Books - शिष्टाचार और सहयोग
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Language: HINDI
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दूसरों से वार्तालाप करने के विशेष नियम
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हमारी बातचीत समयानुकूल और प्रभावशाली हो और उससे कोई उद्देश्य पूरा हो सके इसके लिए सावधानी की बड़ी भारी आवश्यकता है । जिन लोगों में प्रकृति ने यह गुण स्वाभाविक रूप से दिया है उनकी तो कोई बात नहीं पर अन्य लोगों को अपने से श्रेष्ठ व्यक्तियों की संगति और शिक्षाप्रद पुस्तकों से भी इन बातों को सीखना चाहिए और प्रयत्नपूर्वक उनका अभ्यास करना चाहिए । इस संबंध में कुछ नियम नीचे दिए जाते हैं-
(१) जिस तरह से तुम अच्छी किताबों को केवल अपने लाभ के लिए चुनते हो उसी तरह से साथी या समाज भी ऐसा चुनो जिससे कि तुम्हें कुछ लाभ हो । सबसे अच्छा मित्र वही है कि जिससे अपना किसी तरह से सुधार हो अथवा आनंद की वृद्धि हो। यदि उन साथियों से तुम्हें कुछ लाभ नहीं हो सकता तो तुम उनके आनंद और सुधार की वृँद्धि करने का प्रयत्न करो और यदि उन साथियों से तुम कुछ लाभ नहीं उठा सकते या उनको तुम स्वयं कुछ लाभ नहीं पहुँचा सकते तो तुम तुरंत उनका साथ छोड़ दो ।
(२) अपने साथियों के स्वभाव का पूरा ज्ञान प्राप्त करो । यदि वे तुम से बडे हैं तो तुम उनसे कुछ न पूछो और वे जो कहें उसे ध्यानपूर्वक सुनो यदि छोटे हैं तो तुम उनको कुछ लाभ पहुँचाओ ।
(३) जब परस्पर की बातचीत नीरस हो रही हो तो तुम कोई ऐसा विषय छेड़ दो जिस पर सभी कुछ न कुछ बोल सकें और जिससे सभी मनुष्यों की आनंद वृद्धि हो । परंतु तब तक ऐसा करने के अधिकारी नहीं हो जब तक तुमने नया विषय आरंभ करने कें पहले कुछ न कुछ नये विषय का ज्ञान प्राप्त न कर लिया हो ।
(४) जब कुछ नई महत्वपूर्ण अथवा शिक्षाप्रद बात कही जाए तब उसे अपनी नोटबुक में दर्ज कर लो । उसका सार अंश रक्खो और कूडा-कचरा फेंक दो ।
(५) तुम किसी भी समाज में अथवा साथियों के संग आते-जाते पूरे समय मौनव्रती मत बनो । दूसरों को खुश करने का और उनको शिक्षा देने का प्रयत्न अवश्य करो । बहुत संभव है कि तुमको भी बदले में कुछ आनंदवर्द्धक अथवा शिक्षाप्रद सामग्री मिल जाए । जब कोई कुछ बोलता हो तो तुम आवश्यकता पड़ने पर भले ही चुप रहा करो, परंतु जब सब लोग चुप हो जाते हैं तब तुम सबों की शून्यता को भंग करो । सब तुम्हारे कृतज्ञ होंगे ।
(६) किसी बात का निर्णय जल्दी में मत करो, पहले उसके दोनों पक्षों का मनन कर लो । किसी भी बात को बार-बार मत कहो ।
(७) इस बात को अच्छी तरह सें याद रक्खो कि तुम दूसरों की त्रुटियों, दोषों को जिस दृष्टि से देखते हो वे भी उसको उसी दृष्टि से तो नहीं देखते । इसलिए समाज के सम्मुख किसी मनुष्य के दोषों पर स्वतंत्रतापूर्ण आक्षेप, कटाक्ष अथवा टीका-टिप्पणी करने का तुमको अधिकार नहीं है ।
(८) बातचीत करते समय अपनी बुद्धिमत्ता दिखाने का व्यर्थ प्रयत्न मत करो । यदि तुम बुद्धिमान हो तो तुम्हारी बातों से मालूम हो सकता है । यदि तुम प्रयत्न करके हमेशा अपनी बुद्धिमानी प्रकट करना चाहोगे तो संभवत: तुम्हारी बुद्धिहीनता अधिकाधिक प्रकट होती जाएगी ।
(१) किसी की बात यदि तुम्हें अपमानजनक या किसी तरह से गुस्ताखी की मालूम हो तो भी कुछ देर तक चुप रहने का प्रयत्न करो । ऐसा भी हो सकता है कि वह बात तुम्हारे स्वभाव के कारण तुम्हें खराब मालूम हो, परंतु सब लोगों को अच्छी मालूम हो और यदि बात ऐसी ही हुई तो तुम्हें कुछ देर तक चुप रहने के लिए कभी भी पछताना नहीं पड़ेगा बल्कि तुम धैर्य का एक नया पाठ सीखते जाओगे ।
(१०) तुम स्वयं स्वतंत्रतापूर्वक तथा सरलतापूर्वक बातचीत करो और दूसरों को भी ऐसा ही करने दो । अमूल्य शिक्षा को अल्प समय में प्राप्त करने का इससे बढकर साधन संसार में नहीं है ।
(१) जिस तरह से तुम अच्छी किताबों को केवल अपने लाभ के लिए चुनते हो उसी तरह से साथी या समाज भी ऐसा चुनो जिससे कि तुम्हें कुछ लाभ हो । सबसे अच्छा मित्र वही है कि जिससे अपना किसी तरह से सुधार हो अथवा आनंद की वृद्धि हो। यदि उन साथियों से तुम्हें कुछ लाभ नहीं हो सकता तो तुम उनके आनंद और सुधार की वृँद्धि करने का प्रयत्न करो और यदि उन साथियों से तुम कुछ लाभ नहीं उठा सकते या उनको तुम स्वयं कुछ लाभ नहीं पहुँचा सकते तो तुम तुरंत उनका साथ छोड़ दो ।
(२) अपने साथियों के स्वभाव का पूरा ज्ञान प्राप्त करो । यदि वे तुम से बडे हैं तो तुम उनसे कुछ न पूछो और वे जो कहें उसे ध्यानपूर्वक सुनो यदि छोटे हैं तो तुम उनको कुछ लाभ पहुँचाओ ।
(३) जब परस्पर की बातचीत नीरस हो रही हो तो तुम कोई ऐसा विषय छेड़ दो जिस पर सभी कुछ न कुछ बोल सकें और जिससे सभी मनुष्यों की आनंद वृद्धि हो । परंतु तब तक ऐसा करने के अधिकारी नहीं हो जब तक तुमने नया विषय आरंभ करने कें पहले कुछ न कुछ नये विषय का ज्ञान प्राप्त न कर लिया हो ।
(४) जब कुछ नई महत्वपूर्ण अथवा शिक्षाप्रद बात कही जाए तब उसे अपनी नोटबुक में दर्ज कर लो । उसका सार अंश रक्खो और कूडा-कचरा फेंक दो ।
(५) तुम किसी भी समाज में अथवा साथियों के संग आते-जाते पूरे समय मौनव्रती मत बनो । दूसरों को खुश करने का और उनको शिक्षा देने का प्रयत्न अवश्य करो । बहुत संभव है कि तुमको भी बदले में कुछ आनंदवर्द्धक अथवा शिक्षाप्रद सामग्री मिल जाए । जब कोई कुछ बोलता हो तो तुम आवश्यकता पड़ने पर भले ही चुप रहा करो, परंतु जब सब लोग चुप हो जाते हैं तब तुम सबों की शून्यता को भंग करो । सब तुम्हारे कृतज्ञ होंगे ।
(६) किसी बात का निर्णय जल्दी में मत करो, पहले उसके दोनों पक्षों का मनन कर लो । किसी भी बात को बार-बार मत कहो ।
(७) इस बात को अच्छी तरह सें याद रक्खो कि तुम दूसरों की त्रुटियों, दोषों को जिस दृष्टि से देखते हो वे भी उसको उसी दृष्टि से तो नहीं देखते । इसलिए समाज के सम्मुख किसी मनुष्य के दोषों पर स्वतंत्रतापूर्ण आक्षेप, कटाक्ष अथवा टीका-टिप्पणी करने का तुमको अधिकार नहीं है ।
(८) बातचीत करते समय अपनी बुद्धिमत्ता दिखाने का व्यर्थ प्रयत्न मत करो । यदि तुम बुद्धिमान हो तो तुम्हारी बातों से मालूम हो सकता है । यदि तुम प्रयत्न करके हमेशा अपनी बुद्धिमानी प्रकट करना चाहोगे तो संभवत: तुम्हारी बुद्धिहीनता अधिकाधिक प्रकट होती जाएगी ।
(१) किसी की बात यदि तुम्हें अपमानजनक या किसी तरह से गुस्ताखी की मालूम हो तो भी कुछ देर तक चुप रहने का प्रयत्न करो । ऐसा भी हो सकता है कि वह बात तुम्हारे स्वभाव के कारण तुम्हें खराब मालूम हो, परंतु सब लोगों को अच्छी मालूम हो और यदि बात ऐसी ही हुई तो तुम्हें कुछ देर तक चुप रहने के लिए कभी भी पछताना नहीं पड़ेगा बल्कि तुम धैर्य का एक नया पाठ सीखते जाओगे ।
(१०) तुम स्वयं स्वतंत्रतापूर्वक तथा सरलतापूर्वक बातचीत करो और दूसरों को भी ऐसा ही करने दो । अमूल्य शिक्षा को अल्प समय में प्राप्त करने का इससे बढकर साधन संसार में नहीं है ।