Books - युगगीता - (भाग-२)
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कर्म में ब्रह्मदर्शन से ब्रह्म की ही प्राप्ति
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यज्ञ भाव से आचरण
चतुर्थ अध्याय का तेईसवाँ श्लोक दिव्यकर्मी की व्याख्या को आगे बढ़ाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं-
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥४-२३॥
यज्ञायाचरतः कर्म- अर्थात्- ‘‘जिसकी असक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से मुक्त है तथा जिसका चित्त सदैव परमात्मा के ज्ञान में स्थित है- ऐसे यज्ञभाव से आचरण करने वाले व्यक्ति के संपूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है।’’
यहाँ इस श्लोक में भगवान् सूक्ष्म रूप में यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि कैसे प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक कर्म उस अनन्त सत्ता के प्रति समर्पण भाव के साथ, यज्ञभाव से अभिपूरित हो, किया जा सकता है। भगवान् ने पहले कहा कि कर्म करते हुए अकर्म तक पहुँचो, कर्म करते हुए साधना की उच्चतम स्थिति तक पहुँचो। क्यों? क्योंकि ऐसे व्यक्ति के अंतस् में सतत् ज्ञानाग्रि जलती रहती है। (ज्ञानाग्रि दग्धकर्माणं ४/१९) ज्ञान किस बात का? इस बात का कि मैं व भगवान् एक हैं। वह ज्ञान जिसमें हम भगवत्चेतना के स्फुल्लिंग हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाता है। ईसा जब क्रूस पर चढ़ाए जाते हैं तो यह नहीं कहते कि मेरी रक्षा करो। वे तो कहते हैं कि ‘‘मैं व मेरे पिता एक हैं, इनकी रक्षा करो जिन्हें यह मालूम नहीं है।’’ ऐसे में तुलसीदास जी की उक्ति याद आ जाती है- ‘‘नाते एक राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं’’ हम राम के हैं- राम हमारे हैं। ऐसी स्थिति में सारे काम भगवान् के निमित्त होने लगते हैं। ऐसे कर्म प्रारब्ध का निर्माण नहीं करते।
दिव्यकर्मी की यही खूबियाँ हैं। पूर्ण आंतरिक आनंद एवं शान्ति उसे ऐसे ही यज्ञीय कर्म से प्राप्त होती है। सामान्य मनुष्य अपने सुख के लिये बाह्य पदार्थों पर निर्भर रहते हैं, इसी से उनकी कामनाएँ- वासनाएँ होती हैं, इसी कारण उन्हें क्रोध, दुख, शोक, उद्वेग, मानसिक संताप, हर्षशोक आदि होते हैं। इसे वे सभी वस्तुओं को शुभ- अशुभ के काँटे से तौलते हैं किंतु दिव्य आत्मा पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे किसी भी प्रकार की निर्भरता के बिना सदा तृप्त रहते हैं। (नित्यतृप्तो निराश्रयः ४/२०) उनके रोम- रोम में परम सत्ता की ज्योति विद्यमान रहती है। वे बहिरंग सुखों में यदि सुख लेते भी हैं तो इस कारण नहीं कि उनकी रुचि है या वे उसमें डूबकर पथभ्रष्ट होना चाहते हैं अपितु इसलिए कि उनमें स्थित आत्मा के लिए उनके द्वारा भगवान् की अभिव्यक्ति के लिए, उनमें स्थित शाश्वत सत्य के लिये यह सुख है। इन पदार्थों के सुख में भी उनकी आसक्ति नहीं होती, बल्कि अपने अंदर मिलने वाला आनन्द ही सर्वत्र उन्हें दिखाई देने लगता है- अनुभूत होने लगता है। प्रिय के स्पर्श से उन्हें हर्ष नहीं होता, अप्रिय से शोक नहीं होता। वे सभी पदार्थों में अक्षय आनन्द का भोग करते हैं।
आसक्ति व देहभावना से मुक्ति
दिव्यकर्मी की कर्मों के प्रति आसक्ति सर्वथा नष्ट हो जाती है। एवं वह देह के अभिमान व ममत्वभाव से मुक्त हो जाता है, यह भगवान् यहाँ बता रहे हैं। जब व्यक्ति अपने अंधकारमय जीवन का परित्याग कर देता है, कामोद्वेगों के बंधनों से मुक्त हो जाता है। (गतसंगस्य मुक्तस्य- ४/२३) तो फिर वह ज्ञान में स्थित हो जाता है। ऐसा आध्यात्मिक पुरुष फिर अपने सभी कर्मों का सम्पादन जगत् के ईश्वर- परम पिता परमात्मा के प्रति भक्तिमय समर्पण भाव द्वारा यज्ञभावना पूर्वक सम्पादित करता है। उसके कर्म प्रभु की कृपा और प्रेम के आह्वान के निमित्त ही होते हैं। कर्म ही उसकी पूजा होते हैं।
जब कर्म के प्रति ऐसी दृष्टि होती है तो रैदास की तरह हर कर्म पूजा बन जाता है। भाव की प्रगाढ़ता में किए गये कर्म यज्ञीय कर्म होते हैं। ‘‘जो मन चंगा तो कठौती में गंगा’’ की तरह वे अलौकिक शक्तियों का प्रत्यक्षीकरण भी कराते हैं। ऐसे कर्मों को करने से व्यक्ति का- दिव्यकर्मी का श्रद्धा से युक्त ज्ञान भी प्रकट होने लगता है। ‘‘श्रद्धा’’ अर्थात् पतझड़ में भी वसंत को देखना। ‘‘वसंत’’ के प्रति आस्था। जिसका अस्तित्व नहीं है, उसका भी अंतर्ज्योति द्वारा दर्शन। अनन्तता के प्रति गहन श्रद्धा। अंधकार में भी उजाले का दर्शन। जो हमें हमारे गुरु इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य के रूप में करा गए हैं। जब इस श्रद्धा और ज्ञान के साथ दिव्यकर्म करना है। तो फिर कर्म कितना छोटा या बड़ा है- यह नहीं देखा जाता। भगवान के प्रेम में डूबकर कर्म किये जाते हैं।
आचार्य शंकर का यज्ञ- कर्म
आचार्य शंकर ने यही भाव लेकर कर्म किए। संन्यासी को सामान्यतया कर्मत्यागी कहा जाता है। परंतु उन दिनों आचार्य शंकर ने संन्यास की अवधारणा इस प्रकार दीकि जो लोग अपने दायरे से बाहर नहीं निकल पा रहे थे- उन्हें राष्ट्र के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने हेतु उनने अपने प्रभाव से सक्रिय कर दिया। अरबों का राष्ट्र पर आक्रमण था- राष्ट्र की दशा दुरअवस्था आचार्य शंकर द्वारा देखी नहीं जा रही थी। आचार्य शंकर ने कर्म से संन्यास की बात नहीं कही। विश्वात्मा के लिये समर्पित कर्म यज्ञीय भाव से किए गए कर्म की बात उनने कही। अपने संन्यास की व्यवस्था द्वारा उनने लोगों को भोग- विलास से मुक्त हो समर्पित भाव से जीने की व्यवस्था बना दी- ‘‘कर्मणान्यासः इति कर्मसन्यासः’’ की बात कही। परंतु वह व्यवस्था कालान्तर में तम के साथ घुल जाने के कारण गड़बड़ा गयी। उनकी धारणा ‘‘संगं त्यक्त्वा’’ एक तरफ रह गयी एवं आसक्ति- मठ की संपत्ति में अभिवृद्धि आदि ही प्रतीक बन कर रह गए। परम पूज्य गुरुदेव ने ऐसी परिस्थितियों में वानप्रस्थ को- परिव्राजक धर्म को जिन्दा किया एवं इसे ‘‘नव संन्यास’’ नाम दिया, जिसकी महत्ता का गान १०१ वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानंद ने किया था। यज्ञीय भाव से किया गया कर्म ही सच्चा सन्यास है एवं ऐसे व्यक्ति के संपूर्ण कर्म भलीभाँति क्षय हो जाते हैं- परमात्मा में विलीन हो जाते हैं (यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ४/२३), यह बात उनने भी पूरी गरिमा के साथ स्थापित की।
फिर कर्म यज्ञमय कैसे बनें? इसकी व्याख्या ब्रह्मार्पण- ब्रह्मकर्म की बात कहकर अगले श्लोक पर हम आते हैं।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ ४/२४
अर्थात् ‘‘ब्रह्मरूपी अग्रि में ब्रह्मरूपी कर्मो के द्वारा आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म ही है क्योंकि उसमें अर्पण अर्थात् स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने वाले द्रव्य भी ब्रह्म हैं। इस तरह कर्म में ब्रह्मदर्शन करने से ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है।’’
गीता जी के इस अति प्रसिद्ध श्लोक, जिसके द्वारा भारतीय घरों में प्रतिदिन भोजन के पूर्व प्रभु स्मरण किया जाता है, कितनी गहरी बात भगवान् श्रीकृष्ण ने कह दी है। सारे श्लोक का मर्म कितना विलक्षण है। ब्रह्मार्पण का अर्थ है- सब कुछ उसको ही अर्पित- कुछ भी उसके प्रति आसक्ति नहीं। सब कुछ उस चरम बिंदु परमात्मा के लिये हो। जो किया जा रहा है, जिस उद्देश्य के लिये हैं, जिसमें आहुति दी जा रही है- देने वाला भी वही है ब्रह्म का ही अंश है- यह स्थिति दिव्य कर्मी की होनी चाहिए।
जो कुछ है सो तोर
‘‘यद द्वैतं तद् भयम्’’ जहाँ दूसरा आया, वहाँ भय आया। कर्मयोग का ऐसा स्वरूप हो कि जिसमें दूसरा कोई रहे ही नहीं। एक ही स्वर्ण धातु होती है- उसी से अंगूठी, उसी से कंगन, उसी से बाजूबन्द बनते हैं- तत्वदृष्टि ऐसी विकसित की जाय कि यह सब कुछ ब्रह्म कर्म है। तब ही हमें कर्मयोग की समाधि प्राप्त हो सकती है।
स्वामी विवेकानंद के महाप्रयाण के बाद सबसे बड़ी जिम्मेदारी शेष गुरु भाईयों पर आयी कि अब आगे कार्य कैसे चलेगा। श्रीमती ओलीबुल के दान से भूमि तो क्रय कर ली गयी, मठ का नक्शा भी बन गया। निर्माण को परिपूर्णता के चरम तक पहुँचाना था। पहले जनरल सेक्रेटरी- महासचिव रामकृष्ण मिशन के बने शारदानंदजी। उनने ‘‘रामकृष्ण लीला प्रसंग लिखना’’ आरंभ किया। धीरे- धीरे प्रकाशित होने लगे- लोगों को जानकारी मिली- धनराशि भी आने लगी। दिनभर लिखते। लिखते- लिखते घुटनों में भयंकर दर्द होता- पर उन्हें लगता कि मानों वे समाधि की स्थिति में लिख रहे हों। घुटनों में गठिया हो गया और वे कभी रुके नहीं उसी स्थिति में लेखन उनका जारी रहा। वे लिखते हैं कि उस समय ‘‘मैं उन क्षणों में जीने लगता हूँ, जिनमें समाधि लग जाती है।’’ कर्म में एकाग्रता मनोयोग एवं भक्ति तीनों मिल जाएँ तो समाधि का आनंद आने लगता है। चौतीसवें श्लोक का यही भाव है। हम सभी जानते हैं कि स्वामी शारदानन्द जी के इस लेखन रूपी यज्ञकर्म ने रामकृष्ण मिशन का आधारभूत ढाँचा खड़ा कर दिया एवं आज रामाकृष्ण लीलामृत, वचनामृत, कथामृत के कारण भी हम वह सब कुछ जानते हैं जो आज से ११०- १२० वर्ष पूर्व घटा एवं ‘‘रामकृष्ण मिशन’’ के रूप में एक नया इतिहास रच गया।
ऐसा ही एक प्रसंग स्वामी विज्ञानानन्द जी (श्री हरिप्रसन्न चटर्जी) का भी मिलता है। रामकृष्ण मिशन के इस कर्णधार ने वाल्मीकि रामायण का इंग्लिश भावान्तरण किया है। उस समय की स्थिति लिखते हुए वे कहते हैं कि मुझे ऐसा लगता था कि मानों राम- सीता मेरे सामने बैठे हैं। भाव में, ईश्वरीय प्रेम में डूबकर कर्म करना सबसे बड़ा कार्य है- यज्ञीय कार्य है। प्रेमपूर्वक किया गया- श्रद्धा में डूबकर किया गया हर कर्म यज्ञस्वरूप बन जाता है।
तीन प्रकार की समाधियाँ
इस श्लोक में ‘‘ब्रह्मकर्म समाधिना’’ की चर्चा आई है। समाधि तीन प्रकार की बताई जाती है। योग समाधि, ज्ञान समाधि, कर्म समाधि। योग समाधि पातंजलि योग शास्त्र के अनुसार योग की सर्वोच्च स्थिति का नाम है। ज्ञान की उच्च स्थिति में पहुँच जाना ज्ञान समाधि है। कर्म करते करते अकर्म को प्राप्त हो जाना- ब्रह्म को प्राप्त हो जाना- ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाना कर्म समाधि है। सब कुछ परमात्मा को समर्पित कर देना हवि, अग्रि, आहुति- यज्ञ सब कुछ परमात्मामय हो, यज्ञीय भाव से हो, यही कर्मसमाधि है।
यज्ञ का बाह्य अनुष्ठान तो जीवन के अन्तरतम में घटने वाले क्षणों का बहिरंग में चित्रण मात्र है। ‘‘जब हमारे भीतर चैतन्यता की अग्रि अपनी देदीप्यमान महिमा में प्रज्ज्वलित हो उठती है तो हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ आसपास के सांसारिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन रूपी कुण्ड में उनकी आहुति देती है।’’ स्वामी चिन्मयानंद जी की यह व्याख्या प्रस्तुत श्लोक के विषय में है। वे कहते हैं कि ‘‘हमारे भीतर स्थित महान् आत्मा के प्रति अपने समस्त कार्यों का समर्पण ही यज्ञभाव में संपादित कर्मों का सम्यक सुनियोजन है।’’
सभी कर्मों में ब्रह्म का, जगदीश्वर का उनके क्रीड़ा कल्लोल का दर्शन करना एक प्रकार से समाधि का आनंद लेना है, एक विलक्षण अनुभूति है। भगवान् श्रीकृष्ण इस सुप्रसिद्ध श्लोक के माध्यम से हम सभी से अपेक्षा करते हैं कि हम अपनी सभी भीतर और बाहर की घटनाओं में प्रभु का निरन्तर आह्वान करें- उसकी अनुभूति करें तथा अपने सभी दैनन्दिन क्रियाकलापों को दिव्यता प्रदान करें। कोई भी क्षण हमारे लिये विश्राम का नहीं है- हर क्षण भक्तिमय है- परमात्मामय है। प्रतिक्षण का यह समर्पण भाव हमारी देवसंस्कृति को बड़ा विलक्षण बनाता है। जब व्यक्ति दिव्य जागरुकता के ऐसे ग्राह्य वातावरण में रहता है तो उसके सभी कर्म यहाँ तक कि अत्यन्त महत्वहीन से दिखाई देने वाले सांसारिक कर्म भी अनजाने में ही अहं के परिपूर्ण समर्पण का रूप ले लेते हैं। ‘‘सर्वखल्विदंब्रह्म’’ सदा ब्रह्म का चिन्तन करते रहने से ब्रह्मदर्शन होता है, यह सत्य है। स्वामी अपूर्वानन्द जी (रामकृष्ण शिवाश्रम) लिखते हैं कि ‘‘परमहंस देव भी श्रीकृष्ण की साधना करते समय छह मास तक सर्वत्र श्रीकृष्ण का दर्शन करते थे। काली मंदिर में पूजा करते समय सब कुछ चैतन्यमय देखते थे- चिन्मयअर्घा, चिन्मय मंदिर, चिन्मयी देवी।’
’ब्रह्म में कर्मों का आधान
इस श्लोक में कर्मों का समर्पण यज्ञ की अधीश्वर सत्ता को किया गया है। कर्म का सच्चा सन्यास ब्रह्म में कर्मों का आधान करना ही है। इसी बात को आगे भगवान् ने पाँचवे अध्याय के दसवेंश श्लोक में कहा है कि जो पुरुष आसक्ति को त्यागकर, ब्रह्म में कर्मों का अर्पण करके कर्म करता है (ब्रह्मण्याधाय कर्माणि), वह पाप से लिप्त नहीं होता जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता। चारों ओर दृष्टि दौड़ाने पर हम भगवान् के संदेश को समझने का प्रयास करते हैं तो एक ही बात मुखरित होती है कि यह बंधन्मुक्ति ब्रह्म से युक्त होकर ही मिलेगी, श्रद्धा में- बिना किसी आसक्ति के प्रेम में डूबकर किये गये समर्पण भाव से संपादित कर्मों से ही मिलेगी क्योंकि इससे हमारा हर कर्म यज्ञमय बन जाता है।
उपासना से आराधना की ओर
परम पूज्य गुरुदेव ने जीवन भर यही किया और यही जीवन जिया। उनकी लेखनी की साधना भी यज्ञ कर्म समर्पित ही थी। अपना सब कुछ श्रद्धापूर्वक उस परब्रह्म में उड़ेलकर उनने जो साधना की- वह ब्रह्मकर्म था, ब्रह्मकर्म समाधि थी। उसी ब्रह्म को अर्पित थी। ‘‘अखंड ज्योति’’ में वे एक स्थान पर लिखते है- ‘‘मनुष्य जिसे प्यार करता है, उसके उत्कर्ष एवं सुख के लिये बड़े से बड़ा त्याग और बलिदान करने को तैयार रहता है। अपना शरीर, मन, अंतःकरण एवं भौतिक साधनों का अधिकाधिक भाग समाज और संस्कृति की सेवा में लगाने से रुका ही नहीं जाता। जितना भी कुछ पास दीखता है, उसे अपने प्रिय आदर्शों के लिये लुटा डालने की ऐसी हूक उठती है कि कोई सांसारिक प्रलोभन उसे रोकसकने में समर्थ नहीं होता। दूसरे लोग अपनी छोटी- छोटी सेवाओं और उदारताओं की बार- बार चर्चा करते रहते हैं और उन्हें उसका प्रतिफल नहीं मिला, ऐसी शिकायतें करते रहते हैं, अपने लिये इस तरह सोच सकना संभव नहीं। क्योंकि लोकमंगल, स्वान्तःसुखाय- आत्मतृप्ति के लिये ही बन पड़ता है। किसी पर अहसान जताने या अपनी विशेषता प्रदर्शित करने के लिये नहीं। लोकसेवा का प्रतिफल जब आत्मसंतोष के रूप में तुरन्त मिल गया तो और कुछ चाहने की आवश्यकता ही क्या रही?’’ (( ‘‘हमारी प्रेमसाधना और उसकी परिणति’’ मई १९६९ अखण्ड ज्योति)।
परम पूज्य गुरुदेव ने ब्रह्म को अर्पित कर्म को उपासना के लिये समर्पित कर्म को सेवासाधना- लोक आराधना का रूप देकर एक विराट् संगठन गायत्री परिवार खड़ा कर दिया। जन- जन की निज की उपासना को एक विराट रूप दे दिया। कहा कि परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ है। हर कार्य जो समष्टिगत ब्रह्म को अर्पित करके किया जाएगा- ब्रह्मार्पण- ब्रह्मकर्म समाधि की स्थिति में ले जाएगा। एक क्रांन्तिकारी तेवर अपनाते हुए वे आज की स्थिति को देखते हुए लिखते हैं- ‘‘गिरता उठता तो जमाना है, पर इसके लिये वास्तविक पाप- पुण्य का बोझ उस समय की अग्रगामी प्रतिभाओं के सिर पर लदता है। उनका अग्रगमन असंख्यों में प्राण फूँकता है। वे गिरते हैं तो ओलों की तरह समूची फसल को सफाचट करके रख देते हैं। जो चुप बैठे रहते हैं वे न तो शांतिप्रिय कहलाते हैं- न निरपेक्ष- न अनासक्त। आड़े वक्त में मुँह छिपाने के लिये शान्ति का- भजन का- ब्रह्मज्ञान का लबादा ओढ़ने वाले अपना मन भले ही समझा लें, आपत्तिकाल की यातनाएँ उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी। दुर्घटना, महामारी, अग्रिकाण्ड, आक्रमण, उत्पीड़न से संतृप्त हाहाकारी वातावरण में जो एकान्त साधन की बात सोचे, उसे ब्रह्मज्ञानी कौन कहेगा? निष्ठुर पाषाण से कम उन्हें दूसरी उपमा क्या दी जाय। यह सोचने के बाद कदाचित ही कोई दूसरा शब्द मिल सके।’’ (( ‘‘अखण्ड ज्योति’’ अप्रैल १९८२ ‘क्या काफिला बिछुड़ जाएगा’)
यदि वास्तव में किसी को चौबीसवें श्लोक का मर्म समझना हो तो उसे कर्म में ब्रह्मदर्शन करने वाले योगी के रूप में परम पूज्य गुरुदेव की जीवन गाथा पढ़नी चाहिए। जिनका सारा जीवन यज्ञमय रहा एवं हर श्वास में संस्कृति को समर्पित जीवन जिया, लाखों नहीं करोड़ों व्यक्तियों को समष्टि के लिए किए जाने वाले कर्म में नियोजित कर गए, उनके जीवन दर्शन में इस श्लोक के स्वर मुखरित होते हैं एवं साक्षात् श्रीकृष्ण उन झलकियों में दृष्टिगोचर होने लगते हैं। भगवान् की शक्ति ही प्रकृति में स्थापित होकर दिव्य कर्मों का संपादन करती है। केवल ऐसे कर्म ही मुक्त पुरुष के कर्म बन पाते हैं, सिद्ध कर्मयोगी के कर्म बन जाते हैं। इन कर्मों का उदय आत्मा से होता है और आत्मा में कोई विकार उत्पन्न किए बिना ही इनका लय हो जाता है।
चतुर्थ अध्याय का तेईसवाँ श्लोक दिव्यकर्मी की व्याख्या को आगे बढ़ाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं-
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥४-२३॥
यज्ञायाचरतः कर्म- अर्थात्- ‘‘जिसकी असक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से मुक्त है तथा जिसका चित्त सदैव परमात्मा के ज्ञान में स्थित है- ऐसे यज्ञभाव से आचरण करने वाले व्यक्ति के संपूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है।’’
यहाँ इस श्लोक में भगवान् सूक्ष्म रूप में यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि कैसे प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक कर्म उस अनन्त सत्ता के प्रति समर्पण भाव के साथ, यज्ञभाव से अभिपूरित हो, किया जा सकता है। भगवान् ने पहले कहा कि कर्म करते हुए अकर्म तक पहुँचो, कर्म करते हुए साधना की उच्चतम स्थिति तक पहुँचो। क्यों? क्योंकि ऐसे व्यक्ति के अंतस् में सतत् ज्ञानाग्रि जलती रहती है। (ज्ञानाग्रि दग्धकर्माणं ४/१९) ज्ञान किस बात का? इस बात का कि मैं व भगवान् एक हैं। वह ज्ञान जिसमें हम भगवत्चेतना के स्फुल्लिंग हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाता है। ईसा जब क्रूस पर चढ़ाए जाते हैं तो यह नहीं कहते कि मेरी रक्षा करो। वे तो कहते हैं कि ‘‘मैं व मेरे पिता एक हैं, इनकी रक्षा करो जिन्हें यह मालूम नहीं है।’’ ऐसे में तुलसीदास जी की उक्ति याद आ जाती है- ‘‘नाते एक राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं’’ हम राम के हैं- राम हमारे हैं। ऐसी स्थिति में सारे काम भगवान् के निमित्त होने लगते हैं। ऐसे कर्म प्रारब्ध का निर्माण नहीं करते।
दिव्यकर्मी की यही खूबियाँ हैं। पूर्ण आंतरिक आनंद एवं शान्ति उसे ऐसे ही यज्ञीय कर्म से प्राप्त होती है। सामान्य मनुष्य अपने सुख के लिये बाह्य पदार्थों पर निर्भर रहते हैं, इसी से उनकी कामनाएँ- वासनाएँ होती हैं, इसी कारण उन्हें क्रोध, दुख, शोक, उद्वेग, मानसिक संताप, हर्षशोक आदि होते हैं। इसे वे सभी वस्तुओं को शुभ- अशुभ के काँटे से तौलते हैं किंतु दिव्य आत्मा पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे किसी भी प्रकार की निर्भरता के बिना सदा तृप्त रहते हैं। (नित्यतृप्तो निराश्रयः ४/२०) उनके रोम- रोम में परम सत्ता की ज्योति विद्यमान रहती है। वे बहिरंग सुखों में यदि सुख लेते भी हैं तो इस कारण नहीं कि उनकी रुचि है या वे उसमें डूबकर पथभ्रष्ट होना चाहते हैं अपितु इसलिए कि उनमें स्थित आत्मा के लिए उनके द्वारा भगवान् की अभिव्यक्ति के लिए, उनमें स्थित शाश्वत सत्य के लिये यह सुख है। इन पदार्थों के सुख में भी उनकी आसक्ति नहीं होती, बल्कि अपने अंदर मिलने वाला आनन्द ही सर्वत्र उन्हें दिखाई देने लगता है- अनुभूत होने लगता है। प्रिय के स्पर्श से उन्हें हर्ष नहीं होता, अप्रिय से शोक नहीं होता। वे सभी पदार्थों में अक्षय आनन्द का भोग करते हैं।
आसक्ति व देहभावना से मुक्ति
दिव्यकर्मी की कर्मों के प्रति आसक्ति सर्वथा नष्ट हो जाती है। एवं वह देह के अभिमान व ममत्वभाव से मुक्त हो जाता है, यह भगवान् यहाँ बता रहे हैं। जब व्यक्ति अपने अंधकारमय जीवन का परित्याग कर देता है, कामोद्वेगों के बंधनों से मुक्त हो जाता है। (गतसंगस्य मुक्तस्य- ४/२३) तो फिर वह ज्ञान में स्थित हो जाता है। ऐसा आध्यात्मिक पुरुष फिर अपने सभी कर्मों का सम्पादन जगत् के ईश्वर- परम पिता परमात्मा के प्रति भक्तिमय समर्पण भाव द्वारा यज्ञभावना पूर्वक सम्पादित करता है। उसके कर्म प्रभु की कृपा और प्रेम के आह्वान के निमित्त ही होते हैं। कर्म ही उसकी पूजा होते हैं।
जब कर्म के प्रति ऐसी दृष्टि होती है तो रैदास की तरह हर कर्म पूजा बन जाता है। भाव की प्रगाढ़ता में किए गये कर्म यज्ञीय कर्म होते हैं। ‘‘जो मन चंगा तो कठौती में गंगा’’ की तरह वे अलौकिक शक्तियों का प्रत्यक्षीकरण भी कराते हैं। ऐसे कर्मों को करने से व्यक्ति का- दिव्यकर्मी का श्रद्धा से युक्त ज्ञान भी प्रकट होने लगता है। ‘‘श्रद्धा’’ अर्थात् पतझड़ में भी वसंत को देखना। ‘‘वसंत’’ के प्रति आस्था। जिसका अस्तित्व नहीं है, उसका भी अंतर्ज्योति द्वारा दर्शन। अनन्तता के प्रति गहन श्रद्धा। अंधकार में भी उजाले का दर्शन। जो हमें हमारे गुरु इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य के रूप में करा गए हैं। जब इस श्रद्धा और ज्ञान के साथ दिव्यकर्म करना है। तो फिर कर्म कितना छोटा या बड़ा है- यह नहीं देखा जाता। भगवान के प्रेम में डूबकर कर्म किये जाते हैं।
आचार्य शंकर का यज्ञ- कर्म
आचार्य शंकर ने यही भाव लेकर कर्म किए। संन्यासी को सामान्यतया कर्मत्यागी कहा जाता है। परंतु उन दिनों आचार्य शंकर ने संन्यास की अवधारणा इस प्रकार दीकि जो लोग अपने दायरे से बाहर नहीं निकल पा रहे थे- उन्हें राष्ट्र के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने हेतु उनने अपने प्रभाव से सक्रिय कर दिया। अरबों का राष्ट्र पर आक्रमण था- राष्ट्र की दशा दुरअवस्था आचार्य शंकर द्वारा देखी नहीं जा रही थी। आचार्य शंकर ने कर्म से संन्यास की बात नहीं कही। विश्वात्मा के लिये समर्पित कर्म यज्ञीय भाव से किए गए कर्म की बात उनने कही। अपने संन्यास की व्यवस्था द्वारा उनने लोगों को भोग- विलास से मुक्त हो समर्पित भाव से जीने की व्यवस्था बना दी- ‘‘कर्मणान्यासः इति कर्मसन्यासः’’ की बात कही। परंतु वह व्यवस्था कालान्तर में तम के साथ घुल जाने के कारण गड़बड़ा गयी। उनकी धारणा ‘‘संगं त्यक्त्वा’’ एक तरफ रह गयी एवं आसक्ति- मठ की संपत्ति में अभिवृद्धि आदि ही प्रतीक बन कर रह गए। परम पूज्य गुरुदेव ने ऐसी परिस्थितियों में वानप्रस्थ को- परिव्राजक धर्म को जिन्दा किया एवं इसे ‘‘नव संन्यास’’ नाम दिया, जिसकी महत्ता का गान १०१ वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानंद ने किया था। यज्ञीय भाव से किया गया कर्म ही सच्चा सन्यास है एवं ऐसे व्यक्ति के संपूर्ण कर्म भलीभाँति क्षय हो जाते हैं- परमात्मा में विलीन हो जाते हैं (यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ४/२३), यह बात उनने भी पूरी गरिमा के साथ स्थापित की।
फिर कर्म यज्ञमय कैसे बनें? इसकी व्याख्या ब्रह्मार्पण- ब्रह्मकर्म की बात कहकर अगले श्लोक पर हम आते हैं।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ ४/२४
अर्थात् ‘‘ब्रह्मरूपी अग्रि में ब्रह्मरूपी कर्मो के द्वारा आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म ही है क्योंकि उसमें अर्पण अर्थात् स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने वाले द्रव्य भी ब्रह्म हैं। इस तरह कर्म में ब्रह्मदर्शन करने से ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है।’’
गीता जी के इस अति प्रसिद्ध श्लोक, जिसके द्वारा भारतीय घरों में प्रतिदिन भोजन के पूर्व प्रभु स्मरण किया जाता है, कितनी गहरी बात भगवान् श्रीकृष्ण ने कह दी है। सारे श्लोक का मर्म कितना विलक्षण है। ब्रह्मार्पण का अर्थ है- सब कुछ उसको ही अर्पित- कुछ भी उसके प्रति आसक्ति नहीं। सब कुछ उस चरम बिंदु परमात्मा के लिये हो। जो किया जा रहा है, जिस उद्देश्य के लिये हैं, जिसमें आहुति दी जा रही है- देने वाला भी वही है ब्रह्म का ही अंश है- यह स्थिति दिव्य कर्मी की होनी चाहिए।
जो कुछ है सो तोर
‘‘यद द्वैतं तद् भयम्’’ जहाँ दूसरा आया, वहाँ भय आया। कर्मयोग का ऐसा स्वरूप हो कि जिसमें दूसरा कोई रहे ही नहीं। एक ही स्वर्ण धातु होती है- उसी से अंगूठी, उसी से कंगन, उसी से बाजूबन्द बनते हैं- तत्वदृष्टि ऐसी विकसित की जाय कि यह सब कुछ ब्रह्म कर्म है। तब ही हमें कर्मयोग की समाधि प्राप्त हो सकती है।
स्वामी विवेकानंद के महाप्रयाण के बाद सबसे बड़ी जिम्मेदारी शेष गुरु भाईयों पर आयी कि अब आगे कार्य कैसे चलेगा। श्रीमती ओलीबुल के दान से भूमि तो क्रय कर ली गयी, मठ का नक्शा भी बन गया। निर्माण को परिपूर्णता के चरम तक पहुँचाना था। पहले जनरल सेक्रेटरी- महासचिव रामकृष्ण मिशन के बने शारदानंदजी। उनने ‘‘रामकृष्ण लीला प्रसंग लिखना’’ आरंभ किया। धीरे- धीरे प्रकाशित होने लगे- लोगों को जानकारी मिली- धनराशि भी आने लगी। दिनभर लिखते। लिखते- लिखते घुटनों में भयंकर दर्द होता- पर उन्हें लगता कि मानों वे समाधि की स्थिति में लिख रहे हों। घुटनों में गठिया हो गया और वे कभी रुके नहीं उसी स्थिति में लेखन उनका जारी रहा। वे लिखते हैं कि उस समय ‘‘मैं उन क्षणों में जीने लगता हूँ, जिनमें समाधि लग जाती है।’’ कर्म में एकाग्रता मनोयोग एवं भक्ति तीनों मिल जाएँ तो समाधि का आनंद आने लगता है। चौतीसवें श्लोक का यही भाव है। हम सभी जानते हैं कि स्वामी शारदानन्द जी के इस लेखन रूपी यज्ञकर्म ने रामकृष्ण मिशन का आधारभूत ढाँचा खड़ा कर दिया एवं आज रामाकृष्ण लीलामृत, वचनामृत, कथामृत के कारण भी हम वह सब कुछ जानते हैं जो आज से ११०- १२० वर्ष पूर्व घटा एवं ‘‘रामकृष्ण मिशन’’ के रूप में एक नया इतिहास रच गया।
ऐसा ही एक प्रसंग स्वामी विज्ञानानन्द जी (श्री हरिप्रसन्न चटर्जी) का भी मिलता है। रामकृष्ण मिशन के इस कर्णधार ने वाल्मीकि रामायण का इंग्लिश भावान्तरण किया है। उस समय की स्थिति लिखते हुए वे कहते हैं कि मुझे ऐसा लगता था कि मानों राम- सीता मेरे सामने बैठे हैं। भाव में, ईश्वरीय प्रेम में डूबकर कर्म करना सबसे बड़ा कार्य है- यज्ञीय कार्य है। प्रेमपूर्वक किया गया- श्रद्धा में डूबकर किया गया हर कर्म यज्ञस्वरूप बन जाता है।
तीन प्रकार की समाधियाँ
इस श्लोक में ‘‘ब्रह्मकर्म समाधिना’’ की चर्चा आई है। समाधि तीन प्रकार की बताई जाती है। योग समाधि, ज्ञान समाधि, कर्म समाधि। योग समाधि पातंजलि योग शास्त्र के अनुसार योग की सर्वोच्च स्थिति का नाम है। ज्ञान की उच्च स्थिति में पहुँच जाना ज्ञान समाधि है। कर्म करते करते अकर्म को प्राप्त हो जाना- ब्रह्म को प्राप्त हो जाना- ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाना कर्म समाधि है। सब कुछ परमात्मा को समर्पित कर देना हवि, अग्रि, आहुति- यज्ञ सब कुछ परमात्मामय हो, यज्ञीय भाव से हो, यही कर्मसमाधि है।
यज्ञ का बाह्य अनुष्ठान तो जीवन के अन्तरतम में घटने वाले क्षणों का बहिरंग में चित्रण मात्र है। ‘‘जब हमारे भीतर चैतन्यता की अग्रि अपनी देदीप्यमान महिमा में प्रज्ज्वलित हो उठती है तो हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ आसपास के सांसारिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन रूपी कुण्ड में उनकी आहुति देती है।’’ स्वामी चिन्मयानंद जी की यह व्याख्या प्रस्तुत श्लोक के विषय में है। वे कहते हैं कि ‘‘हमारे भीतर स्थित महान् आत्मा के प्रति अपने समस्त कार्यों का समर्पण ही यज्ञभाव में संपादित कर्मों का सम्यक सुनियोजन है।’’
सभी कर्मों में ब्रह्म का, जगदीश्वर का उनके क्रीड़ा कल्लोल का दर्शन करना एक प्रकार से समाधि का आनंद लेना है, एक विलक्षण अनुभूति है। भगवान् श्रीकृष्ण इस सुप्रसिद्ध श्लोक के माध्यम से हम सभी से अपेक्षा करते हैं कि हम अपनी सभी भीतर और बाहर की घटनाओं में प्रभु का निरन्तर आह्वान करें- उसकी अनुभूति करें तथा अपने सभी दैनन्दिन क्रियाकलापों को दिव्यता प्रदान करें। कोई भी क्षण हमारे लिये विश्राम का नहीं है- हर क्षण भक्तिमय है- परमात्मामय है। प्रतिक्षण का यह समर्पण भाव हमारी देवसंस्कृति को बड़ा विलक्षण बनाता है। जब व्यक्ति दिव्य जागरुकता के ऐसे ग्राह्य वातावरण में रहता है तो उसके सभी कर्म यहाँ तक कि अत्यन्त महत्वहीन से दिखाई देने वाले सांसारिक कर्म भी अनजाने में ही अहं के परिपूर्ण समर्पण का रूप ले लेते हैं। ‘‘सर्वखल्विदंब्रह्म’’ सदा ब्रह्म का चिन्तन करते रहने से ब्रह्मदर्शन होता है, यह सत्य है। स्वामी अपूर्वानन्द जी (रामकृष्ण शिवाश्रम) लिखते हैं कि ‘‘परमहंस देव भी श्रीकृष्ण की साधना करते समय छह मास तक सर्वत्र श्रीकृष्ण का दर्शन करते थे। काली मंदिर में पूजा करते समय सब कुछ चैतन्यमय देखते थे- चिन्मयअर्घा, चिन्मय मंदिर, चिन्मयी देवी।’
’ब्रह्म में कर्मों का आधान
इस श्लोक में कर्मों का समर्पण यज्ञ की अधीश्वर सत्ता को किया गया है। कर्म का सच्चा सन्यास ब्रह्म में कर्मों का आधान करना ही है। इसी बात को आगे भगवान् ने पाँचवे अध्याय के दसवेंश श्लोक में कहा है कि जो पुरुष आसक्ति को त्यागकर, ब्रह्म में कर्मों का अर्पण करके कर्म करता है (ब्रह्मण्याधाय कर्माणि), वह पाप से लिप्त नहीं होता जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता। चारों ओर दृष्टि दौड़ाने पर हम भगवान् के संदेश को समझने का प्रयास करते हैं तो एक ही बात मुखरित होती है कि यह बंधन्मुक्ति ब्रह्म से युक्त होकर ही मिलेगी, श्रद्धा में- बिना किसी आसक्ति के प्रेम में डूबकर किये गये समर्पण भाव से संपादित कर्मों से ही मिलेगी क्योंकि इससे हमारा हर कर्म यज्ञमय बन जाता है।
उपासना से आराधना की ओर
परम पूज्य गुरुदेव ने जीवन भर यही किया और यही जीवन जिया। उनकी लेखनी की साधना भी यज्ञ कर्म समर्पित ही थी। अपना सब कुछ श्रद्धापूर्वक उस परब्रह्म में उड़ेलकर उनने जो साधना की- वह ब्रह्मकर्म था, ब्रह्मकर्म समाधि थी। उसी ब्रह्म को अर्पित थी। ‘‘अखंड ज्योति’’ में वे एक स्थान पर लिखते है- ‘‘मनुष्य जिसे प्यार करता है, उसके उत्कर्ष एवं सुख के लिये बड़े से बड़ा त्याग और बलिदान करने को तैयार रहता है। अपना शरीर, मन, अंतःकरण एवं भौतिक साधनों का अधिकाधिक भाग समाज और संस्कृति की सेवा में लगाने से रुका ही नहीं जाता। जितना भी कुछ पास दीखता है, उसे अपने प्रिय आदर्शों के लिये लुटा डालने की ऐसी हूक उठती है कि कोई सांसारिक प्रलोभन उसे रोकसकने में समर्थ नहीं होता। दूसरे लोग अपनी छोटी- छोटी सेवाओं और उदारताओं की बार- बार चर्चा करते रहते हैं और उन्हें उसका प्रतिफल नहीं मिला, ऐसी शिकायतें करते रहते हैं, अपने लिये इस तरह सोच सकना संभव नहीं। क्योंकि लोकमंगल, स्वान्तःसुखाय- आत्मतृप्ति के लिये ही बन पड़ता है। किसी पर अहसान जताने या अपनी विशेषता प्रदर्शित करने के लिये नहीं। लोकसेवा का प्रतिफल जब आत्मसंतोष के रूप में तुरन्त मिल गया तो और कुछ चाहने की आवश्यकता ही क्या रही?’’ (( ‘‘हमारी प्रेमसाधना और उसकी परिणति’’ मई १९६९ अखण्ड ज्योति)।
परम पूज्य गुरुदेव ने ब्रह्म को अर्पित कर्म को उपासना के लिये समर्पित कर्म को सेवासाधना- लोक आराधना का रूप देकर एक विराट् संगठन गायत्री परिवार खड़ा कर दिया। जन- जन की निज की उपासना को एक विराट रूप दे दिया। कहा कि परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ है। हर कार्य जो समष्टिगत ब्रह्म को अर्पित करके किया जाएगा- ब्रह्मार्पण- ब्रह्मकर्म समाधि की स्थिति में ले जाएगा। एक क्रांन्तिकारी तेवर अपनाते हुए वे आज की स्थिति को देखते हुए लिखते हैं- ‘‘गिरता उठता तो जमाना है, पर इसके लिये वास्तविक पाप- पुण्य का बोझ उस समय की अग्रगामी प्रतिभाओं के सिर पर लदता है। उनका अग्रगमन असंख्यों में प्राण फूँकता है। वे गिरते हैं तो ओलों की तरह समूची फसल को सफाचट करके रख देते हैं। जो चुप बैठे रहते हैं वे न तो शांतिप्रिय कहलाते हैं- न निरपेक्ष- न अनासक्त। आड़े वक्त में मुँह छिपाने के लिये शान्ति का- भजन का- ब्रह्मज्ञान का लबादा ओढ़ने वाले अपना मन भले ही समझा लें, आपत्तिकाल की यातनाएँ उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी। दुर्घटना, महामारी, अग्रिकाण्ड, आक्रमण, उत्पीड़न से संतृप्त हाहाकारी वातावरण में जो एकान्त साधन की बात सोचे, उसे ब्रह्मज्ञानी कौन कहेगा? निष्ठुर पाषाण से कम उन्हें दूसरी उपमा क्या दी जाय। यह सोचने के बाद कदाचित ही कोई दूसरा शब्द मिल सके।’’ (( ‘‘अखण्ड ज्योति’’ अप्रैल १९८२ ‘क्या काफिला बिछुड़ जाएगा’)
यदि वास्तव में किसी को चौबीसवें श्लोक का मर्म समझना हो तो उसे कर्म में ब्रह्मदर्शन करने वाले योगी के रूप में परम पूज्य गुरुदेव की जीवन गाथा पढ़नी चाहिए। जिनका सारा जीवन यज्ञमय रहा एवं हर श्वास में संस्कृति को समर्पित जीवन जिया, लाखों नहीं करोड़ों व्यक्तियों को समष्टि के लिए किए जाने वाले कर्म में नियोजित कर गए, उनके जीवन दर्शन में इस श्लोक के स्वर मुखरित होते हैं एवं साक्षात् श्रीकृष्ण उन झलकियों में दृष्टिगोचर होने लगते हैं। भगवान् की शक्ति ही प्रकृति में स्थापित होकर दिव्य कर्मों का संपादन करती है। केवल ऐसे कर्म ही मुक्त पुरुष के कर्म बन पाते हैं, सिद्ध कर्मयोगी के कर्म बन जाते हैं। इन कर्मों का उदय आत्मा से होता है और आत्मा में कोई विकार उत्पन्न किए बिना ही इनका लय हो जाता है।