Books - आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान
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Language: HINDI
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पापों का प्रतिफल और प्रायश्चित-शास्त्र अभिमत
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सत्कर्मों और दुष्कर्मों का प्रतिफल तत्काल न सही यों देर सवेर में अवश्य मिलता है। इस संदर्भ में किसी को भी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि जो किया गया है उसकी परिणति से बच कर रहा जा सकता है। राजदण्ड, समाज भर्त्सना से तो मनुष्य अपनी चतुरता के आधार पर बच भी सकता है, किन्तु ईश्वर के यहां ऐसी अन्धेरगर्दी तनिक भी नहीं है। आज नहीं तो कल कृत कर्मों की परिणति सामने आने ही वाली है। इसलिए शास्त्रानुशासन यही है कि दुष्कृत्यों का प्रायश्चित किया जाय और पुण्य-परमार्थ का अनुपात बढ़ाया जाय। यह दोनों ही प्रयोजन आध्यात्मिक कल्प-साधना से सिद्ध होते हैं।
इस संदर्भ में शास्त्र अभिप्राय स्पष्ट है। नीतिकार कहते हैं कि संचित पापकर्म अनेकानेक संकटों को आमंत्रित करते हैं।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् ।
दारिद्रयदुःखरोगानि बन्धन व्यसनानि च ।।2।।
—चाणक्य
अर्थात् ‘‘मनुष्यों को अपने अपराध रूपी वृक्ष से दरिद्रता, रोग, दुःख, बन्धन और विपत्ति आदि फल मिलते हैं।’’
पापेन जायते व्याधिः पापेन जायते जरा ।
पापेन जायते दैन्यं दुःखं शोको भयंकर ।।
अर्थात् पाप से व्याधि, वृद्धत्व, दीनता, दुःख और भयंकर शोक की प्राप्ति होती है।
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।
स्थाणु मन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथा श्रुतम् ।।
अर्थात् अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करने के लिए किसी देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही स्थावर भाव (वृक्षादियोनि) को प्राप्ति होते हैं।
आधियेणाधिभवः क्षीयन्ते व्याधयोऽप्यलम् ।
शुद्धया पुण्यया साधो क्रियया साधुसेवया ।।
मनः प्रयाति नैर्मल्यं निक्रषेणेव काञ्चनम् ।
आनन्दो वर्धते देहे शुद्धे चेतसि राघव ।।
सत्वशुद्धया वहन्त्येते क्रमेण प्राणवायवः ।
जरयन्ति तथान्नानि व्याधिस्तेन विनश्यति ।।
—योग वशिष्ठ
अर्थात् वशिष्ठ ने कहा—हे राघव ! पूर्व संचित दुष्कर्मों के क्षीण हो जाने पर आधि-व्याधियां नष्ट हो जाती हैं। श्रेष्ठ कार्यों से और सज्जनों की सेवा से मन उसी प्रकार निर्मल हो जाता है, जैसे कसौटी पर कसा गया सुवर्ण। मन के शुद्ध हो जाने पर आनन्द की प्राप्ति होती है। अन्तःकरण की शुद्धि से प्राण सशक्त होते हैं, जिससे अन्नों का पाचन समुचित रूप से होने लगता है परिणामस्वरूप व्याधियां विनष्ट हो जाती है।
ब्रह्महा नरकस्यान्ते पाण्डुः कुष्ठी प्रजायते
कुष्ठी गोवधकारी................
बालघाती च पुरुषो मृतवत्सः प्रजायते ।
गर्भपातनजा रोगा यकृत्प्लीहा जलोदराः ।।
प्रतिमाभंगकारी च अप्रतिष्ठः प्रजायते ।
विद्यापुस्तकहारी च किल मूकः प्रजायते ।
औषधस्यापहरणे सूयावर्तः प्रजायते ।
—शातातपस्मृति
अर्थात् ब्रह्म हत्या करने वाला नरक भोगने के अन्त में श्वेत कुष्ठी, गौहत्यारा गलितकुष्ठी, बालकों की हत्या करने वाला मृत-संतान वाला, गर्भपात कराने वाला यकृत, तिल्ली एवं जलोदर का रोगी, मूर्ति खण्डित करने वाला अप्रतिष्ठित, विद्या और पुस्तकें चुराने वाला गूंगा, औषधियों को चुराने वाला आधाशीशी का रोगी होता है।
‘तद् य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनि वा वैश्योनि वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् ।’
—छांदोग्य 5-10-7
अर्थात् ‘अच्छे आचरण वाले उत्तम योनि प्राप्त करते हैं और नीच कर्म करने वाले नीच योनियों में जन्मते हैं।’
‘पुण्यो पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन ।’
अर्थात् ‘निश्चय ही यह जीव पुण्य कर्म से पुण्यशील होता है। पुण्य योनि में जन्म पाता है और पाप-कर्म से पापशील होता है, पाप योनि में जन्म ग्रहण करता है।
‘साधुकारी साधुर्भवति पारकारी पापो भवति ।’
अर्थात् ‘अच्छे कर्म करने वाला अच्छा होता है। सुखी एवं सदाचारी कुल में जन्म पाता है और पाप करने वाला पापात्मा होता है, पाप योनि में जन्म ग्रहण करके दुःख उठाता है।’
ऐसा प्रतीत होता है कि दृष्टा ऋषिगण भूत, वर्तमान, भविष्य का भली भांति विश्लेषण कर सकने में समर्थ थे। आरण्यकों में बार-बार यही पाठ पढ़ाये जाते थे तथा इन्हीं सूत्रों का मनन स्वाध्याय होता था ताकि व्यक्ति पाप-प्रतिफल भय से अनीति की ओर उन्मुख न हो। महाभारत ग्रन्थ में रचनाकार ने स्पष्ट कहा है—
जातिमृत्युजरादुःखैः सततं समभिद्रुतः ।
संसारे पच्यमानश्च दोषैरात्मकृतैर्नरः ।।3।।
—महाभारत वनपर्व
अर्थात् ‘‘मनुष्य अपने ही किए हुए अपराधों के कारण जन्म-मृत्यु और जरा सम्बन्धी दुःखों से सदा पीड़ित हो बारम्बार संसार में पचता रहता है।’’
जन्तुस्तुकर्मभिस्तैस्तैः स्वकृतैः प्रत्य दुःखितः ।
तद्दुखप्रतिघताथमपुण्यां योनिमाप्नुते ।।35।।
अर्थात् ‘‘प्रत्येक जीव अपने किए हुए कर्मों से ही मृत्यु के पश्चात् दुःख भोगता है और उस दुःख का भोग करने के लिए ही वह पाप योनि में जन्म लेता है।’’
मरणोत्तर जीवन लोक-परलोक सम्बन्धी ऐसी स्पष्ट व्याख्या किसी धर्मग्रन्थ में नहीं मिलती। यदि व्यक्ति मात्र इतना ही जान लें, इस सत्य को हृदयंगम कर लें तो न कहीं व्याधि रहे, न जरा। दुःख, शोक, भावनात्मक संक्षोभ सभी पापों की ही परिणति हैं जो रोगों का रूप लेती व प्रकट होती रहती हैं।
जलोदरं यकृत् प्लीहा शूलरोगव्रणानि च ।
स्वासाजीर्णज्वरच्छर्दिभ्रमोहनगलग्रहाः ।।
रक्तार्बुद विसर्पाद्मा उपपापोद् भवा गदाः ।
दण्डापता नकश्चित्रवपुः कम्पविचर्चिकाः ।।
वाल्मीकपुण्डरीकाक्षां रोगाः पापसमुद्रभवाः ।
अर्शआद्या नृणां रोगा अतिपापद् भवन्ति हि ।।
—शातातप स्मृति
अर्थात् जलोदर, तिल्ली, यकृत, शूल, व्रण, श्वास, अजीर्ण, ज्वर, जुकाम, भ्रम, मोह, जलग्रह, रक्तार्बुद, विसर्प आदि रोग उप पातकों के कारण होते हैं।
दण्ड पतानक, चित्रवपु, कम्प, विशूचिका, पुण्डरीक आदि रोग सामान्य पापों के कारण होते हैं।
पूर्वजन्म कृतं पापं नरकस्य परिक्षये ।
बाधते व्याधिरूपेण तस्य जप्यादिभिः शमः ।।
कुष्ठञ्च राजयक्ष्मा च प्रमेहो ग्रहणी तथा ।
मूत्रकृच्छ्राश्मराकासा अतीसारभगन्दरौ ।।
दुष्टव्रणं गण्डमाला पक्षाघातोऽक्षिनाशनम् ।
इत्येवमादयो रोगा महापापोदृभवाः स्मताः ।।
—शातातपस्मृति
अर्थात् पूर्व जन्म में किया हुआ पाप नरक के परिक्षय हो जाने पर मनुष्यों को किसी व्याधि के रूप में उत्पन्न होकर सताता है और उसका उपशमन जपादि द्वारा होता है। कुष्ठ, राजयक्ष्मा, प्रमेह, संग्रहणी, मूत्रकृच्छ्र, पथरी, अतिसार, भगन्दर, दुष्टव्रण, गण्डमाला, पक्षाघात और नेत्रहीनता इत्यादि रोग महापातकों के कारण ही होते हैं।
पादन्यासकृतंदुःख कण्टकोत्थंप्रयच्छति ।
तत्प्रभूततरस्थूलशंकुकीलकसम्भवम् ।।25।।
दुःखंयच्छतितद्वच्चशिरोरोगादिदुःसहम् ।
अपथ्याशनशीतोष्णश्रमतापादिकारकम् ।।26।।
—मार्कण्डेय पुराण (कर्मफल)
अर्थात् पैर में कांटा लगने पर तो एक ही जगह पीड़ा होती है पर पाप कर्मों के फल से तो शरीर और मन में निरन्तर शूल उत्पन्न होते रहते हैं।
स्वमलप्रक्षयाद्यद्वदग्नौ धास्यन्ति धावतः ।
तत्र पापक्षयात्पाप नराः कर्मानुरूपतः ।।
—शिव पुराण
अर्थात् धातुओं के मैल को हटाने के लिए जैसे उन्हें तीक्ष्ण अग्नि में रखते हैं, उसी तरह पापी प्राणियों को पाप-नाश के उद्देश्य से ही अपने कर्मों के अनुसार ही नरकों में गिराया जाता है।
शरीर जैः कर्म दोषैर्द्याति स्थावरतां नरः ।
वाचिकैः पक्षि मृगतां मानसै रन्य जातिताम् ।।
इह दुश्चरितैः केचित्केचित् पूर्व कृतैस्तिथा ।
प्राप्नुवन्ति दुरात्मानो करा रूपं विपर्ययम् ।।
अर्थात् ‘‘शारीरिक पाप कर्मों से जड़ योनियों में जन्म होता है। वाणी पापों से पशु-पक्षी बनना पड़ता है। मानसिक दोष करने वाले मनुष्य योनि से बहिष्कृत हो जाते हैं। इस जन्म के अथवा पूर्व जन्म के किये हुए पापों से मनुष्य अपनी स्वाभाविकता खोकर विद्रूप बनते हैं।’’ (मनुस्मृति)
दुष्कृत्यों का फल हरेक को अवश्यम्भावी मिलता है, इस तथ्य को भली भांति हृदयंगम कर लेना चाहिए। किया हुआ कर्म किसी को नहीं छोड़ता। इसका न कभी क्षय होता है, न क्षमादान की कोई व्यवस्था है। किसी न किसी रूप में मनुष्य को इसे भुगतना ही होता है। समय अवश्य लग जाये पर कर्मफल एक अकाट्य एवं सुनिश्चित सत्य है।
नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुञ्चति ।
कर्ताखलु तथा कालं ततः समभिपद्यते ।।
- (महा. शांतिः अ. 298)
अर्थात् ‘‘अधर्म किसी भी कारण की अपेक्षा से कर्त्ता को नहीं छोड़ता, निश्चय रूप से करने वाला समयानुसार किये कर्म के फल को प्राप्त होता है।’’
कृतकर्म क्षयोनास्ति कल्पकोटि शतैरपि ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।।
- (शिव. कोटि रुद्र. अ. 23)
अर्थात् किये हुए कर्म का सौ करोड़ कल्प तक भी क्षय नहीं होता, किया हुआ शुभ तथा अशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पड़ेगा।’’
अवश्यमेव लभते फलं पापस्य कर्मणः ।
भर्तः पर्यागते काले कर्त्ता नोस्त यत्र संशयः ।।
- (वाल्मी. युद्ध. स. 111)
अर्थात् ‘‘पाप कर्म का फल अवश्य ही प्राप्त होता है। हे पते! समय आने पर कर्त्ता फल पाता है इसमें संशय नहीं है।’’
यदा चरति कल्याणि शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।
तदेव लभते भदे कर्त्ता कर्मजमात्मनः ।।
अवश्यं लभते कर्त्ता फलं पापस्य कर्मणः ।
घोरं पर्थ्यागते काले द्रुमः पुष्पामिवार्तपम ।।
- (वाल्मी. अरण्य. स. 29)
अर्थात् हे कल्याणी! जो कुछ भी शुभ-अशुभ करता है, करने वाला वही अपने किये कर्मों के फल को प्राप्त होता है।
करने वाला अपने पाप कर्मों का फल घोर काल आने पर अवश्य प्राप्त करता है। जैसे मौसम आने पर वृक्ष फलों को प्राप्त होते हैं।
यथा धेनु सहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् ।
एवं पूर्व कृतं कर्म कर्त्तारमनुगच्छति ।।
अचौद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च ।
तत्कालं नाति वर्तन्ते तथा कर्म पुराकृतम् ।।
- (महा. अनु. अ. 7)
अर्थात् जैसे हजारों गौ में से बछड़ा अपनी मां को ढूंढ़ लेता है, ऐसे ही पूर्व किया हुआ कर्म कर्त्ता को प्राप्त होता है। बिना प्रेरणा के ही जैसे फूल और फल अपने समय का उल्लंघन नहीं करते, वैसे ही पूर्व में किया हुआ कर्म समय का उल्लंघन नहीं करता।
हर साधक के लिए शास्त्रों का स्पष्ट निर्देश है कि वे पहले अपने कुकृत्यों—ज्ञात एवं अविज्ञात से मुक्ति पायें, स्वयं को हल्का करें। तदुपरानत ही उच्च स्तरीय साधना की बात सोचें। पेट में कब्ज हो तो सभी प्रकार के व्यायाम-आसन, प्राणायाम निरर्थक हैं। इससे पूर्व मल निष्कासन प्रक्रिया अनिवार्य है। ‘कन्फेशन’ प्रक्रिया की तरह यदि वचन कर लिया जाय तो उससे अन्तरात्मा हल्की होती है। तप, तितिक्षा का मार्ग अपनाकर आंतरिक कल्प की संभावनाएं प्रबल बन जाती हैं। इस तथ्य के पीछे किसी भी प्रकार की भ्रांति हो तो उसका साधकों को पहले ही निवारण कर मार्गदर्शक से अपना प्रायश्चित विधान पूछ लेना चाहिए।