Books - आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान
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Language: HINDI
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कल्प उपचार का सुदृढ़ वैज्ञानिक आधार
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अन्तःकरण का मनःसंस्थान पर मनः संस्थान का शारीरिक स्थिति पर, शारीरिक स्थिति का क्रिया-कलाप पर और क्रिया-कलाप का परिस्थिति पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। इस रहस्य को समझा जा सके, तो यह स्वीकार करने में किसी को भी कठिनाई का सामना न करना पड़ेगा कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता आप है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है इस तथ्य को समझा जा सके तो जिस-तिस पर दोषारोपण की आवश्यकता न रह जायेगी। तब परिस्थितियों की प्रतिकूलता को भी इतना दोषी न ठहराया जा सकेगा जितना कि इन दिनों बात-बात में समस्त असफलताओं और कठिनाइयों के लिए उन्हीं पर दोष मढ़ा जाता रहता है।
अध्यात्म का तात्पर्य है अपने आप का स्वरूप समझने और बलिष्ठ विकसित करने का विज्ञान क्रम। यही है उसका उद्देश्य एवं प्रयोग उपचार। इन दिनों तो उसे किन्हीं पूजा उपचारों के माध्यम से अमुक देवता को वशवर्ती बनाकर चित्र-विचित्र मनोकामनाओं की पूर्ति जादुई ढंग से करा लेने की कल्पना-जल्पना करना भर रही है। पर इससे क्या? भ्रान्तियां-भटकाव ही उत्पन्न कर सकती है उनसे कुछ काम थोड़े ही बनता है। जिन्हें भी आत्म-विज्ञान में तात्विक अभिरुचि है, उन्हें समझाना होगा कि आत्म निर्माण के लिए किया गया पुरुषार्थ ही उलझी हुई समस्याओं का समाधान है। इस पुरुषार्थ के लिए आत्म अवलम्बन, आत्म विश्वास और आत्म भूमि की दार्शनिक पृष्ठ भूमि होनी चाहिए।
आत्मबोध को मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि माना गया है। इसी के आधार पर मनुष्य अपनी सत्ता, महत्ता, क्षमता एवं सम्भावना का मूल्यांकन कर सकने में समर्थ होता है। इस अनुभूति के साथ-साथ वह पराक्रमशीलता भी उभरती है जिसके सहारे अपने संचित कुसंस्कारों को समझना, उनकी हानियों को अनुभव करना तथा उखाड़ने के लिए संकल्पपूर्वक जुट जाना सम्भव हो सके। उखाड़ने में जितना पराक्रम चाहिए प्रायः उतना ही उत्कृष्टता के अनभ्यस्त आधारों को अपनाने और स्वभाव का अंग बना लेने की मंजिल पूरी करने में भी नियोजित करना पड़ता है। अपने हाथों अपने आप को गलाना-ढालना बड़ा काम है। उसे करने के लिए असामान्य संकल्पशक्ति चाहिए। उसी के उपार्जन, अभिवर्धन के लिए जिन साधनाओं की आवश्यकता पड़ती है, उनमें चान्द्रायण को मूर्धन्य माना गया है। इसमें उन सभी तत्वों का समावेश है, जिनमें आत्म-शोधन और आत्म-परिष्कार के दोनों प्रयोजन साथ-साथ सधते चलें। उसे परम्परागत धर्मानुष्ठानों की तरह सामान्य व्रत उपवासों की तरह नहीं माना जाना चाहिए। इस प्रक्रिया के पीछे ऐसे तथ्यों का समावेश है जिसका प्रतिफल उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है। यह साधना आस्थापरक है। उसमें श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा को प्रभावित करने वाली, अन्तराल को उत्कृष्टता के साथ जोड़ देने वाली क्रिया-प्रक्रिया का समावेश दूरदर्शिता एवं तत्वान्वेषी सूक्ष्म बुद्धि के साथ किया जाता है।
परिस्थितियों को ही सब कुछ मानने वाले, साधनों को ही सौभाग्य समझने वाले लोगों को नये सिरे से अध्यात्म की वर्णमाला पढ़नी पड़ेगी और सिद्ध करना पड़ेगा कि परिस्थितियां एवं सम्पन्नताएं मानवी प्रगति की आवश्यकता का एक बहुत छोटा अंश पूरा करती हैं। विभूतियों का उद्गम मानवी अन्तराल है। उसे सम्भाला सुधारा जा सके तो सुखद सम्भावनाओं का स्रोत हाथ लग जायेगा। फिर किसी बात की कमी न रहेगी। पाताल-फोड़ कहे जाने वाले कुओं को चट्टान के नीचे वाली जल धारा का अवलम्बन मिलता है। फलतः निरन्तर पानी खींचते रहने पर भी उसकी सतह घटती नहीं। जितना खर्च होता है, उतना ही उछलकर ऊपर आ जाता है। मनुष्य को अनेक क्षेत्रों में काम करना पड़ता है। उनके लिए अनेक प्रकार की शक्तियों की आवश्यकता पड़ती है। सम्वर्धन के लिए एक प्रकार की तो बौद्धिक क्षमता का विकास करने के लिए दूसरे प्रकार की। सूझ-बूझ एक बात है और व्यवहार कुशलता दूसरी। विद्वता दूसरी चीज है और एकाग्रता का रूप दूसरा है। कलाकारों का ढांचा एक प्रकार का होता है और योद्धाओं का दूसरा। इन सभी को अपने ढंग की शक्तियां चाहिए। उनके अभाव में सफलता तो दूर, कुछ कदम आगे बढ़ चलना तक सम्भव नहीं होता। कहना न होगा कि असंख्य सामर्थ्यों का असीम भण्डागार मनुष्य के अन्तराल में विद्यमान है। यह चेतना क्षेत्र का एक वृहत्तर महासागर है जिसमें हर स्तर की सामर्थ्य खोज निकाली जा सकती है। कहना न होगा कि दृश्यमान सभी सफलताओं, विभूतियों का उपार्जन एवं उपयोग इसी अन्य शक्ति के सहारे सम्भव होता है। उसके अभाव में जीवित मृतकों जैसी अशक्तता ही छाई रहेगी।
उपरोक्त तथ्यों पर सहसा विश्वास नहीं होता। इन दिनों आत्मा का अस्तित्व तक संदिग्ध माना जाता है और उस क्षेत्र में सन्निहित सामर्थ्यों के प्रभाव पर अविश्वास किया जाता है। ऐसी दशा में यह अति कठिन हो जाता है कि प्रत्यक्षवादी विचारशील वर्ग को यह विश्वास दिलाया जा सके कि वे आत्मबल का महत्व समझें और उसके उपार्जन को सच्चे मन से प्रयत्न करें। यदि यह तथ्य गले न उतरे, तो फिर साधना क्षेत्र की कोई भी क्रिया उथले मन से लकीर पीटने की तरह ही किसी प्रकार धकेली-घसीटी जाती रहेगी। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में उत्कृष्टता के पक्षधर प्रयासों के साथ तादात्म्य जुड़ सकना कठिन है। मात्र पशु प्रवृत्तियों में वह आकर्षण है कि वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए उत्तेजित करनी और कुकर्म कराती रहे।
भौतिक क्षेत्र के प्रत्येक कार्य की प्रतिक्रिया हाथो-हाथ दृष्टिगोचर होती है। धूप में बैठते ही शरीर गरम होने लगता है और स्नान करने पर ठण्डक प्रतीत होती है। रम करने पर थकान और विश्राम के बाद ताजगी का अनुभव होता है। भूख लगने पर बेचैनी और पेट भरने पर तृप्ति का अनुभव किया जा सकता है। लोग इसी प्रकार का प्रमाण चाहते हैं कि आत्मिक प्रयत्नों एवं परिवर्तनों का भी क्या कोई प्रभाव उत्पन्न होता है। इस संदर्भ में एक बड़ी कठिनाई यह है कि अपनी आंतरिक स्थिति का सही अनुभव स्वयं तक को नहीं हो पाता। मान्यताएं ही सिर पर चढ़ी रहती हैं और उन्हीं का भला-बुरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता रहता है। चेतना क्षेत्र की वस्तुस्थिति का सही मूल्यांकन कर सकना अति कठिन है। फिर जब अपने स्वयं के बारे में भी स्थिति की यथार्थता का अनुभव नहीं हो पाता तो दूसरे के सम्बन्ध में कुछ सही निष्कर्ष कैसे निकले? मूर्धन्य तत्वदर्शियों के अतिरिक्त गहराई में उत्तर कर कौन समझे और कौन समझाये? ऐसी दशा में आत्मिक प्रयोगों की परिणति का स्वरूप समझना एक अत्यन्त जटिल प्रक्रिया है। इतने पर भी यह कठिनाई बनी ही रहेगी कि आत्मिक प्रयत्नों की प्रतिक्रिया को उपयोगी-उत्साहवर्धक न माना गया तो फिर सर्वसाधारण के लिए विशेषतया बुद्धिजीवी वर्ग के लिए यह अति कठिन होगा कि वे परिपूर्ण श्रद्धा विश्वास के साथ उस क्षेत्र में आगे बढ़ें। अन्यमनस्क प्रयत्न भी सांसारिक क्षेत्र में तो कुछ न कुछ परिणाम उत्पन्न करते हैं, पर अध्यात्म क्षेत्र में तो ऐसे निष्प्राण प्रयास प्रायः निराशाजनक ही रहते हैं।
इस असमंजस को दूर करने के लिए कल्प साधकों के लिए ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में एक विशेष कक्ष की स्थापना की गई है जिससे साधकों की आस्था एवं चेष्टा की गम्भीरता तथ्ज्ञा उसकी प्रतिक्रिया को वैज्ञानिक यंत्र उपकरणों के सहारे परखा जा सके। किस प्रयोग का शरीर एवं मन के किस क्षेत्र पर कितना, किस स्तर का प्रभाव पड़ा—इसका विवरण प्रस्तुत कर सकने वाले बहुमूल्य वैज्ञानिक यंत्र उपकरणों की यहां व्यवस्था है जिनकी साक्षी से यह जाना जा सकता है कि साधनारत व्यक्ति अपने प्रयत्न का समुचित प्रतिफल प्राप्त कर रहे हैं या नहीं।
इस आवश्यकता की व्यवस्था न केवल आस्था के क्षेत्र के प्रयत्नों की परिणति जानने के लिए करनी पड़ी है, वरन् इसलिए भी की गई है कि साधक के शारीरिक, मानसिक एवं अन्तःकरण का स्तर जांचा जा सके और उनमें जहां जो त्रुटियां-विकृतियां दृष्टिगोचर हों, उनके निराकरण का उपाय बताना, तदनुरूप वैयक्तिक साधना क्रम निर्धारित कर सकना सम्भव हो सके। यदि एक प्रयोग सफल नहीं होता या मन्द प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है तो उसका स्थानापन्न दूसरा निर्धारण किया जा सके, अन्य कदम उठाया जा सके।
प्रगति क्रम किस गति से चला इसकी सही जानकारी अनुमान के आधार पर नहीं लग सकती। व्यक्ति उत्साहित, आशान्वित, विश्वासयुक्त हो तो थोड़ी प्रगति भी बड़ी लगेगी और यदि वह निराशाग्रस्त, दीन, दुःखी प्रकृति का हो तो बड़ी सफलता भी अकिंचन लगेगी या उसका पता ही न चलेगा। इस कठिनाई का हल वे वैज्ञानिक उपकरण ही कर सकते हैं जो न केवल साधक की मनःस्थिति-परिस्थिति बताते हैं, वरन् प्रयोगों की प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते हैं।
ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के सम्बन्ध में प्रज्ञा परिवार के सभी परिजनों को सामान्य जानकारी है। उसे अध्यात्म तथ्यों को विज्ञान की कसौटी पर परखने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है। अभीष्ट प्रयोजनों के लिए उसमें ऐसे बहुमूल्य यंत्र उपकरण लगाये गये हैं जिससे मनुष्य की प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष परिस्थितियों की जानकारी हो सके। साथ ही किसी प्रयत्न प्रयोग के आधार पर उत्पन्न होते रहने वाले उतार चढ़ावों का लेखा-जोखा सही रूप में प्रस्तुत कर सकना सम्भव हो सके। सम्बद्ध विषयों में स्नातकोत्तर विशेषज्ञ इन यंत्रों का प्रयोग करके यह पता चलाते हैं कि साधना से सिद्धि की दिशा में बढ़ने-बढ़ाने की प्रक्रिया किस सीमा तक किस गति से सफल या असफल रह रही है। इस व्यवस्था से साधकों को जहां साधना क्रम में आवश्यक हेर-फेर करने की सुविधा रहेगी, वहीं सफलताओं का प्रत्यक्ष परिचय मिलने से अनास्था की मनोभूमि भी विश्वासी बन सकेगी। इस आधार पर अधिक श्रद्धा उत्पन्न करना और उस आधार अधिक पर सफलता प्राप्त कर सकना भी सम्भव हो सकेगा।
जैसा कि कहा जा चुका है शरीर व मन में घट रही चेतन प्रतिक्रियाओं एवं आंतरिक स्थिति में साधनावधि में प्रकट होते रहने वाले उतार-चढ़ावों का मूल्यांकन न व्यक्ति द्वारा स्वयं सम्भव है न उपकरणों द्वारा। लेकिन इन्हें अवधि विशेषों में माप कर उनका स्थायी रिकार्ड लेकर किसी परिणाम पर पहुंचना विज्ञान की सहायता से पूर्णतः सम्भव है। कुछ ऐसी स्थितियां भी विनिर्मित होती हैं जहां दावे के साथ कहा जा सकता है कि घटित होने वाली प्रतिक्रिया साधना विशेष की फलश्रुति है। कल्प साधना आरम्भ की जाने के पूर्व उपकरणों के माध्यम से साधक की शारीरिक व मानसिक स्थिति का विश्लेषण तथा साधना की अवधि में समय-समय पर उस प्रगति का पुनः विश्लेषण—यही प्रक्रिया दर्शा सकती है कि प्रायश्चित प्रक्रिया, कल्प साधना व उसके कठोर नियमोपनियमों के पालन से क्या बदलाव आया? इस आधार पर मार्गदर्शक द्वारा आगे समय-समय पर परिवर्तन सुझाये जाते हैं जो प्रायश्चित से लेकर औषधि कल्प, आहार कल्प, साधना क्रम किसी भी रूप में हो सकते हैं।
ब्रह्मवर्चस् की शोध में शारीरिक व मानसिक स्थिति का विश्लेषण मापन करने वाले ऐसे उपकरणों का प्रयोग किया जाता है जो सूक्ष्मतम परिवर्तनों को बता सकें। एक माह की अवधि कोई इतनी विशेष नहीं है कि कोई बहुत बड़ा परिवर्तन शरीर में हो जाय। यह तो हठीले कुसंस्कारों से मुक्ति पाने वाले मनोबल को और भी शक्तिशाली बनाकर उसके द्वारा चिंतन व व्यवहार पर नियंत्रण करने का अभ्यास है। जो जितने अधिक समय तक कठोरता के साथ नियमों को जीवन में उतारता है, उन्हें अपनी भावी जीवन की रीति-नीति बनाता है, उसके अन्दर उतने ही अधिक प्रभावशाली परिवर्तन देखने में आते हैं।
अस्पतालों में की जाने वाली रोगों की परीक्षण प्रक्रिया की ही तरह उसमें भी ब्राह्य परीक्षण की व्यवस्था है। अपने शरीर के विभिन्न पैरासीटर्स् की नाप तौल भार, सीने का फैलाव, नाड़ी की गति, श्वास की गति, तापमान, हृदय, फेफड़ों, लीवर, पेट की आंतों तथा स्नायु संस्थान की विभिन्न हलचलों का शारीरिक परीक्षण इसी में आता है, जिसे फिजीकल एग्जामिनेशन (physical examination) कहते हैं। इसी के साथ जुड़ा है मनः विश्लेषण एवं विभिन्न यंत्रों द्वारा अचेतन व चेतन मन की विभिन्न गतिविधियों का परीक्षण। इसमें मनोवैज्ञानिक यंत्रों से सुसज्जित प्रयोगशाला में साधक की विभिन्न आदतों, प्रवृत्ति, भावी रीति-नीति एवं व्यक्तित्व का सप्टीट्युट एडाप्शन, रिएक्शन, टाइम इल्युजन्स, परसेप्शन आदि प्रयोग तथा प्रश्नावली के माध्यम से विश्लेषण कर साधना आरम्भ करने के पूर्व की मनःस्थिति का निर्धारण कर लिया जाता है। कल्पकाल की तपश्चर्या अचेतन के परिष्कार से जुड़ी हुई है। अचेतन को यंत्रों द्वारा न तो मापा जा सकता है, न ही देखा जा सकता है। इसकी प्रतिक्रियाएं जरूर देखी जा सकती है। मानसिक ग्रन्थियां, मन में चल रहे ऊहापोह तथा परम्परागत निर्धारण अन्दर की प्रतिक्रियाओं को एवं अन्तःस्थिति को उजागर करने वाले प्रश्न जिस स्वरूप को दर्शाते हैं, उनका वैज्ञानिक रीति से विश्लेषण कर अचेतन मन की प्रारम्भिक स्थिति का स्वरूप बना लिया जाता है। इसके बाद मध्यावधि तथा अन्त में किये जाने वाले मापन, प्रायश्चित प्रक्रिया तथा तपश्चर्या के उतार-चढ़ाव आरम्भ होने के बाद से निश्चित ही अलग प्रकार के व साधना से परिष्कार के निर्णायक होते हैं।
इस सब प्रयोगों के बाद पैथालॉजी परीक्षण क्रम आरम्भ होता है। एक में घुले विभिन्न रस द्रव्य, रक्तकोष अलग-अलग यंत्रों से अपनी स्थिति का आभास देते रहते हैं। लाल कणों की मात्रा अनुपात, उनका परस्पर एक दूसरे से अलगाव-विलगाव, लोह तत्व की मात्रा, सफेद कणों की मात्रा व भिन्नता का प्रारम्भ में हिमोग्लोबीन टी.आर.बी.सी., टी.डी.एल.सी. तथा इ.एस.आर. प्लेट्लेट्स के मापन द्वारा विश्लेषण कर लेते हैं। जीवनी शक्ति को नापने के लिए प्रारम्भिक परीक्षण जरूरी है। हिमेटॉलाजी कक्ष में इन प्रयोगों के उपरान्त बायोकेमिस्ट्री कक्ष में असामान्य अवस्था वाले साधकों के लिए गये अल्प रक्त का आधुनिकतम तकनीकी से युक्त उपकरणों द्वारा पी.एच. (रक्त की अम्लता का मापन), रक्त की गैसें (ऑक्सीजन व कार्बनडाइ ऑक्साइड), रक्त में शकर, यूरिया, क्रिएटिनीन तथा अन्य एन्जाइम्स का मापन किया जाता है। सहायक के रूप में अन्य कई उपकरणों की मदद लेकर इन मापनों से यह अनुमान लगाया जाता है कि बाहर से स्वस्थ दृश्यमान साधक की आन्तरिक स्थिति क्या है? एन्जाइम्स द्वारा होने वाले रस स्रावों एवं चयापचयिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप नित्य विकार शोधन तथा मल संचय की प्रक्रिया कालान्तर में क्या परिणाम उत्पन्न कर सकती है तथा इस निदान के उपरान्त चिकित्सा का निर्धारण किस प्रकार किया जाय? यह परीक्षण इस दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। जैसे-जैसे संचित विकारों से निवृत्ति मिलती चली जाती है, रक्त में शुद्ध ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती व निस्सृत होने वाली कार्बनडाइ ऑक्साइड गैस की मात्रा घटती चली जाती है, रक्त गैस विश्लेषक यंत्र इस परीक्षण में सहायता करता है।
सूक्ष्म रसस्रावों, हारमोन्स का ‘रेडियोइम्यूनोएसे’ तकनीक द्वारा विश्लेषण इस साधना परीक्षण की विशेषता है। ग्रन्थियों के खुलने, शरीर के तपश्चर्या की भट्टी में गलने से तनाव उत्पन्न करने वाले हारमोन्स की रक्त में कमी तथा चक्रवेधन साधना द्वारा सूक्ष्म उपत्यिकाओं से इन न्यूरो-ह्यूमरल स्रावों का रक्त में बढ़ना साधना की प्रतिक्रिया की विभिन्न ऊर्ध्वगामी स्थितियां हैं।
कल्पकाल में विशिष्ट साधनाओं, नित्ययज्ञ एवं औषधि कल्क सेवन के फलस्वरूप प्राणशक्ति कितनी बढ़ी, फेंफड़ों की रक्तशोधन क्षमता में अभिवृद्धि किस गति क्रम से हुई, इसके लिए स्पायरोग्राम की सहायता ली जाती है। प्राणायाम प्रक्रिया से फेंफड़ों के आयतन में वृद्धि तथा ‘लंगफक्शन्स’ में परिवर्तन प्रत्यक्षतः ग्राफ में रिकार्ड होता चला जाता है। शारीरिक विद्युत ओजस्, तेजोवलय एवं ब्रह्मवर्चस् के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इन्हें मात्र देखा व इनका मूल्यांकन किया जा सकता है, यंत्र द्वारा मापा नहीं जा सकता। फिर यह विद्युत् कुछ स्थान विशेषों पर केन्द्रीभूत होती है जहां उसका इलेक्ट्रोडों द्वारा ग्राफिक अंकन कर यह बताया जा सकता है कि बिखराव को समेट लेने से कायिक विद्युत में क्या परिवर्तन आते हैं। मल्टीचैनेल पॉलीग्राफ की सहायता से विशेषज्ञगण मस्तिष्कीय विद्युत (इलेक्ट्रो एनसेफेलोग्राफ), हृदय की विद्युत (इलेक्ट्रो मार्डियोग्राफ), स्कीन रेजीस्टेन्स, बॉडी के पेसीटेन्स, फोनोकार्डियो, प्लेथिस्मोग्राफी, नर्वक-उक्शन इत्यादि अनेक प्रकार के मापन करते हैं जो साधना की प्रगति की दिशा बताते हैं। ध्यान प्रक्रिया से, जप-साधना से, मंत्र योग से, आहार कल्प से एवं निर्धारित औषधि लेने से क्या-क्या परिवर्तन ई.ई.जी. तथा अन्य आकलनों में आये, भिन्न-भिन्न समय पर इसका विश्लेषण कर अध्यात्म उपचारों की वैज्ञानिकता प्रामाणिकता की जाती है। हृदय का साधना में अपना विशिष्ट स्थान है। अंगुष्ठ मात्र कारण शरीर का स्थल माना जाने वाला, अनाहत चक्र के समीपस्थ, पेसमेकर के माध्यम से सारी शरीर प्रक्रियाओं को चलाने वाला यह केन्द्र कल्प साधना से विशिष्ट रूप से किस प्रकार प्रभावित हुआ? पूर्व में कुछ शारीरिक व्यापारों के बाद तथा कल्प चिकित्सा के उपरान्त ई.सी.जी. में क्या परिवर्तन आया, इसका रिकॉर्ड कॉडियालाजी कक्ष में लिया जाता है।
इन सभी वैज्ञानिक जानकारियों के विस्तार जानना साधक के लिए एवं साधारण पाठक के लिए जरूरी नहीं। मात्र यह ज्ञान होना चाहिए कि अध्यात्म अनुशासन की यह साधना न केवल विज्ञान सम्मत है अपितु प्रत्यक्ष परिणाम देने वाली हैं। साधना क्षेत्र में भी भौतिक क्षेत्र की भांति क्रिया की प्रतिक्रिया हाथों हाथ दृष्टिगोचर होती है इस तथ्य को हर साधक अपनी आंखों के सामने प्रत्यक्ष घटते देखता है। आते समय की मनःस्थिति एवं विदा के समय की स्थिति में जमीन-आसमान जैसा अन्तर दीख पड़ता है। प्रारम्भ में जहां एक माह की अवधि एक वर्ष के बराबर लगती थी, वाष्पसिद्ध आहार कैसे मन को रुचेगा तथा रसीले सुस्वादु व्यंजनों की अभ्यस्त जिह्वा उसे एकरसता से कैसे ग्रहण करेगी, इस प्रश्नवाचक चिह्न का उत्तर धैर्यवान साधक चमत्कारी रूप में अपने शारीरिक, मानसिक आत्मिक स्वास्थ्य में आमूल-चूल परिवर्तन के रूप में पाते हैं। यह बात अलग है कि मात्र कृत्य को ही महत्व देकर एक माह की लकीर पीटकर प्रयोग-परीक्षण का तमाशा देखने की किसी इच्छा रही हो। ऐसे व्यक्तियों में बहुधा परिवर्तन नहीं होते। जब तक मन की गांठें न खुलें, शोधन, वमन, विरेचन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो तब तक अन्दर कुछ प्राणवान कहा जाने वाला आध्यात्मिक अनुदान प्रविष्ट कैसे हो? वह न हो तो परिवर्तन कहां से उत्पन्न हो? यह सब सूक्ष्म स्तर की परिणतियां हैं जिनकी स्थूल अभिव्यक्ति मात्र प्रयोग परीक्षणों के निष्कर्षों में दिखाई देती है।
हर साधक को जाते समय उनकी जांच पड़ताल का निष्कर्ष पत्रक दिया जाता है। ‘इनडोर सेनिटोरियम’ में भरती होते समय की स्थिति व जाते समय की स्थिति का उसमें स्पष्ट उल्लेख होता है। इन्हें देखकर हर कोई यह अन्दाज लगा सकता है कि पूर्व की तुलना में जाते समय निश्चित ही स्थिति बदली, शोधन प्रक्रिया द्वारा पुराना ढर्रा बदला एवं चिंतन से लेकर अन्तः की उमंगों तक, काय गतिविधियों से लेकर बहिरंगी व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन आया। यही आध्यात्मिक भाव कल्प है। यह पूर्णतः वैज्ञानिक तथ्यों, प्रमाणों पर आधारित है, इसे दर्शाने का प्रयास ही ब्रह्मवर्चस् में किया जाता है। प्रत्यक्ष को सामने देखकर किसी को स्वीकारने में न नुच करना भी नहीं चाहिए। न केवल साधक समुदाय की तुष्टि के लिए वरन् इस बुद्धिवादी युग में वैज्ञानिक समुदाय की सहमति के लिए बिना इतनी बड़ी प्रतिष्ठापना सम्भव भी नहीं है।
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*समाप्त*