Books - युगगीता - (भाग-२)
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यज्ञों में श्रेष्ठतम-ज्ञानयज्ञ
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विचार चक्र प्रवर्तन
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।। ४/३३
अर्थात्- ‘‘हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।’’
भगवान् का कहना है कि सारे यज्ञों में ज्ञानयज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। भगवान् का स्पष्ट मत है कि सारे कर्म इसी ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। अज्ञान से मुक्ति ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है, सारे कर्मों का मर्म है। जीवन भर अज्ञान से चिपटे रहे- बंधन्मुक्त हो नहीं पाए, तो यह जीवन निष्प्रयोजन ही रहा। देवयज्ञ- नृयज्ञ यज्ञ आदि से स्वर्ग आदि फल की प्राप्ति मात्र हो सकती है परंतु आत्मज्ञान बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता। इसीलिये देवयज्ञ- द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ बताया गया है।
ज्ञान ही ऐसी निधि है जो आत्मा के साथ जन्म जन्मान्तरों तक यात्रा करती है। परम पूज्य गुरुदेव ने लेखनी और वाणी दोनों से ज्ञानयज्ञ संपन्न किया एवं लाखों निष्ठावान प्रज्ञा परिजनों से करवाया। उनका ज्ञानयज्ञ विचार क्रांति को लक्ष्य किये हुए था, जिसकी अंतिम परिणति होनी है युग परिवर्तन में। शान्तिकुञ्ज हरिद्वार- गायत्री तपोभूमि मथुरा से लेकर सारे भारत व विश्व में फैले प्रायः चार हजार से अधिक प्रज्ञा संस्थानों- प्रज्ञामण्डलों मण्डलों- साधना प्रशिक्षण केन्द्रों तक यही ज्ञान यज्ञ संपन्न होता दिखाई देता है। स्वामी विवेकानन्द की पत्रावली में से एक पत्र जो उनके द्वारा उनके एक शिष्य को लिखा गया है इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञानयज्ञ क्या है? वे अपने एक शिष्य को जिन्हें वह अध्यापक महोदय संबोधन देते हैं, लिखते हैं- ‘‘मैं विचार चक्र का प्रवर्त्तन कर रहा हूँ ताकि अच्छे अच्छे विचार घर- घर पहुँचे। मेरे जीवन की यही महत्त्वाकांक्षा है।’’ यही ज्ञान यज्ञ है जो स्वामी जी ने जीवन भर किया। लाखों गुलाम भारतीयों के मन में विधेयात्मक उल्लास जगाकर उन्हें अमृत पुत्र संबोधन देकर उनने सभी को उनकी बात सुनने- पढ़ने के लिये प्रेरित कर दिया- आज सौ वर्ष बाद भी उनकी सूक्ष्म सत्ता उनके विचारों के माध्यम से यही करा रही है।
परम पूज्य गुरुदेव ने झोला पुस्तकालय हमारे परिजनों से चलवाया, ज्ञानरथ को गति दी, विद्या मन्दिर बनवाये तथा विद्या विस्तार पटलों की स्थापना को गति दी। प्रायः ३२०० से अधिक छोटी- बड़ी किताबें लिख डालीं जो एक महापुरुष का एक जन्म में संपन्न किया गया सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। आज तक इसके समकक्ष कोई उदाहरण नहीं मिलता। लक्ष्य एक ही रहा कि सभी ज्ञान पायें- विचारों के पतन को रोकें- आत्म पर्यवेक्षण कर आत्मिक प्रगति के सोपानों पर चढ़ें। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ १ पत्रिका को भी वे ज्ञानचेतना की- उनकी प्राण चेतना की संवाहिका कह गए हैं। फरवरी १९७० की अखण्ड ज्योति में वे लिखते हैं-
१ ‘‘अखण्ड ज्योति’’ मासिक पत्रिका विगत १९३८ से अखण्ड ज्योति संस्थान मथुरा से प्रकाशित हो रही है। यह गायत्री परिवार की मूल दिशाधारा पर केन्द्रित है व जीवन जीने की कला तथा वैज्ञानिक अध्यात्मवाद पर नया चिंतन हर माह देती है। यह गुरुसत्ता की वाणी है। इसका सम्पादन शान्तिकुञ्ज से होता है।
‘‘चिंतन की दिशा बदलना ही युग परिवर्तन है। यदि चिंतन की धारा उत्कृष्टता की ओर मोड़ दी जाय तो व्यक्ति, संत, सज्जन, महान्, विचारवान्, विद्वान् एवं परमार्थ परायण बनकर देवत्व की भूमिका का संपादन कर सकता है। हमारा ज्ञानयज्ञ उसी प्रयोजन के लिये है। (पृष्ठ ६५)’’
विचारक्रांति- व्यक्तित्व का परिष्कार- मानव में देवत्व का उदय ज्ञानयज्ञ की ही परिणति है। यह ज्ञानयज्ञ कैसे होगा? घर- घर ज्ञानचेतना के विस्तार से- श्रेष्ठ साहित्य को जन- जन तक पहुँचाकर। यह कार्य समयदान के बिना नहीं हो सकता। समय जन सेवा हेतु परिजन निकालें- इसके लिये जीवन भर वे लिखते रहे एवं इसी माध्यम से लाखों समयदानियों की फौज खड़ी कर गए। द्रव्यमय यज्ञ की तुलना में ज्ञानयज्ञ सर्वोपरि है, यह भगवान् कृष्ण जब यह कहते हैं तब उनका आशय होता है- साधनों की तुलना में- साधना का,आत्मनिर्माण- लोकनिर्माण का लोकसेवा में नियोजन जरूरी है। साधनदान- अंशदान भी जरूरी है, पर सबसे बड़ा है समयदान, जो आज का युगधर्म भी है। ज्ञानयज्ञ पतन निवारण की सेवा है एवं इसके लिये चाहिए लोक हितार्थाय समयदान- परिब्रज्या धर्म का पालन ताकि जनमानस का परिष्कार हो सके।
क्रांतिधर्मी ज्ञानयज्ञ
परम पूज्य गुरुदेव के क्रांतिधर्मी साहित्य के अंतर्गत लिखी अपनी पुस्तकें ‘‘समय’’ की तपशिला पर बैठकर ही संभव हुई है। उनने जो सोचा- जो सृजा है, उसके पीछे उनकी तन्मयता भरी साधना ही रही है। वैज्ञानिकों- आविष्कारकों ने अपना मानस और समय प्रमुखता पूर्वक निर्धारित लक्ष्य पर केन्द्रित न किया होता तो सफलता की आशा कहाँ बन पड़ती? लोकसेवियों ने अपने समयदान के सहारे एक से एक बड़े कार्य संपन्न कर दिखाये हैं।’’ इस समय का उपयोग ज्ञान के विस्तार में लगे, यही उनका जीवन भर लक्ष्य रहा। वे सितम्बर १९६९ की अखण्ड ज्योति में लिखते हैं- ‘‘जपात्मक और होमात्मक यज्ञ के स्तर का ही हम दूसरा धर्मानुष्ठान ‘‘ज्ञानयज्ञ’’ चलाते रहे हैं। हमारा जीवन क्रम इन दो पहियों पर ही लुढ़कता आ रहा है। उपासना और साधना यही दो आत्मिक प्रगति के आधार हैं। उपासना पक्ष गायत्री जप एवं यज्ञ से पूरा होता रहा है। साधना का प्रकरण ज्ञानयज्ञ से संबंधित है। यह स्वाध्याय से आरंभ होकर सद्ज्ञान के लिये किए जाने वाले प्रबल प्रयत्नों तक फैलता है। यह ज्ञान ही है, जो पशु को मनुष्य- मनुष्य को देवता और देवता को भगवान् बनाने में समर्थ होता है। ज्ञान से ही प्रसुप्त मनुष्यता जागती है और वही आत्मा को अज्ञान के अंधकार में भटकने से उबार कर कल्याणकारी प्रकाश की ओर उन्मुख करता है।’’ (पृष्ठ ५९)
ज्ञानयज्ञ की महिमा वाले इस श्लोक (३३) के मर्म को और अच्छी तरह समझने का प्रयास करें तो गीताकार द्वारा कहा गया यह कथन स्पष्ट समझ में आता है कि भौतिक- लौकिक क्षेत्र में सफलता- संपदा प्राप्त करने के लिये जो भी सहकारी प्रयास- पुरुषार्थ चाहिए (जिसे हम द्रव्ययज्ञ भी कह सकते हैं), उसकी सफलता की कुंजी एक ही है- पूरे मनोयोग से एक लक्ष्य पर केन्द्रित होकर अंतःप्रेरणा से कार्य करना व उसके प्रति समर्पण की तीव्रता निरन्तर बढ़ाते चलना। इसे हम ज्ञानयज्ञ कह सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अंतःकरण की भावनात्मक स्तर पर तथा मन की बौद्धिक स्तर पर तैयारी किसी भी शारीरिक क्रिया से अधिक महत्व रखती है व ऐसा कार्य जब भी किया जाता है, उसकी परिणति अति पावन होती है। भगवान यह भी कहते हैं कि सभी कर्म (जो व्यक्तिगत कामनाओं से प्रेरित होकर किए जा रहे हैं) अंततः ज्ञान में ही समाप्त होते हैं (सर्व कर्माणि बलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते) अर्थात् ज्ञान के उद्भव के साथ ही वैयक्तिक स्वार्थ समाप्त हो जाते हैं और पारमार्थिक कार्य होने लगते हैं। यह ज्ञान है परमसत्ता का, अपने अस्तित्व का व जीवन के उद्देश्य का।
गीता का यह ज्ञान जिसकी चर्चा की गयी है, मात्र मन की बौद्धिक क्रिया नहीं है। गीता का ज्ञान है- सत्यस्वरूप। श्री अरविंद इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए ऋग्वेद का उद्धरण देते हैं। वे कहते हैं यह सत्य- यह सूर्य वही है जो हमारे अज्ञान अंधकार के भीतर छिपा पड़ा है और जिसके बारे में ऋग्वेद कहता है ‘‘तत्सत्यं सूर्य तमसि क्षियन्तम्।’’ चूंकि हम प्राकृतिक अज्ञान के कारण विमूढ़ हुए रहते हैं और यह अज्ञान हमारे अन्दर कूटस्थ ब्रह्म के सनातन आत्मज्ञान को हमसे छिपाये रहता है, हम इस सूर्य की अलौकिक आभा को- अक्षरब्रह्म के शाश्वत सनातन रूप को- ज्ञान के प्रकाशवान स्वरूप को समझ नहीं पाते। परंतु जो इस ज्ञान का अनुसंधान लगातार अनवरत करते रहते हैं, उन्हें इसकी प्राप्ति होती है। निम्रगामी जीवन के द्वन्द्वों से घिरे आत्मतत्व को ज्ञान का सूर्य परम सत्ता के प्रकाश से प्रकाशित कर (आदित्यवत् प्रकाशयति तत्परम्) उसको लक्ष्य का बोध करा देता है और यहीं उसके सभी कर्म वैयक्तिक न होकर- ज्ञान में समाकर- समष्टि के हितार्थाय होने लगते हैं।’’ (गीता प्रबंध)
शिक्षा एवं विद्या में अंतर
ज्ञानशब्द हमारे शास्त्रग्रंथों में- योगग्रंथों में इसी परम आत्मज्ञान के अर्थ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। ज्ञान वह ज्योति है जिसके द्वारा हम सत्य को जान पाते हैं- उसमें स्वयं को स्थापित कर पाते हैं- यह वह चीज नहीं, जिससे हमारी जानकारी बढ़ती हो- हमारी बौद्धिक सम्पत्ति अर्जित होती हो। यह भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान या जागतिक ज्ञान नहीं है। ये सभी तो ‘‘शिक्षा’’ की परिधि में आते हैं। इन जानकारियों से मदद अवश्य मिलती है, पर हमारी आंतरिक प्रगति- अंतःसत्ता के विकास हेतु तो ‘‘विद्या’’ की- विशुद्ध ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। यह योगिक ज्ञान है जिससे हम परमात्मा, आत्मा, भगवान को जान पाते हैं। शिक्षा की समस्त विधाएँ सच्चे ज्ञान की सहायक भर होती हैं, पर्यायवाची नहीं। वास्तविक ज्ञान वही है जो मन के लिये अगोचर है- मन जिसका मात्र आभास ही पा सकता है- वह तो और भी गहरे आत्मा में विराजमान होता है। इसीलिये उपनिषदकार कहता है-
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥ ११/ ईशावास्योपनिषद्
अर्थात् ‘‘विद्या और अविद्या (विद्या और शिक्षा) दोनों को एक साथ जानो। इनमें से अविद्या (शिक्षा) द्वारा मृत्यु को पार करके विद्या द्वारा अमरत्व की प्राप्ति की जा सकती है।’’
यहाँ विद्या को ज्ञान का तत्व एवं अविद्या को कर्म का तत्व भी कहा गया है। कर्मों के अनुष्ठान से साधक मृत्यु को पार करके ज्ञान के अनुष्ठान द्वारा अमृत को- परब्रह्म पुरुषोत्तम को प्रत्यक्ष प्राप्त कर लेता है।
ज्ञान प्राप्ति का मार्ग
अब प्रश्र यह उठता है कि यह ज्ञान प्राप्त कैसे किया जाय, क्योंकि परम सत्ता का- परम सत्य का यह ज्ञान (ज्ञानं) हममें से प्रत्येक के लिये अत्यन्त महत्व का है। यह ज्ञान केवल ऐसा गुरु ही दे सकता है जो आचार्य की तरह जीवन जी रहा हो- स्वयं उस ज्ञान को आचरण में उतार रहा हो। यदि शिष्य भाव से इस गुरुः के साथ तालमेल स्थापित कर हम ज्ञान चक्षु जगा सकें व जान सकें कि वह कैसे इस नित्य परिवर्त्तनशील संसार में रहता है, अनुभव करता है, कर्म करता है तो हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है। गीताकार कहता है- पहले इस ज्ञान को प्राप्त करने हेतु तत्वदर्शी ज्ञानियों से दीक्षा लेनी होगी। उनसे नहीं जो तत्वज्ञान को केवल बुद्धि से जानते हैं बल्कि उन ज्ञानियों से जिनने इसके मूल सत्य को प्रत्यक्ष देखा है (ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः)। यह बात भगवान् श्रीकृष्ण अगले श्लोक (३४ वें) में कहते हैं।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्रेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥ ४/३४
अर्थात्- ‘‘ उस ज्ञान को तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत- प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्र करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश देंगे।’’
योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ज्ञानप्राप्ति का राजमार्ग यह है। वह अर्जुन से कहते हैं कि यह ज्ञान वहाँ मिलेगा जहाँ ज्ञानाग्रि जल रही होगी। कबीरदास जी की भाषा में यदि हम समझ सकें तो पढ़े लिखे शिक्षित- विद्वान पण्डित नहीं है बल्कि वे हैं जिनने वैसा जीवन जिया है- प्रेम को जीवन में आत्मसात किया है। हर श्वास में जिनने परमात्मा को जिया है। कबीर अनपढ़ थे, रज्जब- रैदास अनपढ़ थे पर इन लोगों ने वह जीवन जिया है, जिसकी ओर भगवान श्रीकृष्ण संकेत कर गए हैं। अंतर्ज्ञान अक्षर ज्ञान का मोहताज नहीं है। जिस ज्ञान की अग्रि में सभी कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं, उस ज्ञान को पाना है तो उन परमात्मा के गुणों से युक्त आचार्यों- गुरु के पास जाकर उन्हें तत्वरूप में समझना चाहिए, अपना अहं भूलकर उन्हें दण्डवत प्रणाम कर अपने कपट के भाव को एक तरफ रखकर जिज्ञासा प्रकट कर ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए। कई लोग ज्ञान की परीक्षा लेने- महात्माओं के प्रति आदरभाव न रख कपट भाव से प्रश्र पूछने जाते हैं। उनसे इस भाव से नहीं, निष्कपट भाव से- सेवाभाव से प्रश्र पूछने से, ज्ञान की जिज्ञासा प्रकट करने से निश्चित ही वह ज्ञान उपलब्ध होगा जो आत्मसत्ता को सूर्यवत प्रकाशित करेगा। सेवा करने का मतलब हाथ- पाँव दबाना नहीं- शरीर की मालिश करना नहीं, अपितु उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्यों को आगे बढ़ाकर- उनके निर्देशानुसार अपना जीवन समर्पित करने से है। यह ज्ञान इससे कम में किसी महापुरुष से- उनके सद्ग्रन्थों से प्राप्त नहीं होगा। यदि हम सुपात्र हैं तो हमें निश्चित ही वह ज्ञान मिलेगा। पात्रता के विकास के अनुसार ही हमें परखा जाता है विद्वत्जनों द्वारा। जब वे हमारी जिज्ञासा का उत्तर दें तो हमारी अभीप्सा बढ़नी चाहिए- और अधिक बढ़ जानी चाहिए भगवान् को पाने की। उसी अनुपात में हमारी विनम्रता पूर्वक की गयी सेवा- हमारी निष्ठा और बढ़नी चाहिए। गुरुजनों ने भाँति- भाँति की परीक्षाएँ ली हैं अपने शिष्यों को ज्ञान देने के पूर्व। शिवाजी की परीक्षा ली गयी समर्थ रामदास द्वारा। सिंहनी का दूध मंगाकर अपनी योगमाया से रची हुई सिंहनी का दूध उनने माँगा और शिवाजी उसे लेकर आए- सुपात्र बनकर सेवा भाव से, तब ही वे भवानी तलवार को पाने के गुरु का अनुग्रह प्राप्त करने के अधिकारी बन सके। गुर्जिएफ अपने शिष्यों को गाली देते थे।
खूब डाँट लगाते थे। एक शिष्य ऑस्पेंस्की उन्हीं में से निकला जो सब कुछ सहन करते हुए उनसे सेवाभाव से प्राप्त कर सका। महर्षि दयानंद जी को विरजानन्दजी चिमटे से मारते थे, बड़ी कड़ाई से पेश आते थे तभी एक प्रखर योद्धा- पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराने वाला आर्य समाज का संस्थापक जन्मा। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु का अतिशय प्रेम पाया पर सारी शक्ति को धारण करने के बाद जो जीवन जिया उसने सारे शरीर को सुखा डाला। १८८६- ८७ में शक्तिपात पाने वाला यह युवा सन्यासी मात्र पंद्रह वर्ष और जी सका- चैन से कभी सो न सका, गुरु के कार्यों को विश्व भर में पहुँचाकर अत्यल्प आयु में कष्ट सहता हुआ शरीर छोड़कर चला गया। पात्रता विकसित करने के लिये सब कुछ क्योंकि देना पड़ता है तब गुरु, विद्वान, आचार्य, पण्डितगण भी अपने को खाली कर देते हैं।
बड़ी विलक्षण बात है। गीताकार यहाँ इस चौतीसवें श्लोक में कहते हैं कि यह ज्ञान तो उनसे मिलेगा जिनने इसके मूल सत्य को प्रत्यक्ष देखा है- (ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः) परंतु इसी के चार श्लोक बाद अड़तीसवें में कह जाते हैं- ‘‘योग के द्वारा संसिद्धि’’ को प्राप्त मनुष्य उसको अपने आप ही यथासमय अपनी आत्मा में पाता है (तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेन आत्मनि विन्दति)।’’ तो फिर सत्य क्या है? दोनों ही सत्य हैं। यह ज्ञान शिष्य भाव से प्रयास करने वाले हर उस मनुष्य में संवर्धित होता रहता है और ज्यों- ज्यों वह निष्कपट भाव से अपनी भगवद् भक्ति में गहराई बढ़ाता जाता है, त्यों- त्यों ज्ञान भी बढ़ता चला जाता है।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।। ४/३३
अर्थात्- ‘‘हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।’’
भगवान् का कहना है कि सारे यज्ञों में ज्ञानयज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। भगवान् का स्पष्ट मत है कि सारे कर्म इसी ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। अज्ञान से मुक्ति ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है, सारे कर्मों का मर्म है। जीवन भर अज्ञान से चिपटे रहे- बंधन्मुक्त हो नहीं पाए, तो यह जीवन निष्प्रयोजन ही रहा। देवयज्ञ- नृयज्ञ यज्ञ आदि से स्वर्ग आदि फल की प्राप्ति मात्र हो सकती है परंतु आत्मज्ञान बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता। इसीलिये देवयज्ञ- द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ बताया गया है।
ज्ञान ही ऐसी निधि है जो आत्मा के साथ जन्म जन्मान्तरों तक यात्रा करती है। परम पूज्य गुरुदेव ने लेखनी और वाणी दोनों से ज्ञानयज्ञ संपन्न किया एवं लाखों निष्ठावान प्रज्ञा परिजनों से करवाया। उनका ज्ञानयज्ञ विचार क्रांति को लक्ष्य किये हुए था, जिसकी अंतिम परिणति होनी है युग परिवर्तन में। शान्तिकुञ्ज हरिद्वार- गायत्री तपोभूमि मथुरा से लेकर सारे भारत व विश्व में फैले प्रायः चार हजार से अधिक प्रज्ञा संस्थानों- प्रज्ञामण्डलों मण्डलों- साधना प्रशिक्षण केन्द्रों तक यही ज्ञान यज्ञ संपन्न होता दिखाई देता है। स्वामी विवेकानन्द की पत्रावली में से एक पत्र जो उनके द्वारा उनके एक शिष्य को लिखा गया है इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञानयज्ञ क्या है? वे अपने एक शिष्य को जिन्हें वह अध्यापक महोदय संबोधन देते हैं, लिखते हैं- ‘‘मैं विचार चक्र का प्रवर्त्तन कर रहा हूँ ताकि अच्छे अच्छे विचार घर- घर पहुँचे। मेरे जीवन की यही महत्त्वाकांक्षा है।’’ यही ज्ञान यज्ञ है जो स्वामी जी ने जीवन भर किया। लाखों गुलाम भारतीयों के मन में विधेयात्मक उल्लास जगाकर उन्हें अमृत पुत्र संबोधन देकर उनने सभी को उनकी बात सुनने- पढ़ने के लिये प्रेरित कर दिया- आज सौ वर्ष बाद भी उनकी सूक्ष्म सत्ता उनके विचारों के माध्यम से यही करा रही है।
परम पूज्य गुरुदेव ने झोला पुस्तकालय हमारे परिजनों से चलवाया, ज्ञानरथ को गति दी, विद्या मन्दिर बनवाये तथा विद्या विस्तार पटलों की स्थापना को गति दी। प्रायः ३२०० से अधिक छोटी- बड़ी किताबें लिख डालीं जो एक महापुरुष का एक जन्म में संपन्न किया गया सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। आज तक इसके समकक्ष कोई उदाहरण नहीं मिलता। लक्ष्य एक ही रहा कि सभी ज्ञान पायें- विचारों के पतन को रोकें- आत्म पर्यवेक्षण कर आत्मिक प्रगति के सोपानों पर चढ़ें। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ १ पत्रिका को भी वे ज्ञानचेतना की- उनकी प्राण चेतना की संवाहिका कह गए हैं। फरवरी १९७० की अखण्ड ज्योति में वे लिखते हैं-
१ ‘‘अखण्ड ज्योति’’ मासिक पत्रिका विगत १९३८ से अखण्ड ज्योति संस्थान मथुरा से प्रकाशित हो रही है। यह गायत्री परिवार की मूल दिशाधारा पर केन्द्रित है व जीवन जीने की कला तथा वैज्ञानिक अध्यात्मवाद पर नया चिंतन हर माह देती है। यह गुरुसत्ता की वाणी है। इसका सम्पादन शान्तिकुञ्ज से होता है।
‘‘चिंतन की दिशा बदलना ही युग परिवर्तन है। यदि चिंतन की धारा उत्कृष्टता की ओर मोड़ दी जाय तो व्यक्ति, संत, सज्जन, महान्, विचारवान्, विद्वान् एवं परमार्थ परायण बनकर देवत्व की भूमिका का संपादन कर सकता है। हमारा ज्ञानयज्ञ उसी प्रयोजन के लिये है। (पृष्ठ ६५)’’
विचारक्रांति- व्यक्तित्व का परिष्कार- मानव में देवत्व का उदय ज्ञानयज्ञ की ही परिणति है। यह ज्ञानयज्ञ कैसे होगा? घर- घर ज्ञानचेतना के विस्तार से- श्रेष्ठ साहित्य को जन- जन तक पहुँचाकर। यह कार्य समयदान के बिना नहीं हो सकता। समय जन सेवा हेतु परिजन निकालें- इसके लिये जीवन भर वे लिखते रहे एवं इसी माध्यम से लाखों समयदानियों की फौज खड़ी कर गए। द्रव्यमय यज्ञ की तुलना में ज्ञानयज्ञ सर्वोपरि है, यह भगवान् कृष्ण जब यह कहते हैं तब उनका आशय होता है- साधनों की तुलना में- साधना का,आत्मनिर्माण- लोकनिर्माण का लोकसेवा में नियोजन जरूरी है। साधनदान- अंशदान भी जरूरी है, पर सबसे बड़ा है समयदान, जो आज का युगधर्म भी है। ज्ञानयज्ञ पतन निवारण की सेवा है एवं इसके लिये चाहिए लोक हितार्थाय समयदान- परिब्रज्या धर्म का पालन ताकि जनमानस का परिष्कार हो सके।
क्रांतिधर्मी ज्ञानयज्ञ
परम पूज्य गुरुदेव के क्रांतिधर्मी साहित्य के अंतर्गत लिखी अपनी पुस्तकें ‘‘समय’’ की तपशिला पर बैठकर ही संभव हुई है। उनने जो सोचा- जो सृजा है, उसके पीछे उनकी तन्मयता भरी साधना ही रही है। वैज्ञानिकों- आविष्कारकों ने अपना मानस और समय प्रमुखता पूर्वक निर्धारित लक्ष्य पर केन्द्रित न किया होता तो सफलता की आशा कहाँ बन पड़ती? लोकसेवियों ने अपने समयदान के सहारे एक से एक बड़े कार्य संपन्न कर दिखाये हैं।’’ इस समय का उपयोग ज्ञान के विस्तार में लगे, यही उनका जीवन भर लक्ष्य रहा। वे सितम्बर १९६९ की अखण्ड ज्योति में लिखते हैं- ‘‘जपात्मक और होमात्मक यज्ञ के स्तर का ही हम दूसरा धर्मानुष्ठान ‘‘ज्ञानयज्ञ’’ चलाते रहे हैं। हमारा जीवन क्रम इन दो पहियों पर ही लुढ़कता आ रहा है। उपासना और साधना यही दो आत्मिक प्रगति के आधार हैं। उपासना पक्ष गायत्री जप एवं यज्ञ से पूरा होता रहा है। साधना का प्रकरण ज्ञानयज्ञ से संबंधित है। यह स्वाध्याय से आरंभ होकर सद्ज्ञान के लिये किए जाने वाले प्रबल प्रयत्नों तक फैलता है। यह ज्ञान ही है, जो पशु को मनुष्य- मनुष्य को देवता और देवता को भगवान् बनाने में समर्थ होता है। ज्ञान से ही प्रसुप्त मनुष्यता जागती है और वही आत्मा को अज्ञान के अंधकार में भटकने से उबार कर कल्याणकारी प्रकाश की ओर उन्मुख करता है।’’ (पृष्ठ ५९)
ज्ञानयज्ञ की महिमा वाले इस श्लोक (३३) के मर्म को और अच्छी तरह समझने का प्रयास करें तो गीताकार द्वारा कहा गया यह कथन स्पष्ट समझ में आता है कि भौतिक- लौकिक क्षेत्र में सफलता- संपदा प्राप्त करने के लिये जो भी सहकारी प्रयास- पुरुषार्थ चाहिए (जिसे हम द्रव्ययज्ञ भी कह सकते हैं), उसकी सफलता की कुंजी एक ही है- पूरे मनोयोग से एक लक्ष्य पर केन्द्रित होकर अंतःप्रेरणा से कार्य करना व उसके प्रति समर्पण की तीव्रता निरन्तर बढ़ाते चलना। इसे हम ज्ञानयज्ञ कह सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अंतःकरण की भावनात्मक स्तर पर तथा मन की बौद्धिक स्तर पर तैयारी किसी भी शारीरिक क्रिया से अधिक महत्व रखती है व ऐसा कार्य जब भी किया जाता है, उसकी परिणति अति पावन होती है। भगवान यह भी कहते हैं कि सभी कर्म (जो व्यक्तिगत कामनाओं से प्रेरित होकर किए जा रहे हैं) अंततः ज्ञान में ही समाप्त होते हैं (सर्व कर्माणि बलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते) अर्थात् ज्ञान के उद्भव के साथ ही वैयक्तिक स्वार्थ समाप्त हो जाते हैं और पारमार्थिक कार्य होने लगते हैं। यह ज्ञान है परमसत्ता का, अपने अस्तित्व का व जीवन के उद्देश्य का।
गीता का यह ज्ञान जिसकी चर्चा की गयी है, मात्र मन की बौद्धिक क्रिया नहीं है। गीता का ज्ञान है- सत्यस्वरूप। श्री अरविंद इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए ऋग्वेद का उद्धरण देते हैं। वे कहते हैं यह सत्य- यह सूर्य वही है जो हमारे अज्ञान अंधकार के भीतर छिपा पड़ा है और जिसके बारे में ऋग्वेद कहता है ‘‘तत्सत्यं सूर्य तमसि क्षियन्तम्।’’ चूंकि हम प्राकृतिक अज्ञान के कारण विमूढ़ हुए रहते हैं और यह अज्ञान हमारे अन्दर कूटस्थ ब्रह्म के सनातन आत्मज्ञान को हमसे छिपाये रहता है, हम इस सूर्य की अलौकिक आभा को- अक्षरब्रह्म के शाश्वत सनातन रूप को- ज्ञान के प्रकाशवान स्वरूप को समझ नहीं पाते। परंतु जो इस ज्ञान का अनुसंधान लगातार अनवरत करते रहते हैं, उन्हें इसकी प्राप्ति होती है। निम्रगामी जीवन के द्वन्द्वों से घिरे आत्मतत्व को ज्ञान का सूर्य परम सत्ता के प्रकाश से प्रकाशित कर (आदित्यवत् प्रकाशयति तत्परम्) उसको लक्ष्य का बोध करा देता है और यहीं उसके सभी कर्म वैयक्तिक न होकर- ज्ञान में समाकर- समष्टि के हितार्थाय होने लगते हैं।’’ (गीता प्रबंध)
शिक्षा एवं विद्या में अंतर
ज्ञानशब्द हमारे शास्त्रग्रंथों में- योगग्रंथों में इसी परम आत्मज्ञान के अर्थ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। ज्ञान वह ज्योति है जिसके द्वारा हम सत्य को जान पाते हैं- उसमें स्वयं को स्थापित कर पाते हैं- यह वह चीज नहीं, जिससे हमारी जानकारी बढ़ती हो- हमारी बौद्धिक सम्पत्ति अर्जित होती हो। यह भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान या जागतिक ज्ञान नहीं है। ये सभी तो ‘‘शिक्षा’’ की परिधि में आते हैं। इन जानकारियों से मदद अवश्य मिलती है, पर हमारी आंतरिक प्रगति- अंतःसत्ता के विकास हेतु तो ‘‘विद्या’’ की- विशुद्ध ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। यह योगिक ज्ञान है जिससे हम परमात्मा, आत्मा, भगवान को जान पाते हैं। शिक्षा की समस्त विधाएँ सच्चे ज्ञान की सहायक भर होती हैं, पर्यायवाची नहीं। वास्तविक ज्ञान वही है जो मन के लिये अगोचर है- मन जिसका मात्र आभास ही पा सकता है- वह तो और भी गहरे आत्मा में विराजमान होता है। इसीलिये उपनिषदकार कहता है-
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥ ११/ ईशावास्योपनिषद्
अर्थात् ‘‘विद्या और अविद्या (विद्या और शिक्षा) दोनों को एक साथ जानो। इनमें से अविद्या (शिक्षा) द्वारा मृत्यु को पार करके विद्या द्वारा अमरत्व की प्राप्ति की जा सकती है।’’
यहाँ विद्या को ज्ञान का तत्व एवं अविद्या को कर्म का तत्व भी कहा गया है। कर्मों के अनुष्ठान से साधक मृत्यु को पार करके ज्ञान के अनुष्ठान द्वारा अमृत को- परब्रह्म पुरुषोत्तम को प्रत्यक्ष प्राप्त कर लेता है।
ज्ञान प्राप्ति का मार्ग
अब प्रश्र यह उठता है कि यह ज्ञान प्राप्त कैसे किया जाय, क्योंकि परम सत्ता का- परम सत्य का यह ज्ञान (ज्ञानं) हममें से प्रत्येक के लिये अत्यन्त महत्व का है। यह ज्ञान केवल ऐसा गुरु ही दे सकता है जो आचार्य की तरह जीवन जी रहा हो- स्वयं उस ज्ञान को आचरण में उतार रहा हो। यदि शिष्य भाव से इस गुरुः के साथ तालमेल स्थापित कर हम ज्ञान चक्षु जगा सकें व जान सकें कि वह कैसे इस नित्य परिवर्त्तनशील संसार में रहता है, अनुभव करता है, कर्म करता है तो हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है। गीताकार कहता है- पहले इस ज्ञान को प्राप्त करने हेतु तत्वदर्शी ज्ञानियों से दीक्षा लेनी होगी। उनसे नहीं जो तत्वज्ञान को केवल बुद्धि से जानते हैं बल्कि उन ज्ञानियों से जिनने इसके मूल सत्य को प्रत्यक्ष देखा है (ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः)। यह बात भगवान् श्रीकृष्ण अगले श्लोक (३४ वें) में कहते हैं।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्रेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥ ४/३४
अर्थात्- ‘‘ उस ज्ञान को तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत- प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्र करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश देंगे।’’
योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ज्ञानप्राप्ति का राजमार्ग यह है। वह अर्जुन से कहते हैं कि यह ज्ञान वहाँ मिलेगा जहाँ ज्ञानाग्रि जल रही होगी। कबीरदास जी की भाषा में यदि हम समझ सकें तो पढ़े लिखे शिक्षित- विद्वान पण्डित नहीं है बल्कि वे हैं जिनने वैसा जीवन जिया है- प्रेम को जीवन में आत्मसात किया है। हर श्वास में जिनने परमात्मा को जिया है। कबीर अनपढ़ थे, रज्जब- रैदास अनपढ़ थे पर इन लोगों ने वह जीवन जिया है, जिसकी ओर भगवान श्रीकृष्ण संकेत कर गए हैं। अंतर्ज्ञान अक्षर ज्ञान का मोहताज नहीं है। जिस ज्ञान की अग्रि में सभी कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं, उस ज्ञान को पाना है तो उन परमात्मा के गुणों से युक्त आचार्यों- गुरु के पास जाकर उन्हें तत्वरूप में समझना चाहिए, अपना अहं भूलकर उन्हें दण्डवत प्रणाम कर अपने कपट के भाव को एक तरफ रखकर जिज्ञासा प्रकट कर ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए। कई लोग ज्ञान की परीक्षा लेने- महात्माओं के प्रति आदरभाव न रख कपट भाव से प्रश्र पूछने जाते हैं। उनसे इस भाव से नहीं, निष्कपट भाव से- सेवाभाव से प्रश्र पूछने से, ज्ञान की जिज्ञासा प्रकट करने से निश्चित ही वह ज्ञान उपलब्ध होगा जो आत्मसत्ता को सूर्यवत प्रकाशित करेगा। सेवा करने का मतलब हाथ- पाँव दबाना नहीं- शरीर की मालिश करना नहीं, अपितु उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्यों को आगे बढ़ाकर- उनके निर्देशानुसार अपना जीवन समर्पित करने से है। यह ज्ञान इससे कम में किसी महापुरुष से- उनके सद्ग्रन्थों से प्राप्त नहीं होगा। यदि हम सुपात्र हैं तो हमें निश्चित ही वह ज्ञान मिलेगा। पात्रता के विकास के अनुसार ही हमें परखा जाता है विद्वत्जनों द्वारा। जब वे हमारी जिज्ञासा का उत्तर दें तो हमारी अभीप्सा बढ़नी चाहिए- और अधिक बढ़ जानी चाहिए भगवान् को पाने की। उसी अनुपात में हमारी विनम्रता पूर्वक की गयी सेवा- हमारी निष्ठा और बढ़नी चाहिए। गुरुजनों ने भाँति- भाँति की परीक्षाएँ ली हैं अपने शिष्यों को ज्ञान देने के पूर्व। शिवाजी की परीक्षा ली गयी समर्थ रामदास द्वारा। सिंहनी का दूध मंगाकर अपनी योगमाया से रची हुई सिंहनी का दूध उनने माँगा और शिवाजी उसे लेकर आए- सुपात्र बनकर सेवा भाव से, तब ही वे भवानी तलवार को पाने के गुरु का अनुग्रह प्राप्त करने के अधिकारी बन सके। गुर्जिएफ अपने शिष्यों को गाली देते थे।
खूब डाँट लगाते थे। एक शिष्य ऑस्पेंस्की उन्हीं में से निकला जो सब कुछ सहन करते हुए उनसे सेवाभाव से प्राप्त कर सका। महर्षि दयानंद जी को विरजानन्दजी चिमटे से मारते थे, बड़ी कड़ाई से पेश आते थे तभी एक प्रखर योद्धा- पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराने वाला आर्य समाज का संस्थापक जन्मा। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु का अतिशय प्रेम पाया पर सारी शक्ति को धारण करने के बाद जो जीवन जिया उसने सारे शरीर को सुखा डाला। १८८६- ८७ में शक्तिपात पाने वाला यह युवा सन्यासी मात्र पंद्रह वर्ष और जी सका- चैन से कभी सो न सका, गुरु के कार्यों को विश्व भर में पहुँचाकर अत्यल्प आयु में कष्ट सहता हुआ शरीर छोड़कर चला गया। पात्रता विकसित करने के लिये सब कुछ क्योंकि देना पड़ता है तब गुरु, विद्वान, आचार्य, पण्डितगण भी अपने को खाली कर देते हैं।
बड़ी विलक्षण बात है। गीताकार यहाँ इस चौतीसवें श्लोक में कहते हैं कि यह ज्ञान तो उनसे मिलेगा जिनने इसके मूल सत्य को प्रत्यक्ष देखा है- (ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः) परंतु इसी के चार श्लोक बाद अड़तीसवें में कह जाते हैं- ‘‘योग के द्वारा संसिद्धि’’ को प्राप्त मनुष्य उसको अपने आप ही यथासमय अपनी आत्मा में पाता है (तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेन आत्मनि विन्दति)।’’ तो फिर सत्य क्या है? दोनों ही सत्य हैं। यह ज्ञान शिष्य भाव से प्रयास करने वाले हर उस मनुष्य में संवर्धित होता रहता है और ज्यों- ज्यों वह निष्कपट भाव से अपनी भगवद् भक्ति में गहराई बढ़ाता जाता है, त्यों- त्यों ज्ञान भी बढ़ता चला जाता है।