Books - आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान
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Language: HINDI
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विभिन्न प्रकार के कल्प प्रयोग
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ब्रह्मवर्चस् की कल्प साधना में क्रमिक रूप से शास्त्रोक्त सभी प्रकार के कल्पों को किये जाने का विधान है। प्रारम्भिक रूप में उसका एक छोटा स्वरूप द्वारा पकाये गये एक ही अन्न के आहार का पूरी अवधि में सेवन तथा एक ही औषधि के निर्धारित मात्रा में नित्य प्रयोग के रूप में बनाया गया है। साधना-अनुष्ठान, स्वाध्याय, सत्संग, नित्य अग्निहोत्र कुटीवास, औषधि के क्वाथ (प्रज्ञापेय) सेवन आदि से साधकों में इस अल्पावधि में ही महत्वपूर्ण परिवर्तन होते पाये जाते हैं। परम्परागत चिकित्सा पद्धति में विभिन्न प्रकार के प्रयोगों की चर्चा की जाती है जिनमें प्रमुख इस प्रकार हैं—
(1) दुग्ध कल्प,
(2) मठा कल्प,
(3) अन्न कल्प- गेहूं, जौ, चावल, मक्का, बाजरा, हविष्यान्न (गेहूं+(गेहूंजौ+तिल), अमृताशन (चावल+दाल), मूंग एवं दलिया। इसमें से किसी एक को
अकेले अथवा सम्मिश्रण के रूप में ग्रहण किया जा सकता है।
(4) फल कल्प- आम, खरबूजा, पपीता, छुआरा, जामुन, सन्तरा, शहतूत, फालसा, सेव, नाशपाती, अमरूद तथा शरीफा।
(5) शाक कल्प- मेंथी, बथुआ, पालक, लौकी, टमाटर, तोरई, गाजर, परवल, ककड़ी, चौलाई।
(6) औषधि कल्प- गिलोय, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, अश्वगंधा, शतावर, आंवला, हरीतकी, निर्गुण्डी, तुलसी, बिल्व, त्रिफला, विधारा, पलास, मुसली,
शाल्मली, भृंगराज, अमलतास तथा चोपचीनी।
कल्प चिकित्सा में बहुधा रसपर्पटी, स्वर्ण पर्पटी आदि औषधियों की चर्चा होती है। पारे और गन्धक के सम्मिश्रण से ये रसायन बनते हैं जिनका कार्य है पाचक यंत्रों को सबल करके परिपाक तन्त्र (एसिमिलेशन) को सुव्यवस्थित बनाना। रसायन होने के नाते इनका प्रयोग भले ही आयुर्वेद सिद्धान्तार्गत प्रतिपादित कल्प चिकित्सा में होता हो, सौम्य कल्प साधना में इनका प्रावधान नहीं बताया गया है। काष्ठ औषधियों की गुणवत्ता अपने स्थान पर है। एक मात्र उन्हीं के प्रयोग से भी शरीर तंत्र का शोधन सम्भव है। पर्पटी का प्रयोग सभी को अनुकूल भी नहीं पड़ता। ऐसी अवस्था में पाचन तंत्र को थोड़ा विश्राम देकर ही खाद्य के प्रयोग से पोषण करने का सिद्धांत ही ठीक बैठता है। साधक की प्रकृति के अनुसार निर्धारित आहार, औषधियां इसी कारण पथ्य का समुचित अनुपात में परिपाक करती व जीवनी शक्ति बढ़ाती देखी जाती हैं।
यहां संक्षेप में उपरोक्त छह प्रकार के कल्पों में से कुछ का विवरण दिया जा रहा है। प्रत्येक में मूल सिद्धांत एक ही है—एक आहार की—एक माह की अस्वाद साधना, कृत्रिमता से दूर प्राकृतिक जीवन क्रम की ओर चलने का अभ्यास। इससे वे साधक तो लाभान्वित होंगे ही जो स्वस्थ हैं पर स्वयं अन्तः सामर्थ्य को और बढ़ना चाहते हैं, वे रोगी साधक भी निरोग हो सकेंगे जिन्हें सूक्ष्म रूप से अवस्थित उन विकारों की जानकारी नहीं है जो कमजोर मनःस्थिति का, अशक्त बनाये हुए हैं।
(1) दुग्ध कल्प—
दुग्ध को ए क संतुलित खाद्य माना गया है। इसमें यथेष्ठ परिणाम में मात्र प्रोटीन ही नहीं शर्करा, वसा, विभिन्न विटामिन तथा धातु बलवत्ता भी विद्यमान है। इन प्रोटीन (अमीनो एसिड्स) की विशेषता यह रहती है कि वे शरीर में पहुंचते ही पच जाते हैं, प्रायः सभी अंश देह में अवशोषित हो नव निर्माण में नियोजित हो जाते हैं उनकी शर्करा (लैक्टोज) आंत में जाकर अन्य शर्कराओं के पाचन में भी मदद करती है। अन्य शर्करायें आंत में अधिक समय रहकर सड़ने लगती है जबकि लैक्टोज के साथ यह बात नहीं है। गाय के दूध में प्रति 100 ग्राम (प्रतिशत) 3.3 ग्राम प्रोटीन्स, 3.6 ग्राम प्रतिशत वसा, 4.8 ग्राम प्रतिशत शर्करा, 97.6 ग्राम प्रतिशत जल तथा 65 कैलोरी प्रति 100 ग्राम होते हैं। इसमें विटामिन बी—2.200 मिलीग्राम प्रतिशत, कैल्सियम 0.12 मिली ग्राम तथा फास्फोरस 0.009 मिलीग्राम प्रतिशत होता है। सतोगुणी प्रवृत्ति के कारण इसे ही श्रेष्ठ माना गया है। वसा, शर्करा एवं कैलोरी का अनुपात भले ही भैंस या बकरी के दूध में अधिक हो, कल्प साधना के प्रयोजनों को दृष्टिगत रखते हुए गौ दुग्ध का सेवन ही हितकारी है।
अब शोध निष्कर्ष उसी तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि अधिकांश व्याधियां आवश्यक तत्वों की शरीर में कमी से उत्पन्न होती हैं। कुपोषण असंतुलित आहार ग्रहण करने से होता है। विद्वानों का कथन है कि हृदय से सम्बन्ध रखने वाले कुछ स्थानीय विकारों, जन्मजात व्याधियों को छोड़कर ऐसी कोई शारीरिक व्याधि नहीं है जो दूध के यथाविधि सेवन करने से न मिट जाय। शरीर की कमियों की पूर्ति हेतु दूध से श्रेष्ठ कोई पदार्थ नहीं। अधिकांश व्यक्तियों की सामान्यतया पाचन शक्ति ठीक नहीं होती, इसलिए उन्हें ऐसे भोजन की आवश्यकता होती है जो शरीर का पोषण तो भली प्रकार कर सके पर जिसके पचाने में अधिक शक्ति खर्च न हो। ऐसा सबसे अच्छा और प्राकृतिक भोजन दूध ही है। इसमें हमारी आवश्यकतानुसार सभी पोषण तत्व मौजूद रहते हैं। छोटे बालक बहुत समय तक दूध पर खूब स्वस्थ रहते हैं और अनेक वृद्ध भी केवल दूध का सेवन करके वर्षों तक जीवित रहते देखे गये हैं। आधुनिक ग्रन्थों में भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनमें किसी कारणवश एक व्यक्ति को 50 वर्ष और दूसरे को 15 वर्ष केवल दूध पर रखा गया और वे स्वस्थ रहकर सब तरह के काम करते रहे। यही कारण है कि उन तमाम बीमारियों के लिए जिनको अंग्रेजी में ‘न्यूनता की बीमारी’ ‘डिफीशिऐन्सी डिसीजेज’ कहते हैं, दूध का सेवन ही सबसे बड़ा इलाज कहा गया है।
दूध के द्वारा चिकित्सा करने का निश्चय करने के बाद अनजान व्यक्ति विशेष भूलें कर बैठते हैं। पहली भूल तो यह है कि वह पाचन प्रणाली (मुंह से लेकर मलद्वार तक) की तैयारी किए बिना ही ठोस भोजन बन्द करके एकदम दुग्धाहार शुरू कर दें और दूध को पानी की तरह पीने लगें। दूसरी भूल यह हो सकती है कि कोई मनुष्य एक-डेढ़ सेर दूध रोज पीवे और यह समझ ले कि मैं दुग्धाहार कर रहा हूं। कुछ लोग ऐसे भी देखे गये हैं जो दो तीन बार ठोस भोजन खा लेते हैं और बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा करके सेर दो सेर या अधिक दूध भी लेते हैं। वे यह समझते हैं कि हम दुग्धाहार पर हैं अथवा दुग्ध चिकित्सा कर रहे हैं। ऐसे विचार अनजानपन के चिन्ह हैं और उनसे बचना चाहिए। जो लोग दूध को औषधि की तरह सेवन करना चाहते हैं और जिनकी इच्छा है कि इस प्रकार की दुग्ध चिकित्सा से उनका कोई रोग दूर हो जायगा या गिरे हुए स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है तो उन्हें चिकित्सकों द्वारा बतलाया सब नियमों का पूर्ण रूप से पालन करते हुए इस चिकित्सा को करना चाहिए।
दूध कच्चा, धीमी आंच पर एक उफान तक गरम कर ठण्डा किया हुआ, कुकर में भाप से गरम किया अथवा मन्द आंच पर धीरे-धीरे गरम किया हो सकता है। दुग्धकाल में कभी-कभी कच्चे दूध का आंशिक या पूर्ण प्रयोग किया जाता है। शास्त्रीय पद्धति के अनुसार दूध को मिट्टी के पात्र में रखकर कपड़े से लपेट कर गीली मिट्टी में रखते हैं। यदि उनमें स्वच्छता आदि की सम्भावना न हो तो गरम कर लेना ही हितकर है। धारोष्ण का कच्चा दूध श्रेष्ठ माना गया है। जिनका पेट ठीक है, आंव अथवा पतले दस्त नहीं होते, आदतें नियमित हैं—उन्हें इसी का सेवन करना चाहिए। इसमें विटामिन ‘सी’ पूर्णतः सुरक्षित रहता है। एक उफान पर गरम किए दूध में विटामिन ‘सी’ तो कम हो जाता है पर ‘ए’ मलाई की तह के नीचे पूर्णतः सुरक्षित रहता है। भाप से गरम किया दूध अधिक पोषक होता है, कब्ज नहीं करता। दुग्ध कल्प प्रयोजन हेतु उपयुक्त नहीं। यदि दही बनाकर मक्खन निकालना हो तो भी दूध को मन्द आंच पर गरम किया जाय।
दुग्ध कल्प के कुछ साधारण नियम इस प्रकार हैं—
(1) दुग्ध चिकित्सा आरम्भ करने के पूर्व कम से कम एक दिन उपवास अवश्य कर लिया जाय। पेट संस्थान की पूर्ण शुद्धि होने पर पाचन शक्ति यथेष्ट
मात्रा में बढ़ जाती है।
(2) एक बार कल्प आरम्भ करने पर अपनी क्षमतानुसार 24 घण्टे की मात्रा स्वयं निर्धारित कर लेना चाहिए। इस बीच पानी कम से कम लें। एक बार में
300 ग्राम दूध से अधिक न लें। जो भी पियें, यथा सम्भव चीनी रहित हो, एवं धीरे-धीरे चम्मच से स्वाद लेकर पीयें। आजकल की स्थिति को देखते हुए
24 घण्टे में दो या तीन लीटर की मात्रा अधिकतम है।
(3) पहले दिन कम से आरम्भ कर मात्रा को धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए। केवल दिन-दिन के 12 घण्टे में पीना चाहिए। रात्रि का समय पूर्णतः उपवास युक्त हो।
(4) कुछ लोगों को आरम्भ में पेट में वायु अधिक बनने से गुड़-गुड़ाहट अधिक होती है, डकारें आती हैं, ऐसे में एक दिन उपवास कर लेना अधिक श्रेष्ठ है।
(5) कब्ज की स्थिति में शुद्ध पानी का एक एनिमा ले लेना ठीक रहता है।
किसी भी एक आहर का कल्प करने में एकरसता की स्थिति आ जाती है। ऐसे में यह जरूरी है कि मन प्रसन्न हल्का-फुल्का रखा जाय। प्रसन्नता, उत्साह, चिकित्सा के प्रति श्रद्धा से जठराग्नि प्रबल होती है। हमेशा यही भावना करनी चाहिए कि ‘‘मेरा जो भी इलाज हो रहा है, उसमें अवश्य सफलता मिलेगी। कोई भी मानसिक अवरोध या पुराने संस्कार मुझे इस निश्चय से विचलित नहीं कर सकते।’’
(2) मट्ठा एवं दही कल्प—
दूध की तुलना में दही हल्का होता है। गर्मी के मौसम में दूध के स्थान पर दही-मट्ठे का प्रयोग अधिक श्रेष्ठ माना जाता है। दुग्ध कल्प की अवधि में यदि पतले दस्त होने लगें अथवा संग्रहणी या अमीविएसिस की पुरानी बीमारी से साधक ग्रस्त हो तो दही का प्रयोग करना होता है। दमा के रोगी को मीठा दही तभी अनुकूल पड़ता है, जब दम शमन का आयुर्वेदोपचार कर लिया गया हो एवं वह औषधि से नियंत्रण में हो। दही का प्रयोग करने से पूर्व उसे एक छोटी मथनी से मथ देनी चाहिए ताकि उसके सब कण टूट जायें व वह मट्ठा का रूप ले ले। मट्ठा दही से भी अधिक सुपाच्य है। मक्खन निकालकर दही में आधे अनुपात में जल मिलाने पर छाछ बन जाती है। छाछ में शुद्धि एवं पोषण दोनों ही कार्य करने वाले तत्व होते हैं। आमाशय एवं ऊर्ध्वगामी पाचन संस्थान को इसे पचाने के लिए विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता। शरीर के सहजीवी एन्जाइम उत्पादक जीवाणु फ्लोरा जैसे ही जीवाणु इसमें भी होते हैं। ये रोगोत्पादक जीवाणुओं से आंत्रों की नित्य शुद्धि करते रहते हैं।
आयुर्वेद के अनुसार मट्ठा (तक्र) अग्नि दीपक, कफ-वात शामक, उदर-शोथ नाशक, स्वादिष्ट व खट्टा होता है। यह संग्रहणी, बवासीर, पेट के रोग, मूत्रावरोध, अरुचि, वमन, वातशूल आदि को दूर करता है। विद्वानों के अनुसार मट्ठा को तुरन्त बनाकर उपयोग में लिया जाय। ऐसा तक्र ही सच्चा लाभ पहुंचाता है। मदनपाल निघण्टु के अनुसार शीतकाल में संग्रहणी रोग में, अर्श, कफ रोग, वात-व्याधि, स्रोतों के बन्द होने पर तथा मन्दाग्नि में तक्र अमृत समान है।
भाव प्रकाश निघण्टुकार ने तो तक्र की तुलना देवताओं को उपलब्ध अमृत से की है और इसे भूतल पर मनुष्यों के लिए स्वास्थ्य सम्वर्धन हेतु विधाता की अनुपम भेंट कहा है।
मट्ठा यदि मलाई सहित दही को मथकर बनाया जाय व उसमें पानी न डाला जाय तो घोल, मलाई निकालकर मथ लिया जाने पर मथित, तीन भाग दही व एक भाग पानी मिलाकर मथा जाने पर तक्र तथा अधिक भाग पानी व कुल भाग मक्खन रहित दही होने पर छाछ कहलाता है। आयुर्वेद ने तक्र को ही चिकित्सा हेतु श्रेष्ठ माना है। इसका प्रयोग वात रोग में सैंधव लवण, सोंठ, भुना जीरा डालकर किया जाता है। पित्त रोग में शक्कर मिलाकर मीठा तक्र पीना श्रेष्ठ मानते हैं और कफ रोग में त्रिकुटाचूर्ण (सौंठ, पीपल, कालीमिर्च समभाग) के साथ।
रसायनिक दृष्टि से दही में 89.1 प्रतिशत आर्द्रता, 3.1 ग्राम प्रतिशत प्रोटीन्स, 4 ग्राम प्रतिशत वसा, 0.8 ग्राम प्रतिशत खनिज लवण, 3 ग्राम प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 60 किलो कैलोरी प्रति 100 ग्राम, 149 मिलीग्राम प्रतिशत कैल्शियम, 93 मिलीग्राम प्रतिशत फास्फोरस, 102 माइकोग्राम प्रतिशत विटामिन-ए तथा क्रमशः 0.05, 0.16, 0.1, 0.1 मिलीग्राम प्रतिशत की मात्रा में थायंमिन, रिबोफ्लेबिन, नियासिन एवं विटामिन ‘सी’ होते हैं। छाछ में आर्द्रता बढ़कर 97.5 प्रतिशत हो जाती है। शेष पोषक तत्वों की मात्रा में प्रति 100 ग्राम कमी तो हो जाती है पर वे अधिक पाचक, अवशोषण योग्य बन जाते हैं। तक्र में लैक्टिक एसिड एवं सिंट्रिक एसिड अतिरिक्त मात्रा में होते हैं जिनका मूल कार्य है रस ग्रन्थियों को उत्तेजित करना। रक्त शुद्धि, रक्ताभिषरण प्रक्रिया को बढ़ाकर विकारों को मूत्र मार्ग से निकालने में सभी घटकों की प्रमुख भूमिका रहती है।
छाछ-मट्ठा का प्रयोग वहीं ठीक बैठता है जहां आंतों के स्वभाव एवं उनकी क्रिया पद्धति के अनुकूल इनकी आवश्यकता समझी जाय। इनमें संकोचन गुण है। अतः कोष्ठबद्धता, (कांस्टीपेशन-कब्ज) प्लीहा वृद्धि के रोगियों को यह अनुकूल नहीं बैठता। इसीलिए कल्प का निर्धारण स्वयं न कर उचित मार्गदर्शक द्वारा ही किया जाना चाहिए।
जिसके लिए अनुकूल माना जाए, उसे अन्न एवं जल बन्द कर एक दिन उपवास करा के तक्र या मट्ठा कल्प करना चाहिए। मट्ठा ताजा ही बनाया जाय एवं गाय के दही का प्रयोग हो। मट्ठे में स्वभावतः पानी इतना होता है कि उसे अलग से लेने की आवश्यकता नहीं होती। पहले व दूसरे दिन 3-4 बार में आधा-आधा लीटर तक्र का सेवन किया जाय। पहले कुछ दिनों में जल की आवश्यकता हो तो ले भी सकते हैं पर यथा सम्भव कम लें। जठराग्नि के बलानुसार तक्र की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाई जा सकती है। फिर भी कल्प की मर्यादाओं को ध्यान में रखकर पूरी अवधि में थोड़ा कम ही लिया जाय तो शोधन-तप एवं सृजन योग दोनों ही प्रयोजन पूरे हो सकते हैं। जैसे ही कल्प समाप्त करते हैं, पथ्य क्रम धीरे-धीरे आरम्भ हो। नियमित आहार पर आने के लिए एक माह की कल्पाावधि वाले साधक को न्यूनतम एक सप्ताह तो लेना ही चाहिए।
(3) अन्नाहार कल्प—
कल्प साधना के प्रथम वर्ष में शुरूआत अमृताशन—दलिया कल्प से की गयी है जिसे वाष्प द्वारा पकाया जाता है और 1 माह की अवधि तक बिना स्वाद को अधिक महत्व दिये सतत् लिया जाता है। सात्विक अन्न की महत्ता अपने स्थान पर है। स्वास्थ्यवर्धक पक्ष पर अधिक विस्तृत चर्चा न भी की जाय तब भी इस कल्प प्रक्रिया से सम्भावित शरीरगत्, मनोगत परिवर्तनों की चर्चा तो अभीष्ट हो जाती है। एक ही आहार को समग्र मानते हुए शास्त्रों ने उन्हें ग्रहण करने का विधान बनाया है। सच तो यह है कि शरीर के अपने पाचक रस विभिन्न खाद्यान्नों को अपने उपयुक्त परिवर्तित-परिवर्धित करते रहते हैं। दुम्बा मेढ़ा अपने शरीर की चर्बी का सर्वाधिक अंश मात्र घास से प्राप्त कर लेता है। शरीर के पाचक रस सत् जैसी स्वत्व रहित वस्तु को भी उलट-पुलट कर शरीर के लिए उपयुक्त क्षमता वाले रक्त में बदल देते हैं। एकाहार में जो मन संयम जुड़ा है उससे कल्प का प्रयोजन पूरा हो जाता है। शरीर में कोलेस्टेरॉल का घटना, आंतों का सबल होना, कब्ज–आंव की आदत जन्य कष्टकारी प्रतिक्रिया से पूर्णतः मुक्ति, विकारों का निवारण तथा भूख का खुलने लगना जैसे फलदायी परिणाम आहार चिकित्सा के गिनाये जा सकते हैं, जिनका शरीरगत स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है। मनोबल में वृद्धि, तनाव का शमन तथा आत्म सन्तोष ऐसी उपलब्धियां हैं जिन्हें आहार कल्प करने वाला साधक शीघ्र ही अनुभव करने लगता है। यह तो मात्र मन है जो प्रारम्भ में अड़चन डालता एवं स्वादेन्द्रियों के लिए अभ्यस्त आहार को ग्रहण करने के लिए ठेलता रहता है। यह भी एक परीक्षा है। जो साधक अन्नाहार की एक माह कल्प वाली परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं, वे आगे और भी बड़ी तपश्चर्या करने के पात्र बन जाते हैं। मात्र एक ही औषधि, दुग्ध अथवा मट्ठे पर रहना तब अधिक अवधि के लिए भी सम्भव है। इस आहार कल्प को कड़ी कल्प चिकित्सा का प्रिमेडीकल टेस्ट माना जा सकता है।
गेहूं, चावल-मूंग के सम्मिश्रण से बनी खिचड़ी (अमृताशन), गेहूं का दलिया, दाल-चावल एवं दलिया-दाल का सम्मिश्रण अथवा हविष्यान्न (गेहूं, जौ, तिल) में से किसी एक को कल्प साधना हेतु चुना जा सकता है। गेहूं, मक्का, मूंगफली, बाजरा, चावल, चना इत्यादि से किसी एक खाद्यान्न को कल्प प्रयोग हेतु एकाकी रूप से साधक वाष्प सिद्ध कर अथवा अंकुरित कर लेते रह सकते हैं। प्रत्येक अपने आप में सम्पूर्ण हैं। प्रारम्भ में मन उचटने पर भी कुछ ही दिनों में यह आहार ऐसा सुस्वादु लगने लगता है कि स्वाद व पोषण दोनों ही प्रयोजन पूरे होते हुए शोधन-कल्प की प्रक्रिया चल पड़ती है। ध्यान यही रखना है कि उनमें से किसी को भी क्षुधा तृप्ति की सीमा तक न ग्रहण कर उतना ही लिया जाय जितना निर्धारण प्रारम्भ में किया गया। यह ग्राह्य-पाचन योग्य मात्रा से कम ही हो ताकि उपवास का प्रयोजन भी पूरा हो तथा कल्प के साथ जुड़ी तप-तितिक्षा भी सम्पन्न होती चले। शांतिकुंज में अभी तो दाल-दलिया, अमृताशन, मूंग आदि का क्रम चलता है लेकिन बाद में भिन्नताएं साधक की प्रकृति के अनुसार बढ़ाई जाती रहेंगी।
जिस प्रकार कच्चा भोजन स्वाभाविक आहार माना जाता है, उसी प्रकार वाष्प सिद्ध अन्नाहार एक प्रकार का विज्ञान सम्मत, पुष्टिवर्धक, स्वाभाविक, समग्र भोजन कहा जा सकता है। बिना पीसे कच्चा गेहूं, चावल या कोई अन्य खाद्यान्न तो कोई भी खा नहीं सकता है। प्राकृतिक आहार और उसकी पाक पद्धति में समन्वय बनाये रहने के लिए आवश्यक है कि बिना आवश्यक तत्वों में कोई परिवर्तन लाये उन्हें भाप से ही पकाकर स्वाभाविक रूप में ही उन्हें ग्रहण किया जाय। अनाजों में शक्ति और स्निग्धता, प्राण और लावण्य, उसमें विद्यमान जल तत्व के कारण होते हैं। यदि उन्हें सुखाकर समाप्त कर दिया गया तो प्राण विहीन अन्न किस काम का। स्टार्च-विटामिन्स आदि के बारे में भी यही बात लागू होती है। वाष्प प्रक्रिया से इनकी हानि न्यूनतम होती है तथा ये अवशोषण योग्य रूप में (ऐसीमिलेबल) में बदल जाते हैं। अंकुरित रूप में अथवा भाप से पकाकर लेने पर, अच्छी तरह चबाकर, रस एन्जाइमों में अन्न के प्राण तत्त्वों का संयोग करा देने पर ही आहार ग्रहण करने की प्रक्रिया पूर्ण होती है। किसी भी रूप में पेट में तो भोजन जाना ही चाहिए, इससे भर काम नहीं चलता। स्वास्थ्य सुधार, आमाशय-आंत संस्थान की क्षमता-वृद्धि के अतिरिक्त मनोविकारों के शमन तथा मनोबल वृद्धि हेतु भी ऐसे आहार का कुछ दिन लेते रहना अनिवार्य है। इससे जुड़ा उपवास शोधन तो करना ही है।
वाष्प सिद्ध प्रक्रिया द्वारा वस्तुतः हमें पाक विद्या में क्रांति ही लानी है। प्रेशर कुकर, स्टीम कुकर आदि इन दिनों खूब प्रचलित हैं। पर उनका प्रयोजन जिसलिये था, उस कार्य में उनका उपयोग नहीं हो पा रहा। समय, रम, ईंधन की बचत तथा आहार की गुणवत्ता वृद्धि का यह सर्वश्रेष्ठ साधन माना जा सकता है। पूर्णान्न खिचड़ी, दो अन्न का अमृताशन, सादी खिचड़ी एवं दलिया तो साधारण-सा परिवर्तन मात्र ढर्रे में चाहते हैं। उनमें अनाज (कार्बोहाइड्रेट), मूंग (प्रोटीन), मूंगफली (फैट या वसा) इत्यादि सभी होता है। क्षार-लवण, विटामिन्स (पानी में घुलनशील) जोड़ना हो तो हरी तरकारी भी डाल सकते हैं। पूर्णान्न खिचड़ी में ज्वार, बाजरा या गेहूं में से कोई एक अनाज 100 ग्राम (अंकुरित), अंकुरित मूंग 30 ग्राम, अंकुरित मूंगफली 10 ग्राम, 10 ग्राम नारियल लगभग पाव भर पानी तथा मात्र 1 चम्मच सैंधव नमक डाला जाता है। थोड़ी सी हल्दी और डाली जा सकती है। इसमें सारे पोषक तत्व विद्यमान हैं। सादी खिचड़ी में 100 ग्राम चावल, 50 ग्राम अंकुरित मूंग, 10 ग्राम अंकुरित मूंगफली, लगभग 1।2 किलो पानी, नमक 2।। ग्राम डालते हैं। पाचन प्रक्रिया को फिर से अपने सही रूप में लाने के लिए यह एक सर्वश्रेष्ठ आहार है। दलिया खाना हो तो मोटा दला हुआ अन्न 50 ग्राम, 150 ग्राम पानी, 30 ग्राम गुड़ की राव या शर्करा एवं 5 ग्राम नमक डालकर सुपाच्य सुस्वादु बनाया जा सकता है। इस आहार में पोषण के सभी तत्व विद्यमान है। रोटी की अपेक्षा यह अधिक स्वादिष्ट व सुपाच्य है। अमृताशन में समानुपात में दाल व चावल लेकर नाममात्र का सैंधव लवण तथा हल्दी डाली जाती है। अपनी आवश्यकतानुसार मात्रा निर्धारित कर कोई भी व्यक्ति मात्र इतने पर भी रह सकता है।
चावल, गेहूं और मोटे अनाज भारत के मुख्य खाद्यान्न हैं। ये कैलोरी प्राप्ति के सस्ते से सस्ते साधन माने जाते हैं। भारत की बहुसंख्य जनता को 70 से 80 प्रतिशत कैलोरी इन्हीं से मिलती है। पर इनके बारे में ठीक जानकारी न होने से सामान्यतया इन्हें विकृत रूप से लेकर नष्ट कर दिया जाता है। फलतः ग्रहण करते हुए भी व्यक्ति कुपोषण का शिकार बना रहता है। कुपोषण खाद्य का अभाव ही नहीं विकृति भी है—यह अच्छी तरह समझा जाना चाहिए। चावल में खाद्यान्न प्रोटीन अच्छी मात्रा में होते हैं। बिना पालिश किया चावल लिया जाय तो उसकी पोषण क्षमता अच्छी होती है—इसमें सामान्यतया 12.6 प्रतिशत आर्द्रता, 8.5 ग्राम प्रतिशत प्रोटीन्स, 0.6 ग्राम प्रतिशत वसा, 77.4 ग्राम प्रतिशत कार्बोज, 0.9 प्रतिशत खनिज लवण, 349 कैलोरी प्रति 100 ग्राम होते हैं। प्रति 100 ग्राम में 10 मिली ग्राम विटामिन-बी1, 4 मिली ग्राम विटामिन-बी2 तथा 0.12 मिली ग्राम विटामिन-बी6 होता है। गेहूं (दले हुए) में आर्द्रता कुछ कम, प्रोटीन 18.2 ग्राम प्रतिशत, वसा 1.6 ग्राम प्रतिशत, कार्बोज 77 ग्राम प्रतिशत, ऊर्जा 356 कैलोरी प्रति 100 ग्राम तथा कैल्सियम, फास्फोरस व लोहा क्रमशः 37, 394 व 5 मिली ग्राम की मात्रा में होते हैं। यह सन्तुलन की दृष्टि से श्रेष्ठ अनुपात है। ज्वार, बाजरा, जौ, कुटू, कंगनी, मकई, जई, रागी, मुरमुरा, सांवा, कुठकी आदि मोटे अनाजों की श्रेणी में आते हैं जिनमें न्यूनाधिक रूप से उपरोक्त सम्मिश्रण सन्तुलित अनुपात में होता है।
दालों में चला, उड़द, लोबिया, मूंग, कुलथी, मसूर, मोठ, मटर, राजमाह, अरहर एवं सोयाबीन की गिनती होती है। इनमें भी चना वसा (4.3 ग्राम प्रतिशत), प्रोटीन्स (17.1 प्रतिशत) तथा कैल्सियम, फास्फोरस, लोहा (क्रमशः 203, 312, 10.2 मिली ग्राम प्रतिशत) की दृष्टि से सर्वाधिक सम्पन्न माना जाता है। मूंग में प्रोटीन का अनुपात 24 ग्राम प्रतिशत व वसा का 1.3 प्रतिशत है लेकिन खनिज लवणों तथा विटामिन-बी की दृष्टि से यह भी अपने आप में समग्र है (कैल्सियम 124, फास्फोरस 326, लोहा 7.3)। इनमें स्वाभाविक रेशे भी 4.1 ग्राम प्रतिशत की मात्रा में होते हैं जो पाचन प्रक्रिया में सहायक होते हैं। सभी खाद्यान्नों का विवरण देना तो सम्भव नहीं, पर जहां जैसा भी उपलब्ध हो उसी को स्वाभाविक रूप से लिया जा सके तो समग्र पोषण आहर अपने आप में ये खाद्यान्न भी बन सकते हैं, इस तथ्य का प्रतिपादन किया जा रहा है। अंकुरित अन्न वाष्प सिद्ध होकर उन सभी उपादानों को-जो शरीर निर्माण हेतु आवश्यक हैं, समुचित मात्रा में पहुंचाते हैं व अपने सूक्ष्मतम रूप में अवशोषित होकर शोधन प्रक्रिया में सहायक होते हैं। इस तथ्य भर को समझ लिया जाय तो खाद्य सम्बन्धी अधिकांश समस्याएं हल हो सकती हैं। जहां कुपोषण, खाद्य में पोषक तत्वों का अभाव एक समस्या है, वहां उनकी विकृति से शरीर को होने वाली हानि अपने आप में एक विडम्बना है, जिससे बहुसंख्यक लोग पीड़ित देखे जाते हैं। साधना क्षेत्र में उतरने के पूर्व खाद्य की शक्ति सामर्थ्य का उद्भव व उससे अपनी जीवनी शक्ति में वृद्धि करने की विद्या समझना प्रत्येक के लिए अभीष्ट है।
(4) फलाहार कल्प—
फलों में जिन्हें प्रमुख माना जाता है, वे हैं—आम, खरबूजा, पपीता, छुहारा, जामुन, संतरा, केला, शहतूत, फालसा, सेव, नाशपाती, अमरूद, शरीफा। यों तो गुदेदार, ठोस व रसीले फलों में और भी कई हैं पर वे कल्प की दृष्टि से उपयुक्त नहीं। ऊपर वर्णित फलों में भी कुछ ऐसे हैं जो अत्यधिक महंगे होने के कारण सबके द्वारा लिया जा सकना सम्भव नहीं। फल विटामिन-सी के अच्छे स्रोत हैं। इनमें कैरोटीन व बी-काम्पलेक्स भी प्रचुर मात्रा में होता है। सर्वाधिक प्रयुक्त केला कार्बोहाइड्रेट की दृष्टि से सम्पन्न है। यदि एक ही आहार पर रहना हो तो प्रकृति के निर्धारणानुसार किसी भी एक फल पर आसानी से रहकर एक माह की अवधि पूरी की जा सकती है। फल पथ्य भी हैं, औषधि भी। यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि फलों से सिट्रिक एवं अन्यान्य अम्ल रसों के प्रभाव से रोगाणु बच नहीं पाते। इस प्रकार से ये आंत्रशोधक प्रक्रिया के साथ ही साथ बलवर्धन भी करते हैं। ये शरीर को हितकारी जीवाणु क्लोरा को भी जनम देते हैं। फलों की एक विशेषता है कि ये सभी क्षार धर्मी होते हैं। अम्ल धर्मी खाद्य लेने और अन्यान्य विहार की त्रुटियों के कारण जो अम्ल विष उत्पन्न होता है, फलों का क्षारधर्मी रस उन्हें नष्ट कर देता है। शरीर में संचित यूरिक एसिड (जो गठिया, वात रोग, गुर्दे की बीमारी, हृदय रोग आदि के लिए उत्तरदायी होता है) जैसे विष को भी ये निकाल बाहर करता है। सभी फल अत्यन्त सुपाच्य होते हैं। उनका ताप मूल्य अति अल्प होता है। इसी कारण फलाहार से उपवास करना एक प्रकार की चिकित्सा कहा गया है।
कल्प की दृष्टि से चार फल ही निर्धारित हैं, उपयुक्त माने गये हैं—आम, खरबूजा, पपीता एवं अमरूद। आम तो खट्टा-मीठा फल माना गया है। यह कार्बोहाइड्रेट (11.8 ग्राम प्रतिशत), विटामिन-ए (4800 यूनिट्स प्रति 100 ग्राम) तथा विटामिन-सी (21 मिली ग्राम प्रतिशत) से युक्त है। मौसम के दिनों में ताजा डाल पर पका आम उपलब्ध हो सकता हो तो शोधन-पोषण की दृष्टि से वह एक सर्वांगपूर्ण आहार है। आम की मंजरियां, बौर या पुष्प भी एक प्रकार की औषधि है। इन्हें अतिसार, कफ, पित्त, प्रमेह में दिया जाता है। ये प्रदर नाशक व मलरोधक माने गये हैं। पका आम वीर्यवर्द्धक, सुखदायक, वातनाशक, वर्ण को सुन्दर बनाने वाला, पित्त शामक, कसैला, अग्नि-कफ तथा शुक्रवर्धक है, श्लेष्मा तथा रुधिर के विकारों को दूर करता है। यह दस्तावर तभी होता है जब कृत्रिम रूप से बनाया जाता है। चूसने वाला आम हल्का, सुपाच्य, विषनाशक व बलवर्धक है जबकि काटा हुआ आम आलस्य बढ़ाता व देर से पचता है। कल्प के लिए आम चूसे जा सकने वाले, ताजे, पतले रस युक्त, मीठे ही प्रयुक्त होते हैं। मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाई जाती है। अन्तिम समय में धीरे-धीरे मात्रा कम कर दूध लेने लगते हैं। कल्प काल में यथा सम्भव पानी नहीं लिया जाता। कमजोर व्यक्तियों को समानुपात में प्रारम्भ से दूध साथ लेना हितकारी होता है। जिन्हें शोधन व मेदोनाश अभीष्ट है, वे बिना दूध के आम कल्प करें। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अधिक आम खाने से मंदाग्नि, विषम ज्वर, रक्त विकार, कब्ज भी पैदा हो सकता है। अतः मात्रा धीरे-धीरे ही बढ़ाकर आधा उपवास कर लेना श्रेष्ठ है ताकि पाचन प्रक्रिया पूरी हो सके व कल्प प्रयोजन सम्पन्न हो सके।
आम कल्प स्वस्थ व्यक्ति तो कर ही सकते हैं। संग्रहणी, श्वास, अरुचि, अम्ल, पित्त, यकृति वृद्धि रोगियों में यह विशेष भूमिका निभाता है। क्षय, फुफ्फुस-ब्रण और दौर्वल्य में यह मांस-रक्त-मज्जा बढ़ाता है। आम्रकल्प की अवधि में यदि वायु शूल अथवा कफ का प्रकोप होता दिखाई पड़े तो अदरक व सैंधव लवण थोड़ी मात्रा में लेने से सामयिक कष्ट निवारण हो जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि शरीर शोधन सामर्थ्य से कहीं अधिक मात्रा में ली जा रही है। आम के रस के साथ जब भी लिया जाय, धारोष्ण गौ दुग्ध ही लिया जाय।
खरबूजा एक सर्वसुलभ सस्ता फल है। जिसका बहुधा कल्प किया जाता है। इसे फलराज या दशागुल भी कहते हैं। यह सात्वीकरण उत्पन्न करने वाला औषधि समान फल है जो ग्रीष्म ऋतु में सब जगह उपलब्ध होता है। आयुर्वेद मतानुसार इसे मूत्रल, बलवर्धक, कोष्ठ शोधक, वीर्यवर्धक, उन्माद नाशक तथा उदर विकार शामक बताया गया है। हृदय रोगियों के लिये यह उत्तम औषधि है। इसका कल्प भी निरापद है। स्त्रियों के गर्भाशय के अपने स्थिति से हटने पर शिराओं पर दबाव से जो सूजन पैदा हो जाती है उस स्थिति में खरबूजे का कल्प लाभ करता है। खरबूजा व दूध एक साथ कभी नहीं लिये जाते। यदि मध्यावधि में दस्त आने लगें तो बीज का छिलका घोंट कर पानी के साथ देने से तुरन्त आराम मिलता है।
खाद्य विज्ञान की दृष्टि से इस फल में 78 प्रतिशत खाद्य भाग तथा 95.2 प्रतिशत आर्द्रता होती है। प्रोटीन, वसा, कार्बोज क्रमशः 0.3, 0.2, 3.5 ग्राम प्रतिशत तथा विटामिन-ए 196 यूनिट्स, विटामिन-सी 26 मिलीग्राम कैल्सियम 32 व फास्फोरस 14 मिलिग्राम प्रतिशत होते हैं। अपनी संरचना व गुणवत्ता की दृष्टि से अल्प प्रयोजन हेतु यह एक श्रेष्ठ फल है। आजकल रसीले फल व अन्य फल जहां बासी अवस्था में ‘कोल्ड स्टोरेज’ से उपलब्ध होते हैं, वहां खरबूजा ताजी अवस्था में ग्रीष्म में उपलब्ध रहता है।
पपीता एक ऐसा फल है जिसमें रेचक एवं ग्राही दोनों ही गुण पाये जाते हैं। इसका कल्प आमाशय की कमजोरी, अग्निमंदता, कोष्ठबद्धता के रोगी के लिए तथा बवासीर से त्रस्त व्यक्तियों के लिए बहुत लाभदायक रहता है। पके पपीते में 75 प्रतिशत खाद्य भाग होता है। 90 प्रतिशत आर्द्रता के अतिरिक्त इसमें 0.6 ग्राम प्रोटीन, 0.1 ग्राम वसा, 0.5 ग्राम खनिज लवण प्रति 100 ग्राम तथा 7.2 ग्राम प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है। कैल्सियम 17 मिली ग्राम, फास्फोरस 23 मिली ग्राम, विटामिन ‘ए’ 366 माइक्रोग्राम, तथा विटामिन सी. 57 मिली ग्राम प्रतिशत होते हैं। यह अपने आप में एक समग्र टानिक का फार्मूला है। इसके एन्जाइम अपने आप में चमत्कारी हैं। पाचन संस्थान को वे सबल बनाते हैं तथा बिगड़े हुए संस्थानिक कार्य को पटरी पर लाते हैं। यकृत वृद्धि में यह औषधि के समान काम करता है। कृमियों को मारने की सामर्थ्य भी इसमें है। यह एक उत्तम रक्त शोधक है। ताजा पपीता जो डाल पर पका हो, धीरे-धीरे मात्रा बढ़ाते हुए लिया जाय एवं सामान्य आहर पर आते समय कम कर दिया जाय।
अमरूद सर्वांग उपयोगी समग्र आहर है। इसे विटामिन ‘सी’ प्रधान फल माना जाता है। जहां नीबू में 31 से 68 मिली ग्राम प्रति सौ ग्राम विटामिन ‘सी’ होता है, अमरूद में 300 से 450 मिलीग्राम तक। अधिक पका अमरूद स्वाद में तो मीठा होता है पर खाद संरचना एवं विटामिनों की मात्रा की दृष्टि से अत्यन्त कमजोर। कड़ा छिलके वाला अमरूद अर्ध पक्वता की स्थिति में ही खाया जाना चाहिए। अमरूद के फलों में आर्द्रता 81.7 प्रतिशत, प्रोटीन्स 0.1 ग्राम प्रतिशत, कार्बोज 11.2 ग्राम प्रतिशत तथा कैल्सियम, फास्फोरस, लोहा क्रमशः 10, 23 एवं 1.5 मिलीग्राम प्रतिशत होता है। विटामिन ए इसमें नहीं होता लेकिन बी कॉम्पलेक्स, बी, सी की दृष्टि से सुसम्पन्न है। आयुर्वेद मतानुसार यह मधुर कषाय, शीत, पित्त शामक, कफ, वात वर्धक, मूत्रल व आमाशय शोधक है। पीलिया, मूत्र कृच्छ्र, अश्मरी (पथरी) के लिए यह औषधि है।
इन चारों फलों के अतिरिक्त केला, जामुन, छुआरा, संतरा, शहतूत, फालसा, सेव, नाशपाती, बिल्व एवं शरीफा इत्यादि फलों का भी कल्प परिस्थिति एवं प्रकृति के अनुसार किया जा सकता है।
(5) शाकाहार कल्प—
हरी तरकारियां हमारे शाकाहारी राष्ट्र का प्रमुख भोजन हैं। पालक, चौलाई, मेथी, बथुआ, तोरई, परवल, लौकी, टमाटर व ककड़ी ऐसी तरकारियां हैं जो सर्वोपलब्ध हैं। इनमें सभी सर्वगुण सम्पन्न हैं व इनमें से किसी एक पर बने रहना प्रत्येक के लिए सुगम है। ये सभी कैल्सियम, लोहा, कैरोटीन (विटामिन ए, विटामिन सी), राइबोफ्लेबिन एवं फौलिक अम्ल के श्रेष्ठतम स्रोतों में गिनी जाती हैं। सामान्य स्वास्थ्य को बनाये रखने, विकारों का शोधन करने तथा स्वास्थ्य सम्वर्धन के विविध उद्देश्यों को पूरा करने में उनकी भूमिका सर्व विदित है। मूल व केन्द्र प्रधान खाद्य कार्बोज के स्रोत होते हैं। इनका स्टार्च पचने में कठिन होता है, अतः इनका कल्प कुछ कठिन है। फिर भी गाजर एवं शकरकन्द ऐसे दो कन्द हैं जिनका प्रयोग क्रिया जा सकता है।
आयुर्वेद के शाक वर्ग प्रकरण के अन्तर्गत इनका वर्णन करते हुए उन्हें चिकित्सार्थ सर्वोत्तम यथार्थ माना है। चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट, चक्रपाणि, भाव निदा प्रभृति विद्वानों ने इस वर्ग की महत्ता का आयुर्वेद में विस्तार से वर्णन किया है। मूलतः इन सभी के भीतर 90 प्रतिशत भाग जल का होता है। अमिश प्रोटीन व वसा भी उनमें कम होता है लेकिन खनिज लवण तथा विटामिनों की दृष्टि से ये सम्पन्न माने जाते हैं। देह की कार्य क्षमता बढ़ाने, परिपाक शक्ति को तेजवान बनाने, अस्तिथ-दांतों के निर्माण आदि में उनकी भूमिका असंदिग्ध है। इनके भीतर सेल्युलोज नामक पदार्थ यथेष्ट मात्रा में होता है। यह आंतों में उपस्थित मल को सूखने से कड़ा नहीं होने देता। आंतों को सदैव गतिशील बनाये रखना इसका मूल कार्य है। इससे कब्ज व उस विकृति से अन्य अनेकानेक रोगों से निवृत्ति मिलती है। अन्य प्रोटीन प्रधान खाद्य (दालें-अन्नादि) से जो रक्त में अम्लता उत्पन्न होती है, उसका भी निवारण शाक वर्ग में विद्यमान क्षार सत्व से हो जाता है। इनके पत्ते सूर्य से आहार सीधे ग्रहण करते हैं (फोटो शिन्थेसिस प्रक्रिया द्वारा)। अतः ये मनुष्य के लिए एक परिपूर्ण खाद्य बनाते हैं। कल्प की दृष्टि से—विशेषकर साधना क्षेत्र में शाकों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। इनकी कारण शक्ति के बलबूते ही इन्हें यह श्रेय मिला है।
इन शाकों में पालक सर्वाधिक जनप्रिय है। यह विशेष रूप से लोहा (10.9 मिली ग्राम प्रतिशत), कैल्सियम (73 मिलीग्राम प्रतिशत) प्रधान पत्तीदार साग है। अन्य खनिज भी इसमें प्रचुर मात्रा में होते हैं। रक्ताल्पता, रक्त पित्त एवं संग्रहणी में यह विशेष रूप से लाभकारी है। यह पथ्य में शीतल है। कोष्ठबद्धता, कब्ज, मूत्र सम्बन्धी रोग, गुर्दे के संक्रमणों को इसका क्षार भाग समाप्त कर देता है। यह पीलिया रोग में तथा अर्श में भी विशेष लाभकारी है। हर ज्वर के बाद पालक के रस को लिये जाने जाने का शास्त्रोक्त विधान पूर्णतः विज्ञान सम्मत है। यही आधार इसके कल्प का भी है।
चौलाई एक सस्ता सर्वोपलब्ध साग है। इसमें लोहा लगभग 25 मिली ग्राम प्रतिशत तथा कैरौटीन 5500 माइक्रोग्राम होता है। अन्य खनिज लवण भी प्रचुर मात्रा में होते हैं। प्रोटीन व बी कॉम्लेक्स समूह के विटामिन की सन्तुलित मात्रा इसमें है। इसका सूप या पंचांग का कल्प बनाकर खाते हैं। महर्षि चरक के अनुसार यह रूक्ष, विषघ्न, कफ, पित्त शामक, रक्त पित्तहर, मूत्रल तथा सारक है। प्रदर रक्त, वमन, अर्श में यह विशेष लाभकारी है। इसे संस्कृत ग्रन्थों में तन्डुलीय, मेघनाद, अल्हमारिष नामों से पुकारा गया है। इसका शाक अपने आप में सम्पूर्ण भोजन है। यह मल-मूत्र दोनों को साफ करने वाला श्रेष्ठ निस्सारक व रक्त शोधक है। इसकी जड़ गर्म, कफ नाशक, रजोरोधक, प्रदर निवारक है। एक ही पौधे में दो विपरीत गुण (जड़ गर्म व पत्ते ठण्डे) इसकी एक अद्भुत विशेषता है।
मेथी को मेथिका, दीपनी, मन्था कई नामों से ऋषियों ने सम्बोधित कर कहा है कि यह शाक वात-कफ शामक, ज्वर विनाशक है। यह एक प्रकार का टॉनिक है। संग्रहणी, अग्निमन्दता व वात रोगों के लिए श्रेष्ठ औषधि है। यह रुचिकारक, भूख बढ़ाने वाली, यकृत-पित्ताशय के रसों को बढ़ाने वाली, मल को बांधने वाली औषधि है। मेथी के पत्ते पित्त शामक व शोथ नाशक होते हैं तथा बीज कृमि नाशक, मधुमेह नाशक हैं। मेथी में मूलतः कैल्सियम (395 मिलीग्राम प्रतिशत), फास्फोरस (51 मिलीग्राम प्रतिशत), लोहा (16.5 मिलीग्राम प्रतिशत) तथा कैरोटीन (2340 माइक्रोग्राम प्रतिशत) होते हैं। अपनी गुणवत्ता के कारण इसे पथ्य व कल्प हेतु शाकों में उत्तम माना जाता है।
रोगों के निवारण व बल-बुद्धि हेतु मेथी की चर्चा कई स्थानों पर की गयी है। पंच कर्म से शुद्धि के उपरान्त प्रतिदिन एक या दो तोले कच्ची मेथी, मूंग की दाल व जौ की रोटी का पथ्य रोगी को नित्य दिया जाता है। दूसरे सप्ताह 4 से 8 तोला एवं तीसरे सप्ताह आठ से बारह तोला इस प्रकार बढ़ाते हुए क्रमिक विकास में देखा जा सकता है कि रोगी की भूख खुल रही है एवं जीवनी शक्ति बढ़ रही है। साल भर तक इसके मोदक या सूखे साग का भी सेवन किया जा सकता है। मेधा वृद्धि, रक्त शोधन, जरा निवारण, नवयौवन की प्राप्ति इस कल्प के अतिरिक्त लाभ हैं।
बथुआ उत्तर भारत में अधिक लोकप्रिय साग है। इसे आदि ग्रन्थों में क्षारपत्र, वास्तुक शाकराज नाम से सम्बोधित किया गया है। सभी आयुर्वेदिक निघण्टुओं में इसका शाकराज नाम से वर्णन है। यह अग्निदीपक, रूचिवर्धक, शुक्रवर्धक, कृमिनाशक तथा त्रिदोष हर है। यह ज्वर मिटाता है, छिपे दोषों को निकाल बाहर करता है। इसमें खनिज लवण (2.6 ग्राम प्रतिशत), कैल्सियम (150 मिलीग्राम), फास्फोरस (80 मिलीग्राम), लोहा (4.2 मिलीग्राम) तथा कैरोटीन, बी कॉम्पलेक्स व सी विटामिनों की भी अच्छी मात्रा होती है। इसका क्षार अंश मल-मूत्र शोधक है। बढ़े यकृत, गम्भीर क्षयरोग, हृदय में रक्तावरोध, जलोदर एवं बवासीर जैसी असाध्य व्याधियों में यह औषधि एवं पथ्य दानों ही भूमिका निभाता है।
यह सर्वविदित है कि गाजर विटामिन ए, फास्फोरस तथा कार्बोज का (क्रमशः 1890 माइक्रोग्राम, 430 मिलीग्राम, 11 ग्राम प्रति 100 ग्राम) उत्तम स्रोत है। इसी प्रकार ककड़ी (कर्कटी) कार्बोज, फास्फोरस तथा थायमिन (2.6 मिलीग्राम, 0.03 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम) एवं पके टमाटर कैल्सियम, फास्फोरस, कैरोटीन, बी कॉम्पलेक्स व सी समूह (48, 20, 341, 0.12 एवं 27 यूनिट्स 100 ग्राम) की दृष्टि से सुसम्पन्न हैं। प्रश्न संरचना का नहीं इनकी खाद्य की दृष्टि से गुणवत्ता, पाचन क्षमता व पाचक रसों को उत्तेजित करने की सामर्थ्य का है। इसी प्रकार परवल, तोरई, लौकी उत्तम शाक हैं एवं संरचना की दृष्टि से समग्र। इनमें से किसी भी एक को अपना खाद्य चुनकर माह भर का कल्प किया जा सकता है। फलाहार से शाकाहार की महिमा अधिक गायी गयी है। वे प्रकृति के और भी समीप हैं। इनकी उपलब्धि हर मौसम में संभव है। सुविधापूर्वक इन्हें अपने ही घर आंगन में बोकर हर व्यक्ति बिना पराश्रित हुए यथेष्ट मात्रा में बिना अधिक विकृति किये इनका कल्प कर स्वास्थ्य लाभ तथा साधना पथ्य के दोनों ही प्रयोजन पूरे कर सकता है।
(6) औषधि कल्प—
एक ही अन्न के आहर कल्प की तरह औषधि कल्प का भी अपनी जगह महत्व है। काष्ठ औषधियां मात्र चिकित्सा हेतु नहीं दी जाती। वे कल्प साधकों की अन्तःशक्ति को उभारती व जीवनी शक्ति को बढ़ाती हैं। कल्पकाल के ये सभी उपक्रम व्यक्ति के आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक त्रिविध पक्षों के समग्र समुच्चय को परिवर्तित करने के लिए नियोजित माने गये हैं। स्थूल औषधियां तो बाह्योपचार भर कर पाती हैं परन्तु दिव्य वनौषधियां अन्तःकरण का भाव कल्प करने में सफल होती हैं।
वनौषधि पंचकर्म चिकित्सांक के विद्वान लेखक पं. हरिनारायण शर्मा वैद्यराज के अनुसार ‘‘कल्पेन विधि विशेषण कल्प चिकित्सा’’ अर्थात विशेष विधि से की गई चिकित्सा। रसायन सेवन द्वारा कुटी प्रावेशिक एवं वात तापिक विधि से शरीर को नवयौवन प्रदान कर स्फूर्ति भर देने की चर्चा सभी विद्वानों ने समय-समय पर की है। उन सब का मूल उद्देश्य शरीर के शोधन-नव निर्माण पर ही केन्द्रित रहा है। परन्तु मात्र यही कल्प का अर्थ नहीं है। कल्प एक वृहत् परिधि में शरीर मन—भाव संस्थान के परिवर्तन की स्थिति का नाम है। इस कार्य में दिव्य औषधियां एकाकी प्रयोग के रूप में मनःस्थिति के अनुरूप प्रयुक्त की जाती हैं एवं लाभ पहुंचाती हैं।
तुलसी, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, अश्वगंधा, शतावरी, शुण्ठी, पलाश, वाकुची, गुडूची, आंवला, हरीतकी, निर्गुण्डी, मुण्डी, चित्रक, मूसली, कुमारी, शाल्मकी, काकजंघा, बच लक्ष्मण, ब्रह्मदण्डी, ज्योतिष्मती, पुनर्नवा, त्रिफला, गोक्षुर, विधारा, वासा, मोथा, काकोली, जीवन्ती, बिल्व, भृंगराज, अमलतास, चोपचीनी इत्याधि अनेकानेक औषधियों की चर्चा ग्रन्थों में एकाकी अथवा न्यूनाधिक सम्मिश्रण के रूप में कल्प प्रयोजन हेतु की गई है। जितनी भिन्नतायें हैं उतनी ही तरह की फलश्रुतियां हैं। मनःसंस्थान के शोधन, कुसंस्कारों की प्रतिष्ठापना, मेधा सम्वर्धन, प्रखरता सम्पादन की दृष्टि से शांतिकुंज की कल्प साधना में तुलसी, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, अश्वगंधा, शतावरी, आंवला, गिलोय, विधारा, वासा एवं बिल्व इन दस औषधियों को ही प्रयोग में लाया जाता है।
इनमें तुलसी का स्थान सर्वोपरि है। यह एक संजीवनी बूटी है जो सीधे कारण शरीर को प्रभावित करने वाली निराली औषधि मानी जाती है। इसके नियमित सेवन से शरीर श्रुति तथा स्वास्थ्य रक्षा का प्रमुख आधार बनता है।
वैज्ञानिक, ऋषियों, आचार्यों द्वारा गौ, गंगा, गीता, गायत्री की तरह तुलसी वृक्ष को भी भारतीय धर्म और संस्कृति का आवश्यक अंग मानना इसकी उपादेयता के फलस्वरूप ही है। तुलसी के गुणों का वर्णन करते-करते शास्त्रकार थक गया तो उसने एक वाक्य में सारी गाथा समाप्त कर दी—
अमृतोस्मृतरूपासि अमृतत्वप्रदायिनी ।
त्व मामुद्धर संसारात् क्षीरसागर कन्यके ।।
विष्णुप्रिय! तुम अमृत स्वरूप हो, अमृतत्व प्रदान करनी हो, इस संसार से मेरा उद्धार करो।
तुलसी की पूजा-अर्चा से वस्तुतः कोई स्वर्ग उपलब्ध होता है या नहीं, ज्ञात नहीं किन्तु रोग-शोक के नरक में फंसे हुए लोगों के लिए तुलसी सचमुच इतनी उपयोगी पाई गई है कि उसे ‘‘उद्धारकर्त्री’’ ही कहा जा सकता है।
तुलसी के अनेक गुणों का प्रकाश उसके अनेक पर्यायवाची नामों से ही हो जाता है। तुलसी के पत्ते चबाने से मुंह में लार, जो कि अत्यन्त पाचक, अग्निवर्धक, भूख बढ़ाने वाला तत्व है, बढ़ती है इसलिए उसे सुरसा कहा है। दूषित वायु, रोग और बीमारी के कीटाणु ‘वायरस’ रूपी भूत, राक्षस और दैत्यों के मार भगाने के कारण उसे भूतघ्नी, अपेतराक्षसी तथा दैत्याघ्नी कहते हैं। हिस्टीरिया, मृगी, मूर्छा, कुष्ठ आदि रोग जिन्हें पूर्व जन्मों के पाप कहा जाता है, वस्तुतः जो दीर्घकालीन विकृतियों (पापों) के फलस्वरूप असाध्य रोग पैदा हो जाते हैं और जो बहुत उपचार करने पर भी अच्छे नहीं होते वह भी तुलसी से अच्छे हो जाते हैं इसीलिए उसे पापघ्नी कहा गया है। इसका एक नाम फूल-पत्री है। अर्थात इसके पत्ते चबाने से शरीर शुद्ध होता है और शरीर में जीवनी शक्ति बढ़ती है। गौरी तंत्र तुलसी माहात्म्य में बताया है—
तुलसी पत्र सहितं जलं पिबति यो नरः ।
सर्व पापविनिर्मुक्तो मुक्तो भवति भामिनी ।।3।।
तुलसी दल को जल में डालकर जो उस शीत-कषाय को पीते हैं वे अनेक रोगों से छुटकारा पाते हैं। चरणामृत वस्तुतः एक प्रकार का शीत-कषाय ही है। राजनिघण्टु करवीरादि 152 में बताया है कि यह स्वाद और भोजन की रुचि बढ़ाती है, कीड़ों और छोटे कृमियों को, जो आंख से नहीं दिखाई देते (वायरसों) को मारती है। चरक ने इसे दमा, पसलियों के दर्द, खांसी, हिचकी तथा विषों का दूषण ठीक करने में लाभदायक लिखा है। यह कफ दूर करती है, इसमें कपूर की तरह की एक सुगन्ध होती है जो दुर्गन्ध मिटाती है।
चिकित्सा पक्ष के अतिरिक्त इसकी सूक्ष्म सात्विक सामर्थ्य सर्वविदित है। सामान्य कायाकल्प करने वाले ग्रन्थों में तो मात्र रसायनों की चर्चा है, परन्तु तुलसी जैसी महौषधि तो रसायन कर्म से भी अधिक श्रेष्ठ गुण रखती है। यह आर्षग्रन्थों मात्र में भी वर्णित है। इसके अनेकानेक भेदों में से मात्र रामा या श्यामा तुलसी का ही कल्प हेतु प्रयोग होता है। 50 ग्राम की मात्रा में कल्प में सेवन अतीव लाभकारी सिद्ध होता है।
आधि-व्याधि निवारण शब्द में कुसंस्कार-निष्कासन, स्वास्थ्य-संवर्धन एवं सद्गुण-प्रतिष्ठापन के सिद्धांत गुंथे हुए हैं। शास्त्रकार लिखते हैं—
त्रिकालम् विनता पुत्र पाशर्य तुलसी यदि ।
विशिष्यते कायशुद्धिश्चाछिद्रयाण शतं विना ।।
अर्थात् —‘हे विनता पुत्र! प्रातः, मध्यान्ह तथा शाम को, जो तीनों संध्याओं में तुलसी का सेवन करता है उसकी काया वैसे ही शुद्ध हो जाती है, जैसी कि सैकड़ों चान्द्रायण व्रतों से होती है।’ वस्तुतः तुलसी एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक कायाकल्प योग है। शरीर का बाह्य-अभ्यान्तरिक शोधन कर यह सामर्थ्य बढ़ाती है, चिन्तन को सतोगुण प्रधान तथा चरित्र को निर्मल बनाती है। कल्प चिकित्सा विधान में तुलसी पत्रदल चूर्ण को गंगाजल से संस्कारित किया जाता है तथा कल्क रूप में उसे नियमित रूप से 50 ग्राम (लगभग 10 चम्मच) की मात्रा में सेवन करने का विधान बनाया गया है।
तुलसी के बाद दिव्यता की वरीयता में ब्राह्मी का नाम दूसरे स्थान पर है। ब्राह्मी के कुटी प्रावेशिक विधि द्वारा कायाकल्प का वर्णन शास्त्रों में आया है। मेधावर्धन, उत्तेजना शमन, तनाव निवारण, वात आदि प्रकोपों से पीड़ित काया के दोषों को नष्ट करने के लिए इससे श्रेष्ठ कोई औषधि नहीं। ब्राह्मी स्वरस को गो दुग्ध में, ब्राह्मीपत्र का शाक, ब्राह्मी को घृत में भून अथवा मुलहटी-इलाइची के सम्मिश्रण से लेने की विभिन्न रोगों में व्यवस्था की जाती है। शुक्लपक्ष में संग्रहीत ब्राह्मीपत्र चूर्ण को गौ दुग्ध के साथ ‘‘ॐ अमृतोभवाय अमृतंकुरु’’ इस मंत्र से अभिमंत्रित कर ग्रहण करने का शास्त्रोक्त विधान भी है। कल्पसूत्रों में ब्राह्मी कल्प को तीस से पचास ग्राम की मात्रा में नित्य प्रातः दिया जाता है। आवश्यकतानुसार इसे दोपहर व संध्या को भी लिया जा सकता है परन्तु कुल सत्व की मात्रा किसी भी स्थिति में दिन भर में पचास ग्राम से अधिक नहीं होना चाहिए। बुढ़ापे का नाश, शतायु की प्राप्ति, स्मरण शक्ति में वृद्धि, मनोविकारों से मुक्ति—सभी ब्राह्मी सेवन की फलश्रुतियां हैं, जिन्हें साधक धीरे-धीरे अनुभव करने लगते हैं।
ब्राह्मी की कुछ विशिष्ट औषधियों यथा-तुलसी, आंवला, अर्क गुलाब, गुड़हल, शंखपुष्पी आदि की भावना देकर कल्क बनाने से विशिष्ट लाभ मिलता है। एक माह तक ब्राह्मी का निरन्तर सेवन आयु, बल को बढ़ाता ही है, वर्ण को सुन्दर, वाणी को मधुर तथा बुद्धि को तीव्र करता है। कायाकल्प के लिए मात्रा को कम या बढ़ा कर वर्ष भर अनुपान भेद से व्यक्ति के लिए सेवन का शास्त्रों में विधान है। अपनी कल्प साधना पद्धति में ब्राह्मी का कल्क अभिमंत्रित पुष्पों के रस की भावना के साथ साधकों को प्रातः वन्दनीया माताजी द्वारा दिया जाता है। सरस्वती पंचक की इस महत्वपूर्ण औषधि की आध्यात्मिक सामर्थ्य के विषय में जितना लिखा जाय, कम है।
शंखपुष्पी को मेधावर्धक, हृदय अवसादक, तनाव शामक माना जाता है। साधना विधि में इसके प्रयोग से एकाग्रता सम्पादन में विशेष लाभ मिलता है। इसके पंचांग का कल्क बनाकर दूध में मिलाकर प्रातः पुष्प रस के साथ देते हैं। दीर्घायुष्य, आसन सिद्धि, प्रखरता सम्वर्धन तथा जीवन रसों के उत्सर्जन द्वारा प्रसुप्त शक्तियों के जागरण की फलश्रुतियों का शंखपुष्पी कल्क के साथ सम्बन्ध जोड़ा जाता है। यह त्रिदोष शामक, मानसिक बल बढ़ाने वाली एक विशिष्ट औषधि है। साधकों की मनःस्थिति का विस्तृत विश्लेषण कर इसके योग्य पाने पर उन्हें प्रातः शंखपुष्पी कल्क दिये जाने का विधान बनाया जाता है।
अश्वगंधा, वात शामक वल्य रसायन है। नीरोग स्थिति के साधकों के लिए यह प्रकृति का अनुदान स्वरूप पुष्टिवर्धक टोनिक है। जिन साधकों ने संयम द्वारा अपने विकारों का शमन कर लिया है उनके अन्तःबल को उछालने में अश्वगंधा विशेष रूप से सहायक होती है। शतावर भी वल्य रसायन है जिसे सरस्वती पंचक गुणों में गिना जाता है। यह भी पुष्टिवर्धक, जीवनी शक्ति बढ़ाने वाली औषधि है। ये दोनों सीधे अन्तःस्रावी ग्रन्थियों पर प्रभाव डालते हैं। इस प्रकार ये चक्र उपत्यिकाओं पर प्रभाव डालकर उनमें निहित गुह्य सामर्थ्य को जगाती व आत्मिक प्रगति के सोपानों पर ऊंचा चढ़ाती हैं।
आंवले (धात्रीफल) के प्रयोगों से कायाकल्प सम्बन्धी ग्रन्थों में पृष्ठ भरे पड़े हैं। आंवले को ताजा अथवा चूर्णरूप में दोनों ही प्रकार से लिया जा सकता है। आंवले का रस शहद में मिलाकर अथवा चटनी के अवलेह के रूप में भी लिया जाता है। आंवला खट्टा होने से खटास पैदा कर सकता है। दांत कसैले हो जाते हैं व उनमें चीस पैदा होने लगती है। किसी को वायुशूल भी होने लगता है। ऐसे में मात्रा कम करके हल्का सा विरेचक द्रव्य तथा धारोष्ण दूध ले लेना हितकारी होता है। आंवले के विषय में कहा जाता है कि यदि सिद्ध किया आंवला नित्य रत्तीभर मात्र भी मनुष्य ग्रहण करता है और सारे नियमों का पालन करते हुए सात्विक चिंतन में लीन बना रहता है तो उसकी काया का रूपान्तरण होने लगता है। सिद्ध किया रस सूक्ष्म से सूक्ष्म स्नायुओं में बिना किसी प्रतिबन्ध के प्रविष्ट हो विजातीय मल-द्रव्यों को निकाल बाहर करता है। सारे शरीर में समत्व स्थापित कर नवीन निर्माण में इस रसायन की प्रधान भूमिका है। कहा जाता है कि वैखानस, बाल खिल्य एवं च्यवन ऋषिगण ने इसी रसायन से दीर्घायुष्य प्राप्त की।
आंवले को पिप्पली, बिड़ंग, अमृता, हरीतकी, विभीतक आदि के साथ अलग-अलग विभिन्न योगों में लेने का भी कायाकल्प योग में विधान है परन्तु औषधि एकाकी औषधि ताजे कल्क के रूप में ही लाभ पहुंचाती है। कल्प साधना विधि में निर्धारणानुसार साधकों को प्रातः 50 ग्राम के लगभग अभिमंत्रित आंवला कल्क पुष्परसों की भावना देकर शहद आदि स्निग्ध द्रव्यों के साथ दिया जाता है। एक माह की अवधि में निश्चित ही अनेकों को इससे लाभ मिलता है।
गिलोय, विधारा, वासा एवं बिल्व भी इसी प्रकार व्यक्ति विशेष की मनःस्थिति के आधार पर निर्धारित किए गये कल्प योग हैं। ये सभी औषधियां निश्चित परिणाम में नित्य लेने पर वांछित परिणाम दिखाती हैं। इन्हें आश्रम के परिसर में ही बोया-उगाया गया है। वह सुसंस्कारिता तो इनमें है ही, दिव्यता का समावेश इनकी गुणवत्ता को और बढ़ा देता है।
कल्प साधना के ये सभी उपक्रम एक ही उद्देश्य के लिए हैं—व्यक्ति के पुराने चले आ रहे ढर्रे का आमूल-चूल बदल देना। इसके लिए जहां तप तितिक्षा की दबाव भरी प्रक्रियाएं अनिवार्य हैं वहीं पर प्रज्ञायोग का साधना उपक्रम तथा औषधि आहार को सात्विक रूप में ग्रहण किया जाना भी। कृत्य के साथ भावना का समावेश कितना अनिवार्य है यह यहां आकर एक माह को कुटीवास करने वाला साधक ही समझ सकता है।