेर लकड़ी को एक रुपये में बेच दिया अर्थात एक दिन के श्रम को एक रुपये से बदल लिया । यह: एक रुपया एक मनुष्य के एक दिन का श्रम है । दूसरे मनुष्यों का श्रम भी इसी प्रकार रुपयों में परिवर्तित होता है और फिर इन रुपयों से जो चीजें खरीदी जाती हैं वह चीजें भी समय का ही मूल्य होती हैं । इस प्रकार (१) श्रम (२) वस्तु (३) रुपया । यह तीनों चीज तीन रूपों में दिखाई देते हुए भी वस्तुत: एक ही पदार्थ हैं ।
दुनिया में रुपए से मनोवांछित सामग्री मिल सकती है । इसका अर्थ यह है कि हम अपना श्रम दूसरों को देते हैं और दूसरे अपना श्रम हमें देते हैं । इस लेन-देने से ही दुनिया का कारोबार चल रहा है । अर्थात यों कहिए कि एक-दूसरे के सहयोग के सुदृढ़ आधार पर संसार की समस्त प्रणाली टिकी हुई है । यदि यह प्रणाली टूट जाए तो मनुष्य को फिर आदिम युग में लौटना पड़ेगा । गुफाओं में नंग- धड़ंग रह कर कंदमूल फलों पर निर्वाह करना पड़ेगा । इस समय तक हुई वर्तमान प्रगति का लोप हो जाएगा ।
धन अथवा श्रम का परिवर्तन-सहयोग अब भली-भांति प्रचलित हो गया है । वह हमारे जीवन का एक अंग बन गया है । अपने श्रम एवं धन के बदले में हम विद्वानों, डॉक्टरों, वकीलों, वक्ताओं, इंजीनियरों, कलाकारों, मजदूरों का सहयोग जितने समय तक चाहें उतने समय तक ले सकते हैं । इसी प्रकार इच्छित वस्तुएँ मनचाही मात्रा में ले सकते हैं । यह सहयोग प्रणाली व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर चलती है । इस प्रणाली से हम सब अपना जीवन धारण किए हुए हैं और सांसारिक कार्य चला रहे हैं ।