Books - युगगीता - (भाग-२)
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प्रथम खण्ड की प्रस्तावना
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गीता पर न जाने कितने भाष्य लिखे जा चुके। गीता दैनन्दिन जीवन के लिए एक ऐसी पाठ्य पुस्तिका है, जिसे जितनी बार पढ़ा जाता है, कुछ नए अर्थ समझ में आते हैं। परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने जीवन भर इस गीता को हर श्वास में जिया है। जैसे-जैसे उनके समीप आने का इस अकिंचन को अवसर मिला, उसे लगा मानो योगेश्वर कृष्ण स्वयं उसके सामने विद्यमान हैं। गीता संजीवनी विद्या की मार्गदर्शिका है एवं एक महाकाव्य भी। परम पूज्य गुरुदेव के समय-समय पर कहे गए अमृत वचनों तथा उनकी लेखनी से निस्सृत प्राणचेतना के साथ जब गीता के तत्त्वदर्शन को मिलाते हैं, तो एक निराले आनन्द की अनुभूति होती है—पढ़ने वाले पाठक को, सुनने वाले श्रोता को। उस आनंद की स्थिति में पहुँचकर अनुभूति के शिखर पर रचा गया है, यह ग्रंथ ‘युगगीता’।
मन्वन्तर-कल्प बदलते रहते हैं, युग आते हैं, जाते हैं पर कुछ शिक्षण ऐसा होता है, जो युगधर्म-तत्कालीन परिस्थितियों के लिये उस अवधि में जीने वालों के लिए एक अनिवार्य कर्म बन जाता है। ऐसा ही कुछ युगगीता को पढ़ने से पाठकों को लगेगा। इसमें जो भी कुछ व्याख्या दी गयी है, वह युगानुकूल है। शास्त्रोक्त अर्थों को भी समझाने का प्रयास किया गया है एवं प्रयास यह भी किया गया है कि यदि उसी बात को हम अन्य महामानवों के नजरिये से समझने का प्रयास करें, तो कैसा ज्ञान हमें मिलता है- यह भी हम जानें। परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन की सर्वांगपूर्णता इसी में है कि उनकी लेखनी—अमृतवाणी सभी हर शब्द-वाक्य में गीता के शिक्षण को ही मानो प्रतिपादित-परिभाषित करती चली जा रही है। यही वह विलक्षणता है, जो इस ग्रंथ को अन्य सामान्य भाष्यों से अलग स्थापित करता है।
युग-गीता के प्रथम खण्ड में गीता के प्रथम तीन अध्यायों की युगानुकूल व्याख्या को रूप में परिजन पढ़ रहे हैं। यह शान्तिकुञ्ज के सभागार में निवेदक द्वारा कार्यकर्त्ताओं के मार्गदर्शन-‘सेवाधर्म में कर्मयोग का समावेश-दैनन्दिन जीवन में अध्यात्म का शिक्षण’ प्रस्तुत करने के लिये व्याख्यानमाला के रूप में नवम्बर १९९८ से दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक प्रस्तुत किया गया था। उनके आडियो कैसेट अब उपलब्ध हैं। लिखते समय इसे जब ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका में धारावाहिक रूप में (मई १९९९ से) देना आरंभ किया, तो कई परिवर्त्तन किये गये। उद्धरणों को विस्तार से दिया गया तथा उनकी प्रामाणिकता हेतु कई ग्रन्थों का पुनः अध्ययन किया गया। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका के विगत कई वर्षों के कई अंक पलटे गये एवं समय-समय पर उनके दिये गए निर्देशों से भरी डायरियाँ भी देखी गयीं। जो कमी बोलने में रह गयी थी-या अधूरापन सा उस प्रतिपादन में रह गया था, उसे लेखन में पूरा करने का एक छोटा सा प्रयास मात्र हुआ है।
‘‘गीता विश्वकोष’’ परम पूज्य गुरुदेव के स्वप्नों का ग्रंथ है। उसके लिए बहुत कुछ प्रारंभिक निर्देश भी वे दे गये हैं। वह जब बनकर तैयार होगा, तो निश्चित ही एक अनुपम ग्रंथ होगा। उसकी पूर्व भूमिका के रूप में युग गीता को खण्ड-खण्ड में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है; ताकि विश्वकोष की पृष्ठभूमि बन सके। इस विश्वकोष में दुनिया भर के संदर्भ, भाष्यों के हवाले तथा विभिन्न महामानवों के मंतव्य होंगे। वह सूर्य होगा-युगगीता तो उसकी एक किरण मात्र है। युगों-युगों से गीता गायी जाती रही है- लाखों व्यक्ति उससे मार्गदर्शन लेते रहे हैं, किंतु इस युग में जबकि बड़े स्तर पर एक व्यापक परिवर्त्तन सारे समाज, सारे विश्व में होने जा रहा है- इस युगगीता का विशेष महत्त्व है। कितने खण्डों में यह ग्रंथ प्रकाशित होगा, हम अभी बता नहीं सकते।
इस ग्रंथ से जन-जन को ज्ञान का प्रकाश मिले, इस युग परिवर्त्तन की वेला में जीवन जीने की कला का मार्गदर्शन मिले, जीवन के हर मोड़ पर जहाँ कुटिल दाँवपेंच भरे पड़े हैं-यह शिक्षण मिले कि इसे एक योगी की तरह कैसे हल करना है। इसमें लेखक के अपने ज्ञान-विद्वत्ता का कोई योगदान नहीं है। यह सब कुछ उसी गुरुसत्ता के श्रीमुख से निस्सृत महाज्ञान है जो योगेश्वर श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हुई, परम पूज्य गुरुदेव के रूप में हमारे जीवन में आयी। यह वह ज्ञान है जो उनकी लेखनी से निकल पड़ा या उद्बोधन में प्रकट हुआ। गुरुवर की अनुकम्पा न होती, अग्रजों का अनुग्रह न होता, सुधी पाठकों की प्यार भरी प्रतिक्रियाएँ न होतीं, तो शायद यह ग्रंथ आकार न ले पाता। उसी गुरुसत्ता के चरणों में श्रद्धापूरित भाव से इस गीताज्ञान की व्याख्या रूपी युगगीता का प्रथम खण्ड प्रस्तुत है।
— डॉ० प्रणव पण्ड्या
मन्वन्तर-कल्प बदलते रहते हैं, युग आते हैं, जाते हैं पर कुछ शिक्षण ऐसा होता है, जो युगधर्म-तत्कालीन परिस्थितियों के लिये उस अवधि में जीने वालों के लिए एक अनिवार्य कर्म बन जाता है। ऐसा ही कुछ युगगीता को पढ़ने से पाठकों को लगेगा। इसमें जो भी कुछ व्याख्या दी गयी है, वह युगानुकूल है। शास्त्रोक्त अर्थों को भी समझाने का प्रयास किया गया है एवं प्रयास यह भी किया गया है कि यदि उसी बात को हम अन्य महामानवों के नजरिये से समझने का प्रयास करें, तो कैसा ज्ञान हमें मिलता है- यह भी हम जानें। परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन की सर्वांगपूर्णता इसी में है कि उनकी लेखनी—अमृतवाणी सभी हर शब्द-वाक्य में गीता के शिक्षण को ही मानो प्रतिपादित-परिभाषित करती चली जा रही है। यही वह विलक्षणता है, जो इस ग्रंथ को अन्य सामान्य भाष्यों से अलग स्थापित करता है।
युग-गीता के प्रथम खण्ड में गीता के प्रथम तीन अध्यायों की युगानुकूल व्याख्या को रूप में परिजन पढ़ रहे हैं। यह शान्तिकुञ्ज के सभागार में निवेदक द्वारा कार्यकर्त्ताओं के मार्गदर्शन-‘सेवाधर्म में कर्मयोग का समावेश-दैनन्दिन जीवन में अध्यात्म का शिक्षण’ प्रस्तुत करने के लिये व्याख्यानमाला के रूप में नवम्बर १९९८ से दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक प्रस्तुत किया गया था। उनके आडियो कैसेट अब उपलब्ध हैं। लिखते समय इसे जब ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका में धारावाहिक रूप में (मई १९९९ से) देना आरंभ किया, तो कई परिवर्त्तन किये गये। उद्धरणों को विस्तार से दिया गया तथा उनकी प्रामाणिकता हेतु कई ग्रन्थों का पुनः अध्ययन किया गया। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका के विगत कई वर्षों के कई अंक पलटे गये एवं समय-समय पर उनके दिये गए निर्देशों से भरी डायरियाँ भी देखी गयीं। जो कमी बोलने में रह गयी थी-या अधूरापन सा उस प्रतिपादन में रह गया था, उसे लेखन में पूरा करने का एक छोटा सा प्रयास मात्र हुआ है।
‘‘गीता विश्वकोष’’ परम पूज्य गुरुदेव के स्वप्नों का ग्रंथ है। उसके लिए बहुत कुछ प्रारंभिक निर्देश भी वे दे गये हैं। वह जब बनकर तैयार होगा, तो निश्चित ही एक अनुपम ग्रंथ होगा। उसकी पूर्व भूमिका के रूप में युग गीता को खण्ड-खण्ड में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है; ताकि विश्वकोष की पृष्ठभूमि बन सके। इस विश्वकोष में दुनिया भर के संदर्भ, भाष्यों के हवाले तथा विभिन्न महामानवों के मंतव्य होंगे। वह सूर्य होगा-युगगीता तो उसकी एक किरण मात्र है। युगों-युगों से गीता गायी जाती रही है- लाखों व्यक्ति उससे मार्गदर्शन लेते रहे हैं, किंतु इस युग में जबकि बड़े स्तर पर एक व्यापक परिवर्त्तन सारे समाज, सारे विश्व में होने जा रहा है- इस युगगीता का विशेष महत्त्व है। कितने खण्डों में यह ग्रंथ प्रकाशित होगा, हम अभी बता नहीं सकते।
इस ग्रंथ से जन-जन को ज्ञान का प्रकाश मिले, इस युग परिवर्त्तन की वेला में जीवन जीने की कला का मार्गदर्शन मिले, जीवन के हर मोड़ पर जहाँ कुटिल दाँवपेंच भरे पड़े हैं-यह शिक्षण मिले कि इसे एक योगी की तरह कैसे हल करना है। इसमें लेखक के अपने ज्ञान-विद्वत्ता का कोई योगदान नहीं है। यह सब कुछ उसी गुरुसत्ता के श्रीमुख से निस्सृत महाज्ञान है जो योगेश्वर श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हुई, परम पूज्य गुरुदेव के रूप में हमारे जीवन में आयी। यह वह ज्ञान है जो उनकी लेखनी से निकल पड़ा या उद्बोधन में प्रकट हुआ। गुरुवर की अनुकम्पा न होती, अग्रजों का अनुग्रह न होता, सुधी पाठकों की प्यार भरी प्रतिक्रियाएँ न होतीं, तो शायद यह ग्रंथ आकार न ले पाता। उसी गुरुसत्ता के चरणों में श्रद्धापूरित भाव से इस गीताज्ञान की व्याख्या रूपी युगगीता का प्रथम खण्ड प्रस्तुत है।
— डॉ० प्रणव पण्ड्या