Books - युगगीता - (भाग-२)
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हर श्वास में संपादित दिव्य कर्म ही हैं यज्ञ
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यज्ञाग्रि ही ब्रह्माग्रि
भगवान् श्रीकृष्ण यज्ञ की अग्रि को भौतिक अग्रि नहीं मानते अपितु, यह ब्रह्माग्रि है- ब्रह्म की ओर जाने वाली ऊर्जा है ऐसा कहते हैं। यज्ञ पुरोहित के रूप में अंतः में विराजमान वह दिव्यशक्ति है जिसमें आहुति दी जाती है। जिस प्रकार वेदों की भाषा रूपकों की भाषा है, ठीक उसी प्रकार गीतारूपी उपनिषदामृत की भाषा भी उसी तरह की है। भगवान् के शब्दों में अग्रि आत्मसंयम रूप भी हो सकती है अथवा आत्मार्पण रूपी यज्ञ की अग्रि शिखा भी। यज्ञ का यह विस्तृत विवरण ही यज्ञ की एक ऐसी विशाल और व्यापक व्याख्या तक हमें ले जाता है, जिसमें स्पष्ट रूप से यह घोषणा की गयी है कि यज्ञ की क्रिया, यज्ञ की अग्रि, यज्ञ की हवि, यज्ञ का होता, यज्ञ का भोक्ता, यज्ञ का ध्येय, यज्ञ का उद्देश्य सब कुछ वह ब्रह्म ही है। (चौबीसवें श्लोक का भावार्थ)। इस श्लोक के माध्यम से हमें जो ज्ञान मिलता है उसी से युक्त होने पर मुक्त पुरुष यज्ञ कर्म कर पाता है। सोऽहं, सर्वं खिल्विदं ब्रह्म, सच्चिदानन्दोऽहम्, ब्रह्म एव पुरुषः जैसे वेदान्त के महावाक्यों द्वारा इसी ज्ञान की घोषणा ऋषिगण करते रहे हैं। यह ज्ञान समग्र एकत्व का ज्ञान है। जिस विश्वशक्ति में निज के कर्मों की आहुति दी जाती है, वह स्वयं भगवान् हैं, आहुति की उत्सर्ग की हुई शक्ति भी भगवान् है, जिस वस्तु की आहुति दी जाती है, वह भी भगवान् का ही कोई रूप है, होता भी वास्तव में मनुष्य के अंदर के स्वयं भगवान् ही हैं। क्रिया, कर्म, यज्ञ सभी गतिशील भगवत सत्ता का ही रूप हैं। जिस साधक को- लोकसेवी को यह ज्ञान होता है, उसके लिये कर्म कभी बंधन का कारण नहीं बन सकते। उसका कोई भी कर्म अपना व्यक्तिगत या अहंयुक्त नहीं हुआ करता।
परम सत्ता से संचालित इस जगत् में जीव का कर्म करने का लक्ष्य यही होना चाहिए। भगवान् के साथ एक होकर, भगवान् की स्थिति और चेतना के ज्ञान को प्राप्त करना- अपना उन पर अधिकार स्थापित करना यही ध्येय होना चाहिए। जो इस तत्त्वज्ञान को जान लेता है- इसी चैतन्य भाव में सदैव विराजमान होता है वह मुक्त हो जाता है। पर भगवान् कहते हैं कि संभव है कि सभी योगी अथवा साधक इस ज्ञान तक नहीं पहुँच पाएँ। इसीलिये वे अगले श्लोक में कहते हैं --
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्रावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥ ४/२५
अर्थात् ‘‘अन्य योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और दूसरे अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मा रूपी अग्रि में अभेददर्शन रूप यज्ञ के द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते है।’’
बारह भिन्न प्रकार के यज्ञ
यहाँ जो आत्मरूपयज्ञ की बात कही गयी है, उससे गीताकार का आशय है- ‘‘परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होकर ब्रह्मरूप अग्रि में यजन करना’’। इस श्लोक में भगवान् यह कह रहे हैं कि इन्द्रादि देवताओं को उद्देश्य विशेष के साथ अनुष्ठित होकर दैवयज्ञ किए जाते हैं। ब्रह्माग्रि में जीवात्मा की आहुति देने को ज्ञानयज्ञ कहते हैं। ब्रह्मरूपी अग्रि में जीवात्मा की आहुति देकर जीवात्मा और परमात्मा की एकत्व भावना से होम संपादित करना श्रेष्ठतम जन प्रक्रिया है। यज्ञ शब्द को गीताकार ने परम्परागत रूढ़िवादी अर्थों से मुक्त करके विस्तृत- विराट् अर्थों में प्रयुक्त किया है। इसी तथ्य को हम यहाँ से इकत्तीसवें श्लोक तक देखते हैं। भगवान् यहाँ बारह विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हैं व उनका मर्म समझाते हैं।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्रिषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्रिषु जुह्वति॥ ४/२६
अर्थात् अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयमरूपी अग्रि में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रियरूपी अग्रियों में हवन करते हैं।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्रौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥ ४/२७
अर्थात् ‘‘अन्य योगीजन इन्द्रियों की संपूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम रूप अग्रि में हवन किया करते हैं। अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का भी चिन्तन करना ही इन सब क्रियाओं का हवन करना है।’’
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥ ४/२२
अर्थात् ‘‘कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्यारूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसा आदि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त साधक स्वाध्याय रूपी ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं।’’
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायाम परायणाः॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥ ४/२९- ३०
अर्थात्- ‘‘दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायु में प्राण वायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणोंको प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों का मर्म समझने वाले हैं। ’’
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥ ४/३१
अर्थात्- ‘‘हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन। यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिये तो यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?’’
अब तनिक उपरोक्त छह श्लोकों पर दृष्टि डालें। इनमें २६ वें सहित तीसवें श्लोक तक यज्ञ के बारह स्वरूपों का वर्णन है तो गीताकार ने अंतिम ३१ वें श्लोक में यज्ञ का माहात्म्य बता दिया है। इसके बाद भी वह माहात्म्य की चर्चा करते हुए ज्ञानयज्ञ की महिमा एवं ज्ञान को क्यों व किस प्रकार एक दिव्यकर्मी के द्वारा धारण किया जाय, इसे समझाते हुए अंततः अर्जुन की काफी कुछ भ्रान्तियाँ निर्मूल करने में समर्थ हो जाते हैं।
साधक अपने जीवन को यज्ञमय बनालें, इसके लिए श्रीकृष्ण बारह विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हैं। इन सभी का संबंध व्यक्ति की आंतरिक क्रियाओं तथा बहिरंग संबंधों से हैं। इससे मनुष्यमात्र का सारा जीवन यज्ञमय बन जाता है- अनन्त रूप में संव्याप्त प्रभु की निरन्तर पूजा में बदल जाता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा बताये गये बारह प्रकार के यज्ञ इस प्रकार हैं। एक सूची से हमें सब समझ में आ जाएगा।
(१) देवताओं का पूजन- यज्ञानुष्ठान
(२) ब्रह्मरूपी अग्रि में जीवात्मा की आहुति देकर एकत्व भावना से होम।
(३) इंद्रियों का संयमाग्रि में हवन
(४) इंद्रियाग्रि में विषयों का हवन
(५) समस्त इंद्रियकर्मों- प्राणकर्मों का ज्ञानदीप्त आत्मसंयम योगरूपी अग्रि में हवन।
(६) द्रव्य यज्ञ
(७) तपोयज्ञ
(८) योगयज्ञ
(९) स्वाध्याय यज्ञ
(१०) अपान में प्राणवायु का यजन
(११) प्राण का अपान वायु में यजन
(१२) प्राणों का प्राणों में यजन
उद्देश्य अनन्त से तादात्म्य
उपरोक्त सभी का उद्देश्य एक ही है- साधक की शुद्धि। परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु तैयारी। इन यज्ञों का स्वरूप सामान्य पाठकों को समझने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है। थोड़ा सरलीकरण करें तो यज्ञों का गूढ़ अर्थ भलीभाँति हृदयंगम हो सकता है। भगवान् यहाँ यज्ञों का मर्म बताते हुए कहते हैं कि इनके प्रकार कुछ भी हों हमें तीन लक्ष्य मानते हुए यज्ञ करना चाहिए। पहला ऊर्ध्वगामिता- हमारे विचार ईश्वरोन्मुख हों, दूसरा कषाय कल्मषों का परिशोधन- अशुद्धियों का निवारण एवं तीसरा अनन्त के प्रति तादात्म्य भाव का विकास। हमारे विचार- हमारा चिंतन सदैव विधेयात्मक उत्कृष्टता वादी होना चाहिए। लोकहितार्थाय जीवन जीने के लिये जो महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है- अंतः की पवित्रता, उसे अर्जित करना एवं अनंत के प्रति इतना नजदीकीपन विकसित कर लेना कि दोनों में कोई अंतर न रहे। एक पाश्चात्य लेखक ने ‘‘ट्यूनिंग विथ इन्फीनीटी’’ पुस्तक में लिखा है कि अनन्त के साथ एकाकार होने का हिन्दुओं का जो श्रेष्ठतम तरीका है यज्ञ, उसके समकक्ष किसी भी धर्म- संप्रदाय में कोई भी विधि विधान देखने में नहीं आता। विद्वान लेखक जो स्वयं क्रिश्चियन धर्म को जीवन में उतारता था, नित्ययज्ञ करता था एवं सभी को उसने इनका महत्व समझाया था। यज्ञ जब ‘‘इदं न मम्’’ के भाव से किये जाते हैं तो हमारे कर्म हमारे न होकर अनंत के- प्रभु के हो जाते हैं एवं अकर्म बन जाते हैं। यज्ञ का अर्थ मात्र ज्योति प्रज्ज्वलित कर द्रव्यों आदि का हवन नहीं है, अपितु यज्ञ एक विराट् अर्थ में जीवनयज्ञ है। जो भी मेरे कर्म हों, मेरे क्षुद्र अहं के लिये नहीं, अनन्त से तादात्म्य स्थापित करने के लिये हों।
भगवान् बारह प्रकार के यज्ञों की चर्चा करके मानव मात्र की विविध प्रकृति के लिये तरह- तरह की परमसत्ता तक पहुँचने की विधियाँ भी बता देते हैं। वे कहते हैं कि कुछ योगी देवताओं की प्रीति के लिये यज्ञ करते हैं। देव यज्ञ अर्थात देवशक्तियों रूपी ट्रांसफार्मर के माध्यम से परमात्मा रूपी पॉवर हॉऊस तक पहुँचना। देवशक्तियों को तृप्त करके परमात्म चेतना से संबंध स्थापित करना। दैवयज्ञ करने वाले भगवान् की परिकल्पना उनके विविध रूपों और शक्तियों में करते हैं। वे आगे कहते हैं कि कुछ आत्मनियंत्रण और आत्मसंयमरूपी आंतरिक यज्ञ करते हैं जिससे एकत्वभाव प्राप्त हो- उच्चतर आत्मज्ञान की प्राप्ति हो। (१,२)। कुछ योगी इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण तो करते हैं पर उस इन्द्रिय व्यापार से मन को क्षुब्ध नहीं होने देते, मन पर उनका कोई असर नहीं पड़ने देते, इन्द्रियों को ही विशुद्ध यज्ञाग्रि बना लेते हैं (३,४,५)। यह एक साधना है जिनमें इन्द्रियों को इतना स्तब्ध कर दिया जाता है कि अंतरात्मा अपने विशुद्ध शांतरूप में मन से बाहर निकलकर स्वतः ही प्रकट हो जाती है।
सिद्धि का साधक योगी अपनी आहुति द्रव्यमय भी दे सकता है। द्रव्यमय अर्थात् चेरिटी- दान के निमित्त पारमार्थिक भाव से किये गये कार्य। धर्मशाला बना देना, गौशाला खड़ी करना, नेत्रदान यज्ञ, पीड़ा निवारण के सभी कार्य, अविद्या को मिटाने के लिये पतन को मिटाने के लिये किये गये परमार्थ भाव से संपन्न कार्य द्रव्य यज्ञ में आते हैं। कोई इस शब्द से भ्रमित न हो कि फलाना फलाना द्रव्य डालना, उसी से आहुति करना द्रव्ययज्ञ कहलाता है(६)। यह यज्ञ भगवान् के अनुसार तपोयज्ञ भी हो सकता है अर्थात् आत्म संयम का वह तप जो किसी महत्तर उद्देश्य के लिये किया जाय। संयमी साधक चेतना का परिशोधन कर परमात्मा की विराट चेतना को अपने व्यक्तित्व के माध्यम से झरने देता है- यही तपोयज्ञ कहलाता है। (७)। इसके अतिरिक्त यह योगयज्ञ भी हो सकता है- योग व तप में अंतर भगवान ने छठे अध्याय के अंतिम श्लोक में ‘‘तपस्विभ्योऽधिको योगी......’’ नामक श्लोक में सूक्ष्मतम ढंग से समझाया है। दूसरा अर्थ है- योगाग्रि में कर्म संस्कारों का दहन। श्रेष्ठ योगी साधक न केवल अपने कर्मों को, स्वयं को भी योगाग्रि में भस्म कर ब्रह्मलोक की प्राप्ति करते हैं। शबरी ने भगवान् राम से मिलन एवं ज्ञान की प्राप्ति के बाद अपने आपको योगाग्रि से युक्तकर परम चेतना से तादात्म्य कर लिया था। भगवान शिव की पत्नी दक्षपुत्री सती का योगाग्रि में भस्म होना तो विख्यात है ही। शरीर से बड़ी बात है जीवित रहते अपनी कर्मवासनाओं- संस्कारों को योगी बनकर भस्मीभूत कर देना। योग का पहला काम है व्यक्ति को अंतर्मुखी कर देना। इन्द्रियों को मन की ओर मोड़ना। संयम की अग्रि में हवन करना। संयम दमन का नाम नहीं है। संयम का अर्थ है पूरे होशोहवास में किये गये कर्म। पूरे होश में रहकर मन को चंचलता की ओर से अंदर की ओर मोड़ना। (८)। भगवान् आगे स्वाध्याय की- स्व के प्रशिक्षण व अध्यापन की क्रिया को भी यज्ञ बताते हैं (९) तथा अंत में कहते हैं कि यह राजयोगी एवं हठयोगीगणों द्वारा किये गये प्राणायाम प्रधान व अन्य प्रकार के योग यज्ञ भी हो सकते हैं। (१०,११,१२)
समझें, यज्ञ का मर्म : परमरहस्य
अब उपरोक्त यज्ञों के विस्तार को समझकर योगेश्वर की मूलशिक्षा को समझा जाय। भगवान् कहते हैं कि विषयों का हवन इन्द्रियों में कीजिये, इन्द्रियों का मन में तथा मन का चित्त में। चित्त का हवन अहं में कीजिये तथा अहं का हवन आत्मा में कीजिये। शुद्ध निरंजन- शुद्ध बुद्धि आत्मा में इस प्रकार हवन होते ही अशुद्धियाँ जलने लगती हैं, ऊर्ध्वगमन होने लगता है तथा अनंत से तादात्म्य की परिस्थितियाँ बन जाती हैं। भगवान कहते हैं (तीसवें श्लोक में) कि इस प्रकार यज्ञ का मर्म समझ लेने वाले सभी साधक यज्ञों द्वारा पाप का नाश कर देने वाले और यज्ञों के मर्म को जानने वाले होते हैं। (यज्ञ क्षपित कल्मषाः)। हम सभी यज्ञ करते तो हैं पर यज्ञ को मानते नहीं हैं। मानते हैं तो समझते नहीं। बहिरंग की क्रिया को ही सब कुछ मानकर चलते हैं तो हाथ कुछ नहीं लगता। यज्ञ का ज्ञान- विज्ञान समझे बिना, उनके ज्ञानयज्ञ वाले मर्म को समझे बिना किया गया यजन तो मात्र अग्रिहोत्र की बहिरंग प्रधान प्रक्रिया है, जबकि यज्ञ हर श्वास में- जीवन की हर क्रिया में- हर विचार में संपादित किया जाने वाला एक दिव्यकर्म हैं। भगवान् इसके पूर्व यज्ञ से ही स्रष्टि के उत्पन्न होने की बात तीसरे अध्याय में (३/१० तथा ११ से १५ तक) विस्तार से कर चुके हैं। शास्त्र कहता है ‘‘यज्ञो वै श्रेष्ठ तम कर्म’’ यज्ञ श्रेष्ठतम स्तर पर किये जाने वाले कार्य ही हैं (शतपथ ब्राह्मण)। परम पूज्य गुरुदेव ने ‘‘यज्ञ’’ की सही अर्थों में पुर्नप्रतिष्ठा की। यज्ञ मात्र कर्मकाण्ड तक- कुछ प्रतिष्ठित समृद्धि संपन्न व्यक्तियों तक सकाम यज्ञ करने वालों तक सीमित होकर रह गए थे।
उनने इन्हें जन- जन के लिये- प्रत्येक की क्षमता- योग्यतानुसार सुलभ बना दिया। दान, देवपूजन, संगतिकरण की (यज धातु के तीन अर्थ) उनने युगानुकूल व्याख्या की एवं जन- जन की यज्ञीय वृत्ति को जगा दिया। यज्ञों की परम्परा को पुनर्जीवित किया एवं पूरे युग को यज्ञमय कर सतयुग की वापसी की प्रक्रिया को गति दी। पुरुष सूक्त कहता है कि उस सर्वहुत यज्ञ से ही चारों वेद जन्मे- उन्हीं का विस्तार ज्ञान में- वैदिक सम्पदा के सब तक पहुँचने के रूप में हुआ। परम पूज्य गुरुदेव का जीवन यज्ञमय रहा। वे इसमें जीवन भर एक समिधा बनकर जले एवं तिलतिलकर अपने कण- कण की आहुति देकर एक दिव्यकर्मी को कैसा होना चाहिए, उसका शिक्षण दे गए। हम उनके जीवन से यही शिक्षण लें, स्वयं के जीवन को भी यज्ञमय बना सकें, यही प्रेरणा सतत हमें मिलती रहनी चाहिए। शांतिकुञ्ज के ‘‘उद्गाताओं’’ द्वारा एक बड़ा सुंदर गीत गाया जाता है- ‘‘हे प्रभु! जीवन हमारा यज्ञमय कर दीजिए।’’ यदि इस गीत के मर्म को जीवन में उतारा जा सके तो सभी का जीवन सही अर्थों में दिव्य बन सकता है। यज्ञीय वृत्ति अर्थात् निम्रगामी प्रकृति की क्रियाओं को अपने अधीन करके उस दिव्य आनन्द का रसास्वादन किया जाय जो यज्ञ से- आत्मबलिदान से, श्रेष्ठ उद्देश्यों पर न्यौछावर होने से प्राप्त होता है।
भगवान् श्रीकृष्ण यज्ञ की अग्रि को भौतिक अग्रि नहीं मानते अपितु, यह ब्रह्माग्रि है- ब्रह्म की ओर जाने वाली ऊर्जा है ऐसा कहते हैं। यज्ञ पुरोहित के रूप में अंतः में विराजमान वह दिव्यशक्ति है जिसमें आहुति दी जाती है। जिस प्रकार वेदों की भाषा रूपकों की भाषा है, ठीक उसी प्रकार गीतारूपी उपनिषदामृत की भाषा भी उसी तरह की है। भगवान् के शब्दों में अग्रि आत्मसंयम रूप भी हो सकती है अथवा आत्मार्पण रूपी यज्ञ की अग्रि शिखा भी। यज्ञ का यह विस्तृत विवरण ही यज्ञ की एक ऐसी विशाल और व्यापक व्याख्या तक हमें ले जाता है, जिसमें स्पष्ट रूप से यह घोषणा की गयी है कि यज्ञ की क्रिया, यज्ञ की अग्रि, यज्ञ की हवि, यज्ञ का होता, यज्ञ का भोक्ता, यज्ञ का ध्येय, यज्ञ का उद्देश्य सब कुछ वह ब्रह्म ही है। (चौबीसवें श्लोक का भावार्थ)। इस श्लोक के माध्यम से हमें जो ज्ञान मिलता है उसी से युक्त होने पर मुक्त पुरुष यज्ञ कर्म कर पाता है। सोऽहं, सर्वं खिल्विदं ब्रह्म, सच्चिदानन्दोऽहम्, ब्रह्म एव पुरुषः जैसे वेदान्त के महावाक्यों द्वारा इसी ज्ञान की घोषणा ऋषिगण करते रहे हैं। यह ज्ञान समग्र एकत्व का ज्ञान है। जिस विश्वशक्ति में निज के कर्मों की आहुति दी जाती है, वह स्वयं भगवान् हैं, आहुति की उत्सर्ग की हुई शक्ति भी भगवान् है, जिस वस्तु की आहुति दी जाती है, वह भी भगवान् का ही कोई रूप है, होता भी वास्तव में मनुष्य के अंदर के स्वयं भगवान् ही हैं। क्रिया, कर्म, यज्ञ सभी गतिशील भगवत सत्ता का ही रूप हैं। जिस साधक को- लोकसेवी को यह ज्ञान होता है, उसके लिये कर्म कभी बंधन का कारण नहीं बन सकते। उसका कोई भी कर्म अपना व्यक्तिगत या अहंयुक्त नहीं हुआ करता।
परम सत्ता से संचालित इस जगत् में जीव का कर्म करने का लक्ष्य यही होना चाहिए। भगवान् के साथ एक होकर, भगवान् की स्थिति और चेतना के ज्ञान को प्राप्त करना- अपना उन पर अधिकार स्थापित करना यही ध्येय होना चाहिए। जो इस तत्त्वज्ञान को जान लेता है- इसी चैतन्य भाव में सदैव विराजमान होता है वह मुक्त हो जाता है। पर भगवान् कहते हैं कि संभव है कि सभी योगी अथवा साधक इस ज्ञान तक नहीं पहुँच पाएँ। इसीलिये वे अगले श्लोक में कहते हैं --
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्रावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥ ४/२५
अर्थात् ‘‘अन्य योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और दूसरे अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मा रूपी अग्रि में अभेददर्शन रूप यज्ञ के द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते है।’’
बारह भिन्न प्रकार के यज्ञ
यहाँ जो आत्मरूपयज्ञ की बात कही गयी है, उससे गीताकार का आशय है- ‘‘परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होकर ब्रह्मरूप अग्रि में यजन करना’’। इस श्लोक में भगवान् यह कह रहे हैं कि इन्द्रादि देवताओं को उद्देश्य विशेष के साथ अनुष्ठित होकर दैवयज्ञ किए जाते हैं। ब्रह्माग्रि में जीवात्मा की आहुति देने को ज्ञानयज्ञ कहते हैं। ब्रह्मरूपी अग्रि में जीवात्मा की आहुति देकर जीवात्मा और परमात्मा की एकत्व भावना से होम संपादित करना श्रेष्ठतम जन प्रक्रिया है। यज्ञ शब्द को गीताकार ने परम्परागत रूढ़िवादी अर्थों से मुक्त करके विस्तृत- विराट् अर्थों में प्रयुक्त किया है। इसी तथ्य को हम यहाँ से इकत्तीसवें श्लोक तक देखते हैं। भगवान् यहाँ बारह विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हैं व उनका मर्म समझाते हैं।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्रिषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्रिषु जुह्वति॥ ४/२६
अर्थात् अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयमरूपी अग्रि में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रियरूपी अग्रियों में हवन करते हैं।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्रौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥ ४/२७
अर्थात् ‘‘अन्य योगीजन इन्द्रियों की संपूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम रूप अग्रि में हवन किया करते हैं। अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का भी चिन्तन करना ही इन सब क्रियाओं का हवन करना है।’’
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥ ४/२२
अर्थात् ‘‘कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्यारूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसा आदि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त साधक स्वाध्याय रूपी ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं।’’
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायाम परायणाः॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥ ४/२९- ३०
अर्थात्- ‘‘दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायु में प्राण वायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणोंको प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों का मर्म समझने वाले हैं। ’’
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥ ४/३१
अर्थात्- ‘‘हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन। यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिये तो यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?’’
अब तनिक उपरोक्त छह श्लोकों पर दृष्टि डालें। इनमें २६ वें सहित तीसवें श्लोक तक यज्ञ के बारह स्वरूपों का वर्णन है तो गीताकार ने अंतिम ३१ वें श्लोक में यज्ञ का माहात्म्य बता दिया है। इसके बाद भी वह माहात्म्य की चर्चा करते हुए ज्ञानयज्ञ की महिमा एवं ज्ञान को क्यों व किस प्रकार एक दिव्यकर्मी के द्वारा धारण किया जाय, इसे समझाते हुए अंततः अर्जुन की काफी कुछ भ्रान्तियाँ निर्मूल करने में समर्थ हो जाते हैं।
साधक अपने जीवन को यज्ञमय बनालें, इसके लिए श्रीकृष्ण बारह विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हैं। इन सभी का संबंध व्यक्ति की आंतरिक क्रियाओं तथा बहिरंग संबंधों से हैं। इससे मनुष्यमात्र का सारा जीवन यज्ञमय बन जाता है- अनन्त रूप में संव्याप्त प्रभु की निरन्तर पूजा में बदल जाता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा बताये गये बारह प्रकार के यज्ञ इस प्रकार हैं। एक सूची से हमें सब समझ में आ जाएगा।
(१) देवताओं का पूजन- यज्ञानुष्ठान
(२) ब्रह्मरूपी अग्रि में जीवात्मा की आहुति देकर एकत्व भावना से होम।
(३) इंद्रियों का संयमाग्रि में हवन
(४) इंद्रियाग्रि में विषयों का हवन
(५) समस्त इंद्रियकर्मों- प्राणकर्मों का ज्ञानदीप्त आत्मसंयम योगरूपी अग्रि में हवन।
(६) द्रव्य यज्ञ
(७) तपोयज्ञ
(८) योगयज्ञ
(९) स्वाध्याय यज्ञ
(१०) अपान में प्राणवायु का यजन
(११) प्राण का अपान वायु में यजन
(१२) प्राणों का प्राणों में यजन
उद्देश्य अनन्त से तादात्म्य
उपरोक्त सभी का उद्देश्य एक ही है- साधक की शुद्धि। परम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु तैयारी। इन यज्ञों का स्वरूप सामान्य पाठकों को समझने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है। थोड़ा सरलीकरण करें तो यज्ञों का गूढ़ अर्थ भलीभाँति हृदयंगम हो सकता है। भगवान् यहाँ यज्ञों का मर्म बताते हुए कहते हैं कि इनके प्रकार कुछ भी हों हमें तीन लक्ष्य मानते हुए यज्ञ करना चाहिए। पहला ऊर्ध्वगामिता- हमारे विचार ईश्वरोन्मुख हों, दूसरा कषाय कल्मषों का परिशोधन- अशुद्धियों का निवारण एवं तीसरा अनन्त के प्रति तादात्म्य भाव का विकास। हमारे विचार- हमारा चिंतन सदैव विधेयात्मक उत्कृष्टता वादी होना चाहिए। लोकहितार्थाय जीवन जीने के लिये जो महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है- अंतः की पवित्रता, उसे अर्जित करना एवं अनंत के प्रति इतना नजदीकीपन विकसित कर लेना कि दोनों में कोई अंतर न रहे। एक पाश्चात्य लेखक ने ‘‘ट्यूनिंग विथ इन्फीनीटी’’ पुस्तक में लिखा है कि अनन्त के साथ एकाकार होने का हिन्दुओं का जो श्रेष्ठतम तरीका है यज्ञ, उसके समकक्ष किसी भी धर्म- संप्रदाय में कोई भी विधि विधान देखने में नहीं आता। विद्वान लेखक जो स्वयं क्रिश्चियन धर्म को जीवन में उतारता था, नित्ययज्ञ करता था एवं सभी को उसने इनका महत्व समझाया था। यज्ञ जब ‘‘इदं न मम्’’ के भाव से किये जाते हैं तो हमारे कर्म हमारे न होकर अनंत के- प्रभु के हो जाते हैं एवं अकर्म बन जाते हैं। यज्ञ का अर्थ मात्र ज्योति प्रज्ज्वलित कर द्रव्यों आदि का हवन नहीं है, अपितु यज्ञ एक विराट् अर्थ में जीवनयज्ञ है। जो भी मेरे कर्म हों, मेरे क्षुद्र अहं के लिये नहीं, अनन्त से तादात्म्य स्थापित करने के लिये हों।
भगवान् बारह प्रकार के यज्ञों की चर्चा करके मानव मात्र की विविध प्रकृति के लिये तरह- तरह की परमसत्ता तक पहुँचने की विधियाँ भी बता देते हैं। वे कहते हैं कि कुछ योगी देवताओं की प्रीति के लिये यज्ञ करते हैं। देव यज्ञ अर्थात देवशक्तियों रूपी ट्रांसफार्मर के माध्यम से परमात्मा रूपी पॉवर हॉऊस तक पहुँचना। देवशक्तियों को तृप्त करके परमात्म चेतना से संबंध स्थापित करना। दैवयज्ञ करने वाले भगवान् की परिकल्पना उनके विविध रूपों और शक्तियों में करते हैं। वे आगे कहते हैं कि कुछ आत्मनियंत्रण और आत्मसंयमरूपी आंतरिक यज्ञ करते हैं जिससे एकत्वभाव प्राप्त हो- उच्चतर आत्मज्ञान की प्राप्ति हो। (१,२)। कुछ योगी इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण तो करते हैं पर उस इन्द्रिय व्यापार से मन को क्षुब्ध नहीं होने देते, मन पर उनका कोई असर नहीं पड़ने देते, इन्द्रियों को ही विशुद्ध यज्ञाग्रि बना लेते हैं (३,४,५)। यह एक साधना है जिनमें इन्द्रियों को इतना स्तब्ध कर दिया जाता है कि अंतरात्मा अपने विशुद्ध शांतरूप में मन से बाहर निकलकर स्वतः ही प्रकट हो जाती है।
सिद्धि का साधक योगी अपनी आहुति द्रव्यमय भी दे सकता है। द्रव्यमय अर्थात् चेरिटी- दान के निमित्त पारमार्थिक भाव से किये गये कार्य। धर्मशाला बना देना, गौशाला खड़ी करना, नेत्रदान यज्ञ, पीड़ा निवारण के सभी कार्य, अविद्या को मिटाने के लिये पतन को मिटाने के लिये किये गये परमार्थ भाव से संपन्न कार्य द्रव्य यज्ञ में आते हैं। कोई इस शब्द से भ्रमित न हो कि फलाना फलाना द्रव्य डालना, उसी से आहुति करना द्रव्ययज्ञ कहलाता है(६)। यह यज्ञ भगवान् के अनुसार तपोयज्ञ भी हो सकता है अर्थात् आत्म संयम का वह तप जो किसी महत्तर उद्देश्य के लिये किया जाय। संयमी साधक चेतना का परिशोधन कर परमात्मा की विराट चेतना को अपने व्यक्तित्व के माध्यम से झरने देता है- यही तपोयज्ञ कहलाता है। (७)। इसके अतिरिक्त यह योगयज्ञ भी हो सकता है- योग व तप में अंतर भगवान ने छठे अध्याय के अंतिम श्लोक में ‘‘तपस्विभ्योऽधिको योगी......’’ नामक श्लोक में सूक्ष्मतम ढंग से समझाया है। दूसरा अर्थ है- योगाग्रि में कर्म संस्कारों का दहन। श्रेष्ठ योगी साधक न केवल अपने कर्मों को, स्वयं को भी योगाग्रि में भस्म कर ब्रह्मलोक की प्राप्ति करते हैं। शबरी ने भगवान् राम से मिलन एवं ज्ञान की प्राप्ति के बाद अपने आपको योगाग्रि से युक्तकर परम चेतना से तादात्म्य कर लिया था। भगवान शिव की पत्नी दक्षपुत्री सती का योगाग्रि में भस्म होना तो विख्यात है ही। शरीर से बड़ी बात है जीवित रहते अपनी कर्मवासनाओं- संस्कारों को योगी बनकर भस्मीभूत कर देना। योग का पहला काम है व्यक्ति को अंतर्मुखी कर देना। इन्द्रियों को मन की ओर मोड़ना। संयम की अग्रि में हवन करना। संयम दमन का नाम नहीं है। संयम का अर्थ है पूरे होशोहवास में किये गये कर्म। पूरे होश में रहकर मन को चंचलता की ओर से अंदर की ओर मोड़ना। (८)। भगवान् आगे स्वाध्याय की- स्व के प्रशिक्षण व अध्यापन की क्रिया को भी यज्ञ बताते हैं (९) तथा अंत में कहते हैं कि यह राजयोगी एवं हठयोगीगणों द्वारा किये गये प्राणायाम प्रधान व अन्य प्रकार के योग यज्ञ भी हो सकते हैं। (१०,११,१२)
समझें, यज्ञ का मर्म : परमरहस्य
अब उपरोक्त यज्ञों के विस्तार को समझकर योगेश्वर की मूलशिक्षा को समझा जाय। भगवान् कहते हैं कि विषयों का हवन इन्द्रियों में कीजिये, इन्द्रियों का मन में तथा मन का चित्त में। चित्त का हवन अहं में कीजिये तथा अहं का हवन आत्मा में कीजिये। शुद्ध निरंजन- शुद्ध बुद्धि आत्मा में इस प्रकार हवन होते ही अशुद्धियाँ जलने लगती हैं, ऊर्ध्वगमन होने लगता है तथा अनंत से तादात्म्य की परिस्थितियाँ बन जाती हैं। भगवान कहते हैं (तीसवें श्लोक में) कि इस प्रकार यज्ञ का मर्म समझ लेने वाले सभी साधक यज्ञों द्वारा पाप का नाश कर देने वाले और यज्ञों के मर्म को जानने वाले होते हैं। (यज्ञ क्षपित कल्मषाः)। हम सभी यज्ञ करते तो हैं पर यज्ञ को मानते नहीं हैं। मानते हैं तो समझते नहीं। बहिरंग की क्रिया को ही सब कुछ मानकर चलते हैं तो हाथ कुछ नहीं लगता। यज्ञ का ज्ञान- विज्ञान समझे बिना, उनके ज्ञानयज्ञ वाले मर्म को समझे बिना किया गया यजन तो मात्र अग्रिहोत्र की बहिरंग प्रधान प्रक्रिया है, जबकि यज्ञ हर श्वास में- जीवन की हर क्रिया में- हर विचार में संपादित किया जाने वाला एक दिव्यकर्म हैं। भगवान् इसके पूर्व यज्ञ से ही स्रष्टि के उत्पन्न होने की बात तीसरे अध्याय में (३/१० तथा ११ से १५ तक) विस्तार से कर चुके हैं। शास्त्र कहता है ‘‘यज्ञो वै श्रेष्ठ तम कर्म’’ यज्ञ श्रेष्ठतम स्तर पर किये जाने वाले कार्य ही हैं (शतपथ ब्राह्मण)। परम पूज्य गुरुदेव ने ‘‘यज्ञ’’ की सही अर्थों में पुर्नप्रतिष्ठा की। यज्ञ मात्र कर्मकाण्ड तक- कुछ प्रतिष्ठित समृद्धि संपन्न व्यक्तियों तक सकाम यज्ञ करने वालों तक सीमित होकर रह गए थे।
उनने इन्हें जन- जन के लिये- प्रत्येक की क्षमता- योग्यतानुसार सुलभ बना दिया। दान, देवपूजन, संगतिकरण की (यज धातु के तीन अर्थ) उनने युगानुकूल व्याख्या की एवं जन- जन की यज्ञीय वृत्ति को जगा दिया। यज्ञों की परम्परा को पुनर्जीवित किया एवं पूरे युग को यज्ञमय कर सतयुग की वापसी की प्रक्रिया को गति दी। पुरुष सूक्त कहता है कि उस सर्वहुत यज्ञ से ही चारों वेद जन्मे- उन्हीं का विस्तार ज्ञान में- वैदिक सम्पदा के सब तक पहुँचने के रूप में हुआ। परम पूज्य गुरुदेव का जीवन यज्ञमय रहा। वे इसमें जीवन भर एक समिधा बनकर जले एवं तिलतिलकर अपने कण- कण की आहुति देकर एक दिव्यकर्मी को कैसा होना चाहिए, उसका शिक्षण दे गए। हम उनके जीवन से यही शिक्षण लें, स्वयं के जीवन को भी यज्ञमय बना सकें, यही प्रेरणा सतत हमें मिलती रहनी चाहिए। शांतिकुञ्ज के ‘‘उद्गाताओं’’ द्वारा एक बड़ा सुंदर गीत गाया जाता है- ‘‘हे प्रभु! जीवन हमारा यज्ञमय कर दीजिए।’’ यदि इस गीत के मर्म को जीवन में उतारा जा सके तो सभी का जीवन सही अर्थों में दिव्य बन सकता है। यज्ञीय वृत्ति अर्थात् निम्रगामी प्रकृति की क्रियाओं को अपने अधीन करके उस दिव्य आनन्द का रसास्वादन किया जाय जो यज्ञ से- आत्मबलिदान से, श्रेष्ठ उद्देश्यों पर न्यौछावर होने से प्राप्त होता है।