Books - आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भौतिक क्षेत्र की सफलताएं योग्यता, पुरुषार्थ एवं साधनों पर निर्भर हैं। आमतौर से परिस्थितियां तदनुरूप ही बनती हैं। अपवाद तो कभी-कभी ही होते हैं। बिना योग्यता, बिना पुरुषार्थ एवं बिना साधनों के भी किसी को कारूं का गड़ा खजाना हाथ लग जाय, छप्पर फाड़कर नरसी के आंगन में हुण्डी बरसने लगे तो इसे कोई नियम नहीं, चमत्कार ही कहा जायगा। वैसी आशा लगाकर बैठे रहने वाले, सफलताओं का मूल्य चुकाने की आवश्यकता न समझने वाले व्यवहार जगत में सनकी माने और उपहासास्पद समझे जाते हैं। नियति-विधान का उल्लंघन करके, उचित मूल्य पर उचित वस्तुएं खरीदने की परम्परा को झुठलाने वाली पगडण्डियां ढूंढ़ने वाले पाने के स्थान पर खोते ही खोते रहते हैं। लम्बा मार्ग चलकर लक्ष्य तक पहुंचने की तैयारी करना ही बुद्धिमत्ता है, यथार्थवादिता इसी में है। बिना पंखों के कल्पना लोक में उड़ान उड़ने वाले बहिरंग जीवन में, व्यवहार क्षेत्र में कदाचित कभी कोई सफल हुए हों।
अध्यात्म-क्षेत्र सूक्ष्म, अदृश्य, अविज्ञान जैसा लगता भर है। वस्तुतः वह भी अपने स्थान पर भौतिक जगत की तरह सुस्थिर और सुव्यवस्थित है। आंखों से न दीख पड़ने पर भी उसकी सत्ता सन्देह से परे है। शरीर दीखता है, प्राण नहीं। प्राण की माप−तौल न तो इन्द्रिय शक्ति से हो सकती है और न किसी यंत्र-उपकरण से, फिर भी उसकी सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व भी ऐसा ही है, जिसका यांत्रिक पर्यवेक्षण नहीं हो सकता। इतने पर भी वह पुरातन की तरह आधुनिक निर्धारणों से ही अपने अस्तित्व का परिचय देता है। विचारों की इच्छा-शक्ति, साहस आदि अदृश्य प्रसंगों की विशिष्टता एवं परिणति से कोई इन्कार नहीं कर सकता। यह अदृश्य जगत के अनेकानेक प्रमाणों में से कुछ हैं। यह क्षेत्र अव्यवस्थित नहीं है। अणुओं और तरंगों से विनिर्मित पदार्थ जगत की तरह ही उसका भी सुनिश्चित और व्यापक अस्तित्व है, उसकी भी गति-विधियां चलती और प्रतिक्रियाएं होती हैं। अस्तु उसके भी अपने सुनिश्चित नियम, विधान और अनुशासन होने का तथ्य भी स्वीकारना होगा। अन्धेरगर्दी, अराजकता, मनमानी अदृश्य जगत में भी न चलती है और न टिकती-ठहरती है। अतः अदृश्य जगत् के सम्बन्ध में भी यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि वहां किसी नियम-अनुबन्ध की आशा नहीं है। ‘अंधेर नगरी बेबूझ राजा’ की युक्ति सुनी तो जाती है, पर देखी कहीं नहीं गई। हर क्षेत्र के अपने-अपने नियम, विधान, अनुशासन हैं। अध्यात्म क्षेत्र भी उसका अपवाद नहीं हो सकता। सृष्टा की इस समूची कृति में कहीं भी अव्यवस्था नहीं है। यहां तक कि भूकम्प-तूफान जैसी अप्रत्याशित यदा-कदा होने वाली घटनाएं भी प्रकृति के सुनिश्चित नियमों के अन्तर्गत ही होती हैं, भले ही उन्हें हम अभी पूरी तरह न समझ पाये हों।
अध्यात्म क्षेत्र का तत्वज्ञान, विधान, स्वरूप और प्रतिफल समझने वालों को इस तथ्य को हृदयंगम करना ही होगा कि इस क्षेत्र के सुनिश्चित निर्धारण और अनुशासन सृष्टा ने बनाये और सुरक्षित रखे हैं। उन्हीं को समझाने-अपनाने से काम चलेगा। अंधेरे में ढेला फेंकते रहने वाले अपना परिश्रम निरर्थक गंवाते हैं। निशाना साधने में सफलता उन्हें नहीं मिल पाती। अन्धविश्वासों और मूढ़-मान्यताओं के आधार पर तथ्यों को सही मान लेने की भ्रान्ति किसी भी विवेकशील को नहीं अपनानी चाहिए। आहार क्षेत्र में मसालों का प्रचलन, जलाने, भूनने का रिवाज सर्वत्र प्रचलित है। नमक और शक्कर के बिना ग्रास गले से उतरते ही नहीं, फिर भी नमक (सोडियम क्लोराइड) एक सीधा विष है और उसका प्रभाव आरोग्य के लिए विघातक हो सकता है—इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता है। सिगरेट, चाय से लेकर शराब तक के अनेकानेक नशे होठों से बुरी तरह सट गये हैं। लोक प्रचलन क्षेत्र में इनकी धूम है, फिर भी उनके औचित्य का समर्थन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता। सामाजिक क्षेत्र में रंगभेद, वर्णभेद, लिंगभेद आदि के नाम पर चलने वाली विषमता न जाने कब से चली आ रही है और न जाने कब तक चलती रहेगी। खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं—इसे कौन नहीं जानता, फिर भी यह कुप्रचलन शिक्षितों और अशिक्षितों को समान रूप से अपनाते हुए आये दिन दीखते हैं। ऐसी अनेकानेक मूढ़ मान्यताओं में एक यह भी है कि अदृश्य जगत का कोई विधान-अनुशासन नहीं है। उसमें कोई भी चमत्कार किसी भी विडम्बना के सहारे कुछ भी लाभ अर्जित कर सकने में समर्थ हो सकता है। इस भ्रांति ने अध्यात्म क्षेत्र में एक प्रकार की अराजकता उत्पन्न कर दी है। लोगों ने मनमानी कल्पनायें की हैं, मनमाने अर्थ लगाये हैं और मनमाने हथकण्डे अपनाये हैं। किसी को भी कुछ भी कर बैठने की छूट है। रस्सा किसी के हाथ पैरों से बंधा है, विचार खूंटे से कहीं और बंधे होते हैं। इस छूट के रहते हुए भी प्रतिफल के सम्बन्ध में सभी अनुशासन से बंधे हैं। करता कोई कुछ भी रहे, परिणाम के सम्बन्ध में नियति-व्यवस्था पर ही आश्रित रहना पड़ेगा। कुछ करने वाले को कुछ भी परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। सुनिश्चित परिणामों की आशा करने वालों को गणितीय सिद्धांत समझने ही नहीं अपनाने भी होंगे।
अध्यात्म क्षेत्र की आश्चर्यजनक, अवास्तविक और भयावह मान्यता यह है कि कुछ जन्त्र-मन्त्र की टन्ट-घन्ट करने से देवताओं को जाल में जकड़ा और मनमर्जी की मनोकामनायें पूरी करने के लिए विवश किया जा सकता है। इस भ्रम जाल ने मनुष्य जाति को बेतरह भटकाया है। ठोकरों पर ठोकर, असफलताओं पर असफलता प्राप्त करते रहने पर भी न जाने यह मान्यता क्यों नहीं हटती कि बिना मूल्य या कम मूल्य में उच्चस्तरीय सम्पदायें, सफलतायें प्राप्त कर सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। देवताओं का न जाने क्यों लोगों ने इतना हेय स्तर मान लिया है कि किसी की पात्रता, प्रामाणिकता परखे बिना मात्र पूजा उपचार के अथवा ऐसे ही गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने के बदले मांगे हुए वरदान बरसाने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। यदि वस्तुतः ऐसा होता तो उसे अदृश्य जगत की अराजकता, अन्धेरगर्दी के अतिरिक्त और क्या नाम दिया जाता। जहां पात्रता, पराक्रम की कोई आवश्यकता न समझी जाय, मात्र छलभरी मनुहार ही अपनाने भर से उल्लू सीधा होता रहे तो उसे क्या कहा और समझा जाय यह विज्ञजनों का विचारणीय विषय है।
पूजा की जादुई क्षमता, गिड़गिड़ाने भर से मनचाही सम्पदा किस आधार पर सही मानी जाती है इसका कोई तुक किसी भी प्रकार नहीं बैठता। देव प्रतिमाओं की दर्शन-झांकी करते फिरते और उन पर फल पत्ते चढ़ाने वाले न जाने उस नगण्य से क्रिया कौतुक के बदले क्या-क्या मनौती मांगते हैं। तथाकथित संत महात्माओं के दर्शन भर करने के लिए आतुर लोग तत्वदर्शन से सर्वथा अपरिचित प्रतीत होते हैं। वे आंखों से छवि देखने भर को ही दर्शन मान बैठे हैं और इतने भर से अपनी भक्ति-भावना का परिचय प्रस्तुत करते और मनचाहे वरदान पाने की अपेक्षा करते हैं। इस मान्यता के पीछे क्या सिद्धांत काम करता होगा यह खोज करना कठिन ही नहीं असम्भव भी है। दर्शन-झांकी करने भर से दैवी अनुग्रह बरसने लगे तो इसका अर्थ यह होगा कि आत्म परिष्कार, जीवन शोधन, तप साधन जैसे कष्ट साध्य प्रतिपादन करने और वैसा कराने के लिए कहने वाले नितान्त मूर्ख हैं। जो काम चुटकी बजाते बिना किसी श्रम-त्याग के, उथली विडम्बनायें अपनाने भर से पूरा हो सकता है उसके लिए कोई कष्ट साध्य रीति-नीति अपनाने के झंझट में क्यों पड़ेगा?
मनुहार करने भर से दैवी अनुकम्पा बरसने लगने की मान्यता बाल-बुद्धि की परिचायक है। लेने वाले के हिस्से में ही सारी चतुरता नहीं आई, कुछ तो परख देने वाले में भी होती है। अपनी सुयोग्य कन्या कोई किसी भी ऐरे-गैरे याचक के पल्ले बांधने और मांगने वालों की मनोकामना पूरी करने के लिए तैयार नहीं होता है? फिर दैवी अनुकम्पा का क्षेत्र ही क्यों ऐसा माना जाय कि वहां मांगने या पूजा-अर्चा की भोंड़ी लकीर पीट देने से ही मनमानी सफलता पाने का अधिकार मिल गया। यदि दैवी शक्तियां वस्तुतः ऐसे ही अनबूझ हों तो उन्हें भी विवेक शून्य कहा जायगा और अध्यात्म क्षेत्र में अनुशासनहीनता फैलाने, नियम मर्यादा समाप्त करने का दोषी ठहराया जायगा।
भौतिक जगत में सस्ते में बहुमूल्य पाने का नियम नहीं है। यहां सब कुछ प्रामाणिकता और पुरुषार्थ के आधार पर खरीदा जाता है। विज्ञजनों को अध्यात्म जगत में भी इसी विधान प्रचलन की आशा करनी चाहिए। जेबकटी, लूटमार अनैतिकों को और जादुई कौतुक बाल-बुद्धि को आकर्षित कर सकते हैं। विज्ञजन इसे अनुचित मानते और लाभ कम घाटा अधिक देखकर मुंह मोड़ लेते हैं। जिन्हें वस्तुतः अध्यात्म जगत का स्वरूप समझने में रुचि हो उन्हें उसके नियम-निर्धारणों को भी समझना चाहिए। विज्ञान ने यही किया है और श्रेय लिया है। पुरातन अध्यात्म का स्वरूप भी ऐसा ही था। उसमें तत्वदर्शन का महत्व समझा जाता था, ब्रह्म-विद्या के नीति-नियमों को अपनाया जाता था, अभीष्ट प्रगति के लिये तदनुरूप साधना का मूल्य चुकाया जाता था। आज तो सब कुछ उलटा ही उलटा दीखता है। भ्रम-जंजाल सघन अंधकार की तरह इतना गहन है कि हाथ को हाथ नहीं सूझता। लूटमार के लिए आतुर लोग अपने को भक्त कहते और भक्ति के प्रतिफल का दावेदार मानते हैं। मनोकामना पूर्ण न होने पर गाली देने से लेकर अश्रद्धा व्यक्त करने में उग्र रूप धारण करते देखे जाते हैं। प्रचलित मान्यताओं को क्या कहा जाय? उनके प्रचलन का क्या आधार खोजा जाय? और उन्हें अपनाने वालों को बुद्धिमान, अबुद्धिमान क्या कहा जाय? कुछ कहते नहीं बनता। समझ कुछ काम ही नहीं करती।
कौन क्या सोचता और क्या कहता या करता है? इस उलझन को सिर ओढ़ने की अपेक्षा उचित यही है कि हम तथ्यों को समझें और सुनिश्चित राजमार्ग पर चलें। उचित मूल्य चुकायें और बहुमूल्य सफलतायें पायें। इन हेय प्रचलित मान्यताओं का आश्रय लेने और महत्व देने से कुछ बनेगा नहीं। हमें तथ्यान्वेषी होना चाहिए और यथार्थ को अपनाने में अपनी स्वतन्त्र चेतना का अवलम्बन करना चाहिए। लोग क्या कहते और क्या करते हैं, इस जंजाल में उलझने का अर्थ अन्धी भेड़ों के पीछे चल पड़ना और अन्ततः अपने को भी उसी गर्त में गिरा कर वैसी ही दुर्गति करा लेना होगा। ऐसे प्रसंगों में स्वतंत्र निर्णय लेना और अपना पथ आप चुनना चाहिए। ऐसा साहस उभारने में कवीन्द्र रवीन्द्र का यह उद्बोधन अपनाये जाने योग्य है जिसमें उन्होंने भाव भरे स्वर में गाया था—‘एकला चलो रे।’
अध्यात्म तत्वज्ञान का प्रथम निर्धारण है—आत्मशोधन, आत्म–परिष्कार अर्थात् संचित मल, आवरण, विक्षेपों का, कषाय-कल्मषों का, संचित कुसंस्कारों का निराकरण, उन्मूलन। इसे रंगाई से पूर्व की धुलाई, बुवाई से पूर्व की जुताई कह सकते हैं। हम समस्याओं, चिंताओं, विपत्तियों के घटाटोप, दृष्टिकोण की विकृति, आदतों की विपन्नता तथा गतिविधियों में घुसी हुई अवांछनीयता के कारण जीवन-आकाश पर छाते, उपल वृष्टि से वर्तमान को संकटग्रस्त तथा भविष्य को अन्धकारपूर्ण बनाते हैं। इस विपत्ति का निराकरण आत्म-शोधन के बिना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता है। नाली में जमी सड़ी कीचड़ न हटे तो उस उद्गम से जन्मते कृमि-कीटकों को हटाते रहने पर भी पिण्ड छूटने वाला नहीं है। तप साधना का उद्देश्य संचित कुसंस्कारों के विरुद्ध अनुनय-विनय, सहन-सिखावन को निरर्थक समझते हुए तेजस्वी विद्रोह खड़ा कर देना है।
अध्यात्म क्षेत्र की सम्पदायें भौतिक क्षेत्र से असंख्य गुनी बड़ी हैं। शरीर में प्राण का महत्व अत्यधिक है और सम्पदाओं की तुलना में विभूतियों का महत्व अत्यधिक है। बड़प्पन अपनी जगह और मानवता अपनी जगह। वैभव और वर्चस की कोई तुलना नहीं। अभ्यास न रहने, उदाहरण न दीखने, अनुभवजन्य प्रेरणा न मिलने से अध्यात्म की गरिमा एक प्रकार से अविज्ञात ही नहीं, लुप्त प्रायः भी हो चली है। पूजा और मनोकामना का तालमेल बिठाने वाली विडम्बना ने हर किसी को सस्ती लूटमार के भ्रम-जंजाल में फांस दिया है। ऐसी दशा में अध्यात्म-विभूतियों को विज्ञान की उपलब्धियों की तुलना में विशिष्ट और वरिष्ठ सिद्ध कर सकना कैसे बन पड़े? यदि यह समझा और समझाया जा सके कि बलिष्ठता, सुन्दरता, कुशलता, शिक्षा, प्रतिभा, पदवी की तुलना में ओजस्, तेजस्, वर्चस् से सम्पन्न व्यक्तित्व की क्षमता अत्यधिक है, तो लोग अपनी समूची जीवन सम्पदा पेट प्रजनन के कुचक्र में ही समाप्त न करें, वरन् आत्मा को बलिष्ठता प्रदान करने और अध्यात्म जगत के साथ जुड़े हुए देवत्व का सम्पादन करने की दिशा धारा भी अपनाने लगें।
उदाहरण न मिलने पर सन्देह और अविश्वास रहना स्वाभाविक है। इसकी व्यापकता मिटाने का एक ही उपाय है कि भूतकाल के ऋषि-मनीषियों की, भक्तजनों की दुहाई देते रहने की अपेक्षा ऐसे प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करें जिनके आधार पर आत्मक्षेत्र की गरिमा और उपलब्धियों का प्रत्यक्ष प्रतिफल देखने को मिल सके। यह तभी सम्भव है जब अध्यात्म क्षेत्र का स्वरूप, विधान एवं अनुशासन सही रूप में समझने और अपनाने का सरंजाम जुटे, आधार बने। इसके लिए यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना होगा और समझना होगा। अध्यात्म की प्रेरणायें—इस क्षेत्र के अनुयायियों को आत्मचिंतन, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास के लिए बाध्य करती हैं। आत्म सत्ता का परिष्कृत स्वरूप ही इस योग्य बनता है कि सूक्ष्म लोक की अधिष्ठात्री देव चेतना के साथ आदान-प्रदान सम्भव हो सके। देव-अनुग्रह की बात इससे कम में बनती ही नहीं। पूजा उपचारों के अनेकानेक विधि-विधान उच्चस्तरीय सत्ता को लुभाने-फुसलाने के लिए विनिर्मित नहीं किए गये हैं वरन् उनका निर्धारण इसलिए हुआ है कि साधक को अपने अन्तराल में भाव-श्रद्धा, मनःसंस्थान में दूरदर्शी विवेकवान प्रज्ञा तथा प्रखर पुरुषार्थ से भरी-पूरी निष्ठा का उत्पादन-अभिवर्धन सम्भव हो सके।
वेदान्त के ‘अहमात्मा ब्रह्म’, ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’, ‘तत्वमसि’, ‘शिवोऽहम्’, ‘सच्चिदानन्दोऽहम्’ आदि सूत्रों में आत्मा के परिष्कृत स्वरूप को ही परमात्मा माना है। आत्मा का परमात्मा में विलय-परिवर्तन ही ईश्वर-प्राप्ति, ब्रह्म निर्वाण, जीवन मुक्ति आदि नामों से प्रतिपादन किया गया है। समूची ब्रह्म-विद्या का सार संक्षेप इतना ही है कि जीवन को, व्यक्तित्व को उत्कृष्ट आदर्शवादिता से ओत-प्रोत बनाने वाले चिंतन एवं आचरण का आश्रय लिया जाय। इसके लिए कुछ व्यायाम, उपचार, प्रयोगों की सहायता ली जाती है, उन्हीं को तप, साधना एवं योगाभ्यास करते हैं। यह समझने में भारी भूल हुई है कि यह बरगलाने वाले प्रयोग हैं। अपनी तराजू से ही परमात्मा को तोलना गलती है। प्रशंसा, रिश्वत, चापलूसी जैसे प्रयोग घटिया स्तर वालों को ही प्रभावित करते हैं। व्यक्तिगत सांठ-गांठ के डोरे उन्हीं पर डाले जा सकते हैं। ब्रह्म सत्ता का स्तर इससे कहीं अधिक ऊंचा है। वहां पक्षपात करने-कराने की चतुरता किसी भी प्रकार पहुंचती नहीं। पात्रता और प्रामाणिकता के अनुरूप बड़े अनुदान-वरदान देने, बड़े उत्तरदायित्व सौंपने की नीति की ही वहां मान्यता है, न्यायाधीश यही करते हैं। चुनाव और नियुक्ति करने वाले अधिकारियों तक में जब प्रतियोगिता जीतने वालों को विजयी घोषित करने की नीति अपनाई जाती है तो देवसत्ता के उत्कृष्ट स्तर को देखते हुए किसी को यह आशा नहीं करनी चाहिए कि यहां चतुरता की दाल गलती है और खिलवाड़ जैसे पूजा-उपचार के सहारे महत्वपूर्ण अनुदान-वरदान झटकने में सफलता मिल जायेगी।
भ्रान्तियों का निराकरण हो सके, तो यथार्थवादी रीति-नीति अपनाने का अवसर मिले। सही राह पर चला जाय तो अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंचना सम्भव हो। ब्रह्मविद्या का सार संक्षेप इतना ही है कि साधक अपनी संचित कुसंस्कारिता से जूझे और उनके स्थान पर भावना, विचारणा एवं कार्यपद्धति में उत्कृष्टता का समावेश करने के लिए भागीरथी संकल्प अपनाये और पवनपुत्र जैसा समुद्र लांघने का पराक्रम कर दिखाये।
देवता के परिकार में ही सिद्ध पुरुष भी आते हैं। सिद्ध पुरुषों के अनुग्रह, आशीर्वाद, वरदान से भी ऐसे ही लाभों की आशा-अपेक्षा की जाती है जैसी कि देवताओं से। यहां अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक विचारणीय प्रश्न एक ही है कि ऋषि-कल्प लोग ऐसे वरदान देने में समर्थ हैं तो वह शक्ति उन्हें कहां से मिली? किस प्रकार उपलब्ध होती है? उत्तर एक ही है—आत्म परिष्कार की तप व साधना से। इस प्रकार देव-अनुग्रह कोई अनायास उपलब्ध होने वाला भाग्योदय नहीं रह जाता वरन् प्रयत्न एवं पुरुषार्थ की कीमत पर खरीदा हुआ वैभव ही सिद्ध होता है। वे कुछ पाने के अधिकारी तभी बने जब तदनुरूप पात्रता सिद्ध करने में खरे सिद्ध हुए। विचारणीय यह है कि पात्रता के सिद्धांत पर अटूट विश्वास रखने वाले, स्वयं को उस योग्य बनाने के लिए गलाने-तपाने वाले क्या इतने मूर्ख हो सकते हैं जो अपनी ऐसी कठिन कमाई को उन चतुर लोगों पर बिखेरते फिरें जिनमें न तो कोई पात्रता है और न मनोकामनाओं में कोई आदर्शवादिता। कष्ट पीड़ितों की सहायता एक बात है, उसे सहृदयतापरक मानवोचित गुण कहा जा सकता है और इस प्रकार के सहयोग को परोपकार कहा जा सकता है। उसका औचित्य भी है। किन्तु जिसके सिर पर रावण जैसी वितृष्णा पूरी करने का भूत सवार है और जो विलास, वैभव एवं अहंकार की पूर्ति के लिए ऋषियों, सिद्ध पुरुषों का तप वरदान के रूप में मांगते हैं, उनकी मांग को क्या कर न्यायोचित माना जायेगा और क्यों उसकी पूर्ति के लिए कोई विवेकवान् अध्यात्मवादी सत्ता सहमत होगी। जो अन्यथा सोचते हैं वे भूल करते हैं और स्वार्थान्ध होकर औचित्य की परम्परा को ताक पर रख देते हैं। अपनी आत्म-सत्ता को देव-अनुग्रह के लिए उपयुक्त सिद्ध न कर सकने वाले लोग प्रायः निराश रहते हैं और अध्यात्म बदनाम होता है। देवता हों या सिद्ध पुरुष, वे प्रामाणिक व्यक्तियों को देते मात्र एक ही शर्त पर हैं कि वे उसका उपयोग विलास में नहीं वरन् लोकमंगल के उच्चस्तरीय प्रयोजन तक ही सीमित रखें।
इस पुस्तक में अध्यात्म-विज्ञान की विधि-व्यवस्था ब्रह्मविद्या को सार-संक्षेप में समझाने का प्रयत्न किया गया है ताकि तथ्यों को समझ लेने के उपरांत इस क्षेत्र का महत्व समझने वाले, प्रवेश करने के इच्छुक और कुछ कहने योग्य उपलब्धियां प्राप्त करने वाले साहसी प्रगति पथ पर चल सकें और वह प्राप्त कर सकें जो यथार्थवादियों को उपलब्ध होता रहा है, होता रहेगा।
आत्मशोधन को तप कहते हैं और आत्म-क्षेत्र में उच्चस्तरीय विशिष्टताओं के समावेश को योग साधना। इन्हीं दो कदमों को क्रमिक गति से बढ़ाते हुए जीवन लक्ष्य तक पहुंचाने वाले राजमार्ग पर यात्रा-प्रवास निर्बाध रूप से सम्पन्न होता है। यही है कल्प साधना का तत्वज्ञान और विधि-विधान। कायाकल्प का प्रचलित अर्थ है—वृद्धावस्था को नवयौवन में बदल देना। यह अलंकारिक मान्यता है। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन के चक्र में उभार और अवसान दोनों का समान महत्व है। दीर्घायुष्य सम्भव है, पर प्रवाह को उलट देना कठिन। वृद्धावस्था के उपरान्त यौवन, यौवन के बाद बचपन, बचपन के बाद भ्रूण स्थिति को प्राप्त कर सकना कठिन है। नियति को ऐसा परिवर्तन स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं किया जा सकता। मनुष्य की इच्छा भले ही कुछ भी क्यों न रहे। इस आधार पर वृद्धावस्था को कष्टसाध्य न होने देने और निरोग दीर्घायुष्य का आनन्द लेते रहने की सम्भावना को ही ‘कल्प’ मान लेना चाहिए और दूसरों की तुलना में अपने को अधिक सौभाग्यशाली मानकर सन्तोष करना चाहिए।
‘कल्प’ का वास्तविक तात्पर्य है—अन्तराल का, व्यक्तित्व का, चिंतन का, चरित्र का, दृष्टिकोण का, स्तर का उपयुक्त परिवर्तन-परिष्कार। यह नितान्त सम्भव है। ध्रुव, प्रह्लाद, वाल्मीकि, अंगुलिमाल, बिल्वमंगल, अजामिल आदि अगणित व्यक्ति अवांछनीय केंचुल को बदलकर देखते-दिखाते पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता बने हैं। सामान्य परिस्थितियों में जन्में और पले व्यक्ति मूर्धन्य महामानवों में गिने गये हैं। यही वास्तव में कायाकल्प है। इस स्तर की उपलब्धियां प्राप्त करने के लिए क्या सोचना और क्या करना चाहिए? इसी का इतिहास समर्पित और अनुभवों से भली-भांति प्रतिपादित इस पुस्तक में है। जो समझने, अपनाने का प्रयत्न करेंगे, वे लाभान्वित होकर रहेंगे, ऐसा विश्वास है।