Books - आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय
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Language: HINDI
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आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
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इस जीवन के बाद मनुष्य का एक और भी जीवन है जो कि इस जीवन से लाखों करोड़ों गुना लम्बा है। कितने वर्षों, युगों और कल्पों तक वह जीवन चलता है इसका अनुमान सम्भव नहीं है। एक प्रकार से अपनी अपरिमित अवधि के कारण अनन्त और अमर ही कहा जा सकता है। उसे पारलौकिक जीवन कहा गया है।
पारलौकिक जीवन के विश्वास में सन्देह की गुंजाइश अब नहीं रह गई आज का विज्ञान भी मनुष्य रहस्यों को खोजता हुआ, कुछ ऐसे निष्कर्ष पर पहुंच रहा है, जिसमें पारलौकिक जीवन के प्रमाण मिले हैं। किन्तु भारतीय ऋषि मुनियों ने तो अपनी साधना, अपने ज्ञान और अपनी तपस्या के आधार पर इसका बहुत पहले पता लगाकर घोषणा कर दी थी और सारा भारतीय जीवन उसको ही लक्ष्य मानकर, उसको ही दृष्टि में रखकर निर्धारित किया गया है। पारलौकिक जीवन को अदृष्टिगोचर करके लौकिक जीवन नहीं जिया जा सकता और जो ऐसा करते हैं, अनियोजित तथा अबूझ जीवन जीते हैं वे धोखा खाते हैं और अपने उस अनन्तावधि जीवन के लिए कांटे बो लेते हैं।
लौकिक जीवन पारलौकिक जीवन की तैयारी का अवसर है। इसको ही यथार्थ अथवा अन्तिम जीवन मानना भारी भूल है। मनुष्य यहां इस जीवन में कुछ पाप-पुण्य, दुःख-सुख, भलाई-बुराई, स्वार्थ परमार्थ, संचय करता है, वही साथ जाकर उस पारलौकिक जीवन में फलित तथा प्रस्फुटित होता है और उसी के अनुरूप जीव अनन्तकाल तक सुख-दुख अथवा स्वर्ग नरक भोग करता है। वर्तमान जीवन अनागत जीवन की तैयारी का एक अवसर है इस तथ्य को कभी न भूलना चाहिये और उसको सुखद तथा सन्तोषप्रद बनाने के लिये यहीं अभी से तैयारी कर लेनी चाहिये।
जीव का जागतिक जीवन अविश्वसनीय तथा नश्वर है। उसे नष्ट तो होना ही है, पर साथ ही यह पता नहीं कि यह सौ वर्ष तक जायेगा या इसी क्षण अथवा अगले क्षण छूट जायेगा। इस नश्वरता और क्षणिकता के प्रमाण बनकर न जाने कितने ही अकस्मात मरने वाले आंखों और कानों के सामने से गुजरते रहते हैं। सोते हुये खाते और पीते हुए, हंसते और बोलते हुये खेलते और काम करते हुए, न जाने कितने जीवन नित्य ही इहलीला समाप्त कर अपने दीर्घकालीन पारलौकिक जीवन में प्रवेश करने और यहां का लेखा जोखा भोगने के लिये चल देते हैं। बेटा बैठा रहता है, पत्नी खड़ी रहती है, सम्बन्धी देखते रहते हैं, सम्पत्ति और संचय पड़ा रहता है पर आवाज लगते ही पंछी पूरी अधूरी योजनायें, कार्यक्रम, बात-चीत और व्यवहार बर्ताव सब कुछ छोड़कर उड़ जाता है।
अस्तु, इस जीवन का कुछ पता नहीं कि यह किस समय अपनी गति को मति में बदल दे। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि इसकी क्षणभंगुरता को स्वीकार कर तुरंत इसी क्षण से अपने पारलौकिक जीवन की तैयारी में संलग्न हो जाये। जो बिना संबल, संचय किये अनन्त प्रवास में चला जायेगा, उसे अनन्त कष्ट होंगे, यह निश्चय है। वहां यहां जैसी स्वाधीनता और सुविधा नहीं है, जो यहां से न भी ले जायें, वहां बना लेंगे, संचय कर लेंगे। वहां तो यहां साथ लिये पाथेय के बल पर ही अवधि यापन करनी होगी। वहां न सत्कर्म का अवसर मिलेगा और न अपकर्म का। वहां तो केवल यहीं के कर्मों के अनुसार आपको आपका संचय दे दिया जायेगा, जिसके आधार पर फिर चाहे आपको आनन्द भोगना पड़े और चाहे यातनायें।
यहां का संचय किया हुआ वह सम्बल क्या है, जो वहां काम आना है? वह सम्बल है, पुण्य–परमार्थ, निर्मोह और निर्लिप्तता। पुण्य परमार्थ का अर्जन सत्कर्मों और उसके साथ लगी हुई, सद्भावना से होता है। यदि सत्कर्म के साथ सद्भावना का संयोग नहीं है तो उस सत्कर्म का पुण्य परास्त हो जायेगा। एक मनुष्य किसी दुःखी की सहायता करता है पर भावना यह रखता है कि ऐसा करने से यह मनुष्य मुझे अमीर और उदार समझेगा, मेरा आभारी होगा और यथासम्भव मेरी पूजा-प्रतिष्ठा करेगा। समाज में जो देखे, सुनेगा, वह मुझे सम्मान देगा, मेरा आदर करेगा, जिससे समाज में मेरा स्थान बनेगा। बस, उसका सत्कर्म दूषित हो गया, उसका पुण्य ऋणित हो गया, ऐसा सत्कर्म पारलौकिक जीवन में सम्बल बन कर काम न आ सकेगा।
यह पुण्य बन कर सम्बल तब बनेगा, जब सहायता करने के पीछे कोई भाव ही नहीं रहे और यदि रहे तो यह भाव रहे कि अमुक व्यक्ति हमारी तरह ही मनुष्य है। हमारा भाई है। उसकी आवश्यकता, उसकी तकलीफ और उसका कष्ट, हमारा कष्ट है। हमारी मदद पाना उसका नैसर्गिक अधिकार है और सहायता करना हमारा नैतिक कर्त्तव्य है। मेरे पास जो कुछ है, वह सब प्राणी मात्र की धरोहर है, जो सबको उचित प्रकार से मिलनी ही है। मेरा इस पर कोई आभार नहीं, बल्कि इसका ही आभार मुझ पर है, जो मेरी सेवा, मेरी सहायता स्वीकार करने की कृपा कर रहा है। इस प्रकार अधिकार रहित सन्दर्भ ही पारलौकिक जीवन के सम्बल बना करते हैं।
किन्तु यह निरहंकार भावना प्राप्त कैसे हो? इसके लिये भी उपाय करना होगा। और वह उपाय है उपासना। ईश्वर की प्रतीति! सम्पूर्ण आत्म-समर्पण के साथ परमात्मा की उपासना करते-करते जब व्यक्ति के हृदय में उसका प्रकाश आ विराजेगा, तब उसे सारा जड़-चेतनामय संसार परमात्म रूप ही दीखने और अनुभव होने लगेगा। उसका ‘स्व’ सार्वभौम हो जाएगा। ऐसी स्थिति में उसे किसी से पृथकता का अनुभव ही न होगा। स्वयं सहायक सहायतार्थी, सहायता और परिणाम सबका सब ईश्वर रूप ही दिखाई देगा। ऐसी दशा में ऐसे न तो यह पता चलेगा कि वह किसी की सहायता कर रहा है या कोई उससे सहायता पा रहा है।
पारलौकिक जीवन की तैयारी में निर्मोह, निर्लिप्तता अथवा अनासक्ति की साधना भी आवश्यक है। इस असार संसार से माया मोह लेकर जाने वाले उस पार के अपार जीवन में बड़ी सघन यातना के भागीदार बनते हैं। वे माया-मोह के कारण रो-रोक प्राण छोड़ते और तड़प-तड़प कर संसार से विदा होते हैं, वे वहां भी अपनी उस अंतिम स्थिति के अनुसार रोकर और तड़प तड़प कर जीवन बितायेंगे। मनुष्य की अन्तिमान्तिम स्थिति इस बात का स्पष्ट विज्ञापन है कि उसे उस पारलौकिक जीवन में किस का भागी बनना होगा। यदि वह निर्लिप्तावस्था में हंसता-खेलता हुआ गया, तब तो समझना चाहिये कि वहां हंसता-खेलता ही रहेगा और यदि रोता सिसकता हुआ, विदा हुआ तो वहां भी रोता सिसकता ही रहेगा। इसमें दो सम्भावनायें नहीं हो सकतीं।
इस जीवन के दुःखद अन्त का सबसे बड़ा और अमोघ कारण आसक्ति है इसी के कारण सम्बन्धियों के बिछुड़ने पर वियोग जन्य दुःख झेलना पड़ता है। आसक्ति के कारण ही थोड़ी सी असफलता निराशा की घटायें घेर लाती है। आसक्ति के कारण ही जरा सी उपेक्षा प्रतिहिंसा की आग जला देती है और आसक्ति के कारण ही धन वैभव के लिए पाप कर्मों में संलग्न हो जाते हैं। अस्तु आसक्ति ही को सारे दुःखों का मूल कारण मानना और उससे छूटने का उपाय करना चाहिये।
आसक्ति बड़ा भयंकर रोग है, फिर चाहे वह पुत्र पत्नी के प्रति हो, धन दौलत के प्रति हो, सुहृद सहचरों के प्रति हो, देह अथवा अभिरुचियों के प्रति हो। इस रोग से बचकर ही मनुष्य एक निरामय एवं निर्भय जिन्दगी जी सकता है और निःशंक अन्त अपना सकता है।
जिस भय के कारण लोग कायर कुचाली, और का पुरुष बन जाते हैं, उसकी जननी आसक्ति ही है देहासक्ति के कारण ही लोग इस भय से उसके रंजन, मंजन में लगे रहते हैं कि कहीं यह बूढ़ी न हो जाये, कहीं इसकी शक्ति न चली जाय, कहीं भोग वासना के अयोग्य न हो जाये। इसी भय के कारण ही उसे विविध पदार्थों और पट परिधानों की पूजा पगार चढ़ाते रहते हैं। वे पता नहीं, यह क्यों नहीं सोच पाते कि यह नश्वर मिट्टी एक दिन मिट ही जानी है। इस पर कितना ही चन्दन वन्दन क्यों न चढ़ाया जायें, कितनी ही मनौती और मिन्नतें क्यों न की जाये समय पाकर यह बूढ़ी तथा कुरूप हो ही जायेंगी। आवश्यकता से अधिक शरीर को मान्यता देने का कारण यह देहासक्ति ही है।
इस निःसार देहासक्ति के कारण मनुष्य न तो दृढ़तापूर्वक साधना कर पाता है और न नियम-संयम का निर्वाह। अधिक साधने अथवा बाग खींचने से कहीं यह निर्बल न हो जाये—अधिक संयम, नियमों से इसको कष्ट होगा, परमार्थ पथ पर डाल देने से इसके भोग विलास के अधिकार छिन जायेंगे आदि आदि न जाने कितनी कल्पनायें मनुष्य को देहाराधक बना देती हैं।
इस देहासक्ति से मनुष्य की बड़ी गहरी हानि होती है। देह को प्रधानता मिलते ही आत्मा पीछे रह जाती है। आत्मा के गौण होते ही अज्ञान का घना अन्धकार घेर लेता है और तब उस अन्धकार में इस मानव जीवन की जो जो दुर्दशा होती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उसे भय, संशय, सन्देह तथा आशंकाओं की डायनें हर समय सताया करती हैं। ऐषणायें और तृष्णायें उसे एक क्षण भी विश्राम नहीं लेने देतीं। आस्तिकता, आस्था और अनागत भविष्य के सारे दीप बुझ जाते हैं और मनुष्य एक अंधेरा अन्त पाकर अनन्त अंधकार में जाकर युग कल्पों के लिये डूब जाता है।
शरीर और कुछ नहीं एक साधन मात्र है, आत्मा के उद्धार के इस साधन की खोज-खबर रखनी तो चाहिये, पर उसी सीमा तक जहां तक यह साधन रूप में आत्मोद्धार में सहायक हो सके। इसे स्वस्थ तथा सशक्त बनाये रखने के लिये जो भी जरूरी हो करिये पर इसकी इन्द्रिय लिप्सा की जिज्ञासा का कभी भी रंजन न करिये। विषय भोग और आराम, विश्राम जिन्हें यह मांगा करता है, इसके लिये घातक तथा अनावश्यक है। इनकी सुविधा पाकर यह शरीर आलसी, प्रमादी और ढीठ बन जाता है और तब हर उस साधना में आनाकानी करने लगता है, जो आत्मा के उद्धार में आवश्यक होती है। अस्तु देहाभिमान अथवा आसक्ति से सदा सावधान रहकर दूर रहना चाहिये।
देहासक्ति छूटते ही बाकी सारी आसक्तियां आपसे आप छूट जाती हैं। इसका पोषण करते हुए इसको ठीक वैसे ही भूले रहिये, जैसे जीव इसका विसर्जन हो जाने के बाद भूल जाता है। ममता मोह और माया के सारे सम्बन्ध देह तक ही हैं और जिस प्रकार इसके छूट जाने से सम्बन्ध भी टूट जाते हैं, ठीक उसी प्रकार इसका विस्मरण किये रहने में सारी आसक्तियां छूट जायेंगी और तब अन्तिम समय में उनकी अनुभूति भी साथ लगी हुई न जायेगी जीव निर्लिप्त और निर्मोहपूर्वक जाकर अनन्त जीवन को ग्रहण कर लेगा।
मनुष्य का जीवन ही अन्तिम नहीं है, इसके बाद एक दीर्घकालीन जीवन भी है, जिसके यापन में आवश्यक पुण्य का सम्बल इस जीवन में संचय करने के लिए अनासक्ति भाव से कर्म करते हुए, जीवन चलाइये और बाद में मायामोह तथा आसक्ति से निर्बन्ध होकर संसार से यात्रा कीजिये। तभी वहां जाकर दीर्घकालीन सुख, सन्तोष की प्राप्ति होगी।
पारलौकिक जीवन के विश्वास में सन्देह की गुंजाइश अब नहीं रह गई आज का विज्ञान भी मनुष्य रहस्यों को खोजता हुआ, कुछ ऐसे निष्कर्ष पर पहुंच रहा है, जिसमें पारलौकिक जीवन के प्रमाण मिले हैं। किन्तु भारतीय ऋषि मुनियों ने तो अपनी साधना, अपने ज्ञान और अपनी तपस्या के आधार पर इसका बहुत पहले पता लगाकर घोषणा कर दी थी और सारा भारतीय जीवन उसको ही लक्ष्य मानकर, उसको ही दृष्टि में रखकर निर्धारित किया गया है। पारलौकिक जीवन को अदृष्टिगोचर करके लौकिक जीवन नहीं जिया जा सकता और जो ऐसा करते हैं, अनियोजित तथा अबूझ जीवन जीते हैं वे धोखा खाते हैं और अपने उस अनन्तावधि जीवन के लिए कांटे बो लेते हैं।
लौकिक जीवन पारलौकिक जीवन की तैयारी का अवसर है। इसको ही यथार्थ अथवा अन्तिम जीवन मानना भारी भूल है। मनुष्य यहां इस जीवन में कुछ पाप-पुण्य, दुःख-सुख, भलाई-बुराई, स्वार्थ परमार्थ, संचय करता है, वही साथ जाकर उस पारलौकिक जीवन में फलित तथा प्रस्फुटित होता है और उसी के अनुरूप जीव अनन्तकाल तक सुख-दुख अथवा स्वर्ग नरक भोग करता है। वर्तमान जीवन अनागत जीवन की तैयारी का एक अवसर है इस तथ्य को कभी न भूलना चाहिये और उसको सुखद तथा सन्तोषप्रद बनाने के लिये यहीं अभी से तैयारी कर लेनी चाहिये।
जीव का जागतिक जीवन अविश्वसनीय तथा नश्वर है। उसे नष्ट तो होना ही है, पर साथ ही यह पता नहीं कि यह सौ वर्ष तक जायेगा या इसी क्षण अथवा अगले क्षण छूट जायेगा। इस नश्वरता और क्षणिकता के प्रमाण बनकर न जाने कितने ही अकस्मात मरने वाले आंखों और कानों के सामने से गुजरते रहते हैं। सोते हुये खाते और पीते हुए, हंसते और बोलते हुये खेलते और काम करते हुए, न जाने कितने जीवन नित्य ही इहलीला समाप्त कर अपने दीर्घकालीन पारलौकिक जीवन में प्रवेश करने और यहां का लेखा जोखा भोगने के लिये चल देते हैं। बेटा बैठा रहता है, पत्नी खड़ी रहती है, सम्बन्धी देखते रहते हैं, सम्पत्ति और संचय पड़ा रहता है पर आवाज लगते ही पंछी पूरी अधूरी योजनायें, कार्यक्रम, बात-चीत और व्यवहार बर्ताव सब कुछ छोड़कर उड़ जाता है।
अस्तु, इस जीवन का कुछ पता नहीं कि यह किस समय अपनी गति को मति में बदल दे। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि इसकी क्षणभंगुरता को स्वीकार कर तुरंत इसी क्षण से अपने पारलौकिक जीवन की तैयारी में संलग्न हो जाये। जो बिना संबल, संचय किये अनन्त प्रवास में चला जायेगा, उसे अनन्त कष्ट होंगे, यह निश्चय है। वहां यहां जैसी स्वाधीनता और सुविधा नहीं है, जो यहां से न भी ले जायें, वहां बना लेंगे, संचय कर लेंगे। वहां तो यहां साथ लिये पाथेय के बल पर ही अवधि यापन करनी होगी। वहां न सत्कर्म का अवसर मिलेगा और न अपकर्म का। वहां तो केवल यहीं के कर्मों के अनुसार आपको आपका संचय दे दिया जायेगा, जिसके आधार पर फिर चाहे आपको आनन्द भोगना पड़े और चाहे यातनायें।
यहां का संचय किया हुआ वह सम्बल क्या है, जो वहां काम आना है? वह सम्बल है, पुण्य–परमार्थ, निर्मोह और निर्लिप्तता। पुण्य परमार्थ का अर्जन सत्कर्मों और उसके साथ लगी हुई, सद्भावना से होता है। यदि सत्कर्म के साथ सद्भावना का संयोग नहीं है तो उस सत्कर्म का पुण्य परास्त हो जायेगा। एक मनुष्य किसी दुःखी की सहायता करता है पर भावना यह रखता है कि ऐसा करने से यह मनुष्य मुझे अमीर और उदार समझेगा, मेरा आभारी होगा और यथासम्भव मेरी पूजा-प्रतिष्ठा करेगा। समाज में जो देखे, सुनेगा, वह मुझे सम्मान देगा, मेरा आदर करेगा, जिससे समाज में मेरा स्थान बनेगा। बस, उसका सत्कर्म दूषित हो गया, उसका पुण्य ऋणित हो गया, ऐसा सत्कर्म पारलौकिक जीवन में सम्बल बन कर काम न आ सकेगा।
यह पुण्य बन कर सम्बल तब बनेगा, जब सहायता करने के पीछे कोई भाव ही नहीं रहे और यदि रहे तो यह भाव रहे कि अमुक व्यक्ति हमारी तरह ही मनुष्य है। हमारा भाई है। उसकी आवश्यकता, उसकी तकलीफ और उसका कष्ट, हमारा कष्ट है। हमारी मदद पाना उसका नैसर्गिक अधिकार है और सहायता करना हमारा नैतिक कर्त्तव्य है। मेरे पास जो कुछ है, वह सब प्राणी मात्र की धरोहर है, जो सबको उचित प्रकार से मिलनी ही है। मेरा इस पर कोई आभार नहीं, बल्कि इसका ही आभार मुझ पर है, जो मेरी सेवा, मेरी सहायता स्वीकार करने की कृपा कर रहा है। इस प्रकार अधिकार रहित सन्दर्भ ही पारलौकिक जीवन के सम्बल बना करते हैं।
किन्तु यह निरहंकार भावना प्राप्त कैसे हो? इसके लिये भी उपाय करना होगा। और वह उपाय है उपासना। ईश्वर की प्रतीति! सम्पूर्ण आत्म-समर्पण के साथ परमात्मा की उपासना करते-करते जब व्यक्ति के हृदय में उसका प्रकाश आ विराजेगा, तब उसे सारा जड़-चेतनामय संसार परमात्म रूप ही दीखने और अनुभव होने लगेगा। उसका ‘स्व’ सार्वभौम हो जाएगा। ऐसी स्थिति में उसे किसी से पृथकता का अनुभव ही न होगा। स्वयं सहायक सहायतार्थी, सहायता और परिणाम सबका सब ईश्वर रूप ही दिखाई देगा। ऐसी दशा में ऐसे न तो यह पता चलेगा कि वह किसी की सहायता कर रहा है या कोई उससे सहायता पा रहा है।
पारलौकिक जीवन की तैयारी में निर्मोह, निर्लिप्तता अथवा अनासक्ति की साधना भी आवश्यक है। इस असार संसार से माया मोह लेकर जाने वाले उस पार के अपार जीवन में बड़ी सघन यातना के भागीदार बनते हैं। वे माया-मोह के कारण रो-रोक प्राण छोड़ते और तड़प-तड़प कर संसार से विदा होते हैं, वे वहां भी अपनी उस अंतिम स्थिति के अनुसार रोकर और तड़प तड़प कर जीवन बितायेंगे। मनुष्य की अन्तिमान्तिम स्थिति इस बात का स्पष्ट विज्ञापन है कि उसे उस पारलौकिक जीवन में किस का भागी बनना होगा। यदि वह निर्लिप्तावस्था में हंसता-खेलता हुआ गया, तब तो समझना चाहिये कि वहां हंसता-खेलता ही रहेगा और यदि रोता सिसकता हुआ, विदा हुआ तो वहां भी रोता सिसकता ही रहेगा। इसमें दो सम्भावनायें नहीं हो सकतीं।
इस जीवन के दुःखद अन्त का सबसे बड़ा और अमोघ कारण आसक्ति है इसी के कारण सम्बन्धियों के बिछुड़ने पर वियोग जन्य दुःख झेलना पड़ता है। आसक्ति के कारण ही थोड़ी सी असफलता निराशा की घटायें घेर लाती है। आसक्ति के कारण ही जरा सी उपेक्षा प्रतिहिंसा की आग जला देती है और आसक्ति के कारण ही धन वैभव के लिए पाप कर्मों में संलग्न हो जाते हैं। अस्तु आसक्ति ही को सारे दुःखों का मूल कारण मानना और उससे छूटने का उपाय करना चाहिये।
आसक्ति बड़ा भयंकर रोग है, फिर चाहे वह पुत्र पत्नी के प्रति हो, धन दौलत के प्रति हो, सुहृद सहचरों के प्रति हो, देह अथवा अभिरुचियों के प्रति हो। इस रोग से बचकर ही मनुष्य एक निरामय एवं निर्भय जिन्दगी जी सकता है और निःशंक अन्त अपना सकता है।
जिस भय के कारण लोग कायर कुचाली, और का पुरुष बन जाते हैं, उसकी जननी आसक्ति ही है देहासक्ति के कारण ही लोग इस भय से उसके रंजन, मंजन में लगे रहते हैं कि कहीं यह बूढ़ी न हो जाये, कहीं इसकी शक्ति न चली जाय, कहीं भोग वासना के अयोग्य न हो जाये। इसी भय के कारण ही उसे विविध पदार्थों और पट परिधानों की पूजा पगार चढ़ाते रहते हैं। वे पता नहीं, यह क्यों नहीं सोच पाते कि यह नश्वर मिट्टी एक दिन मिट ही जानी है। इस पर कितना ही चन्दन वन्दन क्यों न चढ़ाया जायें, कितनी ही मनौती और मिन्नतें क्यों न की जाये समय पाकर यह बूढ़ी तथा कुरूप हो ही जायेंगी। आवश्यकता से अधिक शरीर को मान्यता देने का कारण यह देहासक्ति ही है।
इस निःसार देहासक्ति के कारण मनुष्य न तो दृढ़तापूर्वक साधना कर पाता है और न नियम-संयम का निर्वाह। अधिक साधने अथवा बाग खींचने से कहीं यह निर्बल न हो जाये—अधिक संयम, नियमों से इसको कष्ट होगा, परमार्थ पथ पर डाल देने से इसके भोग विलास के अधिकार छिन जायेंगे आदि आदि न जाने कितनी कल्पनायें मनुष्य को देहाराधक बना देती हैं।
इस देहासक्ति से मनुष्य की बड़ी गहरी हानि होती है। देह को प्रधानता मिलते ही आत्मा पीछे रह जाती है। आत्मा के गौण होते ही अज्ञान का घना अन्धकार घेर लेता है और तब उस अन्धकार में इस मानव जीवन की जो जो दुर्दशा होती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उसे भय, संशय, सन्देह तथा आशंकाओं की डायनें हर समय सताया करती हैं। ऐषणायें और तृष्णायें उसे एक क्षण भी विश्राम नहीं लेने देतीं। आस्तिकता, आस्था और अनागत भविष्य के सारे दीप बुझ जाते हैं और मनुष्य एक अंधेरा अन्त पाकर अनन्त अंधकार में जाकर युग कल्पों के लिये डूब जाता है।
शरीर और कुछ नहीं एक साधन मात्र है, आत्मा के उद्धार के इस साधन की खोज-खबर रखनी तो चाहिये, पर उसी सीमा तक जहां तक यह साधन रूप में आत्मोद्धार में सहायक हो सके। इसे स्वस्थ तथा सशक्त बनाये रखने के लिये जो भी जरूरी हो करिये पर इसकी इन्द्रिय लिप्सा की जिज्ञासा का कभी भी रंजन न करिये। विषय भोग और आराम, विश्राम जिन्हें यह मांगा करता है, इसके लिये घातक तथा अनावश्यक है। इनकी सुविधा पाकर यह शरीर आलसी, प्रमादी और ढीठ बन जाता है और तब हर उस साधना में आनाकानी करने लगता है, जो आत्मा के उद्धार में आवश्यक होती है। अस्तु देहाभिमान अथवा आसक्ति से सदा सावधान रहकर दूर रहना चाहिये।
देहासक्ति छूटते ही बाकी सारी आसक्तियां आपसे आप छूट जाती हैं। इसका पोषण करते हुए इसको ठीक वैसे ही भूले रहिये, जैसे जीव इसका विसर्जन हो जाने के बाद भूल जाता है। ममता मोह और माया के सारे सम्बन्ध देह तक ही हैं और जिस प्रकार इसके छूट जाने से सम्बन्ध भी टूट जाते हैं, ठीक उसी प्रकार इसका विस्मरण किये रहने में सारी आसक्तियां छूट जायेंगी और तब अन्तिम समय में उनकी अनुभूति भी साथ लगी हुई न जायेगी जीव निर्लिप्त और निर्मोहपूर्वक जाकर अनन्त जीवन को ग्रहण कर लेगा।
मनुष्य का जीवन ही अन्तिम नहीं है, इसके बाद एक दीर्घकालीन जीवन भी है, जिसके यापन में आवश्यक पुण्य का सम्बल इस जीवन में संचय करने के लिए अनासक्ति भाव से कर्म करते हुए, जीवन चलाइये और बाद में मायामोह तथा आसक्ति से निर्बन्ध होकर संसार से यात्रा कीजिये। तभी वहां जाकर दीर्घकालीन सुख, सन्तोष की प्राप्ति होगी।