Books - शिष्टाचार और सहयोग
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Language: HINDI
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सहयोग से मैत्री भावना का उदय
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जिन मनुष्यों में सहयोग की भावना विशेष रूप से विकसित हो जाती है, वे समस्त विश्व को आत्मीयता की दृष्टि से देखने लगते हैं । वे अनुभव करने लगते हैं कि इस जगत में अकेले व्यक्तित्व का कोई मूल्य नहीं जो कुछ उन्नति संभव है और उसका जो कुछ उपयोग किया जा सकता है वह सहयोग से ही उत्पन्न होता है । विश्व के साथ मैत्री भाव रखने से न केवल विश्व का वातावरण न्यूनाधिक मात्रा में शुद्ध एवं परिष्कृत हो जाता है बल्कि साथ-साथ मैत्री-भाव रखने वाले को महान लाभ होता है । ऐसा व्यक्ति सब प्राणियों का सुहृद बन जाने के कारण अजातरिपु हो जाता है वह विश्व की ओर से निर्भय हो जाता है तथा उसे अनेकों झंझट परेशान नहीं करते और न दुश्चिताएँ ही उसे मानसिक पीड़ा पहुँचाती है ।
शत्रुत्व भाव का पोषण करने के कारण सांसारिक जीव जिन कठिनाइयों में उलझे रहते हैं, वह उनसे बिलकुल बच निकलता है, किंतु मैत्री- भावना से उसे केवल यही अभावात्मक लाभ नहीं होता । उसके तो आह्लाद में भी वृद्धि होने से उसके चित्त की अवस्था समुन्नत हो जाती है । यदि कहीं उसकी मैत्री भावना और भी अधिक प्रबल हुई तो वह केवल मानसिक क्षेत्र तक ही सीमित न रहेगी बल्कि वह व्यक्ति उसकी प्रेरणा से आगे चलकर समस्त प्राणियों के हित-साधन में निरत हो जाएगा और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के आदर्श को अपने आचरण में उतारने को प्रयत्न करेगा और तब उसका क्षुद्र 'स्व' महत् 'स्व' में विलीन हो जाएगा अर्थात उसके क्षुद्र ममत्व और मोह के बंधन कट जावेंगे ।
यदि कोई व्यक्ति अपनी अंतःशक्तियों को जाग्रत कर उनका प्रसार करता है तो समाज का एक अंग होने के कारण, उसकी उन्नति से समाज की स्थिति की ही उन्नति होती है । पुनश्च यह भी संभव है कि उसकी विकसित शक्तियों के प्रयोग द्वारा समाज की पहले से भी अधिक एवं श्रेष्ठ सेवा हो सके । अतएव व्यक्ति के समष्टि अविरोधी हित में समष्टि का हित भी अनिवार्य रूप से सन्निहित है । इसलिए हमारे लिए न केवल व्यक्तिगत साधना ही अभीष्ट है बल्कि सामूहिक अथवा राष्ट्रीय जीवन में भी हमें सक्रिय भाग लेने की आवश्यकता है । हमें न केवल स्वत: ही मुक्ति के पथ पर अग्रसर होना पड़ेगा वरन दूसरों को भी इसी पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करना पड़ेगा । तभी हमारे जीवन में पूर्णता आ सकेगी, तभी हम वास्तविक अर्थ में विश्व-मित्र हो सकेंगे और तभी हमारा सार्वभौम प्रेम फलदायक होगा । भगवान बुद्ध इस तत्त्व से पूर्णतया परिचित थे और इसीलिए उन्होंने यह इच्छा प्रकट की थी कि उनकी व्यक्तिगत मुक्ति तब तक न होगी जब तक कि विश्व का प्रत्येक जीव मुक्त न हो जावेगा ।
मैत्री-भावना के प्रसार, विस्तार या उन्नयन से न केवल व्यक्ति विशेष की ही आध्यात्मिक प्रगति होती है, बल्कि उसके शांतिपूर्ण विचारों से विश्व का वातावरण भी प्रभावित होता है और उस व्यक्ति की भी उन्नति होती है जिसके कि प्रति वह व्यक्ति अपने विचारों को संचालित करता है । इस तरह उस व्यक्ति के चारो ओर एक अच्छा वातावरण तैयार हो जाता है जिससे कि उस व्यक्ति के लिए विश्व से तादात्म्यता की प्राप्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियों भी उपस्थित होने लगती हैं । किंतु प्रेम-भाव से व्यवहार करने वाले मनुष्य को भी अनेकों अवसरों पर शत्रुता का व्यवहार करने वाले लोगों से सामना करना पड़ता है जिससे कि उसकी प्रगति अबाध गति से नहीं हो पाती । ऐसे अवसरों पर धैर्य नहीं खोना चाहिए और यह विश्वास रखना चाहिए कि जो लोग आज शत्रुता का व्यवहार करते हैं, वे आगे चलकर अवश्य ही मित्रता का व्यवहार करने वाले बन जाएँगे । जिस तरह घृणा सूचक भावों के उत्तर में घृणा के प्रयोग से घृणा की ही वृद्धि होती है उसी प्रकार प्रेम और मैत्री भाव के बारंबार प्रयोग होने से प्रेम-भाव की वृद्धि होती है । इस तरह उस व्यक्ति का वास्तविक आत्मविकास होता है और तब वह हमारी तथा हमारी प्रेम पथ की श्रेष्ठता आत्मविकास के कारण अनुभव करने लगता है । वह नत-मस्तक हो जाता है और फिर शत्रु से मित्र भी बन जाता है । किंतु यह तब ही संभव है जब कि हम मनुष्य की आसुरी प्रकृति पर उसकी दैवी प्रकृति की अंतिम विजय में विश्वास रखें । जो यह विश्वास नहीं रखता उसका सदाचारी होना बडा कठिन प्रतीत होता है ।
यह विश्वास कि प्रत्येक व्यक्ति में जो अंतर्द्वंद्व होता रहता है उसमें अंतिम विजय उसकी दैवी प्रकृति की ही होगी अर्थात यह दृढ धारणा कि प्रत्येक व्यक्ति सत्योम्मुख है हमें घृणा-हीन बनाए रखने के लिए अत्यावश्यक है । इसलिए यदि हम दूरदर्शिता खोकर किसी मनुष्य की वर्तमान परिस्थिति से ही उसके भले या बुरे होने की धारणग़ बनाने की भूल करेंगे और इस तरह उसे उसकी भावी उन्नत स्थिति के प्रकाश में भी देखना स्वीकार न करेंगे तो यह निश्चित ही है कि हम अवश्य ही धोखा खाएँगे । अत: यदि हम यथार्थवादी हैं तो हमें स्मरण रखना चाहिए कि आदर्शोमुख यथार्थवाद ही हमारी जीवन समस्याओं का एक मात्र हल है इसके अतिरिक्त इस तरह के विश्वास से हमको एक और प्रकार की भी सहायता प्राप्त होती रहती है । यदि यह विश्वास हमारे गले उतर जाए तो यह निश्चित है कि यह विश्वास हमें अंतिम विजय की सदा याद दिलाता रहेगा और हमें उत्साह स्कूर्ति शक्ति और धैर्य प्रदान करता रहेगा । सात्विक व्यक्ति के लिए सत्य की अंतिम विजय में विश्वास रखना परमावश्यक है क्योंकि बिना इस विश्वास के धैर्य, उत्साह होना कठिन है ।
शत्रुत्व भाव का पोषण करने के कारण सांसारिक जीव जिन कठिनाइयों में उलझे रहते हैं, वह उनसे बिलकुल बच निकलता है, किंतु मैत्री- भावना से उसे केवल यही अभावात्मक लाभ नहीं होता । उसके तो आह्लाद में भी वृद्धि होने से उसके चित्त की अवस्था समुन्नत हो जाती है । यदि कहीं उसकी मैत्री भावना और भी अधिक प्रबल हुई तो वह केवल मानसिक क्षेत्र तक ही सीमित न रहेगी बल्कि वह व्यक्ति उसकी प्रेरणा से आगे चलकर समस्त प्राणियों के हित-साधन में निरत हो जाएगा और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के आदर्श को अपने आचरण में उतारने को प्रयत्न करेगा और तब उसका क्षुद्र 'स्व' महत् 'स्व' में विलीन हो जाएगा अर्थात उसके क्षुद्र ममत्व और मोह के बंधन कट जावेंगे ।
यदि कोई व्यक्ति अपनी अंतःशक्तियों को जाग्रत कर उनका प्रसार करता है तो समाज का एक अंग होने के कारण, उसकी उन्नति से समाज की स्थिति की ही उन्नति होती है । पुनश्च यह भी संभव है कि उसकी विकसित शक्तियों के प्रयोग द्वारा समाज की पहले से भी अधिक एवं श्रेष्ठ सेवा हो सके । अतएव व्यक्ति के समष्टि अविरोधी हित में समष्टि का हित भी अनिवार्य रूप से सन्निहित है । इसलिए हमारे लिए न केवल व्यक्तिगत साधना ही अभीष्ट है बल्कि सामूहिक अथवा राष्ट्रीय जीवन में भी हमें सक्रिय भाग लेने की आवश्यकता है । हमें न केवल स्वत: ही मुक्ति के पथ पर अग्रसर होना पड़ेगा वरन दूसरों को भी इसी पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करना पड़ेगा । तभी हमारे जीवन में पूर्णता आ सकेगी, तभी हम वास्तविक अर्थ में विश्व-मित्र हो सकेंगे और तभी हमारा सार्वभौम प्रेम फलदायक होगा । भगवान बुद्ध इस तत्त्व से पूर्णतया परिचित थे और इसीलिए उन्होंने यह इच्छा प्रकट की थी कि उनकी व्यक्तिगत मुक्ति तब तक न होगी जब तक कि विश्व का प्रत्येक जीव मुक्त न हो जावेगा ।
मैत्री-भावना के प्रसार, विस्तार या उन्नयन से न केवल व्यक्ति विशेष की ही आध्यात्मिक प्रगति होती है, बल्कि उसके शांतिपूर्ण विचारों से विश्व का वातावरण भी प्रभावित होता है और उस व्यक्ति की भी उन्नति होती है जिसके कि प्रति वह व्यक्ति अपने विचारों को संचालित करता है । इस तरह उस व्यक्ति के चारो ओर एक अच्छा वातावरण तैयार हो जाता है जिससे कि उस व्यक्ति के लिए विश्व से तादात्म्यता की प्राप्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियों भी उपस्थित होने लगती हैं । किंतु प्रेम-भाव से व्यवहार करने वाले मनुष्य को भी अनेकों अवसरों पर शत्रुता का व्यवहार करने वाले लोगों से सामना करना पड़ता है जिससे कि उसकी प्रगति अबाध गति से नहीं हो पाती । ऐसे अवसरों पर धैर्य नहीं खोना चाहिए और यह विश्वास रखना चाहिए कि जो लोग आज शत्रुता का व्यवहार करते हैं, वे आगे चलकर अवश्य ही मित्रता का व्यवहार करने वाले बन जाएँगे । जिस तरह घृणा सूचक भावों के उत्तर में घृणा के प्रयोग से घृणा की ही वृद्धि होती है उसी प्रकार प्रेम और मैत्री भाव के बारंबार प्रयोग होने से प्रेम-भाव की वृद्धि होती है । इस तरह उस व्यक्ति का वास्तविक आत्मविकास होता है और तब वह हमारी तथा हमारी प्रेम पथ की श्रेष्ठता आत्मविकास के कारण अनुभव करने लगता है । वह नत-मस्तक हो जाता है और फिर शत्रु से मित्र भी बन जाता है । किंतु यह तब ही संभव है जब कि हम मनुष्य की आसुरी प्रकृति पर उसकी दैवी प्रकृति की अंतिम विजय में विश्वास रखें । जो यह विश्वास नहीं रखता उसका सदाचारी होना बडा कठिन प्रतीत होता है ।
यह विश्वास कि प्रत्येक व्यक्ति में जो अंतर्द्वंद्व होता रहता है उसमें अंतिम विजय उसकी दैवी प्रकृति की ही होगी अर्थात यह दृढ धारणा कि प्रत्येक व्यक्ति सत्योम्मुख है हमें घृणा-हीन बनाए रखने के लिए अत्यावश्यक है । इसलिए यदि हम दूरदर्शिता खोकर किसी मनुष्य की वर्तमान परिस्थिति से ही उसके भले या बुरे होने की धारणग़ बनाने की भूल करेंगे और इस तरह उसे उसकी भावी उन्नत स्थिति के प्रकाश में भी देखना स्वीकार न करेंगे तो यह निश्चित ही है कि हम अवश्य ही धोखा खाएँगे । अत: यदि हम यथार्थवादी हैं तो हमें स्मरण रखना चाहिए कि आदर्शोमुख यथार्थवाद ही हमारी जीवन समस्याओं का एक मात्र हल है इसके अतिरिक्त इस तरह के विश्वास से हमको एक और प्रकार की भी सहायता प्राप्त होती रहती है । यदि यह विश्वास हमारे गले उतर जाए तो यह निश्चित है कि यह विश्वास हमें अंतिम विजय की सदा याद दिलाता रहेगा और हमें उत्साह स्कूर्ति शक्ति और धैर्य प्रदान करता रहेगा । सात्विक व्यक्ति के लिए सत्य की अंतिम विजय में विश्वास रखना परमावश्यक है क्योंकि बिना इस विश्वास के धैर्य, उत्साह होना कठिन है ।